Book Title: Uvavaiya Sutra
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उववाइय सुत्त (औपपातिक सूत्र) (मूल पाठ, कठिन शब्दार्थ, भावार्थ एवं विवेचन सहित) प्रकाशक श्री अखिल भारतीय सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ, जोधपुर शाखा-नेहरू गेट बाहर, ब्यावर For Personal & Private Use Only Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ TITIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIII IIIIIIIII44141414 श्री अखिल भारतीय सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ साहित्य रत्न माला का ६२ वा रत्न उववाइय सूत्र (औपपातिक सूत्र) (शुद्ध मूल पाठ, कठिन शब्दार्थ, भावार्थ एवं विवेचन सहित) -प्रकाशकश्री अखिल भारतीय सुधर्म जैन ....... संस्कृति रक्षक संघ, जोधपुर शाखा-नेहरू गेट बाहर, ब्यावर-३०५१०१ 2 (०१४६२) २५१२१६, २५७६६६ फेक्स नं. २५०३२८ HIMLA For Personal & Private Use Only Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ITANIURBIRPURIllutiliti1000RRRRRRRRONLOD MITARA wwwwwwwwwww0000000NNNNNNNNNNN HAL द्रव्य सहायक सुश्राविका श्रीमती मंगलाबहन जशवंतलाल शाह, मुम्बई प्राप्ति स्थान १. श्री अ. भा. सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ, सिटी पुलिस, जोधपुर , २६२६१४५ २. शाखा-अ. भा. सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ, नेहरू गेट बाहर, ब्यावर २५१२१६ ३. महाराष्ट्र शाखा-माणके कंपाउंड, दूसरी मंजिल आंबेडकर पुतले के बाजू में, मनमाड़ ४. श्री जशवन्तभाई शाह एदुन बिल्डिंग पहली धोबी तलावलेन पो० बॉ० नं० २२१७, बम्बई-२ ५. श्रीमान् हस्तीमल जी किशनलालजी जैन प्रीतम हाऊ० कॉ० सोसा० ब्लॉक नं० १०. __ स्टेट बैंक के सामने, मालेगांव (नासिक) ६. श्री एच. आर. डोशी जी-३६ बस्ती नारनौल अजमेरी गेट, दिल्ली-६, २३२३३५२१ ७. श्री अशोकजी एस. छाजेड़, १२१ महावीर क्लॉथ मार्केट, अहमदाबाद ८. श्री सुधर्म सेवा समिति भगवान् महावीर मार्ग, बुलडाणा ६. श्री श्रुतज्ञान स्वाध्याय समिति सांगानेरी गेट, भीलवाड़ा १०. श्री सुधर्म जैन आराधना भवन २४ ग्रीन पार्क कॉलोनी साउथ तुकोगंज, इन्दौर ११. श्री विद्या प्रकाशन मन्दिर, ट्रांसपोर्ट नगर, मेरठ (उ. प्र.) १२. श्री अमरचन्दजी छाजेड़, १०३ वाल टेक्स रोड़, चैन्नई २५३५७७७५ १३. श्री संतोषकुमार बोथरावर्द्धमान स्वर्ण अलंकार ३६४, शांपिग सेन्टर, कोटा २३६०९५० मूल्य : २५-०० | द्वितीय आवृत्ति वीर संवत् २५३१ १००० विक्रम संवत् २०६१ अप्रेल २००५ मुद्रक - स्वास्तिक प्रिन्टर्स प्रेम भवन हाथी भाटा, अजमेर , २४२३२९५ . MiamiN RIMINARENT For Personal & Private Use Only Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निवेदन ___ जैन धर्म के मूर्धन्य मनीषियों ने जैन आगम साहित्य को समय-समय पर अलग-अलग रूप से वर्गीकृत किया है। नंदी सूत्र के रचयिता आचार्य देववाचक जी ने सम्पूर्ण जैन आगम साहित्य को दो भागों-अंग प्रविष्ट और अंग बाह्य में विभक्त किया है। जबकि समवायाङ्ग सूत्र में इसे चौदह पूर्व एवं बारह अंग सूत्र में प्ररूपित किया है। वर्तमान में यही आगम साहित्य चार भागों में अंग, उपांग, मूल और छेद के रूप में प्रसिद्ध है। अंग सूत्रों में आचाराङ्गादि बारह सूत्रों का समावेश है। जिसमें वर्तमान में बारहवाँ दृष्टिवाद सूत्र का विच्छेद हो जाने से उपलब्ध नहीं है। शेष ग्यारह अंग, बारह उपांग, चार मूल और चार छेद रूप आगम श्रुतज्ञान रसिक साधकों के लिए उपलब्ध है। ___औपपातिक सूत्र प्रथम उपांग सूत्र है। यद्यपि प्राचीनता एवं द्रव्यानुयोग की दृष्टि से प्रज्ञापना सूत्र विशेष महत्त्व रखता है। फिर भी औपपातिक सूत्र का उपांग सूत्रों में प्रथम स्थान होना अपने आप में अनेक मौलिक विशेषताओं का कारण है। जिसे आगे चर्चित किया गया है। प्रस्तुत सूत्र में दो विभाग है। प्रथम समवसरण दूसरा उपपात विभाग। चूंकि इस आगम (सूत्र) के दूसरे विभाग में जीवों के उपपात सम्बन्धी विस्तृत चर्चा है। इसी कारण इस सूत्र का नाम औपपातिक सूत्र रखा जाना संभव है। इस आगम की सबसे बड़ी विशेषता यह रही कि इसमें जिन-जिन विषयों निरूपण किया गया उनका पूर्ण विस्तार के साथ प्रतिपादन किया गया है। यही कारण रहा कि भगवती आदि अंग सूत्रों में जहाँ भी ये विषय आए वहाँ इनका संक्षिप्त कथन करके विशेष जानकारी के लिए इस सूत्र की भलावन दे दी गई। __ जिस प्रकार बगीचा विभिन्न प्रकार के रंग बिरगें, फूलों की महक से सुशोभित होता है। उसी प्रकार प्रस्तुत सूत्र भी अनेक विषयों के विशद वर्णन से सुशोभित है। इसमें जहाँ एक ओर उस समय की प्रचलित सामाजिक, राजनैतिक, आर्थिक स्थिति, आचार विचार, रीति रिवाज, वास्तुकला आदि का जीवन्त दिग्दर्शन किया गया है, तो दूसरी ओर उस समय की धार्मिक और दार्शनिक स्थिति का भी बहुत सुन्दर चित्रण किया गया है। चम्पानगरी की बसावट वहाँ के निवासियों की रिद्धि-सम्पदा, धार्मिक वृत्ति, आचार विचार, नगरी के बाहर उत्तर पूर्व दिशा भाग में-ईशान कोण में पूर्णभद्र नामक चैत्य (यक्षायतन) जो चारों ओर से विशाल वनखण्ड से घिरा हुआ। जिसके ठीक बीचोबीच एक विशाल एवं सुन्दर अशोक वृक्ष तथा उस अशोक वृक्ष के नीचे नीलमणी रंग का चबूतरे के सदृश शिलापट्टक जो मनोरम, दर्शनीय, अभिरूप आदि का हूबहू चित्रण किया है। साथ ही उस नगरी के राजा कोणिक, उसके राज्य दरबार, शासन व्यवस्था आदि का विस्तृत वर्णन किया गया है। कोणिक सम्राट की शासन व्यवस्था के वर्णन के साथ उसकी प्रभु महावीर के प्रति अनन्य भक्ति का दिग्दर्शन किया गया है। उसने प्रभु महावीर की दैनिक विहार-चर्या की जानकारी रखने के लिए अनेक कर्मचारियों से युक्त एक अलग से महकमा स्थापित कर रखा था। जो उन्हें प्रभु For Personal & Private Use Only Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [4] ...................++++++++++++000000........................ महावीर प्रभु की दिन चर्या से अवगत कराते रहते थे। वैसे अनेक राजा-महाराजा प्रभु के प्रति अनन्य श्रद्धा भक्ति रखते थे। इतना ही नहीं आठ राजाओं ने तो प्रभु के चरणों में भागवती दीक्षा भी अंगीकार की। परन्तु कोणिक सम्राट द्वारा प्रभु महावीर की दैनिक विहार चर्या की जानकारी रखना अपने आप में एक बड़ी विशेषता रही। ___ प्रभु महावीर की शरीर सम्पदा का जितना विशद विवेचन प्रस्तुत सूत्र में मिलता है। वैसा विस्तृत वर्णन अन्य किसी आगम साहित्य में नहीं है। इसके साथ प्रभु महावीर के गुण सम्पन्न शिष्य समुदाय के साधक कैसे तेजस्वी, वर्चस्वी, यशस्वी, तपस्वी, ज्ञानी ध्यानी अनेक लब्धियों के धारक थे उसका भी सजीव वर्णन इसमें किया गया है। प्रभु महावीर का अपने शिष्य समुदाय के साथ चम्पानगरी में पधारना, कोणिक राजा को संदेशवाहक द्वारा सूचना मिलना, राजा द्वारा परोक्ष वंदना करना, देवों का आगमन, समवसरण की रचना, कोणिक राजा का सपरिवार प्रभु वंदना के लिए जाना, प्रभु द्वारा धर्मदेशना देना जिसमें श्रमणाचार और श्रावकाचार के सम्पूर्ण आचार मार्ग का प्ररूपण होना, परिषद् का विसर्जन आदि का । विशद् वर्णन प्रस्तुत सूत्र में किया गया है। यहाँ तक प्रथम समवसरण अध्ययन का निरूपण है। इसके पश्चात् दूसरे अध्ययन उपपात की शुरूआत है। जहाँ गणधर इन्द्रभूति परिषद् विसर्जन के बाद जीवों के उपपात सम्बन्धी अपनी अनेक जिज्ञासाएं प्रभु के चरणों में निवेदन की कि हे भगवन् ! जीवों के पाप कर्म का अनुबन्ध कैसे होता है.? किस प्रकार के आचार-विचार से जीव मरकर किस-किस योनि में उत्पन्न होते हैं ? उपपात के सम्बन्ध में गणधर गौतम ने बाल अज्ञानी, संकिलष्ट परिणामी, भद्र परिणामी, विभिन्न वानप्रस्थ तापसों, परिव्राजकों, प्रत्यनीकों, निह्नवों, आजीवक मत वालों, संज्ञी पंञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च योनि जीवों, अल्प आरम्भी मनष्यों, अनारम्भी श्रमणों आदि के बारे में प्रभ से पृच्छा की, जिसका प्रभ ने विशद समाधान फरमाया। इसके अलावा अम्बड परिव्राजक उसकी वीर्य लब्धि. वैक्रिय लब्धि, अवधिज्ञान उसके सात सौ शिष्यों, उनके द्वारा बिना आज्ञा पानी ग्रहण नहीं करने, सभी के द्वारा संथारा ग्रहण करने, उनके उपपात की विस्तृत चर्चा उस सूत्र में की गई है। साथ ही केवली समुद्घात करने के कारण, उसका स्वरूप, सिद्धों का स्वरूप, इनका परिवास, सिद्ध-शिला के विभिन्न नाम एवं उनके स्वरूप का विस्तृत सजीव दिग्दर्शन प्रस्तुत सूत्र में किया गया है। निष्कर्षतः प्रस्तुत सूत्र अपने आप में बहुत ही महत्त्वपूर्ण सामग्री संजोए है। नगर, चैत्य, राजा, रानियाँ, प्रभु की शरीर सम्पदा, शिष्य वर्ग की विशेषताएं, समवसरण की रचना, धर्म देशना, उपपात आदि का जो जीवत्व चित्रण प्रस्तुत आगम में है। वह अन्य आगमों के लिए आधार भूत है। विषय वस्तु के साथ इसकी भाषा सरल एवं रोचक है ताकि सामान्य पाठक भी इसे आसानी से समझ सके। सामान्य जानकारी के लिए भी प्रस्तुत सूत्र बहुत उपयोगी है। ___संघ द्वारा इस सूत्र का प्रकाशन सन् १९६३ में यानी लगभग ३५ वर्ष पूर्व हुआ था। जिसका अनुवाद आत्मार्थी पण्डित मुनि श्री उमेशमुनि जी म. सा. "अणु" ने किया था। जिसमें मूल पाठ For Personal & Private Use Only Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [5] के साथ संक्षिप्त हिन्दी अनुवाद था। जो काफी समय से अनुपलब्ध था। अब इस सूत्र को संघ द्वारा प्रकाशित भगवती सूत्र की शैली (Patterm) पर तैयार किया गया है। मूल पाठ, कठिन शब्दार्थ, भावार्थ तथा आवश्यकतानुसार स्थान-स्थान पर विवेचन भी दिया गया है। ___ इस सूत्र की प्रेस काफी सुश्रावक श्री पारसमल जी सा. चण्डालिया ने तैयार की। जिसे आदरणीय मुमुक्षु आत्मा श्री धनराजजी बडेरा (वर्तमान में धर्मेश मुनि) एवं सेवाभावी सुश्रावक श्री हीराचन्द जी सा. पीचा ने पूज्य "वीरपुत्र जी" म. सा. को सुनाया। पूज्य श्री ने जहाँ उचित समझा संशोधन बताया वह किया। इसके पश्चात् पुनः इसे श्रीमान् पारसमल जी सा. चण्डालिया एवं मेरे द्वारा अवलोकन किया गया। इस प्रकार इस सूत्र को तैयार करने में पूर्ण सर्तकता एवं सावधानी बरती गई है। बावजूद इसके आगम ज्ञान की अल्पता, मुद्रण दोष से कोई त्रुटि रह गई हो तो तत्त्वज्ञ आगम मनीषीयों से निवेदन है कि हमे सूचित कर अनुग्रहित करावें। ____ संघ का आगम प्रकाशन का काम प्रगति पर है। इस आगम प्रकाशन के कार्य में धर्म प्राण समाज रल तत्त्वज्ञ सुश्रावक श्री जशवंतलाल भाई शाह एवं श्राविका रत्न श्रीमती मंगला बहन शाह, बम्बई की गहन रुचि है। आपकी भावना है कि संघ द्वारा जितने भी आगम प्रकाशन हो वे अर्द्ध मूल्य में ही बिक्री के लिए पाठकों को उपलब्ध हो। इसके लिए उन्होंने सम्पूर्ण आर्थिक सहयोग प्रदान करने की आज्ञा प्रदान की है। तदनुसार प्रस्तुत आगम पाठकों को उपलब्ध कराया जा रहा है, संघ एवं पाठक वर्ग आपके इस सहयोग के लिए आभारी है। आदरणीय शाह साहब तत्त्वज्ञ एवं आगमों के अच्छे ज्ञाता हैं। आप का अधिकांश समय धर्म साधना आराधना में बीतता है। प्रसन्नता एवं गर्व तो इस बात का है कि आप स्वयं तो आगमों का पठन-पाठन करते ही हैं, पर आपके सम्पर्क में आने वाले चतुर्विध संघ के सदस्यों को भी आगम की वाचनादि देकर जिनशासन की खूब प्रभावना करते हैं। आज के इस हीयमान युग में आप जैसे तत्त्वज्ञ श्रावक रत्न का मिलना जिनशासन के लिए गौरव की बात है। आपकी धर्म सहायिका श्रीमती मंगलाबहन शाह एवं पुत्र रत्न मयंकभाई शाह एवं श्रेयांसभाई शाह भी आपके पद चिन्हों पर चलने वाले हैं। आप सभी को आगमों एवं थोकड़ों का गहन अभ्यास है। आपके धार्मिक जीवन को देख कर प्रमोद होता है। आप चिरायु हो एवं शासन की प्रभावना करते रहे। उववाई सूत्र की प्रथम आवृत्ति अगस्त २००१ में प्रकाशित हुई थी। जो कुछ ही समय में अप्राप्य हो गई। अब इसकी यह द्वितीय आवृत्ति प्रकाशित की जा रही है। पाठक बंधुओं से निवेदन है कि इस नवीन आवृत्ति का अधिक से अधिक लाभ उठावें। इसी शुभ भावना के साथ! ब्यावर (राजस्थान) संघ सेवक दिनांक : १०-४-२००५ नेमीचन्द बांठिया For Personal & Private Use Only Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अस्वाध्याय निम्नलिखित बत्तीस कारण टालकर स्वाध्याय करना चाहिये। आकाश सम्बन्धी १० अस्वाध्याय काल मर्यादा १. बड़ा तारा टूटे तो एक प्रहर २. दिशा-दाह * जब तक रहे ३. अकाल में मेघ गर्जना हो तो दो प्रहर ४. अकाल में बिजली चमके तो एक प्रहर ५. बिजली कड़के तो आठ प्रहर ६. शुक्ल पक्ष की १,२,३ की रात प्रहर रात्रि तक ७. आकाश में यक्ष का चिह्न हो जब तक दिखाई दे ८-९. काली और सफेद धुंअर जब तक रहे १०. आकाश मंडल धूलि से आच्छादित हो- . जब तक रहे औदारिक सम्बन्धी १० अस्वाध्याय ११-१३. हड्डी, रक्त और मांस, ये तिर्यंच के ६० हाथ के भीतर हो। मनुष्य के हो, तो १०० हाथ के भीतर हो। मनुष्य की हड्डी यदि जली या धुली न हो, तो १२ वर्ष तक। १४. अशुचि की दुर्गंध आवे या दिखाई दे- तब तक १५. श्मशान भूमि . सौ हाथ से कम दूर हो, तो। १६. चन्द्र ग्रहण खंड ग्रहण में ८ प्रहर, पूर्ण हो तो १२ प्रहर (चन्द्र ग्रहण जिस रात्रि में लगा हो उस रात्रि के प्रारम्भ से ही अस्वाध्याय गिनना चाहिये।) १७. सूर्य ग्रहण खंड ग्रहण में १२ प्रहर, पूर्ण हो तो १६ प्रहर (सूर्य ग्रहण जिस दिन में कभी भी लगे उस दिन के प्रारंभ से ही उसका अस्वाध्याय गिनना चाहिये।) १८. राजा का अवसान होने पर, जब तक नया राजा घोषित न हो १६. युद्ध स्थान के निकट जब तक युद्ध चले २०. उपाश्रय में पंचेन्द्रिय का शव पड़ा हो, जब तक पड़ा रहे (सीमा तिर्यंच पंचेन्द्रिय के लिए ६० हाथ, मनुष्य के लिए १०० हाथ। उपाश्रय बड़ा होने पर इतनी सीमा के बाद उपाश्रय में भी अस्वाध्याय नहीं होता। उपाश्रय की सीमा के बाहर हो तो यदि दुर्गन्ध न आवे या दिखाई न देवे तो अस्वाध्याय नहीं होता।) २१-२४. आषाढ़, आश्विन, कार्तिक और चैत्र की पूर्णिमा दिन रात २५-२८. इन पूर्णिमाओं के बाद की प्रतिपदा दिन रात २६-३२. प्रातः, मध्याह, संध्या और अर्द्ध रात्रिइन चार सन्धिकालों में १-१ मुहूर्त उपरोक्त अस्वाध्याय को टालकर स्वाध्याय करना चाहिए। खुले मुंह नहीं बोलना तथा दीपक के उजाले में नहीं वांचना चाहिए। नोट - नक्षत्र २८ होते हैं उनमें से आर्द्रा नक्षत्र से स्वाति नक्षत्र तक नौ नक्षत्र वर्षा के गिने गये हैं। इनमें होने वाली मेघ की गर्जना और बिजली का चमकना स्वाभाविक है। अतः इसका अस्वाध्याय नहीं गिना गया है। * आकाश में किसी दिशा में नगर जलने या अग्नि की लपटें उठने जैसा दिखाई दे और प्रकाश हो तथा नीचे अंधकार हो, वह दिशा-दाह है। For Personal & Private Use Only Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयानुक्रणिका पृष्ठ क्रं. विषय १. नगरी वर्णन २. चैत्य वर्णन ३. वनखण्ड वर्णन . ४. अशोक वृक्ष ५. शिलापट्टक वर्णन ६. कोणिक राजा का वर्णन ७. धारिणी रानी का वर्णन ८. कोणिक राजा की भगवद्भक्ति ९. भगवान् महावीर का वर्णन १०. भगवान् का शरीर वर्णन ११. शिख-नख वर्णन . १२. धर्म सन्देशवाहक १३. कोणिक का परोक्ष वन्दन १४. भगवान् का आगमन १५. भगवान् के अन्तेवासी १६. निर्ग्रन्थों की ऋद्धि १७. निर्ग्रन्थों का तप १८. स्थविरों के बाह्य-आभ्यन्तर गुण १९. अनगारों के गुण . २०. निर्ग्रन्थों की उपमाएँ पृष्ठ | | क्र. विषय २१. अनगारों का अप्रतिबन्ध विहार | २२. अनगारों की तपश्चर्या २३. बाह्य तप २४. आभ्यन्तर तप २५. अनगारों की सक्रियता २६. संसार सागर से तिर कर पार होना २७. देवों का आगमन | २८. देवों का शरीर और शृंगार २१ | २९. भवनपति देवों का वर्णन | ३०. व्यंतर देवों का वर्णन ३१. ज्योतिषी देवों का वर्णन | ३२. वैमानिक देवों का वर्णन | ३३. चम्पा नगरी में लोक वार्ता ३४. भगवान् के पास जन समूह का गमन ३८ | ३५. कोणिक को भगवान् की दिनचर्या का निवेदन | ३६. कोणिक राजा का आदेश ४८ | ३७. अभिवंदना की तैयारी ५३ | ३८. कोणिक का स्नान मर्दनादि ५४ | ३९. अभिवन्दना के लिए प्रस्थान ९९ १०० १०२ १०४ १०५ १०६. १११ ११४ For Personal & Private Use Only Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___ [8] १७२ १३३ १३८ १४२ क्रं. विषय पृष्ठ क्रं. विषय पृष्ठ ४०. कोणिक का जनता द्वारा स्वागत ११८ | ६१. आजीवक........उपपात ४१. भगवान् की पर्युपासना १२१ | ६२. अत्तुक्कोसिय.......उपपात ४२. सुभद्रा महारानी का प्रस्थान | ६३. निह्नवों का उपपात ४३. भगवान् महावीर की धर्म-देशना । १२४ | ६४. प्रतिविरत अप्रतिविरत अल्पआरंभी ४४. सभा विसर्जन का उपपात ४५. कोणिक राजा और रानियों का गमन. १३४ | ६५. अनारंभी का उपपात ४६. औपपातिक पृच्छा १३६ / ६६. सर्वकाम विरत का उपपात. . ४७. कर्म बन्धन ६७. केवलि समुद्घात के पुद्गल ४८. असंयत यावत् एकान्त सुप्त का उपपात १४० ६८. केवलि समुद्घात का कारण ४९. बन्दी आदि का उपपात ६९. आवर्जीकरण का स्वरूप ५०. भद्र प्रकृति वाले आदि का उपपात | ७०. समुद्घात के बाद की योग प्रवृत्ति । १८६ ५१. गतपतिका आदि का उपपात ७१. योग निरोध और सिद्धि, ५२. द्वि-द्रव्यभोजी आदि का उपपात ७२. वहां स्थित सिद्ध का स्वरूप १९१ ५३. वानप्रस्थ तापसों का उपपात ७३. सिद्ध्यमान जीव के संहननादि ५४. प्रव्रजित श्रमण कान्दर्पिक ७४. सिद्धों का निवासस्थान आदि का उपपात | ७५. सिद्ध स्तवना ५५. परिव्राजकों का उपपात ७६. परिशेष २०९ ५६. अम्बड़ परिव्राजक के ७०० शिष्य ५७. अम्बड़ परिव्राजक ५८. अम्बड़ के भविष्य के भव ५९. प्रत्यनीक का यावत् उपपात ६०. संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यंचों का उपपात १७१ १८८ १९३ १९४ १९७ For Personal & Private Use Only Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'णमो जिणाणं जियभयाणं' उववाइय सुत्त (औपपातिक सूत्र) नगरी वर्णन १- तेणं कालेणं तेणं समएणं चंपा णामं णयरी होत्था। रिद्ध-स्थिमियसमिता, पमुइय-जण-जाणवया (पमुइय-जणुजाण-जणवया) आइण्ण-जणमणुस्सा हल-सयसहस्स-संकिट्ठ-विकिट्ठ-लट्ठ-पण्णत्त-सेउसीमा कुक्कुड-संडेय-गामपठरा उच्छु-जव-सालि-कलिया (सालिमालिणीया) गो-महिस-गवेलग-प्पभूया। कठिन शब्दार्थ - होत्था - थी, रिद्ध - ऋद्धा-ऊँचे-ऊंचे भवनों से सुशोभित, थिमिए - स्तिमिता-स्वदेश के राजा व परदेश के राजा के भय से रहित, समिद्धा - समृद्धा-धन और धान्यादि से युक्त, पमुहब- प्रमुदिता-आनन्द युक्त, जण - जन-नागरिक जन, जाणवया- जानपदा-देश निवासी, आइण्ण - आकीर्ण-व्याप्त-भरा हुआ, हल सय सहस्स - सैकड़ों हजारों अथवा लाखों इल, संकि- संकृष्टय-अच्छी तरह से जोती हुई, विकिट्ठ- विकृष्टा-बार-बार जोतने से कंकर पत्थर रहित होने से बीज बोने के योग्य, लट्ठ - लष्टा-मनोज्ञ, पण्णत्त-सेउसीमा - प्रज्ञप्त सेतुसीमा-प्रत्येक किरके खेत की सीमा बंधी हुई थी, कुक्कुड-संडेय-गामपउरा- जिसमें मुर्गे और सांडों का समूह बहुत था, उप-जव-सालि-कलिया - इक्षु (गन्ना), जव और शाली (चावल) के ढेर से सुस्त, गो-महिस-गवेलग-प्पभूया- गोमहिषगवेलक-प्रभूता-बैल, भैसा, गवेलक (मेढ़ा अथवा गौ शाद गाय और बैल तथा ऐलक मेढ़ा) की प्रचुरता। - उस काल और उस समय में 'चम्पा' नाम की नगरी थी। वह ऋद्ध-ऋद्धिशाली अर्थात् बड़े-बड़े भवनों वाली स्तिमित-स्वचक्र और परचक्र के भय से रहित अतएव स्थिर और समृद्धपारिबाचीविका के साधनों की सुलभता, प्रचुरता और व्यापकता के कारण धनधान्यादि से युक्त पाहायरी-निवासी और देशवासी प्रसन्न रहते थे, अतः वह नगरी जन-मनुष्यों से भरपूर थी। For Personal & Private Use Only Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उववाइय सुत्त उसके आस-पास लम्बी दूर तक सैकड़ों-हजारों अथवा लाखों १००x१००० लाखों हलों के द्वारा जोतने और बोने से सुन्दर और योग्य बनी हुई एवं मार्ग रूप सीमा से युक्त भूमि थी। उस नगरी में मुर्गों और तरुण साण्डों के बहुत-से समूह थे। ईख, जौ और शालि से लहलहाती हुई वहाँ की भूमि भली लगती थी। गायों, भैंसों और भेड़ों की अधिकता थी। विवेचन - १. उववाइय-औपपातिक सूत्र में उपपात-वैक्रिय शरीरधारी नारक और देव में जन्म और सिद्धि-गमन के विषय में प्रश्नोत्तर हुए हैं। यह उपांग है। आचारांग सूत्र के सत्थपरिण्णा (शस्त्र-परिज्ञा) नामक पहले अध्ययन के पहले उद्देशक के 'एवमेगेसिंणो णायं भवइ, अत्थि मे आया उववाइए....' इत्यादि सूत्र में आत्मा के जिस उपपात भाव का निर्देश किया गया है, उसका इस अध्ययन में विस्तार किया गया है। अतः इस आशय की समीपता के कारण, यह आचारांग का उपांग कहा जाता है। ऐसी धारणा प्रचलित है कि अंग के किसी एक विषय को लेकर, जिसमें विस्तार से उसकी व्याख्या की गयी हो, उसे उपांग कहते हैं। विभिन्न उपांगों का सम्बन्ध अंगों के साथ जोड़ा जाता है। इस बात की पुष्टि टीकाकार के उपर्युक्त कथन से भी होती है। २. 'उस काल...उस समय.....' वर्तमान अवसर्पिणी काल के चौथे आरे के सामान्यकाल को 'उस काल' और जिसमें वह नगरी, राजा और परम तारक वर्धमान स्वामी विद्यमान थे, उस विशेष काल को 'उस समय' कहा गया है। ३. ........नगरी थी' - जिस समय इस सूत्र का निर्माण हुआ था, उस समय में भी चम्पा नगरी विद्यमान थी, फिर भी '........नगरी थी' - ऐसा भूतकालिक प्रयोग क्यों किया गया? कारण, अवसर्पिणीकाल हीयमान काल की अपेक्षा से। क्योंकि जिस काल की कहानी कही जा रही हैउस काल की विभूति के समान, जिस समय में कहानी कही जा रही है-उस में वह विभूति नहीं थी। कालद्रव्य के निमित्त से द्रव्यों की अवस्था में सदा परिवर्तन होता रहता है। वस्तु क्षण मात्र भी एक-सी अवस्था में नहीं रह सकती। कुछ क्षणों के पहले ही घटित प्रसंगों के लिये भूतकालिक क्रिया का प्रयोग ही इस बात को सिद्ध कर रहा है। अत: द्रव्य की यह परिभाषा बिलकुल सही है कि 'जो अपने सनातन गुणों में स्थित रहते हुए, नई-नई अवस्थाओं को धारण करे या पर्यायों में गमन करे।' ४. 