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इस प्रकार भारतीय मनीषियों ने धर्म की विविध दृष्टियों से व्याख्या की है, तथापि उनकी यह विशेषता रही है कि उन्होंने किसी एकांगी परिभाषा पर ही बल नहीं दिया, किन्तु धर्म के विविध पक्षों को उभारते हुए उनमें समन्वय की अन्वेषणा की है। यही कारण है कि प्रत्येक परम्परा में धर्म की विविध व्याख्याएं मिलती हैं। दशवैकालिक में धर्म की सटीक परिभाषा दी गई है—अहिंसा, संयम और तप ही धर्म है। वही धर्म उत्कृष्ट मंगल रूप में परिभाषित किया गया है। वह धर्म विश्व-कल्याणकारक है। इस प्रकार लोक-मंगल की साधना में व्यक्ति के दायित्व की व्याख्या यहां पर की गई है। जिसका मन धर्म में रमा रहता है, उसके चरणों में ऐश्वर्यशाली देव भी नमन करते हैं।
___ धर्म की परिभाषा के पश्चात् अहिंसक श्रमण को किस प्रकार आहार-ग्रहण करना चाहिए, इसके लिए 'मधुकर' का रूपक देकर यह बताया है कि जैसे मधुकर पुष्पों से रस ग्रहण करता है वैसे ही श्रमणों को गृहस्थों के यहां से प्रासुक आहार-जल ग्रहण करना चाहिए। मधुकर फूलों को बिना म्लान किए थोड़ा-थोड़ा रस पीता है, जिससे उसकी उदरपूर्ति हो जाए। मधुकर दूसरे दिन के लिए संग्रह नहीं करता, वैसे ही श्रमण संयमनिर्वाह के लिए जितना आवश्यक हो उतना ग्रहण करता है, किन्तु संचय नहीं करता। मधुकर विविध फूलों से रस ग्रहण करता है, वैसे ही श्रमण विविध स्थानों से शिक्षा लेता है। इस प्रकार प्रस्तुत अध्ययन में अहिंसा और उसके प्रयोग का निर्देश किया गया है।
भ्रमर की उपमा जिस प्रकार दशवैकालिक में श्रमण के लिए दी गई है, उसी प्रकार बौद्ध साहित्य में भी यह उपमा प्राप्त है और वैदिक परम्परा के ग्रन्थों में भी इस उपमा का उपयोग हुआ है।
संयम में श्रम करने वाला साधक श्रमण की अभिधा से अभिहित है। श्रमण का भाव श्रमणत्व या श्रामण्य कहलाता है। बिना धति के श्रामण्य नहीं होता, धति पर ही श्रामण्य का भव्य प्रासाद अवलम्बित है। जो धृतिमान होता है, वही कामराग का निवारण करता है। यदि अन्तर्मानस में कामभावनाएं अंगड़ाइयां ले रही हैं, विकारों के सर्प फन फैलाकर फूत्कारें मार रहे हैं, तो वहां श्रमणत्व नहीं रह सकता। रथनेमि की तरह जिसका मन विकारी है और विषयसेवन के लिए ललक रहा है वह केवल द्रव्यसाधु है, भावसाधु नहीं। इस प्रकार के श्रमण भर्त्सना के योग्य हैं। जब रथनेमि भटकते हैं और भोग की अभ्यर्थना करते हैं तो राजीमती संयम में स्थिर करने हेतु उन्हें धिक्कारती है। काम और श्रामण्य का परस्पर विरोध है, जहां काम है, वहां श्रामण्य का अभाव है। त्यागी वह कहलाता है जो स्वेच्छा से भोगों का परित्याग करता है। जो परवशता से भोगों का त्याग करता है, उसमें वैराग्य का अभाव होता है, वहां विवशता है, त्याग की उत्कट भावना नहीं। प्रस्तुत अध्ययन में कहा गया है जीवन वह है जो विकारों से मुक्त हो। यदि विकारों का धुंआ छोड़ते हुए अर्ध-दग्ध कण्डे की तरह जीवन जीया जाए तो उस जीवन से तो मरना ही श्रेयस्कर है। एक क्षण भी जीओ-प्रकाश करते हुए जीओ किन्तु चिरकाल तक धुंआ छोड़ते हुए जीना उचित नहीं। अगन्धन जाति का सर्प प्राण गंवा देना पसन्द करेगा किन्तु परित्यक्त विष को पुनः ग्रहण नहीं करेगा। वैसे ही श्रमण
७७. (क) दशवैकालिक १/१
(ख) योगशास्त्र ४/१०० ७८. धम्मपद ४/६ ७९. यथामधु समादत्ते रक्षन् पुष्पाणि षट्पदः ।
तद्वदर्थान् मनुष्येभ्यं आदद्याद् अविहिंसया ॥
-महाभारत, उद्योग पर्व, ३४/१७
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