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राजपिण्ड और किमिच्छ्क को एक तथा सैन्धव और लवण को पृथक्-पृथक् माना है। इस प्रकार अनाचारों की संख्या ५४, ५३ और ५२ प्राप्त होती है। संख्या में भेद होने पर भी तात्त्विक दृष्टि से कोई भेद नहीं है। अनाचारों का निरूपण संक्षेप में भी किया जा सकता है, जैसे सभी सचित्त वस्तुओं का परिहार एक माना जाए तो अनेक अनाचार स्वतः कम हो सकते हैं। जो बातें श्रमणों के लिए वर्ज्य हैं वस्तुतः वे सभी अनाचार हैं। प्रस्तुत अध्ययन में बहुत से अनाचारों का उल्लेख नहीं है किन्तु अन्य आगमों में उन अनाचारों का उल्लेख हुआ हैं। भले ही वे बातें अनाचार के नाम से उल्लिखित न की गई हों, किन्तु वे बातें जो श्रमण के लिए त्याज्य हैं, अनाचार ही हैं। यहां एक बा ध्यान रखना होगा कि कितने ही नियम उत्सर्गमार्ग में अनाचार हैं, पर अपवादमार्ग में वे अनाचार नहीं रहते, पर जो कार्य पापयुक्त हैं, जिनका हिंसा से साक्षात् सम्बन्ध हैं, वे कार्य प्रत्येक परिस्थिति में अनाचीर्ण ही हैं। जैसेसचित्तभोजन, रात्रिभोजन आदि। जो नियम संयम साधना की विशेष विशुद्धि के लिए बनाए हुए हैं, वे नियम अपवाद में अनाचीर्ण नहीं रहते । ब्रह्मचर्य की दृष्टि से गृहस्थ के घर पर बैठने का निषेध किया गया है। पर श्रमण रुग्ण हो, वृद्ध या तपस्वी हो तो वह विशेष परिस्थिति में बैठ सकता है। उसमें न तो ब्रह्मचर्य के प्रति शंका उत्पन्न होती है और न अन्य किसी भी प्रकार की विराधना की ही संभावना है। इसलिए वह अनाचार नहीं है । ४ जो कार्य सौन्दर्य की दृष्टि से शोभा या गौरव की दृष्टि से किए जायें वे अनाचार हैं पर वे कार्य भी रुग्णावस्था आदि विशेष परिस्थिति में किये जायें तो अनाचार नहीं हैं। उदाहरण के रूप में नेत्र रोग होने पर अंजन आदि का उपयोग। कितने ही अनाचारों के सेवन में प्रत्यक्ष हिंसा है, कितने ही अनाचारों के सेवन से वे हिंसा के निमित्त बनते हैं और कितने ही अनाचारों के सेवन में हिंसा का अनुमोदन होता है, कितने ही कार्य स्वयं में दोषपूर्ण नहीं है किन्तु बाद में वे कार्य शिथिलाचार के हेतु बन सकते हैं, अत: उनका निषेध किया गया है। इस प्रकार अनेक हेतु अनाचार के सेवन में रहे हुए हैं।
जैन परम्परा में जो आचारसंहिता है, उसके पीछे अहिंसा, अपरिग्रह और ब्रह्मचर्य का दृष्टिकोण प्रधान है। अन्य भारतीय परम्पराओं ने भी न्यूनाधिक रूप से उसे स्वीकार किया है।
स्नान
तथागत बुद्ध ने पन्द्रह दिन से पहले जो भिक्षु स्नान करता है उसे प्रायश्चित्त का अधिकारी माना है। यदि कोई भिक्षु विशेष परिस्थिति में पन्द्रह दिन से पहले नहाता है तो पाचित्तिय है। विशेष परिस्थिति यह है— ग्रीष्म के पीछे के डेढ़ मास और वर्षा का प्रथम मास, यह ढाई मास और गर्मी का समय, जलन होने का समय, रोग का समय काम (लीपने-पोतने आदि का समय) रास्ता चलने का समय तथा आंधी-पानी का समय ५
भगवान् महावीर की भांति तथागत बुद्ध की आचारसंहिता कठोर नहीं थी । कठोरता के अभाव में भिक्षु स्वच्छन्दता से नियमों का भंग करने लगे, तब बुद्ध ने स्नान के सम्बन्ध में अनेक नियम बनाये ।
एक बार तथागत बुद्ध राजगृह में विचरण कर रहे थे। उस समय षड्वर्गीय भिक्षु नहाते हुए शरीर को वृक्ष से रगड़ते थे। जंघा, बाहु, छाती और पेट को भी। जब भिक्षुओं को इस प्रकार कार्य करते हुए देखते तो लोग खिन्न होते, धिक्कारते।
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तिण्हमन्नयरागस्स निसेज्जा जस्स कप्पइ । जराए अभिभूयस्स वाहियस्स तवस्सिणो ॥ ८५. विनयपिटक, पृ. २७, अनु. राहुल सांकृत्यायन, प्र. महाबोधि सभा, सारनाथ (बनारस)
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— दशवैकालिक ६/५९