'सैकड़ों-हजारों हलो....' इस सूत्रांश - नगरी की लोक-बहुलता और क्षेत्र-बहुलता बतलाई गई है। टीकाकार ने इस सूत्रांश के दो अर्थ-विकल्प और दिये हैं - 'लाखों हलों के द्वारा खेड़ी हुई......नहरों के द्वारा सिञ्चित क्षेत्र भूमि जिसकी सीमा में हो ऐसी' अथवा '....खेड़ने से दूर तक मनोज्ञ बनी हुई कही गई है सेतुसीमा जिसकी ऐसी।' ५. 'मुर्गों और....' इस सूत्रांश से मनुष्यों का प्रमोद व्यक्त किया गया है। क्योंकि प्रमुदित लोग ही क्रीड़ा के लिये कुक्कुटों का पोषण करते हैं और साण्डों का सांड रूप में पालन करते हैं। For Personal & Private Use Only Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नगरी वर्णन ६. 'ईख...' इस सूत्रांश से जनता के प्रमोद का कारण बताया गया है। क्योंकि इस प्रकार की वस्तुओं के अभाव में जन-प्रमोद हो ही नहीं सकता।। ___ आयारवंत-चेइय-जुवइ-विविह-सण्णिविट्ठ-बहुला उक्कोडिय-गाय-गंठि-भेयभड-तक्कर-खंडरक्ख-रहिया खेमा णिरुवहवा। भावार्थ - आकारवान्-सुन्दर शिल्प कलामय चैत्यों-स्मारक मन्दिरों का और युवतियों के विविध सन्निवेशों का बाहुल्य था। औत्कटिकों-रिश्वतखोरों, ग्रन्थिभेदकों-गिरहकटों, भटों-उठाईगीरोंउचक्कों तस्करों-चोर डाकुओं और खण्डरक्षों-शुल्कपालों, दाणियों के उपद्रव से रहित, क्षेम से युक्त और शासकों के अत्याचार से रहित वह नगरी थी। विवेचन - ७ आकारवान् चैत्य....''चैत्य' शब्द का प्रयोग शास्त्रों में अनेक अर्थों में हुआ है। जैसे कि-कहीं ज्ञान अर्थ में, कहीं जिनेश्वर देवों को जिन वृक्षों के नीचे ज्ञान की प्राप्ति हुई थी, उन वृक्षों के विशेषण रूप में, कहीं चौतरे सहित वृक्ष के अर्थ में, कहीं पूर्व पुरुषों के स्मारक चिह्न के अर्थ में, कहीं इष्ट देवता की प्रतिमा के अर्थ में, कहीं उद्यान के अर्थ के और कहीं चिता पर बने हुए चरणचिह्नों और छतरियों के अर्थ में। यहाँ पर टीकाकार ने इस शब्द का अर्थ 'देवतायतन' (देवकुल) किया है और पाठान्तरों की व्याख्या में 'अर्हच्चैत्य' 'जनानां व्रतिनां च' अर्थात् वहाँ साधारण मनुष्य और व्रतधारी पुरुषों के समूह रहा करते थे। वस्तुतः यहाँ यह शब्द वीर या विशिष्ट पुरुषों के स्मारक-मन्दिरों के अर्थ में प्रयुक्त हुआ हो, ऐसा प्रतीत होता है। क्योंकि 'युवतियों के सन्निवेश' के साथ इस पद का उल्लेख है। अतः वे ऐसे स्थान होने चाहिए कि जो पूर्व पुरुषों की स्मृति में बने हुए होने पर भी, जहाँ विविध सांसारिक प्रवृत्तियाँ चलती हों, कला आदि का प्रदर्शन होता रहता हो और जीवन के कड़वेमीठे प्रसंग उपस्थित होते रहते हों, जिनका जन-संस्कार के बनाव-बिगाड़ में बड़ा हाथ रहता है। - 'युवतियों के सन्निवेश' का अर्थ, टीकाकार ने 'पण्य तरुणियों के पाटक' किया है। 'जुवइ' और "सण्णिविट्ठ' शब्द 'वेश्याओं के मोहल्ले' - यह अर्थ करने से पूर्व कुछ विचारणा के लिए प्रेरित करते सम्पारणी' शब्द का अर्थ यह भी हो सकता है कि - 'जन-साधारण के सहवास में आने वाली ऐसी स्त्रियाँ, जो कण्ठ, रूप और कला का प्रदर्शन करती हों, इन विषयों से सम्बन्धित शिक्षण देकर, अपनी आजीविका चलाती हों, यौन सम्बन्धी शिक्षण भी देती हों और राज्यनीति में भी दखल रखती हाँ, या राज-शासन में कोई कार्य साधने में जिनका उपयोग होता हो।' उनमें कई वर्ग होने की सम्भावना है। उनमें कुछ ऐसी भी हो सकती हैं, जो आजीवन पुरुष देह का भोगेच्छा से स्पर्श भी न करती हों। कुछ तरुणियों को गृहवास में प्रविष्ट होने की समाज से स्वीकृति और राजाज्ञा भी प्राप्त होती थी। कइयों के जीवन में राजाज्ञा से कितने ही पुरुषों का आगमन होता था और कई विलासिनियाँ भी होंगी। उन्हें राज्य संरक्षण प्राप्त था। ऐसा अर्थ करने में प्राचीन चरित्रों, इतिहास और लोक कथाओं का आधार है। For Personal & Private Use Only Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उववाइय सुत्त ८. 'रिश्वतखोर......' इस सूत्रांश से उपद्रवकारियों का अभाव सूचित किया गया है। राज्य का सुप्रबन्ध और जनता में बुरे संस्कारों के अभाव के साथ ही आत्म-रक्षण, आत्म-गौरव एवं सम्पन्नता युक्त तुष्टि का भी सूचन होता है। सुभिक्खा वीसत्थ-सुहावासा अणेग-कोडि-कुडुंबया-इण्ण-णिब्बुय-सुहा, णडणट्टग-जल्ल-मल्ल-मुट्ठिय-वेलंबय-कहग-पवग-लासग-आइक्खग-लंख-मंखतूणइल्ल-तुंब-वीणिय-अणेग-तालायराणुचरिया, आरामुज्जाण-अगड-तलागदीहिय-वप्पिणि-गुणो-ववेया णंदणवण-सण्णिभ-प्पगासा। ___ भावार्थ - वहाँ भिक्षुओं के योग्य उचित भिक्षा मिलती थी, क्योंकि विभिन्न मतावलम्बी विश्वस्त निर्भय मनुष्यों का वहाँ सुखपूर्वक निवास था और अनेक कुटुम्बियों से घनी बस्ती होने पर भी आपस में अशान्ति-जनक व्यवहार का अभाव होने से-संतोष होने से सभी सुख से रहते थे। वह नगरी नट-नाटक करने वाले, नर्तक-नाचने वाले, नृत्यकला-विशारद, जल्ल-रस्सी पर चढ़ कर, कला दिखलाने वाले, राजा की प्रशंसा के गीत स्तोत्र पढ़ने वाले, मल्ल-कुश्ती करने वाले, मौष्टिक-मुष्टिप्रहार की कला में दक्ष, विडम्बक-विदूषक, कथक-कथावाचक, प्लवक-उछलने वाले अथवा नदी आदि को तिरने वाले लासक वीर रसोत्पादक गाथाएँ-रासक-गाने वाले, आख्यायक-शुभ-अशुभ का कथन करने वाले, लंख बांस के अग्र भाग पर खेलने वाले, मंख-चित्रपट दिखाकर आजीविका करने वाले, तूणइल्ल 'तूण' नामक वाद्य को बजाने वाले, तुम्बवीणिक-वीणावादक और तालाचर-ताल बजाकर झांकी दिखलाने वाले इन व्यक्तियों के द्वारा पुनः पुनः सेवित थी। वहाँ कई गृहवाटिकाएंआराम, जिसके लताकुञ्जों में दम्पती आदि क्रीडा करते हों, ऐसे बगीचे सार्वजनिक बगीचे-उद्यान, उत्सव आदि में बहजन भोग्य विपल फलों वाले वक्ष आदि से घिरे हए भमिखण्ड, कएँ, तालाब, लम्बी बावडियाँ दीर्घिका और साधारण बावडियाँ और जल क्रीडा रूप जलक्यारियाँ नंदन वन के समान सुशोभित थी। ___उव्विद्ध-विउल-गंभीर-खाय-फलिहा चक्क-गय-मुसंढि-ओरोह-सयग्धि-जमलकवाड-घण-दुप्पवेसा धणु-कुडिल-वंक-पागार-परिक्खित्ता कविसीसय-वट्ट-रइयसंठिय-विरायमाणा। अट्टालय-चरिय-दार-गोपुर-तोरण-उण्णय-सुविभत्त-रायमग्गा छेयायरिय-रइयदढ-फलिह-इंदकीला। भावार्थ - वह नगरी ऊँची, विस्तीर्ण गहरी और ऊपर से चौड़ी खाई से युक्त थी। जिसमें चक्र, गदा, मुसुण्डि-बंदुक जैसा शस्त्र विशेष, अवरोध-अन्तर प्राकार या नगरी द्वार के सामने शत्रु-सेना के हाथियों आदि को रोकने के लिए बने हुए मजबूत साधन, शतघ्नी ऐसी महायष्टि या महाशिला अथवा For Personal & Private Use Only Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नगरी वर्णन एक प्रकार का शस्त्र जिसके प्रयोग करने पर सैकड़ों मनुष्य मर जाते हैं और दरवाजे के निश्छिद्र कपाट-युगल के कारण शत्रुओं का प्रवेश करना कठिन था। धनुष के समान टेढे नगर कोट-प्राकार से वह नगरी घिरी हुई थी। उस कोट में विशिष्ट आकार के बनाये हुए गोल 'कविसीसग' भीतर से शत्रुसेना को देखने के लिये या अन्य कार्य के लिये बन्दर के शिर के आकार के बने हुए छेद शोभित हो रहे थे और वह कोट अट्टालक-प्राकार के ऊपर बने हुए आश्रयस्थान चरिक-कोट और नगरी के बीच में बना हुआ आठ हाथ चौड़ा मार्ग, द्वार-परकोटे में बने हुए छोटे द्वार-खिडकियाँ गोपुर नगर द्वार और तोरणद्वार से उन्नत था, जिससे राजमार्ग सुन्दर ढंग से विभक्त हो जाते थे। उन द्वारों की अर्गलाएँ और इन्द्रकील नगर द्वार के अवयव कुशल शिल्पाचार्य के द्वारा निर्मित हुए थे। विवणि-वणिच्छेत्त (छेय)सिप्पियाइण्ण-णिव्वुय-सुहा सिंघाडग-तिग-चउक्कचक्कर-पणियावण-विविह-वत्थु-परिमंडिया सुरम्मा, (सिंघाडग-तिग-चउक्कचच्चर-चउम्मुह महापहेसु पणियावण-विविह-वेस-परिमंडिया) णरवइ-पविइण्णमहिवइ-पहा अणेग-वर-तुरग-मत्त-कुंजर-रह-पहकर-सीय-संद-माणीया-इण्णजाण-जुग्गा, विमउल-णव-णलिणि सोभिय-जला, पंडुर-वर-भवण-सण्णि महिया उत्ताण-णयण-पेच्छणिज्जा, पासाईया दरिसणिज्जा अभिरूवा पडिरूवा॥१॥ कठिन शब्दार्थ - पासाईया - चित्त प्रसन्न, कारिणी - देखने वाले के चित्त को प्रसन्न करने वाली, दरिसणिजा - जिसको देखते हुए आंखे थकती नहीं थी, अभिरूवा - मनोज्ञ-मन को लुभाने वाली पहिलवा- प्रतिरूप-जितनी वक्त देखे उतनी वक्त नया रूप दिखता था। भावार्थ- हाटमार्ग, व्यापार के केन्द्र और शिल्पियों-कुंभकार आदि कलाविशारद-जिनके द्वारा जनप्रयोजन की सिद्धि होती है ऐसे कुशल कलाविदों की विपुलता से वहाँ सभी तरह से अमन-चैन था। त्रिकोण स्थान, तिराहे, चौक और चार से अधिक मार्गों के संगमस्थान, अनेक प्रकार की दुकानों और विविध मकानों से सुशोभित थे-अति रमणीय थे। राजा के गमनागमन से दर्शनोत्सुक मनुष्यों और मी में चलने वाले मनुष्यादि के कारण राजमार्ग में भीड़ लगी रहती थी। इस नगरी के राजा के प्रभाव से अन्य राजाओं का प्रभाव कम हो गया था अर्थात् इस राजा का प्रभाव बहुत फैला हुआ था। मार्ग में श्रेष्ठ घोड़े, मस्त हाथी, ढंकी हुई पालखियाँ शिविका पुरुष प्रमाण पालखियाँ-स्यंदमानिका, रथों के मागाडियाँ आदि यान और डोलियाँ आती-जाती रहती थी। इनका जमघट लगा रहता था। विकसित कमल और नव कुमुदनियों से शोभित जलाशय मार्ग में पड़ते थे। मार्ग के दोनों किनारों पर सफेदी से चले बने हुए श्रेष्ठ भवनों की पंक्तियाँ भव्य लगते थे। नगर को देखते समय आँखें ऊँची उठी हुई रह पालेभी पलकें गिरती ही नहीं थी। नगरी का देखाव चित्त को प्रसन्न करने वाला, आँखों को लुभाने वाला, अपने में मन को रमा लेने वाला और हृदय में बस जाने वाला था। For Personal & Private Use Only Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६ उववाइय सुत्त चैत्य वर्णन २- तीसे णं चंपाए णयरीए बहिया उत्तर-पुरस्थिमे (पुरच्छिमे) दिसि-भाए पुण्णभद्दे णामं चेइए होत्था। चिराईए पुव्वपुरिस-पण्णत्ते पोराणे, सहिए वित्तिए (कित्तिए) णाए, सच्छत्ते सन्झए सघंटे सपडागाइपडाग-मंडिए, सलोम-हत्थे. कयवेयहिए, लाउल्लोइय-महिए गोसीस-सरस-रत्त-चंदण-दहरदिण्ण-पंचंगुलितले, उवचिय-चंदण-कलसे चंदण-घड-सुकय-तोरण-पडिदुवार-देस-भाए, आसत्तोसत्तविउल-वट्ट-वग्धारिय मल्ल-दाम-कलावे। कठिन शब्दार्थ - चिराईए - चिरादिक-जिसकी आदि (प्रारम्भ) चिरकाल की थीं अर्थात् बहुत प्राचीन। पुव-पुरिस-पण्णत्ते - पूर्व पुरुष प्रज्ञप्त-बड़े बुढ़े पुरुषों द्वारा कथित, पोराणे- पुरातन-पुराना, सहिए - शब्दित-प्रसिद्धि को प्राप्त, वित्तिए - प्रसिद्ध, (कित्तिए)- कीर्ति वाला, णाए - ज्ञात-सर्वजन प्रसिद्ध, सलोमहत्थे- मोर की पांख की बनी हुई पीच्छि से युक्त, लाउल्लोइय-महिए- इसका आंगन गोबर से लिपा हुआ था और उसकी भीते सफेद खड़ीया मिट्टी से पुती हुई थी इसलिए वह महित अर्थात् चमकती थी। भावार्थ - उस चम्पा नगरी के बाहर उत्तर-पूर्व दिशा के भाग में अर्थात् ईशान कोण में 'पूर्णभद्र' नामका चैत्य व्यंतरायतन अर्थात् व्यन्तर देव का स्थान था। वह बहुत काल पहले का बना हुआ था। बड़े बुढ़े मनुष्य भी उसकी प्राचीनता के बखान किया करते थे। उसकी प्रशंसा के गीत बन चुके थे। उस चैत्य की चढ़ावे आदि में आई हुई सम्पत्ति थी। योग्य निर्णायकता के कारण वह न्यायशील था। वह छत्र, ध्वज, घण्टा, पताका और अतिपताका छोटी पताका से ऊपर उठी हुई बड़ी पताका से मण्डित था। वहाँ रोममय पींछियाँ थी जिनसे उसकी सफाई होती थी वेदिका बनी हुई थी। भमि गोबर आदि से लीपी हुई थी और भीते सफेद खड़ीया चूने आदि से भव्य बनी हुई थी। भीतों पर गोरोचन और सरस रक्त चंदन के पांचों अंगुली और हथेली सहित हाथ की छापें लगाई गई थी। चन्दनकलश-मंगलघट रखे हुए थे। प्रत्येक द्वार के देशभाग चंदनघट और तोरणों से युक्त थे। वहाँ भूमि और छत को छूती हुई विस्तृत गोल और लम्बी फूलमालाओं का समूह था। विवेचन - चैत्य शब्द अनेकार्थवाची है। सुप्रसिद्ध जैनाचार्य पूज्य श्री जयमल जी म. सा. ने चैत्य शब्द के ११२ अर्थों की गवेषणा की है। आगम प्रकाशन समिति ब्यावर द्वारा प्रकाशित औपपातिक सूत्र (पृ० ६-७) में चैत्य शब्द के ये अर्थ प्रकाशित हुए हैं जो इस प्रकार हैं - For Personal & Private Use Only Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चैत्य वर्णन चैत्यः प्रासाद - विज्ञेयः १ चेइय हरिरुच्यते २ । चैत्यं चैतन्य-नाम स्यात् ३ चेइयं च सुधा स्मृता ४॥ चैत्यं ज्ञानं समाख्यातं ५ चेइय मानस्य मानवः ६ । चेइयं यतिरुत्तमः स्यात् ७ चेइय भगमुच्यते ८ ॥ चैत्य जीवमवाप्नोति ९ चेई भोगस्य रंभणम् १० ॥ चैत्यं भोग - निवृत्तिश्च ११ चेई विनयनीचकौ १२ ॥ चैत्यं पूर्णिमाचन्द्रः स्यात् १३ चेई गृहस्य रंभणम् १४ । चैत्यं गृहमव्यावाधं १५ चेई च गृहछादनम् १६॥ चैत्यं गृहस्तंभं चापि १७ चेई नाम वनस्पतिः १८ । चैत्यं पर्वताग्रे वृक्षः १९ चेई वृक्षस्यस्थूलनम् २० ॥ चैत्यं वृक्षसारश्च २१ चेई चतुष्कोणस्तथा २२ । चैत्यं विज्ञान - पुरुषः २३ चेई देहश्च कथ्यते २४ ।। चैत्यं गुणज्ञो ज्ञेयः २५ चेई च शिव- शासनम् २६ । चैत्यं मस्तकं पूर्णं २६ चेई वपुर्हीनकम् २८ ॥ चेई अश्वमवाप्नोति २९ चेइय खर उच्यते ३० । चैत्यं हस्ती बिज्ञेयः ३१ चेई च विमुखीं विदुः ३२ ॥ चैत्यं नृसिंह- नाम स्यात् ३३ चेई च शिवा पुनः ३४ । चैत्यं रंभानामोक्त ३५ चेई स्यान्मृदंगकम् ३६ ॥ चैत्यं शार्दूलता प्रोक्ता ३७ चेई च इन्द्रवारुणी ३८। . चैत्यं पुरंदर - नाम ३९ चेई चैतन्यमत्तता ४० ॥ चैत्यं गृहि-नाम स्यात् ४१ चेइ शास्त्र - धारणा ४२ । चैत्यं क्लेशहारी च ४३ चेई गांधर्वी - स्त्रियः ४४॥ चैत्यं तपस्वी नारी च ४५ चेइ पात्रस्य निर्णयः ४६ । चैत्यं शकुनादि - वार्ता च ४७ चेई कुमारिका विदुः ४८ ॥ चेई तु त्यक्त - रागस्य ४९ चेई धत्तूर कुट्टितम् ५० । चैत्यं शांति - वाणी च ५१ चेई वृद्धा वरांगना ५२ ।। ब्रह्माण्डमानं च ५३ चेई मयूरः कथ्यते ५४ । . चैत्यं च नारका देवा: ५५ चेई च बक उच्यते ५६ ॥ चेई हास्यमवाप्नोति ५७ चेई निभृष्टः प्रोच्यते ५८ । चैत्वं मंगल-वार्ता च ५९ चेई च काकिनी पुनः ६० ॥ For Personal & Private Use Only ७ Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उववाइय सुत्त चैत्यं पुत्रवती नारी ६१ चेई च मीनमेव च ६२। चैत्यं नरेन्द्रराज्ञी च ६३ चेई च मृगवानरो ६४॥ चैत्यं गुणवती नारी ६५ चेई च स्मरमन्दिरे. ६६। चैत्यं वर-कन्या नारी ६७ चेई च तरुणी-स्तनौ ६८॥ चैत्यं सुवर्ण-वर्णा, च ६९ चेई मुकुट-सागरौ ७०। चैत्यं स्वर्णा जटी चोक्ता ७१ चेई च अन्य-धातुषु ७२॥ चैत्यं राजा चक्रवर्ती ७३ चेई च तस्य याः स्त्रियः ७४। चैत्यं विख्यात पुरुषः ७५ चेई पुष्पमती-स्त्रियः ७६ ।। चेई ये मन्दिरं राज्ञः ७७ चैत्यं वाराह-संमतः ७८ । चेई च यतयो धूर्ताः ९९ चैत्यं गरुडपक्षिणि ८०। चेई च पद्मनागिनी ८१ चेई रक्त-मंत्रेऽपि ८२। चेई चक्षुर्विहीनस्तु ८३ चैत्यं युवक पुरुषः ८४॥ चैत्यं वासुकी नागः ८५ चेई पुष्पी निगद्यते ८६ । चैत्यं भाव-शुद्धः स्यात् ८७ चेई क्षुद्रा च घंटिका ८८।। चेई द्रव्यमवाप्नोति ८९ चेई च प्रतिमा तथा ९०। चेई सुभट योद्धा च ९१ चेई च द्विविधा क्षुधा ९२॥ चैत्यं पुरुष-क्षुद्रश्च ९३ चैत्यं हार एवं च ९४ । चैत्यं नरेन्द्राभरणः ९५ चेई जटाधरो नरः ९६॥ चेई च धर्म-वार्तायां ९७ चेई च विकथा पुनः ९८। चैत्यं चक्रपतिः सूर्यः ९९ चेई च विधि-भ्रष्टकम् १००। चैत्यं राज्ञी शयनस्थानं १०१ चेई रामस्य गर्भता १०२। चैत्यं श्रवणे शुभे वार्ता १०३ चेई च इन्द्रजालकम् १०४।। चैत्यं यत्यासनं प्रोक्तं १०५ चेई च पापमेव च १०६ । चैत्यमुदयकाले च १०७ चैत्यं च रजनी पुनः १०८॥ चैत्यं चन्द्रो द्वितीयः स्यात् १०९ चेई च लोकपालके ११०। चैत्यं रत्नं महामूल्यं १११ चेई अन्यौषधीः पुनः ११२॥ (इति अलंकरणे दीर्घ ब्रह्माण्डे सुरेश्वरवार्तिके प्रोक्तम् प्रतिमा चेइय शब्दे नाम ९० मो छ। चेइय ज्ञान नाम पांचमो छ। चेइय शब्दे यति-साधु नाम ७ मुं छे। पछे यथायोग्य ठामे जे नामे हुवे ते जाणवो। सर्व चैत्य शब्द ना आंक ५७, अने चेइयं शब्दे ५५ सर्व ११२ लिखितं पू० भूधर जी तत्शिष्य ऋषि जयमल नागौर मझे सं. १८०० चैत सुदी १० दिने) - जयध्वज पृष्ठ ५७३-७६ For Personal & Private Use Only Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चैत्य वर्णन पंच-वण्ण-सरस-सुरहि-मुक्क-पुष्फ-पुंजोवयार-कलिए, कालागुरु-पवरकुंदुरुक्क-तुरुक्क-धूव-मघ-मघंत-गंधुद्धयाभिरामे, सुगंध-वर-गंध-गंधिए, गंधवट्टिभूए, णड-णट्टग-जल्ल-मल्ल-मुट्ठिय-वेलंबय-पवग-कहग-लासगआइक्खग-लंख-मंख-तूणइल्ल-तुंब-वीणिय-भुयग-मागह-परिगए, बहुजणजाणवयस्स विस्सुय-कित्तिए, बहुजणस्स आहुस्स आहुणिजे, पाहुणिज्जे, अच्चणिज्जे, वंदणिज्जे, णमंसणिजे, पूयणिजे, सक्कारणिजे, सम्माणणिजे, कल्लाणं, मंगलं, देवयं, चेइयं, विणएणं पज्जुवासणिजे, दिव्वे, सच्चे, सच्चोवाए सण्णिहिय-पाडिहेरे, जाग-सहस्स-भाग-पडिच्छए (यागभागदाय सहस्स पडिच्छए) बहुजणो अच्चेइ आगम्म पुण्णभई चेइयं पुण्णभदं चेइयं। कठिन शब्दार्थ - पुष्फ - पुष्प-फूल, पुंज - ढेर, उवयार - उपरचित-रचना की हुई, कुदुरुक्ककुन्दुरुष्क-गंध द्रव्य विशेष-चीड़, तुरुक्क - तुरुष्क-लोबान, मघ-मघंत - अत्यन्त गंधयुक्त, उद्धय - सब जगह फैला हुआ, गंधवट्टिभूए - गंध की बत्ती के समान, भुयग - भोजक-सेवक, मागह - मागध-स्तुतिपाठक, आहुस्स - हवन करने वाले-दाता, आहुणिजे-दानपात्र, पाहुणिजे- बार-बार दान देने योग्य, दिव्वे - दिव्य, सच्चे - सत्य, सच्चोवाए- सेवा का फल देने वाला, सण्णिहिय-पाडिहेरेअतिशय और अतीन्द्रिय प्रभाव युक्त, यागभागदाय सहस्स पडिच्छए - इसके नाम से हजारों लोग दान देते थे, आगम्म - आकर। भावार्थ - वह चैत्य पंचरंगी सरस सुगन्धित ढेर के ढेर डाले गये फूलों की पूजा से कलितशोभित था। काले अगर, श्रेष्ठ कुंदुरुक्क और तुरुक्क के धूप की महक से युक्त गंध के द्वारा वातावरण अभिराम मनोरम बना रहता था। सुगंध से सुवासित रहता था। महक की लपटें उठा करती थीं-सुगंधित धुएं की इतनी प्रचुरता थी कि जिससे (गंध की) गोल गुटिकाएं (छल्ले) बन रही थी। वह चैत्य नट, नर्तक, जल्ल, मल्ल, मौष्टिक, विदूषक-हास्यकला-मर्मज्ञ, प्लवक-तैराक या वानरचेष्टा करने वाले, कथावाचक-कथक रासकों के आलपक, भविष्य भाखने वाले, बांस के अग्रभाग पर खेलने वाले, देवता-वीर आदि से सम्बन्धित चित्रपट दिखलाने वाले, तुनतुनी बजाने वाले, वीणा-वादक, भुजगभौगि या भोजक-पुजारी और मागध-भाट, यशोगान के गायकों से पूरा भरा रहता था। बहुत से नगर निवासियों और देश-निवासियों में उसकी कीर्ति कर्ण-परम्परा से फैली हुई थी। बहुत से नागरिकोंआहोता-दानियों पूजकों के लिए वह आह्वान करने योग्य, विशिष्ट रीतियों से आह्वान करने योग्य, चन्दन आदि सुगंधित द्रव्यों से अर्चना करने योग्य, स्तुतियों से वंदना करने योग्य, अंगों को झुका कर नमस्कार करने योग्य, फूलों से पूजने योग्य, वस्त्रों से सत्कार करने योग्य, मन से आदर देने योग्य, कल्याण-मंगल-देव और इष्टदेव रूप (में मानकर) विनय सहित पर्युपासना करने योग्य, दिव्य सत्य For Personal & Private Use Only Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० उववाइय सुत्त (वांछित) उपायों को सत्य बनाने वाला, सेवा को निष्फल नहीं जाने देने वाला, दिव्य प्रातिहार्यअतिशय, अतीन्द्रिय कार्य से युक्त और हजारों प्रकार की पूजा को चाहने वाला था। बहुजन पूर्णभद्र चैत्य पर आ-आकर के अर्चना करते थे। विवेचन - 'पुण्णभदं चेइयं पुण्णभदं चेइयं। इति अत्र द्विर्वचनं भक्ति-सम्भ्रम-विवक्षयेति । अर्थात् .. 'पुण्णभदं चेइयं' इस पद की पुनरावृत्ति जनता की भक्ति के आवेश को दरसाती है। ___ इस सूत्र में चैत्य की स्थिति, उसका होने वाला उपयोग और उसके प्रति जनसमाज की भावना का वर्णन किया गया है। प्रायः उस व्यंतरायतन में, विविध कारणों से लोगों की बहुत ही आस्था थी। उनकी दृष्टि के अनुसार उनके लिये वह पूजनीय-अर्चनीय और सत्य आदि था। अत: यह सूत्र 'बहुजन' की दृष्टि की ओर संकेतमात्र कह रहा है-सूत्रकार की दृष्टि का इसके साथ कुछ भी सम्बन्ध नहीं है। इस बात की पुष्टि 'बहुजणजाणवयस्स"बहुजणस्स आहुस्स' सूत्रांशों से भी होती है। .. शंका - सूत्रकार जब उस दृष्टि से सहमत नहीं है, तब फिर उसका इतना लम्बा; अलंकृत भाषा में आँखों के सामने वैसा ही दृश्य खड़ा करने की क्या आवश्यकता थी ? - 'जैसा हो वैसा' वर्णन करना, सूत्रकार को इष्ट हो सकता है। किन्तु ऐसे वर्णनों को किस ध्यान-किस भावना के अन्तर्गत गिनें ? क्योंकि वीतराग-मार्ग में वही स्वाध्याय-ध्यान उत्तम और कर्तव्य है, जो वीतरागता का पोषक हो। क्या यह विकथा-सन्मार्ग से विचलित करने वाला कथन-नहीं है? समाधान - पहली बात, इस स्थान का वर्णन इसलिए हुआ है कि भगवान् महावीर देव का वहाँ पदार्पण होगा। शासन-नायक के ध्यान रूप गुप्त पतले तागे में ये सूत्ररूप मणि पिरोये गये हैं। अतः वर्णन में तटस्थवृत्ति का निर्माण हो रहा है। रसमय वर्णन करते हुए भी सूत्रकार की उदासीन-मध्यस्थ दृष्टि अंकुश का कार्य करती हुई स्पष्ट झलक रही है। दूसरी बात, अलंकृत भाषा में हूबहू वर्णन करने का यह आशय स्पष्ट होता है कि भगवान् महावीर देव अपने निवास के लिये कैसे स्थान चुनते थे और उसमें कौन-सा ध्येय गर्भित होता था-यह स्पष्ट हो जाय। तीसरी बात, विषय-वर्णन मात्र से ध्यान और सद्भावना का सम्बन्ध नहीं है। किन्तु विषय-वर्णन के लक्ष्य, ढलाव और विचारक-ध्याता की वृत्ति से विशेष सम्बन्ध है। ध्यान और अनुप्रेक्षा के, नरक और स्वर्ग, श्रृंगार और वैराग्य, नृशंस और करुण, कठोर और कोमल, दूषण और भूषण, संसार और अपवर्ग-आदि सभी विषय और प्रसंग आधार हो सकते हैं-कायम रहना चाहिए, जिन आज्ञा का भान और उदासीन तटस्थ वृत्ति। ऐसा हो, तभी आत्मसमाधि आवेश-रहित दशा स्थिर रह सकती है और तभी वे विचार शान्तरस के स्थायी भाव बन सकते हैं। रसवृत्ति जागृत होते ही उदासीन वृत्ति-आत्मभान गायब हो जाता है और जिन-आज्ञा का विस्मरण। आकुलता बढ़ती है। अतः वे विचार उत्पन्न होने वाले विकारी भावों के अनुसार, शृंगारादि रसों का नाम धारण करते हैं और विकथा बन जाते हैं, आर्त्त-रौद्र ध्यान की गिनती में चले जाते हैं। इस सूत्र में लोगों की भूलभूलैया में फंसी भावना के प्रति सूत्रकार की करुणा का दर्शन हो रहा है और 'बहुजन के लिये' For Personal & Private Use Only Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वनखण्ड वर्णन ११ 'पुजारियों के लिये' आदि पदों से और जनता के आवेश के वर्णन से जनभावना और जिन आज्ञा का विलगाव किया गया है, अतः विकथा नहीं। कीचड़ से निकलने के लिए होने वाला कीचड़ का मर्दन पंक-क्रीडा नहीं, किन्तु पंक-तरण है। ' वनखण्ड वर्णन ३- से णं पुण्णभद्दे चेइए एक्केणं महया वण-संडेणं सव्वओ समंता संपरिक्खित्ते। से णं वणसंडे किण्हे किण्होभासे, णीले णीलोभासे, हरिए हरिओभासे, सीए सीओभासे, णिद्धे णिद्धोभासे, तिव्वे तिव्वोभासे, किण्हे किण्हच्छाए णीले णीलच्छाए, हरिए हरियच्छाए, सीए सीयच्छाए, णिद्धे णिद्धच्छाएं, तिव्वे तिव्वच्छाए, घणकडिअ-कडिच्छाए, रम्मे महामेह णिकुरंबभूए। कठिन शब्दार्थ - णिद्धे - स्निग्ध, किण्हे - कृष्ण-काला, किण्हच्छाए - कृष्णछायः-छाया आदित्यावरणजन्यो वस्तुविशेषः-सूर्य के ढक जाने पर जोहो उसे छाया कहते हैं। घणकडिअ कडिच्छाएबहलनिरन्तरच्छाय-एक वृक्ष की शाखा दूसरे वृक्ष से मिली हुई थी इसलिए सघन छाया वाला। महामेहणिकुरंबभूए - महामेघवृन्दकल्प:-महामेघ के वृन्द (समूह) के समान।। भावार्थ - वह पूर्णभद्र चैत्य-व्यंतरायतन एक बहुत बड़े वनखण्ड से, दिशा-विदिशा में चारों ओर से घिरा हुआ था। उस वनखण्ड का अवभास-झांकी और छाया-कांति दीप्ति काली, नीली, हरी, शीतल, स्निग्ध चिकनी और तीव्र थी। वह स्वयं भी इन गुणों से युक्त था। वह शाखाओं के परस्पर चटाई के समान गुंथ जाने के कारण, घनी छाया से युक्त था। उसका दृश्य महामेघ की घिरी हुई घटा के समान रम्य था। . .