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परित्यक्त भोगों को पुनः ग्रहण नहीं करता है। विषवन्त जातक में इसी प्रकार का एक प्रसंग आया है— सर्प आग में प्रविष्ट हो जाता है किन्तु एक बार छोड़े हुए विष को पुनः ग्रहण नहीं करता ।" इस अध्ययन में भगवान् अर्हत् अष्टमि के भ्राता रथनेमि का प्रसंग है जो गुफा में ध्यानमुद्रा में अवस्थित हैं, उसी गुफा में वर्षा से भीगी हुई राजमती अपने भीगे हुए वस्त्रों को सुखाने लगी, राजीमती के अंग-प्रत्यंगों को निहार कर रथनेमि के भाव कलुषित हो गये। राजीमती ने कामविह्वल रथनेमि को सुभाषित वचनों से संयम में सुस्थिर कर दिया । नियुक्तिकार का अभिमत है कि द्वितीय अध्ययन की विषय-सामग्री प्रत्याख्यानपूर्व की तृतीयं वस्तु से ली गई है।
आचार और अनाचार
तृतीय अध्ययन क्षुल्लक आचार का निरूपण है। जिस साधक में धृति का अभाव होता है वह आचार के महत्त्व को नहीं समझता, वह आचार को विस्मृत कर अनाचार की ओर कदम बढ़ाता है। जो आचार, मोक्ष - साधना के लिए उपयोगी है, जिस आचार में अहिंसा का प्राधान्य है, वह सही दृष्टि से आचार है और जिसमें इनका अभाव है वह अनाचार है। आचार के पालन से संयम-साधना में सुस्थिरता आती है। आचारदर्शन मानव को परम शुभ प्राप्त करने का मार्ग प्रशस्त करता है। कौनसा आचरण औचित्यपूर्ण है और कौनसा अनौचित्यपूर्ण है, इसका निर्णय विवेकी साधक अपनी बुद्धि की तराजू पर तौल कर करता है। जी प्रतिषिद्ध कर्म, प्रत्याख्यातव्य कर्म या अनाचीर्ण कर्म हैं, उनका वह परित्याग करता है। ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप और वीर्य जो आचरणीय हैं उन्हें वह ग्रहण करता है। आचार, धर्म या कर्त्तव्य है, अनाचार अधर्म या अकर्तव्य है । प्रस्तुत अध्ययन में अनाचीर्ण कर्म कहे गये हैं। अनाचीर्णों का निषेध कर आचार या चर्या का प्रतिपादन किया गया है। इसलिए इस अध्ययन का नाम आचारकथा है । दशवैकालिक के छठे अध्ययन में 'महाचार - कथा' का निरूपण है। उस अध्ययन में विस्तार के साथ आचार पर चिन्तन किया गया है तो इस अध्ययन में उस अध्ययन की अपेक्षा संक्षिप्त में आचार का निरूपण है । इसलिए इस अध्ययन का नाम 'क्षुल्लकाचारकथा' दिया गया है ।२
प्रस्तुत अध्ययन में अनाचारों की संख्या का उल्लेख नहीं हुआ है और न अगस्त्यसिंह स्थविर ने अपनी चूर्णि और न जिनदासगणी महत्तर ने अपनी चूर्णि में संख्या का निर्देश किया है। समयसुन्दर ने दीपिका में अनाचारों की ५४ संख्या का निर्देश किया है।८३ यद्यपि अगस्त्यसिंह स्थविर ने संख्या का उल्लेख नहीं किया है तो भी उनके अनुसार अनाचारों की संख्या ५२ है, पर दोनों में अन्तर यह है कि अगस्त्यसिंह ने राजपिण्ड और किमिच्छक को व सैन्धव और लवण को पृथक्-पृथक् न मानकर एक-एक माना है। जिनदासगणी ने राजपिण्ड और किमिच्छक को एक न मानकर अलग-अलग माना है तथा सैन्धव और लवण को एवं गात्राभ्यंग और विभूषण को एक-एक माना वैकालिक के टीकाकार आचार्य हरिभद्र ने तथा सुमति साधु सूरि ने अनाचारों की संख्या ५३ मानी है, उन्होंने
है।
८०. धिरत्थु तं विसं वन्तं, यमहं जीवितकारणा । वन्तं पच्चावमिस्सामि, मतम्मे जीविता वरं ॥ ८१. सच्चप्पवायपुव्वा निज्जूढा होइ वक्कसुद्धी उ । अवसेसा निज्जूढा नवमस्स उतइयवत्थूओ ॥ ८२. एएसि महंताणं पडिवक्खे खुड्डया होंति ।
८३. सर्वमेतत् पूर्वोक्तचतुःपञ्चाशद्भेदभिन्नमौद्देशिकतादिकं यदनन्तरमुक्तं तत् सर्वमनाचरितं ज्ञातव्यम् ।
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- जातक, प्रथम खण्ड, पृ. ४०४ .
— नियुक्ति गाथा १७ — नियुक्ति गाथा १७८
- दीपिका (दशवैकालिक), पृ. ७