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तथागत ने भिक्षुओं को सम्बोधित किया—'भिक्षुओ ! नहाते हुए भिक्षु को वृक्ष से शरीर को न रगड़ना चाहिए, जो रगड़े उसको 'दुष्कृत' की आपत्ति है।'
उस समय षड्वर्गीय भिक्षु नहाते समय खम्भे से शरीर को भी रगड़ते थे। बुद्ध ने कहा—'भिक्षुओ ! नहाते समय भिक्षु को खम्भे से शरीर को न रगड़ना चाहिए, जो रगड़े उसको दुक्कड (दुष्कृत) की आपत्ति है।८६ छाता-जूता ___ विनय-पिटक में जूते, खड़ाऊ, पादुका प्रभृति विधि-निषेधों के सम्बन्ध में चर्चाएं हैं। उस समय षड्वर्गीय भिक्षु जूता धारण करते थे। वे जब जूता धारण कर गांव में प्रवेश करते, तो लोग हैरान होते थे। जैसे काम-भोगी गृहस्थ हों। बुद्ध ने कहा भिक्षुओ ! जूता पहने गांव में प्रवेश नहीं करना चाहिए। जो प्रवेश करता है, उसे दुक्कड दोष है।
किसी समय एक भिक्षु रुग्ण हो गया। वह बिना जूता धारण किये गांव में प्रवेश नहीं कर सकता था। उसे देख बुद्ध ने कहा भिक्षुओ ! मैं अनुमति देता हूं बीमार भिक्षु को जूता पहन कर गांव में प्रवेश करने की। जो भिक्षु पूर्ण निरोग होने पर भी छाता धारण करता है, उसे तथागत बुद्ध ने पाचित्तिय कहा है।
इस तरह बुद्ध ने छाता और जूते धारण करने के सम्बन्ध में विधि और निषेध दोनों बताये हैं।
दीघनिकाय में तथागत बुद्ध ने भिक्षुओं के लिए माला, गंध-विलेपन, उबटन तथा सजने-सजाने का निषेध किया है।
___मनुस्मृति,२ श्रीमद्भागवत आदि में ब्रह्मचारी के लिए गंध, माल्य, उबटन, अंजन, जूते और छत्र धारण का निषेध किया है। भागवत में वानप्रस्थ के लिए दातुन करने का भी निषेध है।४।
इस प्रकार हम देखते हैं कि जैन, बौद्ध और वैदिक तीनों परम्पराओं ने श्रमण और संन्यासी के लिए कष्ट सहन करने का विधान एवं शरीर-परिकर्म का निषेध किया है। यह सत्य है कि ब्राह्मण परम्परा ने शरीर-शुद्धि पर बल दिया तो जैन परम्परा ने आत्म-शुद्धि पर बल दिया। यहां पर सहज जिज्ञासा हो सकती है कि आयुर्वेदिक ग्रन्थों में जो बातें स्वास्थ्य के लिए आवश्यक मानी हैं उन्हें शास्त्रकार ने अनाचार क्यों कहा है ? समाधान है कि श्रमण शरीर से भी आत्म-शुद्धि पर अधिक बल दे। स्वास्थ्यरक्षा से पहले आत्म-रक्षा आवश्यक है "अप्पा हु खलु सययं
८६. विनयपिटक, पृ. ४१८ ८७. विनयपिटक, पृ. २०४-२०८ ८८. विनयपिटक, पृ. २११
९. विनयपिटक, पृ. २११ ९०. विनयपिटक, पृ. ५७ ९१. दीघनिकाय, पृ. ३ ९२. मनुस्मृति २/१७७-१७९ ९३. अञ्जनाभ्यञ्जनोन्मर्दस्त्र्यवलेखामिषं मधु ।
• सुगन्धलेपालंकारांस्त्यजेयुर्ये धृतव्रताः ॥ ९४. केशरोमनखश्मश्रुमलानि विभृयादतः ।
न धावेदप्सु मज्जेत त्रिकालं स्थण्डिलेशयः ॥
-भागवत ७/१२/१२
-भागवत ११/१८/३
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