विवेचन - दृश्य के वर्णन में 'कृष्ण' आदि शब्द दुबारा आये हैं। किन्तु इसमें पुनरुक्ति दोष नहीं है। क्योंकि वे शब्द पहली बार 'अवभास' के और दूसरी बार छाया के विशेषण के रूप में आये हैं और उन विशेषण युक्त पदों के पहले आये हुए 'कृष्ण' आदि वनखण्ड के विशेषण कार्य-कारण भाव के सूचक हैं। वृक्ष-जाति की विविधता और पत्तों की अवस्था के अनुसार दूर से प्रदेशान्तर में दिखाई देने वाले तिरंगें दृश्य का वर्णन करके, बाद में उसकी होने वाली असर का उल्लेख किया गया है। वह असर दृश्य-दर्शन के पश्चात् मनोवेग-जनित या दृश्य की प्रभा और दीप्ति के पुद्गलों और स्पर्शनेन्द्रिय के सम्बन्ध से जनित होना संभव है। ते णं पायवा मूलमंतो कंदमंतो खंधमंतो तयामंतो सालमंतो पवालमंतो पत्तमंतो For Personal & Private Use Only Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ . उववाइय सुत्त पुष्फमंतो फलमंतो बीयमंतो हरियमंतो अणुपुव्व-संज्ञाय-रुइल-वट्टभाव-परिणया, (एक्कखंधा अणेगसाला) अणेग-साह-प्पसाह-विडिमा अणेग-णर-वाम-सुप्पसारिअ-अगेज्झ-घण-विउल-बद्ध-खंधा (पाईणपडिणायय-साला उदीणदाहिणविच्छिण्णा ओणय-नय पणय विप्पहाइय ओलंब पलंब साहप्पसाह-विडिमा अवाईणपत्ता अणुईण्णपत्ता) अच्छिद्दपत्ता अविरलपत्ता अवाईणपत्ता अणईयपत्ता णिभूय-जरढ-पंडु-पत्ता, णव-हरिय-भिसंत-पत्त-भारंधकार-गंभीर-दरिसणिज्जा, उवणिग्गय-णव-तरुण-पत्त-पल्लव-कोमल-उज्जल-चलंत-किस-लय-सुकुमालपवाल-सोहिय-वरंकुरग्ग-सिहरा। कठिन शब्दार्थ - विडिमा - ऊपर की तरफ गई हुई शाखा, घण - सान्द्र-सघन, णिभूयःगिर गया, जरढ - पुराने, पंडु - पीले, भिसंत - चमकते हुए। भावार्थ - उस वन के वृक्ष मूल-जड़े, कंद-जड़ों का ऊपरी हिस्सा जहाँ फूटकर जड़े फैलती हैंथड़ के नीचे का भाग, स्कंध, छाल, शाखा, प्रवाल-पत्तों की अंकुरित अवस्था, पत्र पुष्प, फल और बीज से सम्पन्न थे। वे क्रमशः उत्तम ढंग से बढ़े हुए थे, सुन्दर थे और गोलाई में परिणत हो गये थे। (एक थड़ और अनेक शाखाएँ थी) अनेक शाखा-प्रशाखाओं के द्वारा मध्य भाग वाले या विस्तृत बने हुए थे। अनेक व्यक्तियों की पसारी हुई भुजाओं से भी न पकड़े जा सके ऐसे (उनके) सघन और मोटे बने हुए थड़ थे। उनके पत्ते छिद्र रहित घने - एक-दूसरे पर छाये हुए, अधोमुख और ईति-स्वजातीय या विजातीय तत्त्वों से होने वाली हानि और चूहे, टिड्डी आदि क्षुद्र जंतुओं के उपद्रव से रहित थे। उनके पुराने-जर्जर पीले पत्ते खिर जाते थे। हरे चमकते हुए नये पत्तों के भार से, वहाँ अंधेरा छाया हुआ रहता था और गंभीरता दिखाई देती थी। वे वृक्ष ताजे-ताजे नये पुष्ट पत्तों, कोमल, उज्ज्वल और हिलते हुए किशलयों-अपक्व पत्तों और प्रवाल-ताम्बे के से रंगवाले निकलते हुए कोमल पत्तों से शोभित, श्रेष्ठ अंकुर रूप शिखर को धारण किये हुए थे। णिच्चं कुसुमिया, णिच्चं मऊरिया, णिच्चं पल्लविया, णिच्चं माइया, णिच्चं लवइया, णिच्चं थवइया, णिच्चं गुलइया, णिच्चं गोच्छिंया, णिच्चं जमलिया, णिच्चं जुवलिया, णिच्चं विणमिया, णिच्चं पणमिया, णिच्चं कुसुमिय-माइयलवइय-थवइय-गुलइय-गोच्छिय-जमलिय-जुवलिय-विणमिय-पणमिय-सुविभत्तपिंड-मंजरि-वडिंसयधरा। ___ कठिन शब्दार्थ-कुसुमिया - कुसुमित-फूल वाले, मऊरिया- मयूरित-मंजरी वाले, पल्लविया - पत्तों से युक्त, थवइया - स्तबकित-गुच्छों वाला, मुलइया - गुलल्मित-गांठ वाले, गोच्छिया - फूल For Personal & Private Use Only Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वनखण्ड वर्णन १३ और फलों के गुच्छों वाले, जमलिया - यमलित-समान पंक्तिवाले, जुवलिया - युगल रूप में स्थित, मंजरी वडिंसयधरा - मंजरी रूप शिरोभूषण से युक्त। भावार्थ - उनमें कई वृक्ष बारहों मास फूलते थे, कई सदा मंजरियों से लदे रहते थे, कई नित्य पत्रभार से झूके हुए थे, कई हमेशा फूलों के गुच्छों से लदे रहते थे, कई पत्तों के गुच्छों से नित्य शोभित होते थे, कई गुल्मवाले थे, कई समश्रेणि रूप से सदा स्थित थे, कई नित्य युगल रूप से स्थित थे, कई फल-फूलादि के भार से सदा झुके रहते थे, कई सदा झुकने प्रारंभ हुए हों ऐसे स्थित रहते थे और कई इन सभी गुणों से युक्त थे। वे समस्त गुणों के धारक वृक्ष, सुन्दर रूप से बने हुए लुम्बों और मंजरियों के सेहरे (अवतंसक-कलंगियाँ) को सदा धारण किये रहते थे। सुय-बरहिण-मयण-साल-कोइल-कोहंगक-भिंगारक-कोंडलक-जीवंजीवकणंदीमुह-कपिल-पिंगलक्ख-कारंड-चक्कवाय-कलहंस-सारस-अणेग- सउणगणमिहुण-विरइय-सहुण्ण-इय-महुर-सर-णाइए सुरम्मे, संपिंडिय-दरिय-भमर-महुयरिपहकर-परिलित-मत्त-छप्पय-कुसुमासव-लोल-महुर-गुम-गुमंत-गुंजंत-देसभागे, अब्भंतर-पुष्फ-फले-बाहिर-पत्तोच्छण्णे, पत्तेहि यपुष्फेहि यउच्छण्ण-पडिवलिच्छण्णे (साउफले निरोयए अकंटए णाणाविह-गुच्छ-गुम्म-मंडवग-रम्म-सोहिए) रम्मे, विचित्त-सुह-केउभूए वावी-पुक्खरिणी-दीहियासु य सुणिवेसिय-रम्म-जालहरए। कठिन शब्दार्थ - सुय - शुक-तोता, बरहिण - मयूर (मोर), मयणसाल - मदनशाल-मैना, कोइल - कोयल-कोकिल, कोहंगक - पक्षी विशेष, भिंगारक - यह भी पक्षी विशेष, कोंडलक - पक्षी विशेष, जीवंजीवक - चकोर, णंदीमुह - नंदीमुख-पक्षी विशेष, कपिल - तीतर, पिंगलक्ख - बटेर, कारंड- पक्षी विशेष, धक्कवाय - चक्रवाक-चकवा, सउणगण - पक्षियों का समूह, दरिय - दृप्त-उन्नत, महुयरि - मधुकरी-भ्रमरी, पहकर- प्रकर-समूह। . भावार्थ - वह वनखण्ड शुक, मोर, मयणसाल-मैना, कोयल, कोहंगक, भिंगारक, कोंडलक, जीवंजीवक-चकोर, नंदीमुख, कपिल, पिंगलाक्ष, कारंड-बतख, चक्रवाक, कलहंस और सारस आदि अनेक पक्षियों के जोड़े के द्वारा विरचित शब्दों की उन्नति और मधुर स्वरों के आलाप से प्रतिध्वनित रहता था। जिससे उसकी रम्यता बढ़ जाती थी। उन्मत्त भौरे और मधुमक्खियों-महूकरि के समूह एकत्रित होकर, वहीं लीन हो जाते थे और पुष्प-रस के लोभ से, मत्त षट्पद-सभी जाति के भौरे गुनगुन करते हुए, इधर-उधर गुंजन करते रहते थे। वृक्ष भीतर से फल-फूल से युक्त और बाहर से पत्तों से ढंके हुए थे-पत्तों और फूलों से पूरे लदे हुए थे। (उनके फल मीठे थे और वे रोग-रहित निष्कंटक थे। वह वनखण्ड विविध गुच्छ, गुल्मलताकुंज, लतामण्डप आदि के द्वारा रम्य लगता था-शोभा पा रहा था।) वहाँ चौकोण बावडियों For Personal & Private Use Only Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ H उववाइय सुत्त गोलबावड़ियों और लम्बी बावड़ियों में, रंग-बिरंगी शुभ ध्वजाओं से युक्त, सुन्दर ढंग से बने हुए रम्य जालगृह-जाली वाले घर थे। पिंडिम-णीहारिम-सुगंधि-सुह-सुरभि-मणहरं च महया गंधद्धणिं मुयंता, णाणाविह-गुच्छ-गुम्म-मंडवग-घरग-सुह-सेउ-केउ-बहुला, अणेग-रह-जाण-जुग्गसिविय-पविमोयणा, सुरम्मा पासाईया दरिसणिजा अभिरूवा पडिरूवा। . - कठिन शब्दार्थ - पिंडिम - एकत्रित, णीहारिम - दूर तक फैलने वाले, सुगंधि - सुगन्ध, सुह सुरभि मणहरं - शुभ गंध से मन को हरण करने वाली, गंधद्धणिं - गन्ध ध्राणि-गंध की तृप्ति, मुयंताछोड़ते हुए, मंडवग - मण्डप, घरग- घर, सुह - सुख, सेउ - सेतु (पुल, मार्ग) केउ - केतु - पताका, रह - रथ, जाण - यान-सवारी, जुग्ग - युग्य-गाडी, सिविय - शिविका-पालखी, पविमोयणा - रखने के स्थान। भावार्थ - वह वृक्ष समूह, दूर तक पहुँचने वाली सुगन्धि के सञ्चित परमाणुओं की शुभ महक के द्वारा मन को हर लेता था। क्योंकि वह विपुल तृप्तिकारक सुगंधि को छोड़ता-रहता था। वहाँ विविध गुच्छ, गुल्म, मंडप, घर, सुखप्रद मार्ग या क्यारियों की पालियाँ और ध्वजा की बहुलता थी। उसमें रथ, यान, डोलियां और पालखियाँ के प्रविमोचन-ठहराने के स्थान थे। इस प्रकार वे वृक्ष चित्त के लिए आह्लादक, नयनाभिराम, मनोरम और हृदयाकर्षक थे।' अशोक वृक्ष ४- तस्स णं वणसंडस्स बहुमज्झदेसभाए एत्थ णं महं एक्के( एगे) असोगवरपायवे पण्णत्ते। कुस-विकुस-विसुद्ध-रुक्ख-मूले, मूलमंते, कंदमंते जाव पविमोयणे सुरम्मे पासाईए दरिसणिजे अभिरूवे पडिरूवे। कठिन शब्दार्थ-कुस-डाभ, विकुस-डाभ सरीखा एक घास। भावार्थ - उस वनखण्ड के लगभग मध्यभाग में एक विशाल अशोक वृक्ष था। वह सुन्दर था। उस वृक्ष का मूल कुश-दर्भ और विकुश-घास आदि से रहित विशुद्ध था। उसके मूल आदि दसों अंग श्रेष्ठ थे। वह सभी गुणों (यावत् प्रविमोचन तक के वनखण्ड के वृक्षों के विषय में कथित विशेषताओं) से युक्त सुरम्य, चित्त को प्रसन्न करने वाला, दर्शनीय, अभिरूप और प्रतिरूप था, चित्त आह्लादक....था। विवेचन - दूसरी वाचना में इतना पाठ अधिक है दूरोवगय कंदमूल वट्ट-लट्ठ संठिय-सिलिट्ठ घण मसिण णिद्ध सुजाय णिरुवह उव्विद्ध पवर खंधी अणेगनर पवर भुया-गेझो कुसुम भर समो णमंत पत्तल विसाल For Personal & Private Use Only Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अशोक वृक्ष सालो महुकरि भमर गण गुमगुमाइय णिलिंत उडिंत-सस्सिरीए णाणा सउण गण मिहुण सुमहुर कण्णसुह पलत्त सद्द महुरे ।' कठिन शब्दार्थ - वट्ट - वृत्त वर्तुल गोल, लट्ठ - लष्ट मनोज्ञ, सिलिट्ठ - श्लिष्ट सङ्गत, घण - निबिड़ - सघन, मसिण - अपरुष- मुलायम, णिद्ध - स्निग्ध-चिकणा, निरुवह - निरुपहत-विकार रहित, उव्विद्ध - उद्विध - अत्यन्त ऊंड़ा, अगेज्झो अग्राह्य, पलतसद्द प्रलप्तशब्द उच्चारण किया हुआ शब्द । अर्थ - उस अशोक वृक्ष का स्कन्ध दूर तक फैला हुआ था । जडें बहुत ऊंड़ी गई हुई थी। बहुत से मनुष्य हाथ पसारे तो भी उसका स्कन्ध ग्रहण नहीं होता था । भ्रमर और अनेक पक्षी उस पर मधुर शब्द कर रहे थे। सेणं असोगT-वर - पायवे - अण्णेहिं बहूहिं तिलएहिं लउएहिं छत्तोवेहिं सिरीसेहिं सत्तवण्णेहिं दहिवण्णेहिं लोद्धेहिं धवेहिं चंदणेहिं अज्जुणेहिं णीवेहिं कुडएहिं कलंबेहिं सव्वेहिं फणसेहिं दाडिमेहिं सालेहिं तालेहिं तमालेहिं पियएहिं पियंगूहिं पुरोवगेहिं रायरुक्खेहिं णंदिरुक्खेहिं सव्वओ समंता संपरिक्खित्ते । ते णं तिलया लवइया जाव • णंदीरुक्खा कुस - विकुस - विसुद्ध - रुक्खमूला मूलमंतो कंदमंतो एएसिं वण्णओ • भाणियव्वो जाव सिविय- पविमोयणा सुरम्मा पासाईया दरिसणिज्जा अभिरुवा पडिरूवा । १५ भावार्थ - वह अशोकवृक्ष तिलक, लकुच, छत्रोप, शिरीष, सप्तपर्ण, दधिपर्ण लोध्र, धव, चंदन, अर्जुन, नीप, कुटज, कदम्ब, सव्य, पनस, दाडिम, शाल, ताल, तमाल, प्रियक, प्रियंगु, पुरोपग, राजवृक्ष और नंदिवृक्ष- इन वृक्षों से चारों ओर से घिरा हुआ था। वे वृक्ष भी कुश - विकुश से रहित- विशुद्ध मूलवाले, स्वस्थ मूलवाले, कंदवाले ( इन वृक्षों का वर्णन 'सिविय पविमोयणा' तक कहना चाहिए ) सुरम्य, चित्त को प्रसन्न करने वाले, दर्शनीय, अभिरूप और प्रतिरूप थे। ते णं तिलया जाव णंदिरुक्खा अण्णेहिं बहूहिं पउम लयाहिं णाग लयाहिं असोग लाहिं चंपग लयाहिं चूय लयाहिं वण लयाहिं वासंतिय लयाहिं अइमुत्तग लयाहिं कुंद लाहिं सामलयाहिं सव्वओ समंता संपरिक्खित्ता । ताओ णं पउमलयाओ णिच्चं कुसुमियाओ जाव वडिंसयधरीओ पासाईयाओ दरिस - णिज्जाओ अभिरूवाओ पडिरूवाओ । वार्थ- वे तिलक से लगाकर नंदी तक के वृक्ष अन्य बहुत-सी पद्म लताओं, नाग लताओं, अनेक लताओं-कली चम्पक लताओं, सहकार लताओं, वन लताओं- पीलुक वासंती लताओं, भूतिमुक्तक लताओं, कुंद लताओं और श्याम लताओं - प्रियंगु से चारों तरफ घिरे हुए । वे लताएँ फूलने वाली से लगा कर श्रेष्ठ अंकुरों के सेहरों तक की विशेषताओं से परिमंडित थी चित्तअसानकारक, दर्शनीय, अभिरूप थीं। For Personal & Private Use Only Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ उववाइय सुत्त शिलापट्टक वर्णन ५ - तस्स णं असोगवर पायवस्स हेट्ठा ईसिं खंध- समल्लीणे एत्थ णं महं एगे पुढवि-सिलापट्टए पण्णत्ते । विखंभायाम-उस्सेह-सुप्पमाणे, किण्हे (अंजणग-घण कुवलयहलधरकोसेज्जागास केस कज्जल कक्के यणिंदणील-अयसि - कुसुमप्यगासे भिंगंजण सिंगभेय-रिट्ठग-णीलगुलिय-गवल-अग- भमर- निकुरंबभूए जम्बूफलअसण- कुसुम - बंधण - णीलुप्पल-पत्त- णिकर - मर-गय- आसासग-णयणकीयरासिवण्णे णिद्धे रूवगपडिरूव-दरिसणिजे मुत्ता - जाल - खइयंतकम्मे । ) अंजण घाणकिवाण - कुवलय- हलधर-कोसेज्जागास - केस - कज्जलंगी - खंजण- सिंगभेद-रिट्ठयजंबूफल - असणक-सणबंधण - णीलुप्पल-पत्त- णिकर- अयसि - कुसुम-प्पगासे मरगयमसार - कलित्तणयण-कीय-रासिवण्णे, णिद्धघणे अट्ठसिरे आयंसय-तलोवमे सुरम्मे ईहामिय-उसभ- तुरग-र-मगर- विहग-वालग-किण्णर-रुरु- सरभ- चमर-कुंजरवणलय-पउम-लय-भत्तिचित्ते, आईगंग- रूय बूरणवणीय- तूल-फरिसे सीहासणसंठिए, पासाईए दरिसणिज्जे अभिरूवे पडिरूवे । कठिन शब्दार्थ - ईसिं - ईषत् - थोडा, खंधसमल्लीणे- स्कन्ध के पास, विखंभ - विष्कम्भमोटा, आयाम - लम्बा, उस्सेह- ऊँचा, हलधर बलदेव, कोसेज्ज - वस्त्र, मरगय - मरकत मणि, मसारचिकना बनाने वाला अर्थात् कसौटी पत्थर, णयणकीय आँख की कीकी, अट्ठसिरे अष्टकोण, आयंसतलोयमे - कांच के तले के समान, ईहामिय- ईहामृग-भेडिया, वालग - जंगली सर्प, उसभ - ऋषभ - बैल, तुरग - घोडा । ' भावार्थ- वहाँ उस श्रेष्ठ अशोक वृक्ष के नीचे, उसके थड़ के कुछ समीप पृथ्वी का एक बड़ा शिलापट्टक था। उसकी लम्बाई, चौड़ाई और ऊँचाई उत्तम प्रमाण से युक्त थी। वह काला था। अञ्जन, मेघ, कृपाण, नीलकमल, बलदेव के वस्त्र, आकाश, केश, काजल के घर, काजली, सींग के भीतरी हिस्से, रिष्टक रत्न, जाम्बूफल, बीयक नाम की वनस्पति, सन के फूल के डंठल, नीलकमल के पत्तों के समूह और अलसी के फूल के समान उसकी प्रभा थी और मरकत, इन्द्रनील मणि, कटित्र - एक प्रकार के चमड़े या कमर पर बांधने के एक जात के चमड़े के कवच और आँखों की तारा की राशि के समान वर्ण था। वह अति स्निग्ध, अष्टकोण, दर्पण के तले के समान चमकीला और सुरम्य था। ईहामृग, वृषभ, अश्व, मनुष्य, मगर, पक्षी, सर्प, किन्नर, रुरु, सरभ - अष्टापद, चमर, हाथी, वनलता और पद्मलता के भित्तिचित्रों से युक्त था। उसका स्पर्श आजीनक- मृगचर्म या सुकोमल चर्मवस्त्र, रूई, बूर, मक्खन - For Personal & Private Use Only Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कोणिक राजा का वर्णन १७ और आक की रूई के समान मृदु-कोमल था। सिंहासन के समान आकार था। चित्त प्रसन्नकारक, दर्शनीय, सुन्दर और मन से भुलाया न जा सके वैसा वह था। कोणिक राजा का वर्णन ६- तत्थ णं चंपाए णयरीए कूणिए णामं राया परिवसइ। महया-हिमवंतमहंत-मलय-मंदर-महिंद-सारे, अच्चंत-विसुद्ध-दीह-रायकुल-वंस-सुप्पसूए, णिरंतरं राय-लक्खण-विराइअंगमंगे बहुजण-बहुमाण पूइए सव्वगुण समिद्धे खत्तिए, मुइए मुद्धाहिसित्ते माउपिउ-सुजाए। भावार्थ - उस चम्पा नगरी में कोणिक नाम का राजा रहता था। वह महाहिमवान् पर्वत के समान महान् और मलय, मेरु और महेन्द्र पर्वत के समान प्रधान था। अत्यन्त विशुद्ध, चिरकाल से राजकुल के रूप में प्रख्यात वंश में उसका जन्म हुआ था। उसके अंग सभी राजलक्षणों से सुशोभित थे। बहुत-से मनुष्य उसका बहुमान करते थे-पूजा करते थे। क्योंकि वह सभी गुणों से समृद्ध था-आक्रमण से जनता को बचाने वाला क्षत्रिय था और वह हमेशा प्रसन्न चित्त रहता था। वैधानिक रूप से राजा स्वीकार किया जा चुका था तथा अपने माता-पिता का योग्य पुत्र था-विनीत था। दयपत्ते, सीमंकरे, सीमंधरे, खेमंकरे खेमंधरे, मणुस्सिदे, जणवयपिया जणवयपाले, जणवय-पुरोहिए, सेउकरे, केंउकरे, णरपवरे पुरिसवरे पुरिससीहे पुस्सिवम्बे पुरिसासीविसे-पुरिसपुंडरीए पुरिसवर-गंधहत्थी, अड्डे दित्ते वित्ते, विच्छिण्ण-विउलभवण-सयणासण-जाण-वाहणाइण्णे बहुधण-बहुजाय-रूव-रयए आओग-पओग-संपउत्ते, विछड्डिअ-पउर-भत्तपाणे. बहु-दासी-दास-गो-महिसगवेलग-प्पभूए पडिपुण्ण जंत-कोस-कोट्ठागाराउधागारे कठिन शब्दार्थ - दयपत्ते - करुणा युक्त, सीमंकरे - सीमाकारी-सीमा बांधने वाला, सीमंधरे - स्वयं मर्यादा का पालन करने वाला, खेमंकरे - प्रजा में क्षेमकुशल बर्ताने वाला, खेमंधरे - प्रजा में आप स्वयं उपद्रव नहीं करने वाला, मणुस्सिंदे - मनुष्यों में इन्द्र के समान, जगवय-पुरोहिए - देश में शान्ति बताने वाला, सेउकरे - मार्गदर्शक, केउकरे - अद्भूत कार्य करने वाला। भावार्थ - उसमें करुणा प्रमुख कोमल गुणों का विकास था वह मर्यादा का कर्ता, की हुई मर्यादा का पालक, उपद्रव रहित अवस्था को बनाने वाला और प्राप्त हुई निरुपद्रव दशा का योग्य साधनों से स्थिर कर्ता था। परम ऐश्वर्य के कारण मनुष्यों में इन्द्र के समान था। जनता के हित का इच्छुक होने के कारण देश का पिता, रक्षक होने के कारण देश का पालक, शान्ति करने के कारण देश का पुरोहित, For Personal & Private Use Only Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ स्ववाइय सुत्त मार्ग-दर्शक अद्भुत कार्य करके आदर्श स्थापित करने वाला और अति श्रेष्ठ नर रूप निधि का मालिक या अत्यन्त श्रेष्ठ मनुष्यों का आश्रयदाता था। पुरुषों में श्रेष्ठ-प्रधान पुरुषों में सिंह के समान शूरवीर, पुरुषों में व्याघ्र रूप, पुरुषों में आशीविष-सर्प अर्थात् कोप को सफल करने की शक्ति वाला, पुरुषों में सफेद कमल-सुखार्थियों से सेवित और पुरुषों में गंधहस्ति के समान-विरोधी राजा रूप हाथियों का भञ्जक था। अत: वह समृद्ध, दर्पवान् और प्रसिद्ध था। उसके यहाँ अनेकों विशाल भवन, सोने-बैठने के आसन, यान रथ आदि और वाहन अश्व आदि की अधिकता थी। बहुत सारा धन, सोना और रूपा (चांदी) था। वह अर्थलाभ के अनेक उपायों का प्रयोग करने वाला था। उसके यहाँ से बहुत-से व्यक्तियों के भोजन-दान के बाद विविध प्रकार का प्रचुर भोजन-पान बचा हुआ रहता था। उसके अनेक दासी-दार थे और गायें, भैंसें और भेड़ों की बहुलता थी। सब तरह के यंत्र कोश-खजाना, कोठार और शस्त्रागार भरपूर थे। बलवं दुब्बल-पच्चामित्ते, ओहयकंटयं णिहयकंटयं मलिय-कंटयं उद्धियकंटयं अकंटयं, ओहयसत्तुं, णिहयसत्तुं, मलियसत्तुं उद्धियसत्तुं णिज्जियसत्तुं पराइयसत्तुं, ववगय-दुभिक्खं मारिभय-विप्पमुक्कं खेमं सिवं सुभिक्खं पसंत-डिंब-डमरं (पसंताहियडमरं) रज्जं पसासेमाणे (पसाहेमाणे) विहरइ। भावार्थ - उसके पास प्रबल सेना थी। उसने अपने राज्य के सीमान्त प्रदेश के राजाओं या अपने पडोसी राजाओं को दुर्बल बना दिये थे। उसने अपने गोत्र में उत्पन्न विरोधियों का एवं समान आकांक्षियों का विनाश कर दिया था, उनकी समृद्धि का अपहरण कर लिया था, उनके मान को भंग कर दिया था और उन्हें अपने देश से निकाल कर बाहर कर दिया था। अतः उसका कोई भी गोत्रज विरोधी शेष नहीं रहा था। इसी तरह शत्रुओं का भिन्न गोत्रोत्पन्न विरोधियों का भी विनाश कर दिया था, वैभव-धन छीन लिया था, मान भंग कर दिया था, उन्हें देश से बाहर निकाल दिया था, अपने प्रभाव से जीत लिया था और पुनः शिर न उठा सके ऐसी हालत में पहुंचा दिया था। अतः वह दुर्भिक्ष, मारी और भय से मुक्त क्षेम-निरुपद्रव कल्याणमय, सुभिक्षयुक्त और विघ्न राजकुमारादि कृत उपद्रवता से रहित राज्य का शासन करता हुआ रहता था।) विवेचन - जिसका मातृपक्ष निर्मल हो उसे मुदित कहते हैं। जैसा कि कहा है - 'मुइओ जो होइ जोणिसुद्धो' अर्थात् जिसकी योनी (उत्पत्ति स्थान) निर्मल हो। मूल में धन शब्द दिया है यहाँ धन चार प्रकार का बतलाया गया हैं- यथा- धनं-गणिम-धरिममेय-परिच्छेद्य-भेदाच्चतुर्धा गणिमं जाईफल फोफलाइं, धरिमं तु कुंकुम-गुडाई। मेजं चोपड-लोणाई, रयण-वत्थाई परिछेनं॥ For Personal & Private Use Only Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धारिणी राणी का वर्णन अर्थ - धन चार प्रकार का कहा गया है - यथा - गणिम - गिनने योग्य - जायफल, सुपारी, नारियल आदि। धरिम - तराजू में धरकर तोलने योग्य-गुड़, गेहूँ आदि धान्य। मेय - मापने योग्य - तेल, घी आदि। परिच्छेद्य - परीक्षा करने योग्य-रत्न, वस्त्र, हाथी, घोड़ा आदि। धारिणी राणी का वर्णन ७-तस्सणंकोणियस्सरण्णो धारिणी णामं देवी होत्था।सुकुमाल-पाणि-पाया, अहीण-पडिपुण्ण-पंचिंदिय-सरीरा, लक्खण-वंजण-गुणोववेआमाणु-म्माण-प्पमाणपडिपुण्ण-सुजाय-सव्वंग-सुंदरंगी, ससि-सोमागार-कंत-पिय-दसणा, सुरूवा। भावार्थ - उस कोणिक राजा की धारिणी नाम की राणी थी। उसके हाथ-पैर सुकोमल थे। पांचों इन्द्रियाँ और शरीर लक्षण की अपेक्षा से खामियों से रहित और स्वरूप की अपेक्षा से परिपूर्ण या पवित्र था। वह स्वस्तिक आदि लक्षण, तिल, मष आदि व्यंजन रूप गुणों से युक्त थी। मान, उन्मान और परिमाण से परिपूर्ण होने के कारण यथोचित अवयवों की रचना से उसके पैरों से लेकर मस्तक तक समस्त अङ्ग और उपाङ्ग बड़े सुन्दर थे अर्थात् उसका शरीर सर्वाङ्ग सुन्दर था। उसका आकार चन्द्र के समान सौम्य और दर्शन कान्त और प्रिय था। इस प्रकार उसका रूप बहुत सुन्दर था। गई विवेचन - प्रश्न - मान किसको कहते हैं ? उत्तर - मनुष्य परिमाण जल से भरे हुए कुण्ड में मनुष्य को बिठाने पर उसमें से यदि द्रोण परिमाण जल बहकर कुण्ड से बाहर निकल जाय तो उस मनुष्य का उचित "मान" गिना जाता है। लगभग एक सेर के बराबर तोल को एक प्रस्थ (पायली) माना जाता है। ऐसे चार प्रस्थ का एक आढक होता है और चार आढक का एक द्रोण होता है। प्रश्न - उन्मान किसको कहते हैं ? उत्तर - तराजू में तोला जाय और अर्ध भार प्रमाण तोल आवे उसको उन्मान युक्त मनुष्य कहा जाता है। मगध देश में प्रसिद्ध एक प्रकार के तोल को अर्धभार कहा है। - परिमाण किसको कहते हैं ? उत्तर - अपने अङ्गल से एक सौ आठ अङ्गल परिमाण ऊँचाई वाला पुरुष परिमाण वाला FRIA प्रकार धारिणी राणी मान, उन्मान और परिमाण युक्त थी। करबल-परिमिय-पसत्थ-तिवलिय-वलिय-मज्झा, कुंडलुल्लिहिय गंडलेहा For Personal & Private Use Only Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० ( कुंडलोल्लिहिय पीणगंडलेहा ) कोमुइ-रयणियर विमल पडिपुण्ण- सोम-वयणा, सिंगारागार - चारुवेसा, संगय-गय- हसिय- भणिय-विहिय-विलास- सललिय-संलावणिउण- जुत्तोवयार- कुसला (सुंदर थणजघणवयण- करचरण - णयण - लावण्ण विलास कलिया) पासाईया दरिसणिजा अभिरुवा पडिरूवा उववाइय सुत्त कोणिएणं रण्णा भंभसार पुत्तेणं सद्धिं अणुरत्ता अविरत्ता इट्ठे सह-फरिस - रसरूव- गंधे पंचविहे माणुस्सए कामभोए पच्चणुब्भवमाणी विहरइ । कठिन शब्दार्थ- कोमुड़ कौमुदी - कार्तिक पूर्णमासी, रयणियर रजनीचर। भावार्थ - उसकी कमर करतल-परिमित अर्थात् मुट्ठी में आवे इतनी पतली थी और मध्यभाग प्रशस्त : त्रिवली पेट पर पड़ने वाली मुडी हुई तीन रेखाओं से युक्त थी। कुण्डलों के द्वारा जिसके कपोलों-गालों की रेखा सतेज हो गई थी। मुख शरदपूनम के चांद के समान विमल, परिपूर्ण और सौम्य था । श्रृंगार रस के आगार-घर के समान सुन्दर वेश था। उसकी चाल, हंसी, बोली, अंगचेष्टा और आँखों की चेष्टा संगत• उचित थी । वह प्रसन्नता से युक्त वार्तालाप करने में निपुण थी और योग्य लोकव्यवहार में दक्ष थी । अतः वह चित्त के लिए आकर्षक, नयनाभिराम और सौन्दर्य की प्रतिमा थी- मन में उसकी सौम्यमूर्ति अङ्कित हो जाती थी। वह भंभसार - श्रेणिक के पुत्र कोणिक राजा के साथ बहुत ही प्रीति रखती थी- राजा द्वारा अप्रिय प्रसंग आने पर भी विरक्त नहीं होती थी और इष्ट शब्द-संगीत आदि, रूप-नाटक आदि, गंध-फूल, इत्र, धूप आदि, रस- खाद्य पदार्थ और स्पर्श - वस्त्राभूषण, मकान शय्या, मर्दन, शीत-उष्णता की अनुकूलता आदि, ये पांच तरह के मनुष्य सम्बन्धी काम-भोगों को बारबार भोगती हुई रहती थी । कोणिक राजा की भगवद्भक्ति - ८ - तस्स णं कोणिअस्स रण्णो एक्के पुरिसे विउल-कय-वित्तिए भगवओ पवित्तिवाउए, भगवओ तद्देवसिअं पवित्तिं णिवेएइ । तस्स णं पुरिसस्स बहवे अण्णे पुरिसा दिण्ण- भति-भत्त-वेयणा भगवओ पवित्तिवाडया भगवओ तद्देवसिअं पवित्तिं णिवेदेंति । - कठिन शब्दार्थ - पवित्तिवाडए - प्रवृत्तिव्यापृत- प्रवृत्ति को निवेदन करने वाला । भावार्थ - उस कोणिक राजा ने भगवान् की विहारादि प्रवृत्ति को जानने के लिये एक पुरुष को विपुल वृत्ति-आजीविका देकर नियुक्त किया था, जो भगवान् की उस दिन सम्बन्धी प्रत्येक दिन की प्रवृत्ति का उससे निवेदन करता था । उस पुरुष के भी बहुत-से अन्य पुरुष भगवान् की प्रवृत्ति के निवेदक थे, जिन्हें दैनिक आजीविका और भोजन रूप वेतन देकर नियुक्त कर रखे थे। वे उसे भगवान् की प्रतिदिन की प्रवृत्ति के समाचार देते थे। For Personal & Private Use Only Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान् महावीर का वर्णन विवेचन - वृत्ति का परिमाण इस प्रकार बतलाया गया है - 'अर्द्धत्रयोदश-रजत सहस्वाणि यदाहमंडलियाणं सहस्सा पीइदाणं सयसहस्सा' अर्थात् वृत्ति का परिमाण साढ़े बारह हजार रजतमुद्राएँ (चांदी के सिक्के) हैं। क्योंकि कहा है "माण्डलिकों की ओर से वृत्ति हजारों की संख्या में और प्रीतिदान सौ-हजारों लाखों की संख्या में दिया जाता है। .. ९-तेणं कालेणं तेणं समएणं कोणिए राया भंभ-सार-पुत्ते बाहिरियाए उवट्ठाणसालाए अणेगगण-णायग-दंडणायग-राईसर-तलवर-माडंविय-कोडंवियमंति-महामंति-गणग-दोवारिय-अमच्च-चेड-पीढमह-णगर-णिगम-सेट्ठि-सेणा-वइसत्यवाह-दूयसंधि-वाल-सद्धिं संपरिवुडे विहरइ। कठिन शब्दार्थ - उवट्ठाणसालाए - उपस्थान शाला अर्थात् सभा भवन।। भावार्थ - उस काल और उस समय में भंभसार-श्रेणिक का पुत्र कोणिक राजा, बाहरी सभा भवन में अनेक गणनायकों, दण्डनायकों-तंत्र के रक्षकों (कोतवाल) राजाओं, युवराजाओं, तलवरों अर्थात् राजा के द्वारा सम्मान सहित दिये गये रत्नपट्टक के धारक धनिकों, माडम्बिकों-दूर-दूर पर फैली हुई और बीच की भूमि में आस-पास बस्ती से रहित बस्तियों के स्वामियों, कुटुम्बों के आगेवानों, मन्त्रियों, महामन्त्रियों (मंत्रीमण्डल का प्रधान) गणकों-ज्योतिषियों अथवा खजांची, दौवारिकोंप्रतिहारों या दरवानों, अमात्यों-राज्य के अधिष्ठायकों, चेटों-सेवकों, परिपार्श्वकों या जी हजूरियों, नागरिकों, कर्मचारियों या व्यापारियों, श्रेष्ठियों-शिर पर 'श्री' देवता के चिह्नाङ्कित स्वर्णपट्ट के धारक चिनिकों, सेनापतियों, सार्थवाहों, व्यापारियों के समूह को साथ में लेकर व्यापारार्थ देश-विदेश में भ्रमण करने वालों दूतों और सन्धिपालों-राज्य-सीमा के रक्षकों से घिरा हुआ बैठा था। भगवान् महावीर का वर्णन १०- तेणं कालेणं तेणं स्मएणं समणे भगवं महावीरे, आइगरे तित्थगरे (तित्थयरे) सहसंबुद्धे, पुरिसुत्तमे पुरिससीहे पुरिसवर-पुंडरीए पुरिसवरगंधहत्थी, अभयदए, चक्खुदए मग्गदए सरणदए जीवदए, दीवो ताणं सरणं गइ पइट्ठा धम्मबर-चाउरंत-चक्कवट्टी अप्पहिडय-वर-णाण-दसण-धरे वियदृच्छउमे जिणे जाणए तिण्णे तारए मुत्ते मोयए बुद्धे बोहए, सव्वण्णू सव्वदरिसी सिव-मयल-मरुअमणंत-मक्खय-मव्वावाह-मपुणरावत्तिअं सिद्धिगइ-णामधेयं ठाणं संपाविउकामे (अरहा जिणे केवली)। भावार्थ - उस काल और उस समय में श्रमण भगवान् महावीर स्वामी चम्पा के समीप पधारे। वे For Personal & Private Use Only Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ उववाइय सुत्त घोर तपस्या करने से 'श्रमण' नाम से प्रसिद्ध थे। समस्त ऐश्वर्य से युक्त होने के कारण 'भगवान्' कहे जाते थे। देव आदि के द्वारा उपद्रव किये जाने पर भी अपने मार्ग पर वीरता से डटे रहे. अतः देव उन्हें 'महावीर' नाम से प्रतिष्ठित किये थे। केवल ज्ञान होने पर पहले पहल श्रुतधर्म के करने वाले होने से वे आदिकर्ता थे और साधु साध्वी श्रावक और श्राविका रूप चतुर्विध संघ रूप तीर्थ के स्थापक होने के कारण तीर्थकर थे। स्वयमेव-किसी की सहायता या निमित्त के बिना ही-उन्होंने बोध प्राप्त किया था। वे पुरुषों में उत्तम थे, क्योंकि उनमें सिंह के समान शौर्य का उत्कृष्ट विकास हआ था, पुरुषों में रहते हुए भी श्रेष्ठ सफेद कमल के समान सभी प्रकार की अशुभताएं-मलिनताएं, उनसे दूर रहती थी और श्रेष्ठ गंधहस्ती के समान, किसी क्षेत्र में उनके प्रविष्ट होते ही सामान्य हाथियों के समान परचक्र, दुर्भिक्ष, महामारी आदि दुरितों का विनाश हो जाता था। वे प्राणों को हरण करने में रसिक और उपद्रवों के करने वालों को भी भयभीत नहीं करते थे अथवा सभी प्राणियों के भय को हरण करने वाली दया के धारक थे-निर्भयता के दाता थे। चक्षु के समान श्रुतज्ञान के देने वाले थे। सम्यग्-दर्शन आदि मोक्षमार्ग के प्रदाता थे। उपद्रव से रहित स्थान के दायक थे और जीवन= अमरता रूप.भाव प्राण के दानी थे। वे दीपक के समान समस्त वस्तुओं के प्रकाशक अथवा द्वीप के समान संसार सागर में नाना प्रकार के दु:खों की लहरों के थपेड़ों से पीड़ित व्यक्तियों के लिए आश्वासन-धैर्य के कारण द्वीप रूप, अनर्थों के नाशक होने से त्राणरूप, उद्देश्य की प्राप्ति में कारण होने से शरणरूप, खराब अवस्था से उत्तम अवस्था में लाने वाली गति रूप और संसार रूपी खड्डे में गिरते हुए प्राणियों के लिये आधार रूप थे। चार अन्तों- तीन दिशाओं में समुद्र और उत्तर दिशा में हिमवान् पर्वत रूप किनारे वाली पृथ्वी के मालिक चक्रवर्ती के समान धर्म में श्रेष्ठ चक्रवर्ती रूप थे। क्योंकि वे अप्रतिहत-अचूक ज्ञान के और दर्शन के धारक थे, कारण-उनके ज्ञान आदि के आवरण-ज्ञानादि गुणों को दबाने वाले कर्म हट गये थे। अतः निश्चय ही राग और द्वेष को जीत लिया था। ज्ञायक भाव में रागादि के स्वरूप, उनके कारण और फल के ज्ञातृभाव में-स्थित थे। इसलिए मुक्त थे, मुक्त करने वाले थे। बोध को प्राप्त किये हुए थे और दूसरों को बोध कराने वाले थे। वे सर्वज्ञ-सर्वदर्शी उपद्रव से रहित, स्वाभाविक और प्रयोगजन्य चलन से रहित, नीरोग, अनन्त, सादि होते हुए भी नाश से रहित-अक्षय, बाधा-पीड़ा से रहित थे। अरहा-वे अर्हन्त थे अर्थात् वे अशोकादि अष्टमहाप्रातिहार्य रूप पूजा के योग्य थे तथा उनसे कोई बात छिपी हुई नहीं थी जिणे-'जयति राग द्वेषौ इति जिनः वे जिन थे अर्थात् राग द्वेष के विजेता थे। वे केवली थे। अर्थात् शुद्ध अनन्त ज्ञानादि के धारक थे, अतएव वे सर्वज्ञ थे और जहाँ से पुनः आगमन नहीं हो ऐसे "सिद्धिगति' नामवाले स्थान को पाने के लिए सहजभाव से विचरण कर रहे थे अर्थात् अभी ऐसे स्थान को प्राप्त नहीं हुए थे किन्तु उसे प्राप्त करने की प्रवृत्ति चालू थी। भगवान् के शरीर का वर्णन सत्त-हत्थूस्सेहे, सम-चउरंस-संठाण-संठिए, वज-रिसह-णाराय-संघयणे, For Personal & Private Use Only Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शिख नख वर्णन th अणुलोम-वाउवेगे, कंकग्गहणी, कवोय-परिणामे, सउणि-पोस-पिटुंतरोरु-परिणए, पउमुप्पल गंध-सरिस-णिस्सास-सुरभि-बयणे, छवी णिरायंक-उत्तम-पसत्थ-अइसेय-णिरुवम-तले जल्ल-मल्ल-कलंक सेय-रय-दोस वज्जिय-सरीर-णिरुवलेवे छाया-उज्जोइयंग-मंगे। भावार्थ - भगवान् के शरीर की ऊँचाई सात हाथ की थी। आकार समचौरस संस्थान-उचित और श्रेष्ठ माप से युक्त-सुन्दर था। उनकी हड्डियों की संयोजना अत्यन्त मजबूत थी। अतः सौन्दर्य और शक्ति का सुन्दर संयोग हुआ था। शरीर-स्थित वायु का वेग अनुकूल था। कंकपक्षी के समान गुदाशय था अर्थात् मलोत्सर्ग-क्रिया में कोई खराबी नहीं थी या मलोत्सर्ग स्थान के अवयव नीरोग थे। कबूतर के आहार-परिणमन की शक्ति के समान पाचन शक्ति थी। पक्षियों के समान अपान-देश निर्लेप रहता था। पीठ, अन्तर-पीठ और पेट के बीच के दोनों तरफ के हिस्से-पार्श्व और जंघाएँ विशिष्ट परिणाम वाली थी अर्थात् सुन्दर थीं। पद्म कमल या 'पद्म' नामक गन्ध द्रव्य और उत्पल-नील कमल या 'उत्पलकुष्ठ' नामक गंध द्रव्य की सुगन्ध के समान नि:श्वास से सुरभित प्रभु का मुख था! उनकी चमड़ी कोमल और सुन्दर थी। रोग से रहित, उत्तम, शुभ, अति सफेद और अनुपम प्रभु की देह का मांस था। अतः जल्ल-कठिन मैल, मल्ल-अल्प प्रयत्न से छूटने वाला मैल, कलङ्क-दाग, पसीने और रज के दोष से रहित भगवान् का शरीर था-उस पर मैल जम ही नहीं सकता था। अतः अंग-अंग उज्ज्वल कान्ति से प्रकाशमान् थे। .. शिख नख वर्णन घण-णिचिय-सुबद्ध-लक्खणुण्णय-कूडागार-णिभ-पिंडि-अग्ग सिरए, सामलि-बोंड-घण-णिचियच्छोडिय-मिउ-विसय-पसत्थ-सुहुम-लक्खण-सुगंध-सुंदरभुयमोयग-भिंग-णिल-कज्जल-पहिट्ठ-भमर-गण-णिद्ध णिकुरंब-णिचिय-कुंचियपयाहिणावत्त-मुद्ध-सिरए दालिम-पुष्फ-प्पगास-तवणिज-सरिस-णिम्मल-सुणिद्धकेसंत-केसभूमी। १७. भावार्थ - अत्यन्त ठोस या सघन, स्नायुओं से अच्छी तरह से बंधा हुआ, श्रेष्ठ लक्षणों से युक्त, पर्वत के शिखर के समान आकार वाला और पत्थर की गोल पिण्डी के समान भगवान् का शिर था। सेमल वृक्ष के फल-जो कि रूई से ठोंस भरा हुआ हो, उसके फटे हुए अंश से रूई बाहर निकल आई हो- उसके समान कोमल, सुलझे हुए, स्वच्छ और चमकीले या पतले-सूक्ष्म, लक्षणयुक्त सुगंधित, सुन्दर, भुजमोचक रत्न, शृंगकीट, नील-विकार, काजल और अत्यंत हर्षित भौरे के समान काले और लटों के समूह से एकत्रित धुंघराले छल्लेदार बाल-प्रदक्षिणावर्त शिर पर थे। केश के समीप में केश के For Personal & Private Use Only Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उववाइय सुत्त उत्पत्ति के स्थान की त्वचा दाडिम के फूल के समान प्रभायुक्त थी, लाल सोने के समान वर्ण वाली निर्मल थी और उत्तम तेल से सिञ्चित-सी थी अर्थात् चिकनाई से युक्त चमकीली थी। . . विवेचन-- तीर्थंकर भगवन्तों के शरीर का वर्णन शिख नख अर्थात् मस्तक से लेकर पैरों के नखों तक होता है जब कि सामान्य मनुष्यों के शरीर का वर्णन पैरों से लगाकर मस्तक तक होता है। आगम में जहाँ प्रतिमाओं का वर्णन है यथा - ऋषभ, वर्धमान, चन्द्रानन,वारिसेण। इन सब प्रतिमाओं का वर्णन सामान्य मनुष्यों की तरह पैरों से लेकर मस्तक तक का है, इसलिए ये तीर्थंकरों की प्रतिमा नहीं है ऐसा समझना चाहिए। . __ घण-णिचिय-छत्तागारुत्तमंगदेसे, णिव्वण-सम-लट्ठ-मट्ठ-चंदद्धसम-णिडाले उडुवइ-पडिपुण्ण सोम-वयणे, अल्लीण-पमाण-जुत्त-सवणे, सुस्सवणे, पीण-मंसलकवोल-देसभाए (आणामिय चाव रुइल किण्हब्भराइ संठिय संगय आयय सुजायभमुए) आणामिय-चाव-रुइल-किण्हब्भराइ-तणु-कसिण-णिद्ध-भमुहे अवदालियपुंडरीय-णयणे कोयासिय-धवल-पत्तलच्छे, गरु-लायत-उज्जु-तुंग-णासे, उवचियसिल-प्पवाल-बिंबफल-सण्णिभाहरोटे, पंडुर-ससि-सयल-विमल-णिम्मल-संखगोक्खीर-फेण-कुंददगरय-मुणालिआ-धवल-दंत-सेढी, अखंड-दंते अप्फुडियदंते, अविरलदंते, सुणिद्धदंते, सुजायदंते, एगदंतसेढीविव अणेगदंते, हुयवहणिद्धंत-धोयतत्त-तवणिज्ज-रत्त-तल-तालु-जीहे अवट्ठिय-सुविभत्त-चित्त-मंसू मंसल-संठियपसत्थ-सहूल-विउल-हणुए। भावार्थ - उनका उत्तमांग (सिर) घन, भरा हुआ और छत्राकार था। ललाट आधे चांद के समान, घाव आदि के चिह्न से रहित, सम, मनोज्ञ और शुद्ध था। नक्षत्रों के स्वामी पूर्ण चन्द्र के समान सौम्य मुख था। मनोहर या संलग्न-ठीक ढंग से मुख के साथ जुड़े हुए या आलीन प्रमाण से युक्त कान थे, अत: वे सुशोभित थे। दोनों गाल मांसल और भरे हुए थे। भौंहें कुछ झुके हुए धनुष के समान टेढ़ी सुन्दर और काले बादल की रेखा के समान पतली, काली और कान्ति से युक्त थी। नेत्र खिले हुए सफेद कमल के समान थे। आँखें बरौनी-भांपन से युक्त धवल थीं, वे इस प्रकार शोभित थीं मानों कुछ भाग में पत्तों से युक्त खिले हुए कमल हों। नाक गरुड की चोंच के समान लम्बा सीधा और ऊँचा था। संस्कारित-शिलाप्रवाल-मूंगे और बिम्बफल के समान लाल अधरोष्ठ थे। दांतों की श्रेणि निष्कलङ्क चन्द्रकला या चांद के टुकड़े, निर्मल से भी निर्मल शंख, गाय के दूध, फेन, कुंद के फूल, जलकण और कमलनाल के समान सफेद थी। दांत अखण्ड, अजर्जर-मजबूत, अविरल-परस्पर सटे हुए, दो दांतों के बीच का अन्तर अधिक नहीं हो ऐसे, सुस्निग्ध-चीकने-चमकीले और सुन्दराकार थे। एक दांत की श्रेणि से अनेक दांत थे अर्थात् दाँतों की सघनता के कारण उनकी विभाजक रेखाएँ दिखाई नहीं देती थी, For Personal & Private Use Only Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शिख नख वर्णन अतः अनेक दांत होते हुए एक ही दन्त की पंक्ति-सी लगती थी। तालु और जीभ के तले, अग्नि के ताप से मल-रहित जल से धोए हुए और तपे हुए सोने के समान लाल थे। भगवान् की दाढ़ी-मूँछें कभी नहीं बढ़ती थी - सदा एक-सी रहती थी और सुन्दर ढंग से छँटी हुई-सी रम्य थी। चिबुक-ठुड्डी मांसल, सुन्दराकार, प्रशस्त और व्याघ्र की चिबुक के समान विस्तीर्ण थी। चउरंगुल-सुप्पमाण-कंबु - वर - सरिस-ग्गीवे, वर- महिस - वराह - सीह - सदुलउसभ-णाग-वर-पडि-पुण्ण- विउल-क्खंधे जुग-सण्णिभ - पीण - रइय- पीवर-पउट्ठसुसंठिय-सुसिलिट्ठ - विसिट्ठ- घण- थिर - सुबद्ध- संधि - पुर- वर-फलिह - वट्टिय भुए भुयईसर - विउल- भोग- आदाण पलिह-उच्छूढ (फलिह ओच्छूढ ) दीह - बाहू - रत्त-तलोवइयमउअ - मंसल सुजाय लक्खण-पसत्थ-अच्छिद्द - जाल- पाणी, पीवर (वट्टिय-सुजाय ) कोमल वरंगुली आयंब - तंब - तलिण- सुइ-रुइल- णिद्ध-णक्खे, चंदपाणिलेहे, सूरपाणिलेहे, संखपाणिलेहे, चक्कपाणिलेहे, दिसासोत्थिय - पाणिलेहे ( रवि ससिसंख चक्कसोत्थिय विभत्त सुविरइय पाणिलेहे) अणेग वर लक्खणुत्तम सत्यप सुइ रइय पाणिलेहे, चंद-सूर - संख-चक्क - दिसा - सोत्थिय - पाणिलेहे । भावार्थ - भगवान् की ग्रीवा श्रेष्ठ शंख समान सुन्दर और चार अंगुल की उत्तम प्रमाण से थी। स्कंध - खंधे, श्रेष्ठ भैंसे, सूअर, सिंह, बाघ, प्रधान हाथी और वृषभ-सांढ के खंधे के समान प्रमाण युक्त सभी विशेषताओं से सम्पन्न और विशाल थे। उनके बाहू गाड़ी के जुड़े के समान गोल और लम्बे मोटे, देखने में सुखकर और दुर्बलता से रहित - पुष्ट पोंचों कलाइयों से युक्त थे, बाहू का आकार सुन्दर था, संगत था अतः वे विशिष्ट थे-घन वायु से फूले हुए नहीं किन्तु हृष्ट-पुष्ट स्थिर और स्नायुओं से ठीक ढंग से बंधी हुई सन्धियों- हड्डियों के जोड़ से युक्त थे। वे पूरे बाहू ऐसे दिखाई देते थे कि मानों इच्छित वस्तु को प्राप्त करने के लिए फणधर ने अपना महान् देह फैलाया हो । प्रभु के हाथ . तुले लाल, उन्नत, कोमल, भरे हुए सुन्दर और शुभ लक्षणों से युक्त थे और अंगुलियों के बीच में उन्हें मिलाने पर छिद्र दिखाई नहीं देते थे । अंगुलियाँ पुष्ट, कोमल और श्रेष्ठ थी । अंगुलियों के नख ताम्बे के समान कुछ-कुछ लाल, पवित्र, दीप्त और स्निग्ध अर्थात् रूक्षता से रहित थे। हाथ में चन्द्राकार, सूर्याकार, शंखाकार, चक्राकार और दक्षिणावर्त स्वस्तिकाकार रेखाएँ थीं। इन सभी रेखाओं के सुसंगम हाथ सुशोभित थे। २५ कणग-सिलातलुज्जत-पसत्थ- समतल - उवचिय - विच्छिण्ण-पिहुल-वच्छे, ( उवचिय पुरवर कवाड - विच्छिण्ण-पिहुलवच्छे, कणय सिलायलुज्जल पसत्थ समतल सिरिवच्छ- रइयवच्छे ) सिरिवच्छंकियवच्छे अकरंडुय-कणग-रुयय- णिम्मल - सुजाय For Personal & Private Use Only Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ उववाइय सुत्त णिरुवहय-देह-धारी अट्ठ-सहस्स-पडिपुण्ण-वर-पुरिस-लक्खण-धरे, सण्णयपासे, संगयपासे, सुंदरपासे, सुजायपासे, मिय-माइय-पीण-रइय-पासे। भावार्थ - भगवान् का वक्ष-छाती, सीना सुवर्ण शिलातल के समान उज्ज्वल, प्रशस्त, समतल, मांसल, विशाल और चौड़ा था। उस पर 'श्रीवत्स' स्वस्तिक का चिह्न था। मांसलता के कारण पांसलियों की हड्डियाँ दिखाई नहीं देती थी। स्वर्ण-कांति-सा सुनहरा निर्मल, मनोहर और रोग के पराभव से-आघात से रहित भगवान् का देह था। जिसमें पूरे एक हजार आठ श्रेष्ठ पुरुषों के लक्षण थे। उनके पार्श्व-बगल नीचे की ओर क्रमशः कम घेरे वाले हो गये थे, देह के प्रमाण के अनुकूल थे, सुन्दर थे, उत्तम बने हुए थे और मितमात्रित-न कम न ज्यादा, उचित रूप से मांस से भरे हुए पुष्ट-रम्य थे। उज्जुय-सम-संहिय-जच्च-तणु-कसिण-णिद्ध-आइज्ज-लडह-रमणिज-रोम राई . झस विहग सुजाय-पीण-कुच्छी (झसोदर-पउम-वियड णाभि) झसोदरे सुइकरणे, पउमवियडणाभे, गंगावत्तक पयाहिणावत्त तरंग-भंगुर-रवि-किरण-तरुण-बोहियअकोसायंत-पउम-गंभीर-वियडणाहे (भे), साहय-सोणंद-मुसल-दप्पण-णिकरियवर-कणगच्छरु-सरिस-वर-वर-वलिय-मझे (सीह अइरेग वट्टिय) पमुइयं वरतुरग सीह वर-वट्टिय-कडी। भावार्थ - भगवान् के वृक्ष और उदर पर सीधे और समरूप से एक-दूसरे से मिले हुए, प्रधान पतले, काले स्निग्ध, मन को भाने वाले, सलावण्य-सलौने और रमणीय रोमों की पंक्ति थी। मत्स्य (मछली) और पक्षी की-सी उत्तम और दृढ़ मांसपेशियों से युक्त कुक्षि थी। मत्स्य का-सा उदर था। पावन इन्द्रिय थी या पेट के करण-अंत्रजाल पावन थे। गंगा के भंवर के समान, दाहिनी ओर घूमती हुई तरंगों से भंगुर अर्थात् चञ्चल, सूर्य की तेज किरणों से विकसित कमल के मध्य भाग के समान गंभीर और गहन नाभि थी। त्रिदंड, मूशल, साण पर चढ़ाये हुए श्रेष्ठ स्वर्ण दर्पणक- दर्पण-दंड और खड्गमुष्टि-मूठ के समान श्रेष्ठ, वज्रवत् क्षीण देह का मध्य भाग था। रोग-शोकादि से रहित= प्रमुदित श्रेष्ठ अश्व और सिंह की कटि के समान श्रेष्ठ घेरे वाली कटि (कमर) थी। पसत्थ वर-तुरग-सुजाय-सुगुज्झ-देसे आइ-ण्णहउव्व णिरुवलेवे, वर-वारणतुल्ल-विक्कम- विलसिय-गई, गय-ससण-सुजाय-सणिभोरु समुग्ग-णिमग्ग-गूढजाणू-एणी-कुरुविंदावत्त-वट्टाणुपुब्व-जंघे संठिय-सुसिलिट्ठ-गूढ-गुप्फे सुप्पइट्ठियकुम्म-चारु-चलणे (अणुपुव्व सुसाहय पीवरंगुलीए) अणुपुव्व-सुसंहयंगुलीए, उण्णय-तणु-तंब-णिद्ध-णक्खे, रत्तुप्पल-पत्त-मय-सुकुमाल-कोमल-तले, अट्ठसहस्स-वर-पुरिस-लक्खण-धरे। For Personal & Private Use Only Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शिख नख वर्णन २७ भावार्थ - भगवान् का श्रेष्ठ घोड़े के गुप्तांग के समान अच्छी तरह गुप्त बना हुआ उत्तम गुह्यभाग था। जातिवान् घोड़े के शरीर के समान भगवान् का शरीर लेप से लिप्त नहीं होता था। श्रेष्ठ हाथी के समान पराक्रम और विलास युक्त चाल थी। हाथी की सूंढ के समान जंघाएँ थी। गोल डिब्बे के ढक्कन के समान निमग्न और गुप्त घुटने थे। हरिणी की जंघा के समान और 'कुरुविंद' नामक तृण के समान तथा सूत्र बनाने के पदार्थ के समान क्रमशः उतार सहित गोल जंघाएँ थीं। अथवा पिंडलियाँ थीं। सुन्दराकार, सुगठित और गुप्त पैर के मणिबन्ध-टखने थे। शुभ रीति से स्थापित-रखे हुए कछुए के चरणों के समान चरण थे। क्रमशः बढ़ी-घटी हुई या बड़ी-छोटी पैर की अंगुलियाँ थीं। ऊँचे उठे हुए, पतले, ताम्रवर्ण और स्निग्ध पैर के नख थे। लाल कमल दल के समान कोमल और सुकुमार पगतलियां थीं। इस प्रकार की अपूर्व सौन्दर्य की राशि देह-यष्टि में श्रेष्ठ पुरुषों के एक हजार आठ लक्षण शोभित होते थे। . (णग-णगर-मगर-सागर-चक्कंक-वरंक-मंग-लंकिय-चलणे, विसिटु-रूवे, यवह-णिद्धम-जलिय-तडितडिय-तरुण-रवि-किरण-सरिस-तेए। - अणासवे अममे अकिंचणे छिण्णसोए णिरुवलेवे ववगय-पेम-राग-दोस-मोहे, णिग्गंथस्स पवयणस्स देसए, सत्थणायगे, पइट्ठावए, समणगपई, समणग-विंदपरियट्टए, चउतीस-बुद्ध-वयणातिसेस-पत्ते पणतीस-सच्च-वयणातिसेस-पत्ते।) ___यह पाठ वाचनान्तर (दूसरी वाचना) में है। वह ज्यों का त्यों यहाँ ले लिया गया है इसका भावार्थ इस प्रकार हैं - भावार्थ - पर्वत, नगर, मगर, समुद्र और चक्र रूप श्रेष्ठ चिह्नों और स्वस्तिक आदि मंगल चिह्नों से अंकित भगवान् के चरण थे। भगवान् का रूप विशिष्ट था। धूएँ से रहित जाज्वल्यमान अग्नि, फैली हुई बिजली और तरुण-दूसरे पहर के या अभिनव सूर्य किरणों के समान भगवान् का तेज था। . भगवान् ने कर्म के आत्म-प्रदेश के द्वारों को रूंध दिया था। मेरेपन की बुद्धि त्याग दी थी। अतः उन्होंने अपनी मालिकी में कोई भी वस्तु नहीं रखी थी। भव-प्रवाह को छेद दिया या परिग्रह संज्ञा के अभाव के कारण शोक से रहित थे। निरुपलेप-द्रव्य से निर्मल देहवाले और भाव से कर्मबन्ध रूप लेप से रहित थे। प्रेम-मिलन के भाव, राग-विषयों के अनुराग, द्वेष - अरुचि के भाव और मोह-मूढ़ताअज्ञान के भाव से अतीत हो चुके थे। निर्ग्रन्थ प्रवचन के उपदेशक, शास्ता-आज्ञा के प्रवर्तक, नायक और प्रतिष्ठापक-उन उन उपायों के द्वारा व्यवस्था करने वाले थे। अतः साधु-संघ के स्वामी थे और श्रमणवृन्द के वर्द्धक- उन्नतिकर्ता या पूर्णता की ओर लेजाने वाले थे। जिनवर के वचन आदि चौंतीस अतिशेष अतिशय तीव्र और उत्कृष्ट पुण्योदयसे सर्वजन हितङ्करता की भावना से पूर्वभव में बद्ध पुण्य के उदय से होने वाली, जन साधारण के लिए दुर्लभ पौद्गलिक रचनादि विशेष के और सत्य-वचन के पैंतीस अतिशयों के धारक थे। For Personal & Private Use Only Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ उववाइय सुत्त विवेचन - तीर्थंकर भगवन्तों के चौतीस अतिशय (अतिशेष) होते हैं वे समवायांग सूत्र के ३४ वें समवाय में 'बुद्धाइशेष' शीर्षक से ३४ अतिशय दिये हैं वे इस प्रकार हैं - १. भगवान् के मस्तक के केश दाढ़ी-मूंछ, रोम और नख अवस्थित रहते हैं अर्थात् दीक्षा लेने के बाद वृद्धि को प्राप्त नहीं होते हैं, परिमाणोपेत रहते हैं, २. नीरोग और लेप-रहित देह, ३. गोक्षीर के समान सफेद रक्त-मांस ४. कमल और नीलकमल या पद्म और कुष्ठ नामक गंधद्रव्य के समान सुगंधित श्वास-उच्छ्वास ५. चर्मचक्षु से अदृश्य-प्रच्छन्न आहार-नीहार ६. आकाशगत चक्र, ७. आकाश गत (तीन) छत्र ८. आकाशगत श्रेष्ठ सफेद चामर ९. आकाश के समान स्वच्छ स्फटिक का पादपीठ सहित सिंहासन १०. छोटी-छोटी हजारों झण्डियों से परिमण्डित इन्द्रध्वज का आगे-आगे चलना ११. जहां-जहां भगवान् ठहरते या बैठते हों वहाँ वहाँ उसी समय छत्र, ध्वज, घण्टा और पताका सहित पुत्र-पुष्प से लदे हुए हरेभरे अशोकवृक्ष का होना १२. शिरोभाग के कुछ पीछे अंधकार में भी प्रकाश.करते हुए तेजोमण्डल भामण्डल का होना १३. विचरण भूमि का सम और रमणीय हो जाना १४. कांटों का उलटे मुख हो जाना १५. विपरीत ऋतु का भी सुखमय स्पर्शवाली हो जाना १६. शीतल, सुखद और सुरभित हवा से एक योजन के भूमि मण्डल का पूर्णत: चारों ओर से प्रमार्जित होना १७: उचित मेघ-फुहार से रजकण का नीचे बैठ जाना १८. जल-स्थल में उत्पन्न हुए फूलों के उनके डीट नीचे रहें इस प्रकार घुटने परिमाण ढेर होना १९. अमनोज्ञ शब्द, स्पर्श, रस, रूप और गंध का मिटना २० मनोज्ञ शब्द, स्पर्श, रस, रूप और गंध का प्रकट होना २१. मनोहर एक योजनगामी स्वर २२. अर्धमागधी भाषा २३. उस भाषा का आर्य-अनार्य पशु-पक्षी सभी की अपनी-अपनी हितकारी, कल्याणकारी और सुखकारी भाषा में बदल जाना २४. पूर्वबद्ध वैर और अनादिकालीन जातीय वैर को भूलकर देव मनुष्य और तिर्यञ्च का तीर्थंकर भगवान् के चरणों में बैठकर, प्रसन्नचित्त से धर्मोपदेश सुनना २५. अन्य दर्शन में स्थित व्यक्तियों का भी समीप में आने पर विनयशील बन जाना २६. तीर्थंकर भगवन्तों के चरणों की छाया में आने पर वादी का निरभिमानी हो जाना २७. जहाँ-जहां तीर्थंकर भगवान् का विचरण होता है, वहाँ-वहाँ पर २५ योजन तक ईति-क्षुद्र जन्तुओं का भय अर्थात् कृषि को हानि पहुंचाने वाले उपद्रवों का न होना २८. संक्रामक रोगों का या मनुष्यों को काल के गाल में ले जाने वाले मारी, प्लेग, हैजा आदि रोगों का नहीं होना २९. निज राज्य के सैन्य आदि का उपद्रव नहीं होना ३०. पर राज्य के सैन्यादि का उपद्रव न होना ३१. अतिवृष्टि नहीं होना ३२. अनावृष्टि नहीं होना ३३. दुर्भिक्ष (दुष्काल) और ३४. अनिष्ट सूचक चिह्नों और उनके द्वारा होने वाले उपद्रवों और व्याधियों का नहीं होना यदि पहले हुई हो तो उनका शमन होना। - इनमें से दूसरे से पांचवें तक चार अतिशय तीर्थंकरों के जन्म से होते हैं, इक्कीसवें से चौंतीसवें तक और बारहवाँ भामण्डल कुल पंद्रह अतिशय घाती कर्म के क्षय से होते हैं और शेष पन्द्रह अतिशय देवकृत होते हैं। इससे भिन्न रूप में कहीं-कहीं उल्लेख दिखाई देता है, वह मतान्तर समझना चाहिए। For Personal & Private Use Only Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शिख नख वर्णन २९ नोट - इनका विवेचन जैन सिद्धान्त बोल संग्रह भाग ७ पृष्ठ ३८ पर है। तीर्थंकर भगवंतों की वाणी जगत् के समस्त जीवों के लिए विशेष उपकारक होती है। तीर्थंकर भगवान् राग द्वेष रहित होते हैं। इसलिए उनकी वाणी सर्वथा सत्य होती है, उस वाणी के पैंतीस अतिशय होते हैं। जिनका कथन समवायांग सूत्र के ३५ वें समवाय में है। यहाँ भगवान् के अतिशयों का वर्णन चल रहा है। इसलिए उनकी वाणी के पैंतीस अतिशयों का भी वर्णन यहां दे दिया जाता है वाणी के पैंतीस अतिशय-१. संस्कारयुक्त वचन २. उदात्त-उच्च वचन या उच्च स्वर ३. ग्राम्यदोष से रहित ४. मेघ-गर्जन के समान गंभीर ५. प्रतिध्वनि-गुंजन से युक्त ६. सरल ७. संगीतमयमालकोश आदि राग से युक्त ८. विशाल अर्थ युक्त ९. परस्पर अविरोधी वाक्यार्थ १०. शिष्टता युक्त या अपने सिद्धांत के प्रतिपादन की सामर्थ्य से युक्त ११. संदेह-रहित १२. किसी के दूषण लगाने की गुंजाइश से रहित १३. हृदयग्राही-सुनने वाले को प्रिय लगने वाले १४. देश-कालोचित १५. विवक्षित वस्तु-स्वरूप के अनुरूप १६. विषयानुकूल विस्तार से युक्त और असम्बद्ध विषयों के विस्तार से रहित १७. परस्पर सापेक्ष पदों से युक्त १८. प्रौढ़ स्त्री, बालक आदि की भूमिका के अनुसार प्रतिपादन शैली से सम्पन्न १९. घी-गुड के समान सुखकारी, स्निग्ध-मधुर २०. किसी के मर्म-प्रकाशन से रहित २१. मोक्ष रूप अर्थ एवं श्रुतचारित्र रूप धर्म से सम्बद्ध होना २२. उदारत्व-प्रतिपादय अर्थ का महान होना अथवा शब्द और अर्थ की विशिष्ट रचना होना २३. परनिंदा और आत्म-प्रशंसा से रहित. २४. गुणों के योग से प्रशंसित २५. कारक, काल, वचन, लिंग आदि से सम्बन्धित दूषणों से रहित २६. स्व-विषय में कौतूहल-वर्धक-अखण्ड जिज्ञासा-वर्द्धक, २७-२८. न तीव्र, न मंद अद्भुत प्रवाह से युक्त २९. वक्ता के प्रति भ्रान्ति या वक्ता के मन की भ्रान्तता विक्षेप-कहे जाते विषय के प्रति अरुचि और भय, रोष अभिलाषा आदि मनोदूषण से रहित ३०. वर्णनीय वस्तु का अनेक तरह से वर्णन करने के कारण, विचित्रता से युक्त ३१. अन्य वचनों की अपेक्षा आदर से ग्रहण किये जाने पर विशेषता से युक्त ३२. अलग-अलग वर्ण, पद और वाक्यों के द्वारा आकार-प्राप्त ३३. सत्त्व-परिगृहीत-उत्साह युक्त या बलप्रद ३४. अपरिखेदित्व-उपदेश देते हुए थकावट अनुभव न होना ३५. विवक्षित-कहे जाने वाले अर्थ की सम्यक् सिद्धि किये बिना-विषय को अधूरा ही छोड़कर, बंद नहीं होने वाले प्रवाह से युक्त भगवान् के वचन थे। पहले के सात अतिशय शब्द की अपेक्षा से कहे गये हैं और शेष अर्थ की अपेक्षा से। नोट - इन ३५ अतिशयों का वर्णन जैन सिद्धान्त बोल संग्रह के सातवें भाग के पृष्ठ ७१ पर हैं। . आगासगएणं चक्केणं आगासगएणं छत्तेणं, आगासियाहिं (सेय वर )चामराहिं आगस-फलियामएणं सपायवीढेणं सीहासणेणं, धम्मज्झएणं पुरओ पक-ढिज-माणेणं (चउद्दसंहिं समणसाहस्सीहि, छत्तीसाए अजिआ-साहस्सीहिं) सद्धिं संपरिवुडे पुव्वाणुपुचि चरमाणे, गामाणुग्गामं दूइज्जमाणे, सुहंसुहेणं विहरमाणे, चंपाए णयरीए बहिया उवणगरग्गामं उवागए, चंपंणगरि पुण्णभई चेइयं समोसरिउँ कामे। For Personal & Private Use Only Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३० उववाइय सुत्त भावार्थ - आकाशवर्ती धर्मचक्र, आकाशवर्ती तीन छत्र, आकाशवर्ती या ऊपर उठते हुए सफेद चामर, विशिष्ट सफेद चामर पादपीठ-पैर रखने की चौकी-सहित, आकाश के समान स्वच्छ, स्फटिकमय सिंहासन और आगे-आगे चलते हुए धर्मध्वज (चौदह हजार साधु और छत्तीस हजार आर्यिकाएं) के साथ घिरे हुए तीर्थंकर भगवान् की परम्परा के अनुसार विचरते हुए क्रमश: एक ग्राम से दूसरे ग्राम को पावन करते हुए और शारीरिक खेद से रहित-संयम में आने वाली बाधा-पीड़ा से रहित विहार करते हुए, चम्पानगरी के बाहर के उपनगर-समीप के गांव में पधारे और वहाँ से चम्पानगरी के पूर्णभद्र चैत्य में, पधारने वाले थे। विवेचन - यहाँ पर भगवान् महावीर स्वामी के साथ १४००० सन्त एवं ३६००० आर्याओं का कथन आया है। इसका आशय इस प्रकार समझना चाहिये कि जिस प्रकार चक्रवर्ती का राज्य छह खण्ड में होता है। उन छहों खण्डों में रहने वाली सेना सब चक्रवर्ती के अधीन होती है। वह चक्रवर्ती के . ' साथ ही गिनी जाती है। किन्तु सभी सेना चक्रवर्ती के पास राजधानी में ही नहीं रहती है। इस प्रकार तीर्थंकर भगवान् की आज्ञा में विचरने वाले जितने भी साधु-साध्वी हैं वे सब तीर्थंकर भगवान् के साथ ही गिने जाते हैं। इसलिये श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के श्रमणों की उत्कृष्ट सम्पदा १४००० और . : आर्याओं की सम्पदा ३६००० थी। वे सब भगवान् के साथ ही गिने जाते हैं। किन्तु इतने साधु-साध्वी भगवान् के एक साथ चंपा नगरी में पधारे ऐसा नहीं समझना चाहिए। दूसरी बात यह है कि - साधुसाध्वी का एक साथ विहार होता ही नहीं है। साथ विहार करने से तीर्थङ्कर भगवान् की आज्ञा का उल्लंघन होता है और प्रायश्चित्त का कारण बनता है। विहार के लिये मूलपाठ में तीन शब्द दिये हैं। जिनका अर्थ है - साधु साध्वी का विहार तीर्थङ्कर भगवान् की आज्ञा के अनुसार होना चाहिये तथा पैदल विहार होना चाहिये ताकि ग्रामानुग्राम की भूमि साधु-साध्वी के पग-तल से स्पर्शित होती जाय किन्तु डोली, व्हीलचेअर, ठेला, कार, मोटर तथा हवाई जहाज आदि से नहीं होनी चाहिये। तीसरा शब्द दिया है 'सुहं सुहेणं' जिसका अर्थ है - बहुत उतावला उतावला विहार नहीं होना चाहिये। जिससे कि ईर्या समिति का पालन न होने से संयम दूषित बने तथा इतना लम्बा विहार भी नहीं होना चाहिये जिससे शरीर खेदित हो जाय, अकड़ जाय, दूसरे दिन चलने की शक्ति न रह जाय, शरीर में किसी प्रकार की व्याधि उत्पन्न हो जाय। तात्पर्य यह है कि - संयम और शरीर खेदित न हों इस तरह का विहार होना चाहिये। धर्म सन्देशवाहक ११- तए णं से पवित्तिवाउए इसीसे कहाए लढे समाणे हट्टतुट्ठ-चित्तमाणदिएपीइमणेपरम-सोमणस्सिएहरिस-वस-विसप्पमाण-हियएण्हाएकयबलिकम्मे For Personal & Private Use Only Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्म सन्देशवाहक ३१ .................................... .................. कय-कोउय-मंगल-पायच्छित्ते सुद्धप्प-वेसाई मंगलाई वत्थाई पवर-परिहिए अप्पमहग्या-भरणा-लंकिय-सरीरे, सयाओ गिहाओ पडिणिक्खमइ। कठिन शब्दार्थ - हट्ठतुट्ठ - हष्टतुष्ट-हष्टतुष्टोऽतीव तुष्टः। अथवा हृष्टो नाम विस्ममापन्नो यथा अहो भगवानास्ते इति । तुष्टस्तोषं कृतवान् यथा भव्यमभूत् यन्मया भगवानवलोकितः। __ अर्थ - हृष्टतुष्ट दोनों शब्दों का सम्मिलित अर्थ है - अन्त्यन्त सन्तुष्ट हुआ अथवा हृष्ट का अर्थ है आश्चर्य चकित हुआ कि भगवान् यहाँ विराजते हैं और तुष्ट का अर्थ सन्तुष्ट हुआ कि-मैंने भगवान् के दर्शन किये। भावार्थ- तब भगवान की प्रवृत्ति के निवेदक उस परुष ने. यह बात जानकर हर्षित या विस्मित और संतुष्ट चित्त, आनंदित- किञ्चित् मुख-सौम्यता आदि भावों से समृद्ध, मन में प्रीति से युक्त, परम सुन्दर मानसिक भावों से सम्पन्न और हर्षावेश से विकसित हृदयवाला होकर, स्नान, बलिकर्म, कौतुक-मंगल और प्रायश्चित्त करने के बाद, स्नान से शुद्ध बने हुए शरीर पर, मंगल वस्त्रों के वेश को सुन्दर ढंग से • पहनाकर थोड़े भार वाले बहुमूल्य आभूषणों से शरीर को सजाया। फिर वह अपने घर से बाहर निकला। विवेचन - मूल पाठ में 'कयबलिकम्मे' शब्द आया है। इस शब्द के अर्थ में मतभेद है - टीकाकार इसका अर्थ इस प्रकार करते हैं - 'कृतबलिकर्मन्-कृतं निष्पादितं स्नानानन्तरं बलिकर्म स्वगृहदेवतानां पूजा येन स कृत बलिकर्मा।' . अर्थ - स्नान करने के बाद अपने घर के देवता की पूजा करना किन्तु यह अर्थ मूलपाठ के अनुसार नहीं है। क्योंकि आगमों में जहाँ पर -स्नान का पूरा वर्णन यथा तेल मालिश करना, उबट्टन करना आदि है। वहाँ पर 'बलिकर्म' शब्द का प्रयोग नहीं है और जहाँ स्नान का पूरा वर्णन नहीं है वहाँ पूरा वर्णन बताने के लिये 'बलिकर्म' शब्द का प्रयोग हुआ है जैसे कि - जहाँ श्रमण भगवान् महावीर स्वामी का पूरा वर्णन दिया है वहाँ पर णमोत्थुणं का पूरा पाठ दिया गया है और जहाँ वर्णन पूरा नहीं दिया गया है वहाँ "समणेणं भगवया महावीरेणं जाव संपत्तेणं।"'जाव' शब्द से णमोत्थुणं का पूरा पाठ लिया गया है। इसी प्रकार 'बलिकर्म' शब्द से स्नान सम्बन्धी पूरा पाठ लिया गया है। ज्ञाताधर्म कथाङ्ग सूत्र के दूसरे अध्ययन में धन्ना सार्थवाह की स्त्री भद्रा का पुत्र की इच्छा से नाग, भूत, यक्ष के पूजन का वर्णन है। उसमें नगर के बाहर उद्यान में पुष्करणी में स्नान करने का उल्लेख है। ज्ञातासूत्र के आठवें अध्ययन में मल्लिकुमारी के पिता के पगवन्दन के वर्णन में तथा छह राजाओं को प्रतिबोध देने के वर्णन में भी यह पद है। इसी प्रकार ज्ञातासूत्र के सोलहवें अध्ययन द्रौपदी के वर्णन में, भगवती सूत्र शतक ९ उद्देशक ३३ में देवानंदा के वर्णन में, जमाली के वर्णन में, भगवती सूत्र शतक ७ उद्देशक ९ में वरुण नाग-नतुआ श्रावक के वर्णन में भी 'बलिकर्म' शब्द का प्रयोग हुआ है किन्तु वहाँ कोई गृह देवता नहीं है। राजप्रश्नीय' सूत्र में राजा प्रदेशी और केशीकुमार श्रमण के प्रश्नोत्तर के प्रसङ्ग में कठियारे का जंगल में स्नान करने के वर्णन में 'बलिकर्म' शब्द का प्रयोग हुआ है। वहाँ उसका कोई For Personal & Private Use Only Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उववाइय सुत्त गृहदेवता नहीं है। निष्कर्ष यह है कि - जहां स्नान का पूरा वर्णन नहीं है वहाँ स्नान सम्बन्धी सम्पूर्ण वर्णन को लेने के लिये 'कयबलिकम्मे' शब्द का प्रयोग हुआ है। जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र के तीसरे वक्षस्कार में भरत चक्रवर्ती के स्नान का विस्तृत वर्णन है। वहाँ पर 'बलिकर्म' शब्द का प्रयोग नहीं है। निष्कर्ष यह है कि जहाँ स्नान का पूरा वर्णन है वहाँ कयबलिकम्मे' शब्द का प्रयोग नहीं किया गया है। ___ समर्थ चर्चावादी श्री जेठमल जी म. सा. द्वारा रचित 'समकित सार' ग्रन्थ में भी 'कयबलिकम्मे' शब्द का उपरोक्त अर्थ ही किया है कि - स्नान सम्बन्धी सारे वर्णन को बताने के लिये ही 'कयबलिकम्मे' शब्द का प्रयोग होता है। गृहदेवता का पूजन' यह अर्थ आगम सम्मत नहीं है। सयाओ गिहाओ पडिणिक्खमित्ता, चंपाए णयरीए मझं-मज्झेणं जेणेव कोणियस्स रण्णो गिहे, जेणेव बाहिरिया उवट्ठाणसाला, जेणेव कूणिए राया भंभसारपुत्ते, तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता करयल-परिग्गहियं सिरसावत्तं मत्थए. अंजलिं कट्ट जएणं विजएणं वद्धावेइ। वद्धावित्ता एवं वयासी-जस्स णं देवाणुप्पिया दंसणं कंक्षति, जस्स णं देवाणुप्पिया दंसणं पीहंति, जस्स णं देवाणुप्पिया सणं पत्थंति, जस्स णं देवाणुप्पिया दंसणं अभिलसंति, जस्स णं देवाणुप्पिया णामगोत्तस्स वि सवणयाए हट्ठतुटु जाव हियया भवंति, से णं समणे भगवं महावीरे पुव्वाणुपुचि चरमाणे, गामाणुग्गामं दूइजमाणे, सुहं सुहेणं विहरमाणे, चंपाए णयरीए उवणगरगामं उवागए, चंपं णगरि पुण्णभई चेइयं समोसरिउँ कामे। तं एयं णं देवाणुप्पियाणं पियट्ठ-याए पियं णिवेदेमि पियं ते भवउ। ___ कठिन शब्दार्थ-उवट्ठाणसाला - उपस्थान शाला-बैठने की सभा, जएणं- सामान्य जय, विजएणंविशिष्ट जय-प्रबल शत्रुओं पर जय, वद्धावेइ - वृद्धापयति-जय विजय से वृद्धि को प्राप्त हो। भावार्थ - वह प्रवृत्ति निवेदक अपने घर से निकल कर चम्पा नगरी के मध्य में होता हुआ जहाँ कोणिक राजा का निवास स्थान था, जहाँ बाहरी सभा भवन था और जहां भंभसार श्रेणिक का पुत्र कोणिक राजा (बैठा) था, वहाँ आया। जय-विजय से (आपकी वृद्धि हो-इस प्रकार) वधाया अर्थात् आप जय विजय करते हुए वृद्धि को प्राप्त होवें ऐसा आशीर्वाद दिया फिर वह इस प्रकार बोला-हे देवानुप्रिय ! आप जिनके दर्शन चाहते हैं एवं प्राप्त होने पर छोड़ना नहीं चाहते हैं, हे देवानुप्रिय ! जिनके दर्शन नहीं हुए हों तो पाने की इच्छा करते हैं, हे देवानुप्रिय ! जिनके दर्शन हो-ऐसे उपायों की अन्यजन से अपेक्षा करते हैं-अर्थात् चाहते हैं, हे देवानुप्रिय ! जिनके दर्शन के लिए अभिमुख होना सुन्दर मानते हैं और हे देवानुप्रिय ! जिनके नाम-महावीर, ज्ञात पुत्र, सन्मति आदि और गोत्र-काश्यप के सुनने मात्र से हर्षित, संतुष्ट यावत् हर्षावेश से विकसित हृदयवाले हो जाते हैं - वे ही श्रमण भगवान् महावीर स्वामी, क्रमशः विचरते हुए, मार्ग में आने वाले गांवों को पावन करते हुए और सुखपूर्वक For Personal & Private Use Only Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कोणिक राजा का परोक्ष वन्दन विचरते हुए चम्पा नगरी के पूर्णभद्र चैत्य में आने के लिये, चम्पानगरी के उपनगरों में पधारे हैं। यह देवानुप्रिय का प्रीतिकर विषय होने से प्रसन्नता के लिये प्रिय समाचार निवेदन कर रहा हूँ। वह आपके लिये प्रिय बने । कोणिक राजा का परोक्ष वन्दन १२ - तए णं से कूणिए राया भंभसारपुत्ते तस्स पवित्तिवाउयस्स अंतिए एयम सोच्चा णिसम्म हट्ठतुटु-जाव हियए (धाराहय-णीव- सुरभि - कुसुम - चंचुमालइयउच्छिय - रोमकूवे) वियसिय-वर-कमल-णयण - वयणे पयलिय वर- कडग - तुडिय - केऊर-मउड-कुंडल-हार- विरायंत- रइय-वच्छे पालंब - पलंबमाण- घोलंत - भूसण-धरे, ससंभमं तुरियं चवलं णरिंदे सीहासणाउ अब्भुइ । अब्भुट्ठित्ता पायपीढाउ पच्चोरुहइ । पच्योरुहित्ता ( वेरुलिय वरिट्ठ रिट्ठ अंजण विउणोविय - मिसिमिसिंत- मणिरयण मंडियाओ) पाड़याओ ओमुयइ । ओमुइत्ता अवहट्टु पंच-राय- ककुहाई, तं जहाखग्र्ग १, छत्तं २, उप्फेसं ३, वाहणाओ ४, वालवीयणं ५, एगसाडियं उत्तरासंगं करे । करेत्ता आयंते चोक्खे परम सुइभूए अंजलि - मउलियग्ग हत्थे तित्थगराभिमुहे सत्तट्ठ-पयाइं अणुगच्छइ सत्तट्ठ-पयाइं अणुगच्छित्ता वामं जाणुं अंचेइ। वामं जाणुं अंत्ता दाहिणं जाणुं धरणितलंसि साहडु, तिक्खुत्तो मुद्दाणं धरणितलंसि णिवेसे | निवेसेत्ता इसि पच्चण्णमइ । पच्चुण्णमित्ता कडग-तुडिय-थंभियाओ भुयाओ पडिसाहरइ। पंडिसाहरित्ता करयल- जाव कट्टु एवं व्यासी कठिन शब्दार्थ - ककुहाई राजचिह्न, उप्फेसं मुकुट, वालवीयणं चामर, उत्तरासंगं - उत्तरीयस्य देहे न्यासविषेश :- उत्तरीय अर्थात् दुपट्टे को वायुकाय जीवों की रक्षा के लिये मुख पर लगाना, एगसाडिगं एकशाटिक- अर्थात् बिना सिला हुआ। भावार्थ - तब भंभसार श्रेणिक राजा का पुत्र कोणिक, उस प्रवृत्ति - निवेदक से यह बात कान से सुनकर हृदय से धारण कर, बहुत प्रसन्न हुआ । श्रेष्ठ कमल के समान नेत्र और मुख विकसित हो गये। भगवान् के आगमन - श्रवण से उत्पन्न हर्षावेश के कारण कङ्कण, तुडिय-हाथ के तोड़े आभूषण, केयूरअंगद, भुजबंध, मुकुट, कुंडल और हार से सुशोभित बना हुआ वक्ष विकसित हो रहा था । लम्बी लटकती हुई माला और हिलते हुए भूषणों के धारक नरेन्द्र ससंभ्रम-आदर सहित जल्दी-जल्दी सिंहासन से उठे । सिंहासन से उठ कर, पादपीठ से चौकी से नीचे उतरे। उतर कर पादुकाएँ खोली । पांच राज चिह्नों को दूर किये, यथा - १. खड्ग २. छत्र ३. मुकुट ४. उपानद् - पगरक्खी, जूते और - - ३३ For Personal & Private Use Only Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४ उववाइय सुत्त ५. चामर। एक-शाटिक उत्तरासंग किया। जल स्पर्श से मैल से रहित-अति स्वच्छ बने हुए हस्तसम्पुटअञ्जली से कमल की कली के समान आकार वाले हाथों से युक्त (अर्थात् हाथ जोड़ कर) जिधर तीर्थङ्कर भगवान् विराजमान थे उधर मुख करके, सात-आठ कदम सामने गये। बायें पैर को संकुचित किया। दायें पैर को धरतीतल पर, संकोचकर रखा और शिर को तीन बार धरती से लगाया। फिर थोड़ा-सा ऊपर उठकर कड़े और तोड़े से स्थिर बनी हुई भुजाओं को उठा कर, हाथ जोड़े और अंजली को सिर पर लगा कर इस प्रकार बोले - ___ णमोऽत्थुणं अरिहंताणं भगवंताणं, आइगराणं तित्थयराणं सयंसंबुद्धाणं, पुरिसुत्तमाणं पुरिससीहाणं पुरिसवरपुंडरीयाणं पुरिसवरगंधहत्थीणं, लोगुत्तमाणं लोगणाहाणं लोगहियाणं लोगपईवाणं लोगपज्जोय-गराणं, अभयदयाणं चक्खुदयाणं मग्गदयाणं सरण-दयाणं जीवदयाणं बोहिदयाणं, धम्मदयाणं धम्म- देसंयाणं धम्मणायगाणं धम्मसारहीणं धम्मवरचाउरंत-चक्क-वट्टीणं, दीवो ताणं सरणं गई पइट्ठा, अप्पडिहय-वर-णाण-दसण-धराणं वियट्ट-छउमाणं, जिणाणं जावयाणं तिण्णाणं तारयाणं, बुद्धाणं बोहयाणं मुत्ताणं मोयगाणं, सव्वण्णूणं सव्वदरिसीणं, सिव-मयल-मरुय-मणंत-मक्खय-मव्वावाह-मपुणरावित्ति-सिद्धिगइ-णामधेयं ठाणं संपत्ताणं। णमोऽत्थुणं समणस्स भगवओ महावीरस्स आइगरस्स तित्थयरस्स.... जाव संपाविउ कामस्स मम धम्मायरियस्स धम्मोवए-सगस्स। ___वंदामि णं भगवंतं तत्थगयं इह गए, पासउ मे भगवं तत्थगए इहगयं, ति कट्ट वंदइ णमंसइ। कठिन शब्दार्थ - अरिहंत - कर्म रूपी अरि-शत्रुओं का हनन-विनाश करने वालों को अरिहन्त' कहते हैं। जैसा कि कहा है - अट्ठविहं पि य कम्मं, अरिभूयं होइ सयलजीवाणं। .. तं कम्ममरिं हन्ता, अरिहंता तेण वुच्चंति॥ अर्थ - आठ प्रकार के कर्म सभी जीवों के लिए शत्रु रूप हैं। उन कर्मशत्रुओं का जो विनाश करते है। उनको 'अरिहन्त' कहते हैं। भगवान् - परम ऐश्वर्यशाली, परम पूज्य। जैसा कि कहाँ है- 'भगं भाग्यं विदयते यस्य स भगवान्।' ऐश्वर्य समग्रस्य रूपस्य यशसः श्रियः। धर्मस्याथ प्रयलस्य, षण्णां भग इति इङ्गना॥ For Personal & Private Use Only Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कोणिक राजा का परोक्ष वन्दन अर्थ- सम्पूर्ण ऐश्वर्य रूप, यश, श्री (लक्ष्मी), धर्म और प्रयत्न, इन छह को 'भग' कहते हैं। आदिकर (आइगर) - आचारादि श्रुतधर्म सम्बन्धी अर्थ की आदि (प्रारंभ) के करने वाले । तीर्थङ्कर - जिसके द्वारा संसार समुद्र से तिरा जाय उसको तीर्थ अर्थात् प्रवचन कहते हैं । प्रवचन के धारक होने के कारण चतुर्विध संघ को भी तीर्थ कहते हैं । उस तीर्थ की स्थापना करने वाले को 'तीर्थंकर' कहते हैं। स्वयं संबुद्ध - बिना किसी के उपदेश के स्वयं बोध को प्राप्त होने वाले । पुरुषोत्तम - संसार के सभी पुरुषों में अतिशयादि से उन्नत उत्तमोत्तम । पुरुषसिंह - सिंह उत्कृष्ट शौर्यवान माना जाता है, उसी प्रकार पुरुषों में शौर्यादि गुणों में सिंह के समान । पुरुषवर पुण्डरीक जिस प्रकार पुण्डरीक कमल हजार पंखुड़ियों वाला निर्मल श्वेत रंग का श्रेष्ठ पुष्प होता है, उसी प्रकार सभी प्रकार के अशुभ मल से रहित और सभी शुभभावों-निर्मलताओं से युक्त । - ३५ पुरुषवर गंधहस्ती - हाथियों में गंधहस्ती ऐसा होता है कि जिसकी गंध से दूसरे सभी हाथी भाग जाते हैं, उसी प्रकार गंध हस्ती की तरह श्रेष्ठ पुरुष, जिनके विहार क्षेत्र के ईति - धान्यादि की फसलों को हानि पहुँचाने वाले चूहे टीढ़ आदि, भीति - परचक्र भय, दुर्भिक्ष दुष्काल, लूटपाट आदि और महामरी, महारोग आदि व्याधियाँ नष्ट हो जाती हैं। गंध हस्ती की गंध से दूसरे हाथी मद रहित हो जाते हैं। इसी प्रकार जो अन्यतीर्थिक भगवान् के साथ चर्चा करने के लिए आते हैं, भगवान् को देखते ही उनका अभिमान नष्ट हो जाता है और वे भगवान् के भक्त बन जाते हैं । लोकोत्तम - लोक के सभी प्राणियों में परम उत्तम । लोकनाथ - 'योग' क्षेम कृन्नाथः अप्राप्तस्य प्रापणंयोगः प्राप्तस्य रक्षणं क्षेमः ॥ अर्थ- जो सम्यग् दर्शन (समकित ) आदि गुण प्राप्त नहीं हुए उन्हें प्राप्त करवाना योग कहलाता है । प्राप्त हुए सम्यग्दर्शन आदि गुणों की रक्षा करना एवं उन्हें निरतिचार पालन करवाना क्षेम कहलाता है। इस प्रकार योग और क्षेम करने वाले को 'नाथ' कहते हैं। संसार के समस्त प्राणियों के नाथ अर्थात् अनाथों को नाथ बनाने वाले । लोकहितंकर - लोक का हित करने वाले, लोक के जीवों को शाश्वत सुख प्राप्त करवाने में उत्कृष्ट सहायक । लोक प्रदीप जीवों के हृदय में भरे हुए अज्ञानरूपी अन्धकार को दूर कर ज्ञान का दीपक प्रकटाने वाले उत्तम प्रदीप । लोक प्रद्योतकर - सूर्य के समान । समस्त लोक और अलोक के स्वरूप को प्रकाशित करने वाले। जीव अजीव आदि तत्त्वों के भेद प्रभेद के रहस्य को प्रकट करने वाले। For Personal & Private Use Only Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६ उववाइय सुत्त अभयदाता - किसी को भय नहीं देने वाले और सभी जीवों के भय को दूर करने वाली अहिंसा-अभया के धारक, प्रसारक। निर्भयता प्रदायक। ... चक्षुदाता - श्रुतज्ञान रूपी चक्षु प्रदान करके हेय ज्ञेय और उपादेय को जानने की दृष्टि खोलने वाले। जिस प्रकार किसी धनिक को भयानक अटवी में डाकुओं ने लूटकर आंखों पर पट्टी बांधकर धकेल दिया हो और वह अन्धे की तरह इधर उधर भटक रहा हो, उस समय कोई उपकारी पुरुष उसके आंखों की पट्टी खोलकर रास्ते पर लगावे और इच्छित स्थान पर पहुंचा दे, तो वह उपकारी माना जाता है, उसी प्रकार संसार रूपी भयानक अटवी में भटकते हुए जीवों को ज्ञानरूपी चक्षु प्रदान कर मोक्षरूपी परम सुखमय स्थान को प्राप्त कराने वाले। मार्गदाता - मोक्षरूपी महानगर को प्राप्त करने के ज्ञानादि मार्ग को बताने वाले। शरणदाता - शरण के देने वाले अर्थात् अनेक प्रकार के रोग, शोक, जन्म, मरण और उपद्रव रूपी दुःख से भरे हुए संसार से भव्य प्राणियों को निरुपद्रव एकान्त शाश्वत सुख के स्थान को प्राप्त कराने वाले। जीवनदाता - जन्ममरण के दुःख से दूर कर शाश्वत अखण्ड जीवन प्रदान करने वाले। .. बोधिदाता - बोधि अर्थात् सम्यक्त्व रत्न के दाता। धर्मदाता - श्रुत चारित्र रूपी धर्म के दाता। धर्मदेशक - श्रुत और चारित्र रूपी धर्म का उपदेश देने वाले। धर्म नायक (नेता)- धर्म रूप संघ एवं तीर्थ के नायक।। धर्म सारथि - धर्मरूपी रथ के चालक। धर्मरूपी रथ में बैठकर मोक्षनगर की ओर जाने वाले भव्यात्माओं को और धर्म रथ को रक्षापूर्वक आगे बढ़ाने वाले-कुशल सारथि। धर्मवर चातुरंत चक्रवर्ती - जिस प्रकार तीन ओर समुद्र और एक ओर हिमाचल पर्वत पर्यन्त पृथ्वी का स्वामी 'चातुरंत चक्रवर्ती' कहलाता है, उसी प्रकार लोक में भगवान् धर्म के चातुरन्त चक्रवर्ती-एक छत्र स्वामी हैं। अन्य प्रवर्तकों से अत्यधिक श्रेष्ठ धर्मशासक। अथवा-चतुर्गतिरूप संसार का अंत करने वाले धर्मचक्रवर्ती। द्वीप-त्राण-सरण-गतिप्रतिष्ठारूप - संसार रूप समुद्र में डूबते हुए जीवों के लिए द्वीप के समान आधारभूत, रक्षक, शरणप्रद, उत्तमगति और प्रतिष्ठा रूप। अप्रतिहत-वर-ज्ञान-दर्शनधर - दिवाल पर्वत आदि किसी भी प्रकार की ओट से नहीं रुकने वाले, विशुद्ध, अविसंवादी, क्षायक एवं प्रधान केवलज्ञान और केवलदर्शन के धारक। व्यावृत्त छद्म - जिनकी छद्मस्थता-ज्ञान का आवरण नष्ट हो गया, जो सर्वज्ञ सर्वदर्शी हैं। जिन - राग द्वेष रूपी शत्रुओं को जीतकर विजयी हुए। जापक - दूसरों को जिन बनाने वाले। For Personal & Private Use Only Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कोणिक राजा का परोक्ष वन्दन तिरक - संसार समुद्र से तिर गये । तारक - भव्य जीवों को संसार समुद्र से तिरा कर पार पहुँचाने वाले। बुद्ध - जीवादि तत्त्वों को संपूर्ण रूप से जानने वाले । बोधक- भव्य जीवों को तत्त्व का बोध देने वाले । मुक्त - बाह्य और आभ्यन्तर परिग्रह से मुक्त अथवा संसार के मूल ऐसे मोहनीय आदि घातकर्म से मुक्त। ३७ मोचक - भव्य जीवों को मुक्त कराने वाले । सर्वज्ञ सर्वदर्शी - समस्त पदार्थों, उनकी सूक्ष्मातिसूक्ष्म अवस्थाओं- भूत भविष्य और वर्तमान की सभी अनन्तानन्त पर्यायों को विस्तार से और सामान्यरूप से जानने वाले । शिव-सभी प्रकार के उपद्रवों से रहित, अचल-स्थिर नीरोग, अनन्त, अक्षय अव्याबाध (बांधा पीड़ा से रहित) अपुनरावर्तित (जहाँ से फिर आना नहीं होता ऐसे) सिद्धिगति नाम वाले स्थान को प्राप्त (शुद्धात्मा) को नमस्कार हो । भावार्थ - - श्रमण भगवान् महावीर स्वामी- जो कि आदिकर, तीर्थङ्कर यावत् सिद्धिगति नाम वाले स्थान को पाने के इच्छुक - भावी सिद्ध हैं, मेरे धर्माचार्य और धर्मोपदेशक हैं उन्हें नमस्कार हो । यहाँ पर स्थित मैं वहाँ पर स्थित भगवान् की वन्दना नमस्कार करता हूँ। वहाँ पर स्थित भगवान् यहाँ पर स्थित मुझे देखें । इस प्रकार वह कोणिक राजा वन्दना - नमस्कार करता है । वंदित्ता णमंसित्ता सीहासण - वर- गए पुरत्थाभिमुहे णिसीयइ । णिसीइत्ता तस्स पवित्तिवाउयस्स अट्टुत्तर सयसहस्सं पीइदाणं दलयइ । दलइत्ता सक्कारेइ सम्माणेइ । सबकारिता सम्माणित्ता एवं वयासी - 'जया णं देवाणुप्पिया ! समणे भगवं महावीरे इहमागच्छेज्जा-इह समोसरिज्जा, इहेव चंपाए णयरी बहिया पुण्णभद्दे चेइए अहम्पडिरूवं उग्गहं उग्गिणिहत्ता संजमेणं तवसा अप्पाणं भावमाणे विहरेज्जा, तया णं मम एयम णिवेदिज्जासि - तिकट्टु विसज्जिए । भावार्थ - वह वन्दना - नमस्कार करके, पूर्व की ओर मुख रखकर सिंहासन पर बैठा । उस प्रवृत्ति - निवेदक को एक लाख आठ हजार रजतमुद्रा का प्रीतिदान दिया, श्रेष्ठ वस्त्रादि से सत्कार किया, आदर - सूचक वचनों से सन्मान किया । पुनः इस प्रकार बोला- 'हे देवानुप्रिय ! जब श्रमण भगवान् महावीर यहाँ आवें- यहाँ समवसरें, इस चम्पा नगरी के बाहर पूर्णभद्र चैत्य में संयमियों के योग्य आवासस्थान को ग्रहण करके, संयम और तप से आत्मा को भांवित करते हुए विचरें, तब यह सूचना मुझे देना!' इस प्रकार कह कर उस प्रवृत्ति - निवेदक को विसर्जित किया । For Personal & Private Use Only Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८ उववाइय सुत्त भगवान् का आगमन १३- तए णं समणे भगवं महावीरे कल्लं पाउप्पभायाए रयणीए फुलुप्पलकमल-कोमलु-म्मिलियम्मि अह पंडुरे पहाए-रत्तासोगप्पगास किंसुय-सुयमुह-गुंजद्धराग-सरिसे कमलागर-संडे-बोहए उट्ठियम्मि सूरे सहस्सरस्सिमि दिणयरे तेयसा जलंते, जेणेव चंपा णयरी, जेणेव पुण्णभद्दे चेइए तेणेव उवा-गच्छइ उवागच्छित्ता अहापडिरूवं उग्गहं उग्गिणिहत्ता संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरइ।. भावार्थ - तब श्रमण भगवान् महावीर स्वामी फैलते हुए प्रकाश से बिदाई लेती हुई रात्रि मेंऊषाकाल में फूलते हुए पद्यों की कोमल पंखुरियाँ और हरिणों की सुकुमार आँखें खुल रही थीं-ऐसे उजले प्रभात में, लाल अशोक के समान प्रभाव वाले, पलाश-खांखरे के फूल, शुक की चोंच और गुंजाफल के आधे भाग की लाली के समान अरुण-लाल कमलाकरों-जलाशयों के कमल वन के चेतना-प्रदायक, हजार किरणों वाले दिन के स्रष्टा, तेज से ज्वाज्वल्यमान सूर्य के उदय होने पर, जहाँ चम्पा नगरी थी-जहाँ पूर्णभद्र चैत्य था, वहाँ पधारे। पधारकर संयम मार्ग के अनुकूल आवास को ग्रहण करके, संयम और तप से आत्मा को प्रभावित करते हुए विचरने लगे। । भगवान् के अन्तेवासी १४- तेणं कालेणं तेणंसमएणंसमणस्स भगवओमहावीरस्सअंतेवासी बहवे समणा भगवंतो, अय्येगइया उग्गपव्वइया भोगपव्वइया राइण्णपव्वइया णायपव्वइया कोरव्यपव्वइया खत्तियपव्वइया, भड़ा- जोहा सेणावई पसत्थारो सेट्ठी इब्भा अण्णे य बहवेएवमाइणो, उत्तम-जाइ-कुल-रूव-विणय-विण्णाण-वण्ण-लावण्ण-विक्कमपहाण-सोहग्ग-कंति-जुत्ता बहु-धण धण्ण-णिचय-परियाल-फिडिआ णरवइगुणाइरेगा इच्छिय भोगा सुह-संपललिया, किंपाग-फलोवमं च मुणिय विसयसोक्खं, जलबुब्बुय-समाणं कुसग्ग जलबिंदु-चंचल जीवियं च णाऊण, अद्भुवमिणं रयमिव पडग्गलग्गं संविधुणित्ता णं चइत्ता हिरण्णं जाव पव्वइया अप्पेगइया अद्धमासपरियाया अप्पे-गइया मासपरियाया एवं दुमास-तिमास........जाव -एक्कारस-मासपरियायाअप्पेगइयावासपरियायादुवास.....तिवास-परियाया, अप्पेगइयाअणेगवासपरियाया, संजमेणं तवसा अप्पाणं भावमाणा विहरंति। For Personal & Private Use Only Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान् के अन्तेवासी kuari......................................................... भावार्थ - उस काल और उस समय में श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के अन्तेवासी-शिष्य बहुत-से श्रमण भगवन्त संयम और तप से आत्मा को भावित करते हुए विचरते थे। उनमें से कई उग्रवंश वाले प्रव्रजित-दीक्षित हुए थे, तो कई भोगवंश वाले, राजन्यवंश वाले, ज्ञात या नागवंश वाले, कुरुवंश वाले और क्षत्रियवंश वाले दीक्षित हुए थे। भट, योद्धा, सेनापति, धर्मनीति-शिक्षक, श्रेष्ठिस्वर्णपट्टाङ्कित धनिक इभ्य-हस्ति ढंक जाय इतनी धन राशि वाले धनिक और ऐसे ही और भी बहुत से जन-जिनकी जाति- मातृपक्ष और कुल-पितृपक्ष उत्तम थे, जिनका रूप शरीर का आकार, विनय, विज्ञान. वर्ण-काया की छाया. लावण्य विक्रम सौभाग्य और कान्ति अत्यत्तम थी. जो विपल धनधान्य के संग्रह और परिवार से विकसित (खुशहाल) थे, जिनके यहाँ राजा से प्राप्त पांचों इन्द्रियों के सुख का अतिरेक था, अतः इच्छित भोग भोगते थे और जो सुख से क्रीड़ा करने में मस्त थे-वे विषयसुख को विषवृक्ष-किंपाक के फल के समान समझकर और जीवन को पानी के बुदबुदे के समान तथा कुश के अग्रभाग पर स्थित जलबिन्दु के समान चञ्चल-क्षणिक जानकर इन ऐश्वर्य आदि अध्रुव पदार्थों को कपड़े पर लगी हुई रज के समान झाड़कर-विपुल रूपा, सुवर्ण-घड़ा हुआ सोना, धन-गौ आदि, धान्य, बल चतुरंग सैन्य, वाहन, कोश, कोष्ठागार, राज्य, राष्ट्र, पुर, अन्तःपुर धन-गणिमादि चार तरह के पदार्थ, कनक-बिना घड़ा हुआ सोना, रत्न-कर्केतन आदि, मणि-चन्द्रकान्त आदि, मौक्तिक, शंख शिलाप्रवाल=विद्रुम-मूंगे, पद्मराग आदि पदार्थों को छोड़कर-दीक्षित बन गये। कई को दीक्षित हुए आधा महीना ही हुआ था, कई को महीने, दो महीने, तीन महीने यावत् ग्यारह महीने, एक वर्ष, दो वर्ष और तीन वर्ष हुए थे तो कई को अनेक वर्ष हो गये थे। विवेचन - ....चइत्ता हिरण्णं जाव पव्वइया....' इस सूत्रांश में स्थित 'जाव' शब्द से निम्न लिखित पद.संगृहीत किये गये हैं - "चिच्चा सुव्वण्णं चिच्चा धणं एवं धण्णं बलं वाहणं कोसं कोट्ठागारं रजं रटुं पुरं अंतेउरं, चिच्चा विपुल-धण-कणग-रयण-मणि-मोत्तिअ-संख-सिलप्पवालरत्तरयण माईयं संत-सारसावतेजं विच्छड्डइत्ता विगोवइत्ता, दाणं च दाइयाणं परिभायइत्ता, मुण्डा भवित्ता, अगाराओ अणगारियं-" ____ इनमें से कुछ पदों के अर्थ ऊपर दिये जा चुके हैं। कुछ पदों के अर्थ निम्नलिखित हैं - .......विद्यमान प्रधान द्रव्य को विशेष रूप से छोड़ कर या वमन के समान करके, खुला छोड़कर के या अपना स्वामित्व हटाकर-प्रकट करके या अपने कुटुम्बियों आदि देने योग्य व्यक्तियों को देकरबांटकर और मुंण्ड होकर, अगारी से अनगार बने थे।' "विछड्डइत्ता' पद से विषयभोगों की तरफ तीव्र अरुचि का भाव 'विगोवइत्ता' पद से धन-धान्यादि के प्रति निर्ममत्त्व का भाव और 'परिभायइत्ता' पद से उदारता एवं करुणा का भाव दर्शित होता है। For Personal & Private Use Only Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उववाइय सुत्त निर्ग्रन्थों की ऋद्धि भगवान् के साथ जो श्रमण थे, वे कैसे थे, सो उनका वर्णन किया जाता है - १५- तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतेवासी बहवे णिग्गंथा भगवंतो। भावार्थ - उस काल और उस समय में श्रमण भगवान् महावीर के अन्तेवासी बहुत-से निर्ग्रन्थ-बाह्य और आभ्यन्तर परिग्रह से रहित भगवान् के साथ में थे। अप्पेगइया आभिणिबोहियणाणी जाव केवलणाणी भावार्थ - जिनमें कई आभिनिबोधिकज्ञानी-इन्द्रियों और मन के द्वारा, योग्य देश में स्थित पदार्थों को जानने वाले यावत् केवलज्ञानी-आत्मप्रदेशों से सम्पूर्ण द्रव्यों और उनकी तीनों काल की समस्त अवस्थाओं को जानने वाले थे। विवेचन - 'जाव' शब्द से 'सुयणाणी ओहिणाणी मणपजवणाणी' पदों का संग्रह किया गया है। वे श्रुतज्ञानी-अंगादि सिद्धान्तों के ज्ञाता, अवधिज्ञानी-मन और इन्द्रियों की सहायता के बिना आत्मा से ही रूपी पदार्थों के ज्ञाता और मनःपर्यवज्ञानी-मन की अवस्थाओं से मनः चिन्तित बातों के ज्ञाता थे। अर्थात् कई दो ज्ञान के (मतिज्ञान और श्रुतज्ञान के) धारक थे, तो कई तीन ज्ञान- (मतिज्ञान, श्रुतज्ञान और अवधिज्ञान या मनःपर्यवज्ञान के) चार ज्ञान- (मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान और मनःपर्यवज्ञान) के और एक ज्ञान-केवलज्ञान के धारक थे। ___अप्पेगइया मणबलिया वयबलिया कायबलिया णाणबलिया दंसणबलिया चारित्तबलिया। - कई मनोबली-मन की स्थिरता के धारक, वचनबली- प्रतिज्ञात अर्थ-कहे हुए आशय का निर्वाह करने वाले या परपक्ष को क्षोभकारी वचनशक्ति के धारक और कायबली-भूख, प्यास, सर्दी, गर्मी आदि परीषह के सहने में ग्लानि से रहित रहने की कायिक शक्ति के धारक थे। कई ज्ञान बली दर्शनबली और चारित्रबली के धारक थे। __अप्पेगइया मणेणं सावाणुग्गह समत्था, वएणं सावाणुग्गह समत्था, काएणं सावाणुग्गह समत्था। - कई मन से शाप-अपकार और अनुग्रह-उपकार करने में समर्थ थे। कई वचन से शाप और कृपा करने में समर्थ थे और कई काया से शाप और कृपा करने में समर्थ थे। अप्पेगइया खेलोसहि-पत्ता। For Personal & Private Use Only Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१ निर्ग्रन्थों की ऋद्धि ......................................................... - कई खेलौषधि-खेंकार से ही सभी रोगादि मिटाने की शक्ति को पाये हुए थे। एवं जल्लोसहिपत्ता विप्योसहिपत्ता आमोसहिपत्ता सव्वोसहिपत्ता। - इसी प्रकार जल्लौषधि-शरीर के मैल से रोग आदि अनर्थ उपशान्त करने की शक्ति, विगुडौषधि-मूत्रादि की बूंदों रूप औषधि अथवा वि का अर्थ विष्ठा और प्र का अर्थ प्रश्रवण-मूत्र है, ये दोनों औषधिरूप, आमर्ष-हस्तादि स्पर्श औषधि, सर्वौषधि- केश, नख, रोम, मल आदि सभी का औषधि रूप बन जाना-लब्धि को प्राप्त थे। __ अप्पेगइया कोट्ठबुद्धी एवं बीयबुद्धी पडबुद्धी। - कई कोष्ठबुद्धि वाले-कोठार में भरे हुए सुरक्षित धान्य की तरह प्राप्त हुए सूत्रार्थ को धारण करने में समर्थ मति वाले थे। इसी प्रकार बीजबुद्धि वाले-बीज के समान विस्तृत और विविध अर्थ के महावृक्ष को उपजाने वाली बुद्धि के धारक और पटबुद्धि वाले-वस्त्र में संगृहीत पुष्प-फल के समान, विशिष्ट वक्ताओं द्वारा कथित प्रभुत सूत्रार्थ का संग्रह करने में समर्थ बुद्धि वाले थे। अप्पेगइया पयाणुसारी। अप्पेगइया संभिण्णसोआ। - कई पदानुसारी-सूत्र के एक ही पद के ज्ञात होने पर, उस सूत्र के अनुकूल सैकड़ों पदों का स्मरण कर लेने की-जान लेने की शक्ति के स्वामी थे। कई संभिन्न श्रोता-बहुत-से भिन्न-भिन्न जाति के ' शब्दों को, अलग-अलग रूप से, एक साथ श्रवण करने की शक्ति वाले या सभी इन्द्रियों के द्वारा शब्दादि पांचों विषयों को ग्रहण करने की शक्ति वाले अर्थात् किसी भी एक इन्द्रिय से पांचों विषयों को ग्रहण करने की शक्ति वाले थे। अप्पेगइया खीरासवा। अप्पेगइया महुआसवा। अप्पेगइया सप्पिआसवा। अप्पेगइया अक्खीण-महाणसिया। - कई क्षीरास्रव-श्रोताओं के लिये दूध के समान मधुर, कान और मन को सुखकर वचन शक्ति वाले थे। कई मधु-आस्रव-मधु के समान सभी दोषों को मिटाने में निमित्त रूप और प्रसन्नकारक वाचिक शक्ति वाले थे। कई सर्पिराश्रव-घी के समान अपने विषय में श्रोताओं का स्नेह सम्पादित करने की वाचिक शक्ति वाले थे। कई अक्षीणमहानसिक-प्राप्त अन्न को जहाँ तक स्वयं न खा ले, वहाँ तक सैकड़ों-हजारों को देने पर भी वह अन्न समाप्त न हो, ऐसी लब्धि के धारक थे। एवं उज्जुमई। अप्पेगइया विउलमई। - इसी प्रकार ऋजुमति-मात्र सामान्य रूप से मन की ग्राहिका शक्तिवाले थे। कई विपुलमतिविशेषता सहित चिन्तित द्रव्य को जानने की शक्ति वाले थे। विवेचन - ये दोनों मनःपर्यायज्ञानी के भेद हैं। ऋजुमति ढ़ाई अंगुल कम मनुष्य क्षेत्र में स्थित संज्ञी जीवों के मन को सामान्य रूप से जानते हैं और विपुलमति सम्पूर्ण मनुष्य क्षेत्र में स्थित संज्ञी For Personal & Private Use Only Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२ उववाइय सुत्त जीवों के द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव से विशेषता सहित चिन्तक मन को जानते हैं अथवा मनः चिन्तित द्रव्य को विशेषता सहित जानते हैं। विउव्वणिड्डिपत्ता चारणा विजाहरा आगा-साइवाइणो। - कई विकुर्वणऋद्धि-नाना भांति के रूप बनाने की शक्ति से सम्पन्न थे। कई चारण-गति सम्बन्धी ऋद्धिवाले, विद्याधर-प्रज्ञप्ति आदि विद्याओं के धारक, आकाशातिपाती-गगन गामिनी शक्ति । वाले थे। विवेचन - चारण लब्धि दो प्रकार की है-जंघाचारण और विद्याचारण। जंघाचारण-अष्टम-तेलाअष्टम की तपश्चर्या करने वाले मुनि को यह लब्धि उत्पन्न होती है। जिससे जंघा से सम्बन्धित किसी एक व्यापार के द्वारा एक उड़ान में तेरहवें रुचकवर नामक द्वीप तक और मेरु पर्वत पर जा सकते हैं और वहाँ से आने में दो उड़ान लगानी पड़ती है। विद्याचारणं लब्धि-षष्ठ-दो दिन के उपवास षष्ठ की तपश्चर्या' करने वाले मुनि को पैदा होती है। जिससे श्रुत-विहित ईषत् उपष्टंभ-अवलम्बन से दो उड़ान के द्वारा आठवें नन्दीश्वर द्वीप तक और मेरु पर्वत पर जाने में समर्थ होते हैं और वहाँ से वापिस एक ही उड़ान में आ सकते हैं। - 'आगासाइवाइणो' की संस्कृतच्छाया दो तरह से बनती है- 'आकाशातिपातिनः' और 'आकाशादिवादिनः।' आकाशातिपाती-विद्या या पादलेप के प्रभाव से आकाश में गमन करने वाले अथवा आकाश से रजत आदि इष्ट या ओले आदि अनिष्ट वर्षा करने की शक्ति वाले। आकाशादिवादीआकाश आदि अमूर्त पदार्थों के साधने में समर्थ वादी। निर्ग्रन्थों का तप अप्पेगइया कणगावलिं तवोकम्मं पडिवण्णा। एवं एकावलिं। भावार्थ - कई कनकावली तप कर्म और इसी प्रकार एकावली तप करने वाले थे। विवेचन - कनकावली तप - स्वर्ण मणियों के भूषण विशेष के आकार की कल्पना से किया गया तप। इस तप में क्रमशः चतुर्थ-उपवास, षष्ठ-दो दिन के उपवास और अष्टम-तीन दिन के उपवास करते हैं। फिर चार-चार की दो पंक्तियों के रूप में या चार रेखाओं से नव कोष्ठक में बीच के कोष्ठक खाली रखते हुए आठ अष्टम। इसके बाद चतुर्थ से लगाकर दो-दो भक्त की वृद्धि करते हुए क्रमश: चौंतीस भक्त-सोलह दिन के उपवास तक चढ़ना। हार के मध्य भाग की कल्पना के रूप में २, ३, ४, ५, ६, ५, ४, ३, २ या आठ और छह रेखाओं से निर्मित पैंतीस कोष्ठकों को, मध्य के कोष्ठक को खाली रखते हुए चौंतीस अष्टमों की स्थापना। फिर चौंतीस भक्त से क्रमशः दो-दो भक्त कम करते हुए चतुर्थ तक करना। इसके बाद पूर्ववत् आठ अष्टम और क्रमशः अष्टम, षष्ठ और चतुर्थ। यह एक परिपाटी। पूरे तप में ऐसी चार परिपाटी की जाती है। For Personal & Private Use Only Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निर्ग्रन्थों का तप एक परिपाटी, १ वर्ष, ५ महीने और १२ दिन में पूरी होती है। चार परिपाटी, ५ वर्ष, ९ महीने और १८ दिन में पूरी होती है। पहली परिपाटी में पारणे में विकृति-दूध आदि लिये जा सकते हैं। दूसरी में विकृति का त्याग। तीसरी में लेप का त्याग। चौथी में आयंबिल। एकावली तप - क्रमशः चतुर्थ, षष्ठ और अष्टम। आठ चतुर्थ। चतुर्थ से लगाकर चौंतीस भक्त तक क्रमशः चढ़ना। चौंतीस चतुर्थ भक्त। चौंतीस भक्त से क्रमशः चतुर्थ तक उतरना। आठ चतुर्थ । फिर क्रमशः अष्टम, षष्ठ और चतुर्थ । एक परिपाटी का काल- १ वर्ष, २ महीने और २ दिन। चार परिपाटियों का काल- ४ वर्ष, ८ महीने और ८ दिन। पारणे में पूर्ववत् । नोट - श्रेणिक राजा की काली, महाकाली, सुकाली आदि महारानियों ने ये कनकावली आदि तप किये थे। इनका विशेष विवरण अन्तगड़ सूत्र में हैं। जिज्ञासुओं को वहाँ देखना चाहिये। खुड्डाग-सीह-णिक्कीलियं तवोकम्मं पडिवण्णा। अप्पेगइया महालयं सीहणिक्कीलियं तवोकम्मं पडिवण्णा। . . भावार्थ - कई लघुसिंह निष्क्रीडित तपःकर्म के करने वाले और कई महासिंह निष्क्रीडित तपः कर्म के करने वाले थे। विवेचन - जिस प्रकार सिंह, गमन करते हुए, पीछे छोड़े हुए प्रदेश को मुड़कर देखता जाता है, उसी प्रकार किये हुए तप को आगे बढ़कर पुन: करना, सिंहनिष्क्रीडित नाम का तपःकर्म कहा जाता है। इसके क्षुल्लक-लघु और महा ये दो भेद हैं। .. लघुसिंहनिष्क्रीडित तप - चतुर्थ, षष्ठ-चतुर्थ, अष्टम-षष्ठ, दशम-चार दिन के उपवासअष्टम, द्वादश-दशम, चतुर्दश-द्वादश, षोडश-चतुर्दश, अष्टादश-षोडश, विंशतितम-९ दिन के उपवासअष्टादश और विंशतितम। एवं षोडश-७ दिन के उपवास- अष्टादश-आठ दिन के उपवास चतर्दशषोडश, द्वादश-चतुर्दश, दशम-द्वादश, अष्टम-दशम, षष्ठ-अष्टम, चतुर्थ-षष्ठ और चतुर्थ। यह एक परिपाटी। ऐसी चार परिपाटियाँ करने पर यह तप पूरा होता है। एक परिपाटी का काल-६ महीने और ७ दिन। - चार परिपाटियों का काल-२ वर्ष और २८ दिन। पहली परिपाटी में पारणे के दिन (विकृति घी, दूध, दही, तेल और मीठा) ले सकते हैं। दूसरी परिपाटी के पारणों में विकृति का त्याग कर देते हैं। तीसरी परिपाटी के पारणों में विकृति के लेप का भी त्याग कर देते हैं और चौथी परिपाटी के पारणों में आयंबिल-रांधा हुआ या भुना हुआ अचित्त अन्न, पानी में भिगोकर, मात्र एक समय खाना-करते हैं। For Personal & Private Use Only Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४ - महासिंहनिष्क्रीडित तप एक दिन का उपवास, दो दिन और एक दिन का उपवास, इसी प्रकार क्रमशः सोलह दिन और पन्द्रह दिन के उपवास और सोलह दिन के उपवास - चतुस्त्रिंशत्तम एवं तीस भक्त-बत्तीस भक्त– १४ और १५ दिन के उपवास इसी प्रकार क्रमशः चतुर्थ - षष्ठ और चतुर्थ तक उतरना । उववाइय सुत्त एक परिपाटी का काल - १ वर्ष ६ महीने और १८ दिन । चार परिपाटियों का काल - ६ वर्ष २ महीने और १२ दिन । पारणक-विधि पूर्ववत् । भद्दपडिमं महाभद्दपडिमं सव्वओभद्दपडिमं आयंबिलवद्धमाणं तवोकम्मं पडिवण्णा । भावार्थ - कई अनगार भद्रप्रतिमा, महा भद्रप्रतिमा, सर्वतोभद्रप्रतिमा और आयम्बिल-वर्द्धमान तप कर्म करने वाले थे । विवेचन - भद्रप्रतिमा - पूर्व, दक्षिण, पश्चिम और उत्तर दिशा में मुख रखकर, क्रमशः प्रत्येक दिशा में चार-चार पहर तक ध्यान करना। यह प्रतिमा - अभिग्रह विशेष रूप प्रतिज्ञा दो दिन की है। महाभद्र प्रतिमा- इसमें क्रमशः प्रत्येक दिशा में एक-एक अहोरात्रि तक कुल चार अहोरात्र तक कायोत्सर्ग किया जाता है। सर्वतोभद्र प्रतिमा - इस प्रतिमा की दो विधियाँ १. क्रमशः दश दिशाओं में मुख करके, एक-एक अहोरात्रि तक कुल दश अहोरात्रि तक - कायोत्सर्ग करना २. दूसरी विधि के अनुसार इस प्रतिमा के दो भेद हैं- लघु और महा । लघुसर्वतोभद्र प्रतिमा (जिस स्थापना में चारों ओर से अंकों की गिनती करने पर जोड़ बराबर आये उसे सर्वतोभद्र कहते हैं ।) इस तप में क्रमश: चतुर्थ से लगाकर द्वादशम-पांच दिन के उपवास तक चढ़ते हैं। फिर मध्य के कोष्ठक में आये हुए अङ्क को आदि में रखकर, शेष चार पंक्तियाँ पूरी की जाती है। - एक परिपाटी का कालमान- ७५ दिन तपश्चर्या और २५ पारणक। तीन महीने १० दिन । चार परिपाटियों का कालमान- १ वर्ष, १ महीना और १० दिन । पारणक विधि पूर्ववत् । महासर्वतोभद्र प्रतिमा - क्रमशः ७ अङ्क तक की तपश्चर्या । मध्य कोष्ठक गत अङ्ग को आदि में रख कर, अगली - अगली पङ्कितयों का निर्माण । एक परिपाटी का कालमान- ८ महीने और ५ दिन । चारों परिपाटियों का कालमान- २ वर्ष, ८ महीने, २० दिन । आयम्बिल वर्द्धमान जिसमें रांधा हुआ या भुना हुआ अचित्त अन्न, पानी में भिगो कर एक बार खाया जाता है, उसे आयम्बिल नामक तप कहा जाता है। इस तप की विधि इस प्रकार है - एक For Personal & Private Use Only Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निर्ग्रन्थों का तप ४५ आयम्बिल इसके बाद एक चतुर्थ-उपवास। दो आयम्बिल, चतुर्थ। इस प्रकार क्रमशः एक-एक आयम्बिल को बढ़ाते हुए सौ आयम्बिल तक पहुँचना। आयम्बिल के बीच उपवास करने से एक सौ उपवास हो जाते हैं। इस प्रकार इस तप में ५०-५० आयम्बिल और १०० उपवास होते हैं। कुल १४ वर्ष, ३ महीने और २० दिन में यह तप पूरा होता है। ' मासियं भिक्खुपडिमं, एवं दोमासियं पडिमं, तिमासियं। भिक्खुपडिमं, जाव सत्तमासियं भिक्खु-पडिमं पडिवण्णा॥ भावार्थ - कई निर्ग्रन्थ मासिकी भिक्षुप्रतिमा (एक महीने की साधु की प्रतिज्ञा विशेष) इसी प्रकार द्विमासिकी, त्रिंमासिकी यावत् सप्तमासिकी भिक्षुप्रतिमा के धारक थे। ये सातों प्रतिमायें एक-एक मास की होती हैं। सिर्फ नाम द्विमासिकी, त्रिमासिकी दिया गया है। . विवेचन - मासिकी भिक्षु प्रतिमा - एक महीने तक एक दत्ति आहार और एक दत्ति पानी ग्रहण करने की प्रतिज्ञा। इसी प्रकार द्विमासिकी से सप्तमासिकी भिक्षुप्रतिमा में क्रमशः २, ३, ४, ५, ६ और ७ दत्ति आहार और ७ दत्ति पानी की ग्रहण करने की प्रतिज्ञा की जाती है। अर्थात् इतनी दत्ति तक आहार पानी लिया जा सकता है। किन्तु इतने दत्ति से कम ले तो कोई बाधा नहीं है। __ अप्पेगइया पढमं सत्त-राइंदियं भिक्खुपडिमं पडिवण्णा, जाव तच्चं सत्त-राइंदियं भिक्खुपडिमं पडिवण्णा। भावार्थ - कई निर्ग्रन्थ प्रथम सप्त रात्रिंदिवा भिक्षुप्रतिमा के धारक थे, यावत् तीसरी सप्त रात्रिन्दिवा भिक्षुप्रतिमा के धारक थे। - विवेचन - आठवी, नववीं और दसवीं इन तीन प्रतिमाओं का कालमान सात-सात दिन का है। अतः क्रमश: प्रथमा, द्वितीया और तृतीया उनकी नाम संज्ञा दी गई है। प्रथमा सप्त राइन्दिवा भिक्षु प्रतिमा - सात दिन तक एकान्तर उपवास। उपवास में चारों आहार का त्याग करना और ये तीन प्रकार के आसन करना। यथा उत्तानक-चित्त लेटना या पार्श्वशायी-बगल से लेटना या निषद्योपगत होकर-पालठी लगाकर ग्रामादि से बाहर रहना। . द्वितीया सप्त रात्रिन्दिवा भिक्षु प्रतिमा - सात दिन तक एकान्तर उपवास तप करना और ये तीन प्रकार के आसन करना- उत्कुटुक-दोनों पञ्जों के बल, घुटने खड़े रख कर बैठना या लगण्डशायीसिर्फ सिर और एडियों का ही पृथ्वी पर स्पर्श हो, इस प्रकार पीठ के बल लेटना या दण्डायत (सीधे डण्डे की तरह लेटना) होकर ग्रामादि से बाहर रहना। .. तृतीया सप्त रात्रिन्दिवा भिक्षु प्रतिमा - सात दिन तक एकान्तर उपवास तप करना और ये तीन प्रकार के आसन करना- ग्रामादि से बाहर गोदूहासन-गाय दूहने की स्थिति में बैठना या वीरासन-वीर पुरुष के बैठने के ढंग से बैठना अर्थात् कुर्सी पर बैठे हुए पुरुष के नीचे से कुर्सी निकाल लेने पर जो For Personal & Private Use Only Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६ उववाइय सुत्त स्थिति होती है उस आसन से बैठना या आम्रकुब्जासन (आम्रफल वत् वक्राकार स्थिति में बैठना) से रहना। अहोराइंदियं (राइंदियं) भिक्खुपडिमं पडिवण्णा, इक्कराइंदियं (एगराइयं) भिक्खु-पडिमं पडिवण्णा। भावार्थ - कई निर्ग्रन्थ एक रात और एक दिन की भिक्षु प्रतिमा के धारक थे और कई एक रात की भिक्षु प्रतिमा के धारक थे। विवेचन - अहोरात्रिकी भिक्षु प्रतिमा - इस प्रतिमा में चौविहार षष्ठोपवास-दो दिन के उपवास किया जाता है। इस प्रतिमा का आराधक गांव के बाहर रहकर इसकी आराधना करता है और प्रलम्बभुज-दोनों हाथों को लटकते हुए स्थिर रखना-अवस्था में स्थित रहता है। एक रात्रिकी भिक्षु प्रतिमा - इस प्रतिमा की आराधना चौविहार अष्टमभक्त-तीन दिन के .. उपवास के द्वारा की जाती है। इसका आराधक भी ग्रामादि के बाहर ही रहता है। जिनमुद्रा-दोनों पैरों के बीच चार अंगुल का अन्तर रखते हुए, सम अवस्था में खड़े रहना, प्रलम्बभुज-लटकते हुए स्थिर हाथ, अनिमिषनयन- पलके झपकाने से रहित स्थिति-एक टक, एक पुद्गल निरुद्धदृष्टि- किसी एक पुद्गल पर दृष्टि लगाना और कुछ झुके हुए शरीर से स्थित रहकर एक रात तक इसकी आराधना की । जाती है। विशिष्ट संहनन आदि से युक्त व्यक्ति ही इन प्रतिमाओं की आराधना कर सकता है। कहा है - पडिवज्जइ एयाओ, संघयणधिइजुओ महासत्तो। पडिमाउ भावियप्या, सम्मं गुरुणा अणुण्णाओ॥ संहनन - शारीरिक बल और धृति-धैर्य-आत्मिकबल से युक्त महासत्त्वशाली-अतिशय पराक्रमी सम्यक् रूप से भावित आत्मा-संयम के संस्कारों से युक्त या संयम में तल्लीन शुद्ध आत्मा और गुरु के द्वारा अनुज्ञात-जिसे आज्ञा मिल गई हो या जिसे अधिकार प्राप्त हो ऐसा व्यक्ति इन प्रतिमाओं को स्वीकार करता है। बारह भिक्षु प्रतिमा का विस्तृत वर्णन दशाश्रुतस्कन्ध की सातवीं दशा में है। ये बारह ही प्रतिमाएँ शेष काल के ८ महीनों में पूरी हो जाती है। पहली से लेकर सातवीं प्रतिमा तक सात महीने में पूरी हो जाती है, आगे की पांच प्रतिमाएं आठवें महीने में पूरी हो जाती हैं। सात-सात दिन की तीन प्रतिमाओं के इक्कीस दिन होते हैं, बाईसवें दिन पूर्व प्रतिमा के उपवास का पारणा कर तेईसवें और चौईसवें दिन बेला की तपस्या कर के ग्यारहवीं प्रतिमा का पालन किया जाता है, पच्चीसवें दिन बेले का पारणा करके छब्बीसवें, सत्ताईसवें और अट्ठाईसवें दिन तेला किया जाता हैं, उनतीसवें दिन तेले का पारणा करके बारह ही प्रतिमा पूर्ण कर दी जाती है। इस प्रकार मिकसर की एकम से प्रतिमाएँ प्रारम्भ करके आषाढ़ी पूनम के पहले दिन पूर्ण कर दी जाती है और फिर चातुर्मास लग जाता है। चातुर्मास में ये भिक्षु प्रतिमाएं अंगीकार नहीं की जाती है। For Personal & Private Use Only Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___ . निर्ग्रन्थों का तप ........... इन प्रतिमाओं को अंगीकार करने की योग्यता इस प्रकार बतलाई गई है यथा - वज्रऋषभ-नाराच संहनन, ऋषभ-नाराच संहनन, नाराच-संहनन ये तीन संहनन, बीस वर्ष की संयम पर्याय, २९ वर्ष की उम्र तथा जघन्य नववें पूर्व की तीसरी आचार वस्तु का ज्ञान होना आवश्यक है, अनेक प्रकार की साधनाएँ और अभ्यास प्रतिमा धारण करने के पहले किए जाते हैं। उनमें उत्तीर्ण होने पर ही प्रतिमा धारण करने की आज्ञा दी जाती है। गोचरी के नियम भी बड़े कठिन हैं, इसलिए वर्तमान समय में इन भिक्षु प्रतिमाओं का आराधन नहीं किया जा सकता है अतएव अभी इनका विच्छेद माना गया है। सत्त-सत्तमियं भिक्खुपडिमं, अट्ठ-अट्टमियं भिक्खुपडिमं, णव-णवमियं भिक्खुपडिमं, दस-दसमियं भिक्खुपडिमं।खुड्डियं मोय-पडिमं पडिवण्णा। महल्लियं मोयपडिमं पडिवण्णा। जवमझं चंदपडिमं पडिवण्णा। वइर (वज) मझं चंदपडिमं पडिवण्णा। ___ भावार्थ - कई निर्ग्रन्थ सप्त-सप्तमिका भिक्षु प्रतिमा-सात-सात दिन के सात दिन-समूहों की साधु की प्रतिज्ञा, अष्ट-अष्टमिका-आठ-आठ दिन के आठ दिन समूहों की भिक्षु-प्रतिमा, नवनवमिका भिक्षुप्रतिमा, दशदशमिका भिक्षुप्रतिमा, क्षुल्लक मोक प्रतिमा के धारक, महामोक प्रतिमा के धारक, यव-मध्य-चन्द्र प्रतिमा के धारक और वज्र-मध्य चन्द्र प्रतिमा के धारक थे। ___ विवेचन - सप्त सप्तमिका भिक्षु प्रतिमा - यह ४९ दिन की प्रतिमा है। सात-सात दिन के सात सप्तक (वर्ग)। पहले सप्तक में पहले दिन एक-एक दत्ति अन्न-पानी एवं क्रमशः सातवें दिन सातसात दत्ति अन्न-पानी के ग्रहण की प्रतिज्ञा। इसी प्रकार शेष छह सप्तकों में भी। अथवा पहले सप्तक में प्रति दिन एक-एक दत्ति अन्न-पानी एवं क्रमश: सातवें सप्तक में प्रति दिन सात-सात दत्ति अन्न-पानी के ग्रहण की प्रतिज्ञा। दूसरा विधान अन्तगड सूत्र के मूलपाठ के अनुसार है। इसी प्रकार आगे अष्टअष्टमिका, नवनवमिका और दशदशमिका में भी समझ लेना चाहिए। . . इसी प्रकार अष्टअष्टमिका, नवनवमिका और दशदशमिका भिक्षु प्रतिमा में क्रमशः ८ अष्टक, ९ नवक और १० दशक में विभाजित ६४, ८१ और १०० दिन होते हैं। आहार-पानी की दत्तियों में पूर्ववत् वृद्धि की जाती है। दूसरी वांचना में भद्रा, सुभद्रा, महाभद्रा, सर्वतोभद्रा और भद्रोत्तर प्रतिमा ऐसे नाम भी मिलते हैं। लघुमोक प्रतिमा - प्रस्रवण सम्बन्धी अभिग्रह द्रव्य की अपेक्षा-नियमानुकूल हो तो प्रस्रवण की दिन में अप्रतिष्ठापना, क्षेत्र की अपेक्षा ग्रामादि से बाहर, काल की अपेक्षा-शीत या ग्रीष्म में आहार करके करे तो चतुर्दशभक्त से और आहार किये बिना करे तो षोडशभक्त से पूर्ण होती है और भाव की अपेक्षा-देवता, मनुष्य और तिर्यंच सम्बन्धी उपसर्गों को समभाव पूर्वक सहन करना, उपसर्ग सहना। । इसी प्रकार महामोक प्रतिमा भी की जाती है। अन्तर इतना ही है कि यह षोडश भक्त से या अष्टादश भक्त से पूर्ण होती है। For Personal & Private Use Only Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उववाइय सुत्त यवमध्यचन्द्र प्रतिमा - शुक्लपक्ष की पडवा से प्रारंभ होकर, चन्द्रकला की वृद्धि-हानि के अनुसार दत्ति की वृद्धि-हानि से यव के मध्यभाग आकार में पूरी होने वाली एक महीने की प्रतिज्ञा। जैसे सुदी पडवा को एक दत्ति, द्वितीया को दो दत्ति, इस प्रकार क्रमश: एक एक दत्ति बढ़ाते हुए पूर्णिमा के दिन पन्द्रह दत्ति। वदी पडवा को चौदह दत्ति फिर एक-एक दत्ति घटाते हुए, चतुर्दशी को एक दत्ति लेना। अमावस्या को उपवास। व्रजमध्यचन्द्र प्रतिमा - कृष्ण पक्ष की पडवा के दिन प्रारंभ होकर, चन्द्रकला की हानिवृद्धि के अनुसार दत्ति की हानिवृद्धि से व्रजाकृति में पूर्ण होने वाली एक महीने की प्रतिज्ञा। इसके प्रारम्भ में १५ दत्ति, फिर क्रमशः घटाते हुए अमावस्या को एक दत्ति। शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा को दो, फिर क्रमश: एक-एक बढ़ाते हुए चतुर्दशी को पन्द्रह दत्ति और पूर्णमासी को उपवास। दूसरी वांचना में इस प्रकार का पाठ भी मिलता है - १. विवेक प्रतिमा २. व्युत्सर्ग प्रतिमा ३. उपधान प्रतिमा ४. प्रतिसंलीनता प्रतिमा। संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणा विहरंति। भावार्थ - इस प्रकार वे निर्ग्रन्थ संयम और तप से आत्मा को भावित करते हुए विचरते थे। ... स्थविरों के बाह्य-आभ्यन्तर गुण १६. तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतेवासी बहवे थेरा भगवंतो भावार्थ - उस काल और उस समय में श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के अन्तेवासी बहुत-से स्थविर-ज्ञान और चारित्र में वृद्धि प्राप्त भगवन्त - उन के साथ थे। जाइसंण्णा कुलसंपण्णा बलसंपण्णा रूव- संपण्णा विणयसंपण्णा णाणसंपण्णा दंसणसंपण्णा चरित्तसंपण्णा लज्जासंपपणा लाघवसंपण्णा। भावार्थ - वे स्थविर भगवन्त जाति-मातृपक्ष, कुल-पितृपक्ष, बल, रूप, विनय, ज्ञान, दर्शन-श्रद्धा, चारित्र, लज्जा अपवाद से डरने का भाव और लाघव-वस्त्र आदि अल्प उपधि की और ऋद्धि रस और साता के गौरव से रहित अवस्था से सम्पन्न यक्त थे। विवेचन - 'जातिसम्पन्न' आदि विशेषणों का यह आशय है कि वे उत्तम जाति, कुलादि से युक्त थे। क्योंकि साधारण पुरुष भी मातृपक्षादि से संपन्न होते हैं। इसमें कोई विशेषता नहीं है। अतः यहाँ इन भावों की उत्तमता को बताने के लिये ही यह विशेषणों का समूह आया है। जाति और कुल की सम्पन्नता शुभ कर्म के उदय से ही प्राप्त हो सकती है। यदि मातृ-पितृपक्ष निर्दोष हों तो सुन्दर संस्कारों की प्राप्ति सहज ही हो जाती है। जिससे आगे का उत्कर्ष सुगम हो जाता For Personal & Private Use Only Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थविरों के बाह्य-आभ्यन्तर गुण है। अतः श्रेष्ठ साधनों को सुलभ कर देने में पूर्व के सुकृत का उदय मानना असंगत नहीं है। बल और रूप की सम्पन्नता भी पहले के शुभ कर्म के उदय से ही प्राप्त हो सकती है। बलसम्पन्नता घोरतम कष्टों को सहने में स्थिर बनाती है और रूपसम्पन्नता बाल जीवों को धर्ममार्ग में जोड़ने में निमित्त बन सकती है। ये चारों गुण बाह्य हैं। विनय, ज्ञान, दर्शन, चारित्र और लाघव की सम्पन्नता, आत्मिक पुरुषार्थ को शुभोदय का सहकार मिलने पर प्राप्त हो सकती है और लज्जा लोक संज्ञा का संस्कृत रूपान्तर है। विनय से धर्म, ज्ञान से समझ, दर्शन से प्रतीति और रुचि एवं संसार के मिथ्या भावों के छेदन, चारित्र से निष्कम्प दशा, लज्जा से संयम में दृढ़ता और लाघव से मुक्तिमार्ग में तीव्र गति की प्राप्ति होती है। ये आन्तरिक गुण हैं। ओअंसी तेअंसी वच्चंसी जसंसी। भावार्थ - वे ओजस्वी, तेजस्वी, वर्चस्वी और यशस्वी थे। . विवेचन - ओजस्-मानस- हृदय की स्थिरता। सुसम्बद्ध विचारों के अभ्यास के कारण जो आत्मिक स्थिरता पैदा होती है, जिससे अन्य व्यक्तियों को अपने विचारों से प्रभावित कर देने की जो जोशीली शक्ति पैदा होती है, उसे 'ओजस्' कहा जाता है। तेजस्-शरीर की प्रभा। साधना करते-करते साधक-शरीर के चारों ओर किरणें -सी निकलने लग जाती है, जिससे व्यक्ति दर्शन मात्र से एक मधुर शान्ति का अनुभव करता है, उसे 'तेजस्' कहते हैं। ' वचस्-सौभाग्यादि से युक्त वाणी। . अथवा वर्चस्-प्रभाव। क्रिया या आचार में व्याप्त ऐसी शक्ति, जिसका लोहा अन्य भी मानते हैं और जो प्रभाव की जननी है, उसे 'वर्चस्' कहा जाता है। यशस्-ख्याति । उपर्युक्त तीनों भावों के मिश्रण के द्वारा लोक में उस चुम्बकीय व्यक्तित्व के प्रति जो प्रशंसात्मक दृष्टि बनती है उसकी जो स्तुति होती है, उसे 'यशस्' कहते हैं। .. जियकोहा जियमाणा जियमाया जियलोभा जियइंदिया जियणिहा जियपरीसहा। भावार्थ - वे अनगार भगवन्त क्रोध, मान, माया-छल-कपट और लोभ के हृदय में उदय होने पर, उन्हें विफल कर देते थे-उनके प्रवाह में नहीं बहते थे। इन्द्रियों पर अपना अधिकार रखते थे। निद्रा के वशीभूत नहीं होते थे और परीषहों-अनुकूल या प्रतिकूल बाधाओं को जीत लेते थे। . विवेचन - "जित' शब्द से यहाँ पर यह भाव लिया गया है कि - आत्म-सत्ता गत कर्मों के उदय-फल देने के लिये प्रवृत्त होने पर, उन पर क्रोधादि का आक्रमण अवश्य होता था, किन्तु आत्मजागृति के द्वारा उन्हें अपने पर हावी नहीं होने देते थे। अतः पुनः वैसे कर्मों का इतना प्रबल सञ्चय आत्मा में नहीं होता था। जीविआस-मरणभय-विप्पमुक्का। भावार्थ - वे जीने की आशा और मरने के भय से बिलकुल मुक्त थे। For Personal & Private Use Only Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५० उववाइय सुत्त विवेचन - जीने की आशा और मरने का भय, अनेक आत्मिक दोषों को पैदा करते हैं। जिसने इन दोनों को छोड़ दिया हो, वही क्रोधादि भावों पर सही विजय पा सकते हैं। जीना और मरना तो कर्माधीन है और आयुष्य कर्म पिछले जन्म में ही बांधकर लाया जाता है। अत: जीवन आशा और मरणभय से कुछ विशेष लाभ नहीं हो सकता। किन्तु कर्त्तव्य में शिथिलता ही पैदा होती है। अतः ज्ञानी पुरुष इन भावों से मुक्त हो जाते हैं। वयप्पहाणा गुणप्पहाणा करणप्पहाणा चरणप्पहाणा। भावार्थ - वे उत्तम व्रत-श्रेष्ठतम साधुता के धारक थे। करुणा आदि श्रेष्ठ गुणों के स्वामी थे। आहार शुद्धि आदि श्रेष्ठ क्रिया-करण के पालक थे। महाव्रत आदि श्रेष्ठ आचार-चरण के धनी थे। .. विवेचन - मूल और करण शब्द से मूलगुण जो कि पांच महाव्रत आदि करण सत्तरि के सित्तर बोल लिये गये हैं तथा गुण प्रधान और चरण प्रधान शब्द से पिण्डविशुद्धि आदि रूप चरणसत्तरि के ७० बोल लिये गये हैं। चरणसत्तरि के ७० भेद - वय-समणधम्म, संजम-वेयावच्चं च बंभगुत्तीओ। णाणाइतीय तव, कोह-णिग्गहाइ चरणमेयं॥ अर्थ - ५ महाव्रत, १० यतिधर्म, १७ प्रकार का संयम, १० प्रकार की वैयावच्च, ब्रह्मचर्य की ९ वाड़, ३ रत्न (ज्ञान, दर्शन, चारित्र) १२ प्रकार का तप, ४ कषाय का निग्रह; ये सभी मिला कर चरणसत्तरि के ७० भेद हुए। करणसत्तरि के ७० भेद - पिंडविसोही समिई, भावणा-पडिमा इंदिय-णिग्गहो य। पडिलेहण-गुत्तीओ, अभिग्गहं चेव करणं तु॥ अर्थ - ४ प्रकार की पिण्ड-विशुद्धि, ५ समिति, १२ भावना, १२ भिक्षु प्रतिमा, ५ इन्द्रियों का निरोध, २५ प्रकार की पडिलेहणा, ३ गुप्ति, ४ अभिग्रह ये सभी मिला कर ७० भेद हुए। णिग्गहप्पहाणा णिच्छयप्पहाणा अजवप्पहाणा मद्दवप्पहाणा लाघवप्पहाणा खंतिप्पहाणा मुत्तिप्पहाणा। भावार्थ - वे अनाचार को रोकने में कुशल, श्रेष्ठ निश्चयवाले, माया-छल कपट और मान के उदय का निग्रह करने में कुशल, उत्तम लाघव-क्रिया में दक्षता के धारक एवं क्रोध और लोभ के उदय का निग्रह करने में चतुर थे। विवेचन - स्थविर भगवन्तों के हाथ में ही शासन की बागडोर रहती है। अतः उन्हें अनाचार प्रवृत्ति का निग्रह भी करना पड़ता है। क्रोध आदि को जीत लेने पर निग्रह कैसे संभव हो सकता है ? For Personal & Private Use Only Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थविरों के बाह्य-आभ्यन्तर गुण वस्तुतः क्रोध से अनाचार की वृद्धि नहीं रोकी जा सकती है। किन्तु ओज आदि गुणों के द्वारा ही साधकों के हृदय को जीत कर उन्हें सदाचार में प्रवृत्त किया जा सकता है। इसमें निश्चयबलतत्त्वनिर्णय और विहित अनुष्ठानों को करने के लिये योग्य, विशुद्ध एवं दृढ़ सङ्कल्प बल की आवश्यकता रहती है। इसका कथन 'निश्चयप्रधान' विशेषण के द्वारा किया गया है। 'जितक्रोधादि' विशेषणों के द्वारा क्रोधादि के उदय को निष्फल करने का विधान किया है और 'आर्जव-सरलता, मार्दव-कोमलता, विनय, क्षान्ति-क्षमा और मुक्ति-निर्लोभत्ता में प्रधानता' के द्वारा क्रोधादि को जीतने के साधनों के प्रयोग में उनकी कुशलता का वर्णन किया है। 'आर्जवप्रधान' और 'मार्दवप्रधान' के बाद 'लाघवप्रधान' विशेषण रखने का यह रहस्य हो सकता है कि सरलता और विनय से युक्त होने पर ही वास्तविक क्रियाकुशलता की प्राप्ति होती है। पहले आया हुआ 'लाघवसम्पन्न' विशेषण 'द्रव्य और भाव से हलकेपन' का बोधक है और 'लाघवप्रधान' विशेषण 'विहित क्रियाओं अथवा तत्त्वज्ञान की विविध शैलियों की दक्षता-चतुराई' का बोधक है। विजापहाणा मंतष्पहाणा वेयप्पहाणा बंभप्पहाणा णयप्पहाणा णियमप्पहाणा सच्चप्पहाणा सोयप्पहाणा।। . भावार्थ - वे अनगार भगवन्त प्रज्ञप्ति आदि विद्या के श्रेष्ठ धारक, उत्तम मंत्रज्ञ, श्रेष्ठ ज्ञानी, ब्रह्मचर्य में याकुशलानुष्ठान में स्थित, नय-नीति में प्रधान, उत्तम अभिग्रहों के स्वामी, सत्यप्रधान और शौच-निर्लेपता और दोष से रहित समाचारी के श्रेष्ठ धारक थे। विवेचन - स्थविरों की विद्या, मंत्र, वेद और ब्रह्म में प्रधानता के कथन से, सूत्रकार यह सूचित करते हैं कि उनको रहस्यमयी लौकिक साधनाओं का ज्ञान था और परसिद्धान्त एवं उसमें से विकसित उत्तरवर्ती मानसिक साधनाओं का भी ज्ञान था तथा वे उन्हें निवृत्ति मार्ग के अनकूल भावों में परिणत करने की शक्ति रखते थे। .. चारुवण्णा लजा-तवस्सी-जिइंदिया सोही अणियाणा अप्पुस्सुया अबहिल्लेसा अप्पडिल्लेस्सा सुसामण्णरया दंता इणमेव णिग्गंथं पावयणं पुरओ-काउं विहरंति। भावार्थ - उन अनगार भगवन्तों की सब जगह भूरि-भूरि प्रशंसा होती थी। उनके लज्जा प्रधान और जितेन्द्रिय शिष्य थे। वे जीवों के.सुहृद्-मित्र थे-किसी के भी प्रति उनके हृदय में कलुषित भावना नहीं थी। तप संयम के बदले में पुण्य फल की इच्छा-याचना नहीं करते थे। उत्सुकता से रहित थे। संयम से बाहर की मनोवृत्तियों से रहित थे। अनुपम अथवा विरोध से रहित वृत्तियों के धारक थे। श्रमण की क्रियाओं में पूर्णतः लीन रहते थे। गुरुओं के द्वारा दमन को ग्रहण करते थे। विनय करने वाले थे और इस निर्ग्रन्थ प्रवचन को ही आगे रख कर विचरण करते थे। . विवेचन - 'चारुवण्णा' - सत्कीर्ति या शरीर का गौर आदि सुन्दर वर्ण या सत्प्रज्ञा। 'लज्जातवस्सी-जिइंदिया-लज्जाप्रधान जितेन्द्रिय शिष्यों के स्वामी या लज्जा और तप की शोभा के द्वारा For Personal & Private Use Only Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उववाइय सुत्त इन्द्रियों के जीतने वाले। यद्यपि 'जिइंदिया' विशेषण पहले आ चुका है, तथापि लज्जा और तप के विशेष भाव से युक्त होने के कारण पुनरुक्ति नहीं है। वे स्थविर भगवन्त निर्ग्रन्थ प्रवचन को ही दृष्टि समक्ष रखते थे। क्योंकि वे जानते थे कि छद्मस्थ व्यक्ति कितना ही ज्ञानी और स्थितात्मा क्यों न हो, किन्तु वह निर्ग्रन्थ प्रवचन से निरपेक्ष स्वतंत्र बुद्धि से निर्दोष विचार नहीं कर सकता। वे निर्ग्रन्थप्रवचन की अनुगामिता को बुद्धि की गुलामी नहीं-किन्तु स्वच्छन्द बुद्धि रूपी जंगली घोड़े को वश में करने वाली सुन्दर लगाम मानते थे। तेसि णं भगवंताणं आयावाया (आयावाइणो) वि विदिता भवंति। परवाया (परवाइणो) विदिता भवंति। आयावायं जमइत्ता-णलवणमिव मत्तमातंगा, अच्छिद्दपसिण-वागरणा, रयण-करडंग-समाणा, कुत्तिया-वणभूया (परवाईहिं अणोक्कंता, अण्णउत्थिएहिं अणोद्धंसिज्जमाणा, अप्पेगइया आयारधरा जाव विवागसुयधरा चोहसपुव्वी) पर-वादिय-पमद्दणा, दुवालसंगिणो समत्त-गणि-पिडग-धरा। ___ भावार्थ - उन अनगार भगवन्तों को अपने सिद्धान्तों के प्रवाद भी ज्ञात थे और परवाद-दूसरे मत-मतान्तर भी ज्ञात थे। स्व-सिद्धान्त को पुनः पुनः परावर्तन से अच्छी तरह जानकर, कमल वन मेंरमण करने वाले मस्त हाथी के समान थे, वे लगातार प्रश्न-उत्तर के करने वाले होकर विचरते थे। वे रत्न के करण्डक के समान और कुत्रिकापण-तीनों लोक की प्राप्त होने योग्य वस्तुओं की देवाधिष्ठित दुकान के तुल्य थे। परवादियों का- उनके मत का मर्दन करने वाले थे। बारह अंगों के ज्ञाता थे। समस्त-अनन्त गम और पर्याय से युक्त गणिपिटक के धारक थे। विवेचन - गणिपिटक-अर्थपरिच्छेदों का पिटक के तुल्य स्थान या अर्थ-निर्णयों के कोषनिधि-आचार्य का पिटक अर्थात् प्रकीर्णक, श्रुतादेश, श्रुतनियुक्ति आदि.से युक्त जिनप्रवचन। बारह अंग के धारक होकर भी, प्रकीर्णकादि का ज्ञाता न हो। अतः इस अर्थ का ज्ञान कराने के लिये 'दुवालसंगिणो' के बाद 'समत्त'-विशेषण आया है। गणिपिटक - गणो गच्छो गुणगणो वाऽस्यास्तीति गणी आचार्यः, तस्य पिटकमिव पिटकम् सर्वस्वमित्यर्थः गणिपिटकम्। अर्थ - गण अर्थात् गच्छ के स्वामी को अथवा गुण गण के धारक को गणी कहते हैं । अर्थात् आचार्य भगवन्त का दूसरा नाम गणी है। पिटक का अर्थ है - पेटी (सन्दूक)। जिस प्रकार जौहरी के रत्नों की पेटी होती है उसी प्रकार आचारांग आदि बारह अंग जिनके लिये रत्नों की पेटी के समान है उसे गणिपिटक कहते हैं। __कुत्तियावण-कौपृथिव्यांत्रिजमापणायतिव्यवहरतियत्रहद्देऽसौ कुत्रिजापर्णः।देवाधिष्ठितत्येन स्वर्गमर्त्यपाताल-भूत्रित्रयसंभविवस्तु संपादके आवणे हटे। For Personal & Private Use Only Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारों के गुण mmmmmmmmmmmorrormirmirrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrorm अर्थ - 'कु' का अर्थ है पृथ्वी। 'त्रि' का अर्थ है तीन लोक और 'कापण' का अर्थ है दुकान। उसका समुदित अर्थ यह हुआ कि-ऐसी दुकान जहाँ तीनों लोक की वस्तुएँ मिलती है। यह देवाधिष्ठित होती है। सव्वक्खर-सण्णिवाइणो, सव्व-भासाणुगामिणो, अजिणा जिणसंकासा, जिणा इव अवितहं वागरमाणा संजमेणं तवसा अप्पाणं भावमाणा विहरंति। भावार्थ - वे अनगार भगवन्त अक्षरों के सभी संयोगों को जानते थे। सर्वभाषा को जानने वाले थे। जिन-सर्वज्ञ नहीं होते हुए भी जिन के समान थे। वे सर्वज्ञ के समान वास्तविक प्रतिपादन करते हुए संयम और तप से आत्मा को भावित करते हुए विचरते थे। विवेचन - सर्वाक्षर-सन्निपाती-सभी अक्षरों-उच्चारणध्वनियों के एक-दो आदि विभिन्न संयोगों से, जितने भी शब्द बनते हैं, उन सभी को जानने वाले को 'सर्वाक्षर-सन्निपाती' लब्धि का धारक कहा जाता है। सर्वभाषानुगामी - आर्य, अनार्य, मनुष्य, तिर्यञ्च और देवों की सभी भाषाओं के बोलने वाले अथवा अपनी भाषा में ही बोलते हुए भी अतिशय विशेष से सुनने वाले को अपनी-अपनी भाषा में बोलते हुए प्रतीत हो, ऐसी शक्ति के धारक अथवा संस्कृत, प्राकृत, मागधी आदि भाषाओं में व्याख्यान करने वाले। अनगारों के गुण १७-तेणंकालेणं तेणंसमएणंसमणस्स भगवओमहावीरस्सअंतेवासी बहवे अणगारा भगवंतो। . भावार्थ - उस काल-उस समय में श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के बहुत से अन्तेवासी अनगार भगवन्त उनके साथ थे, वे कैसे थे ? ईरियासमिया भासासमिया एसणासमिया आदाण-भंडमत्त-णिक्खेवणासमिया उच्चार-पासवण-खेल-सिंघाण-जल्ल-पारिट्ठावणिया-समिया मणगुत्ता वयगुत्ता कायगुत्ता। . भावार्थ - वे अनगार भगवन्त हलन-चलनादि क्रिया, भाषा के प्रयोग, आहारादि की याचना, पात्र आदि के उठान-रखने और मल-मूत्र, खेकार, नाक आदि के मैल को त्यागने में यतनावान् थे। मन, वचन और काया की क्रिया का निरोध करने वाले थे। विवेचन - संयम के अनुकूल यतनापूर्वक की जाने वाली प्रवृत्ति को समिति कहते हैं और आत्म-रमण के लिये जिन क्रियाओं से निवृत्ति ली जाती है उन्हें गुप्ति कहते हैं। समिति केवल शुभ For Personal & Private Use Only Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४ उववाइय सुत्त प्रवृत्ति रूप ही होती है और अशुभ क्रिया से निवृत्ति एवं शुभक्रिया में प्रवृत्ति रूप तथा अशुभ और शुभ क्रिया से सर्वथा निवृत्ति रूप गुप्ति होती है। इन दोनों को मिला कर ‘अष्ट प्रवचन माता' कहा जाता है। - गुत्ता गुत्तिंदिया गुत्तबंभयारी (गुत्तागुत्तिंदिया)। भावार्थ - वे अनगार भगवंत गुप्त-अन्तर्मुख-सर्वथा निवृत्त, गुप्तेन्द्रिय-इन्द्रियों को उनके विषयों के व्यापार में लगाने की उत्सुकता से रहित और गुप्त ब्रह्मचारी-नियमोपनियम सहित ब्रह्मचर्य के धारक अर्थात् सुरक्षित ब्रह्मचर्य वाले थे। विवेचन - शब्दादि में रागादि नहीं करने के कारण 'गुप्त' और आगम-श्रवण, ईर्या समिति आदि में इन्द्रियों को प्रवृत्त करने के कारण 'अगुप्त' अथवा 'गुप्त-अगुप्त-इन्द्रिय' - प्रवृत्ति-निवृत्ति रूप शुभ . उभयपक्ष के धारक थे। अममा अकिंचणा (अकोहा अमाणा अमाया अलोभा संता पसंता उवसंता परिनिव्वुया अणासवा अगंथा छिण्णसोया) छिण्णग्गंथा छिण्णसोया णिरुवलेवा। भावार्थ - वे अनगार भगवन्त अकिञ्चन-द्रव्य से रहित थे। वे ममत्व रहित थे। वे छिन्नग्रन्थ थे अर्थात् संसार से जोड़ने वाले पदार्थों से मुक्त थे। अतः छिन्नस्रोत थे अर्थात् शोक-आर्तता से रहित थेसंसार प्रवाह में नहीं बहते थे तथा निरुपलेप अर्थात् कर्मबन्ध के हेतुओं से रहित थे। वे क्रोध मान माया और लोभ से रहित थे। बाहर तथा आभ्यन्तर से शान्तियुक्त थे। अतएव उपशान्त अर्थात् शीतलीभूत थे। परिनिर्वृत अर्थात् कर्मकृत विकार से रहित होने के कारण शीतल थे। आस्रव रहित थे। निर्ग्रन्थों की उपमाएँ संग्रह गाथा कंसे १ संखे २ जीवे ३ गयणे ४ वाए ५ य सारए सलिले ६। पुक्खरपत्ते ७ कुम्मे ८ विहगे ९ खग्गे य १० भारंडे ११॥१॥ कुंजर १२ वसहे १३ सीहे १४ नगराया चेव १५ सागरक्खोहे १६ । चंदे १७ सूरे १८ कणगे १९ वसुंधरा चेव २० सुहूयहुए २१॥२॥ कंसपाईव मुक्क-तोया १ - कांस्य पात्री के समान स्नेह रूप पानी से मुक्त थे। विवेचन - कांसे के बर्तन में पानी का लेप नहीं लगता है। यद्यपि वह पानी को धारण करता है, तथापि वह कोरा का कोरा ही रहता है। इसी प्रकार वे अनगार भगवन्त शिष्यों के परिवार से युक्त थे, उपदेश आदि की प्रवृत्ति भी करते थे और व्यवहार में वत्सल भी दिखाई देते थे, किन्तु अन्तरंग में वे स्नेह-रहित थे। क्योंकि स्नेह बन्धन का कारण है। For Personal & Private Use Only Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संख इव णिरंगणा २ भावार्थ- शंख के समान नीरंगण - रागादि रञ्जनात्मक भाव से रहित थे । विवेचन - रंगण अर्थात् जो हमारे सामने जिस भाव से रंग कर आया हो, उसी भाव में स्वयं भी लीन हो जाना। जैसे-क्रोधी से क्रोध करना, द्वेषी से द्वेष करना, प्रेमी से प्रेम करना, अपनी स्तुति करने वाले की प्रशंसा करना, अपनी निन्दा करने वाले की निन्दा करना आदि। जो ऐसे भावों से मुक्त हो वह निरंगण कहलाते हैं । जीवो विव अप्पsिहयगई ३ भावार्थ - जीव के समान अप्रतिहत-रुकावट से रहित गति वाले थे। विवेचन - गति अर्थात् अपने लक्ष्य को पाने की क्रिया । जब अपने जीवन-लक्ष्य का सही निर्णय हो जाता है और सही मार्ग की प्राप्ति का निश्चय हो जाता है, तो साधक लाखों विघ्नों से भी न घबराते हुए दृढ़ता के साथ अपने लक्ष्य की ओर बढ़ता हुआ चला जाता है। गति की शिथिलता उसके विश्वास और मनोबल की कमजोरी की सूचक है। जिस प्रकार जीव को उसके उत्पत्ति-स्थान की ओर जाने से.. कोई भी नहीं रोक सकता है, उसी प्रकार वे अनगार भगवन्त भी मत-मतान्तर कृत शंका-कुशंका या आकांक्षा आदि रुकावटों से शिथिल गति नहीं होते थे । जच्च कणगमिव जायरूवा ४ * निर्ग्रन्थों की उपमाएँ भावार्थ - अन्य कुधातुओं के मिश्रण से रहित सोने के समान जातरूप प्राप्त हुए निर्मल चारित्र में वैसे ही भाव से स्थित अर्थात् दोष से रहित चारित्र वाले थे। (आदरिस - फलगा इव पायड भावा ) भावार्थ- दर्पणपट्ट के समान प्रकट भाव वाले थे। विवेचन प्रकट भाव अर्थात् शठता से रहित मन के परिणाम। जैसे कि दर्पण में जैसे और जिस - स्थिति में नयन, मुख आदि होते हैं, उसी रूप में उनकी प्रतिछाया दिखाई देती है, वैसे ही वे अनगार भगवन्त अन्तर में कपट रहित थे और बाहरी क्रिया में भी निष्कपट- निश्छल थे। कुम्म इव गुत्तिंदिया ५ भावार्थ - - कच्छप के समान गुप्तेन्द्रिय थे। विवेचन - जैसे हमला आक्रमण होने पर कछुआ अपने चारों पैरों और गर्दन इन पांचों अङ्गों को ढाल में संकुचित करके अपने ऊपर होने वाले आघात ( चोट) को निष्फल बना देता है और सुरक्षित बन जाता है, वैसे ही वे अनगार भगवन्त विकारों का प्रहार होने पर, इन्द्रियों को विषयों से खींचकर, निवृत्ति भाव की ढाल में संकुचित हो जाते थे-छिप जाते थे और विकारों के प्रहार को निष्फल बना देते थे । For Personal & Private Use Only Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६ उववाइय सुत्त पुक्खर पत्तं व णिरुवलेवा ६ भावार्थ - पुष्कर पत्र अर्थात् कमल पत्र के समान निर्लेप थे। विवेचन - जल और पङ्क (कीचड़) से उत्पन्न होकर भी कमल उनसे भिन्न रहता है। यदि उसके ऊपर जल गिर भी जाय, तो बिन्दु रूप से वहीं स्थिर हो जाता है। इसी प्रकार वे भगवन्त अपने स्वजनों की आसक्ति से रहित थे। यदि स्वजन उनके पीछे पड़ ही जाते, तो वे अपने स्वभाव से उनकी चञ्चल प्रकृति स्थिर बना देते थे और उनकी स्नेह वृत्तियों के फैलाव का अवकाश ही नहीं देते थे। गगणमिव णिरालंबणा ७ भावार्थ - आकाश के समान निरवलम्ब थे। विवेचन - जैसे आकाश अपने आप में ही स्थित रहता है। किसी के भी अवलम्बन की उसकी स्थिति में आवश्यकता नहीं रहती। उसी प्रकार वे अनगार भगवन्त भी ग्राम, नगर, उद्यान आदि में निरपेक्ष रहते हुए अपने आप में लीन रहते थे। अणिलो इव णिरालया (अपडिबद्धा)८ भावार्थ - वायु के समान निरालय-स्थान विशेष से रहित अर्थात् अप्रति बद्ध विहारी थे। चंदो इव सोमलेस्सा ९ भावार्थ - चन्द्र के समान सौम्य लेश्या वाले अर्थात् शुद्ध मन के परिणाम वाले थे। सूरो इव दित्ततेया १० भावार्थ - सूर्य के समान दीप्त तेजवाले-शारीरिक और आत्मिक तेज से तेजस्वी थे। सागरो इव गंभीरा ११ भावार्थ - समुद्र के समान गंभीर थे। अर्थात् हर्ष-शोक आदि के कारण उपस्थित होने पर भी निर्विकार चित्तवाले थे। विहग इव सव्वओ विप्यमुक्का १२ भावार्थ - पक्षी के समान पूर्णतः विप्रमुक्त थे। विवेचन - जैसे पक्षी परिवार से या सेवक आदि से घिरे हुए नहीं रहते हैं-उनके वासस्थान नेयत नहीं रहते हैं, इसी प्रकार वे अनगार भी सेवकादि और नियत वास से मुक्त थे। मंदर इव अप्पकंपा १३ भावार्थ - मेरु पर्वत के समान अप्रकम्प (अनुकूल या प्रतिकूल उपसर्गों-कष्टों में अडोल) थे। सारयसलिलं व सुद्ध-हियया १४ भावार्थ - शरद् ऋतु के जल के समान शुद्ध हृदय वाले थे। खग्गि-विसाणं व एगजाया १५ For Personal & Private Use Only Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारों का अप्रतिबंध विहार भावार्थ-गैंडे के सिंग समान एक जात-रागादि के सहायक भावों के अभाव के कारण एकभूत थे। भारंड पक्खी व अप्पमत्ता १६. भावार्थ- भारण्डपक्षी के समान अप्रमत्त-सदा जागृत थे। विवेचन - भारण्डपक्षी के एक शरीर, दो ग्रीवा और तीन पैर होते हैं। उसके दोनों मस्तिष्क भिन्न होते हैं। अत: वह अत्यन्त जागृत रह कर ही जीवन यात्रा का निर्वाह करता है। इसी तरह वे अनगार भगवन्त भी तप और संयम रूपी धर्म में प्रमाद रहित रहते थे। कुंजरो इव सोंडीरा १७ भावार्थ - हाथी के समान शूर-कषायादि भाव शत्रुओं को जीतने में बलशाली थे। वसमो इव जायत्थामा १८ भावार्थ - वृषभ के समान जात स्थाम-धैर्यवान् थे। विवेचन - जैसे वृषभ धीरता के साथ भार वहन करते हैं, वैसे ही वे ली हुई प्रतिज्ञा का भार धैर्य के साथ वहन करते थे। सीहो इव दुद्धरिसा १९ भावार्थ - सिंह के समान दुर्धर्ष-परीषहादि मृगों से नहीं हारने वाले थे। वसुंधरा इव सव्व-फास-विसहा २० । भावार्थ - पृथ्वी के समान सभी (शीत-उष्ण आदि) स्पर्शों को सहने वाले थे। सुहृय-हुयासणो इव तेयसा जलता २१ भावार्थ - घृत आदि से अच्छी तरह हवन की हुई हुताशन-अग्नि के समान ज्ञान और तप रूप तेज से जाज्वल्यमान थे। अनगारों का अप्रतिबंध विहार . णत्थि णं तेसिणं भगवंताणं कत्थइ पडिबंधे भवइ। भावार्थ - उन भगवन्तों के कहीं पर किसी प्रकार का प्रतिबंध-अटकाव, रोक या आसक्ति का कारण नहीं था। से य पडिबंधे चउबिहे पण्णत्ते। भावार्थ - वह प्रतिबंध-आसक्ति चार प्रकार का कहा गया है। तंजहा-दव्वओ खित्तओ कालओ भावओ। भावार्थ - वे चार प्रकार ये हैं-द्रव्य से, क्षेत्र से, काल से और भाव से। दव्वओणं सचित्ताचित्त-मीसिएंसुदव्वेसं खेत्तओगामेवाणयरे वारण्णेवाखेत्ते For Personal & Private Use Only Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८ उववाइय सुत्त वा खले वा घरे वा अंगणे वा, कालओ समये वा आवलियाए वा आणा-पाणुए वा, थोवे वा, लवे वा, मुहुत्ते वा, अहोरत्ते वा, पक्खे वा, मासे वा अयणे वा अण्णतरे वा दीह-काल-संजोगे, भावओं कोहे वा माणे वा मायाए वा लोहे वा भए वा हासे वा एवं तेसिंण भवइ। भावार्थ - द्रव्य से सचित्त, अचित्त और मिश्र द्रव्यों में, क्षेत्र से ग्राम, नगर, जंगल, खेत, खला, घर और आंगन में, काल से समय, आवलिका यावत् अयन और अन्य भी दीर्घकालीन संयोग में और भाव से क्रोध, मान, माया, लोभ, भय या हास्य में-उनका ऐसा कोई प्रतिबन्ध नहीं था। विवेचन - १. काल का अविभाज्य अर्थात् जिसका फिर भाग नहीं किया जा सके ऐसे निर्विभाग अंश को 'समय' कहते हैं। २. आवलिका - असंख्यात समय की एक आवलिका होती है। ३. उच्छ्वाससंख्यात आवलिका का एक उच्छ्वास होता है। ४. निःश्वास - संख्यात आवलिका का एक नि:श्वास होता है। ५.प्राण - एक उच्छ्वास और नि:श्वास का एक प्राण होता है। ६. स्तोक-७ प्राण का एक स्तोक होता है। ७. लव - ७ स्तोक का एक लव होता है। ८. महत - ७७ लव या ३७७३ प्राण का एक मुहूर्त होता है। ९. अहोरात्र - ३० मुहूर्त का एक अहोरात्र होता है। १०. पक्ष - १५ अहोरात्र का एक पक्ष होता है। ११. मास- दो पक्ष का एक मास (महीना) होता है। १२. ऋतु - दो मास की एक ऋतु होती है। १३. अयन - तीन ऋतुओं का एक अयन होता है। १४. संवत्सर - दो अयन का एक संवत्सर होता है। १५. युग- पांच संवत्सर का एक युग होता है। प्रश्न - कितनी आवलिका का एक मुहूर्त होता है ? उत्तर - १६७७७२१६ आवलिका का एक मुहूर्त होता है। जैसा कि कहा है - तीन साता दो आगला, आगल पाछल सोल। इतनी आवलिका मिलाय के, एक मुहूर्त तूं बोल॥ प्रश्न - ऋतुएं कितनी हैं और वे कौन कौनसी हैं ? उत्तर - आगम के अनुसार ऋतुएं छह हैं (ठाणाङ्ग ६) इनके नाम इस प्रकार हैं - १. प्रावृट् - आषाढ और श्रावण। २. वर्षा - भाद्रपद और आश्विन। ३. शरद् - कार्तिक और मार्गशीर्ष (मिगसर)। ४. हेमन्त - पौष और माघ। ५. वसन्त - फाल्गुन और चैत्र। ६. ग्रीष्म - वैशाख और ज्येष्ठ। बहद होडाचक्र आदि ज्योतिष ग्रन्थों में लोक व्यवहार के नाम इस प्रकार बतलाये हैं - १.वसन्त- चैत्र और वैशाख। For Personal & Private Use Only Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारों का अप्रतिबंध विहार ५९ २. ग्रीष्म - ज्येष्ठ और आषाढ़। ३. वर्षा - श्रावण और भाद्रपद।। ४. शरद् - आश्विन और कार्तिक। ५.शीत - मार्गशीर्ष और पौष। ६. हेमन्त - माघ और फाल्गुन। ते णं भगवंतो वासावासवजं अट्ठ-गिम्ह-हेमंतियाणि मासाणि गामे एगराइया णयरे पंचराइया। . भावार्थ - वे अनगार भगवन्त, वर्षावास को छोड़कर, ग्रीष्म और शीतकाल के आठ महिनों तक, गांव में एक रात और नगर में पांच रात रहते थे। विवेचन - 'गांवों में एक रात्रि और नगर में पांच रात्रि' इसमें 'एक रात्रि' का अर्थ रविवार आदि वारों के क्रम से 'एक सप्ताह' और 'पांच रात्रि का अर्थ 'पांचवें सप्ताह' में विहार (२९ दिन) करते हैं। जो मास कल्प के अनुकूल हैं। वासी-चंदण-समाण-कप्पा। भावार्थ- वे वासी चन्दन के समान कल्प वाले थे। विवेचन - चन्दन अपने काटने वाले वशुले की धार को भी सुगन्धित बना देता है। क्योंकि चन्दन का स्वभाव ही सुगन्ध देना है। इसी प्रकार अपकारी के प्रति भी उपकार बुद्धि रखना अथवा अपने प्रति 'वासी' अर्थात् वशुले के समान बरताव करने वाले अपकारी और चन्दन के समान शीतलता प्रदाता उपकारी के प्रति समान भाव रखना-राग द्वेष नहीं करना अथवा शस्त्र से काटने वाले और चंदन से पूजने वाले के प्रति समभाव रखना 'वासी-चंदण-समाण-कप्पा' (वासी-चंदन-समान-कल्प) कहा जाता है। सम-लेट्ठ-कंचणा, सम-सुह-दुक्खा । . भावार्थ - मिट्टी के ढेले और सोने को एक समान (उपेक्षणीय) समझने वाले तथा सुख और दुःख को समभाव से सहन करने वाले थे। विवेचन - ढेला और सोना दोनों ही पुद्गल है। मिट्टी सोने में बदल सकती है और सोना मिट्टी बन सकता है। अत: दोनों में एक ही तत्त्व है। आत्मिक भाव वृद्धि में उनसे सहयोग नहीं मिल सकता। अतः उनमें लोभ आदि नहीं करना-समभाव है। सुख-दुःख कर्म के उदय से ही होता है। दूसरे तो निमित्त मात्र हैं। अतः सुख-दुःख को समभाव से सहन करने से ही कर्म का क्षय हो सकता है। सुख में हर्ष और दुःख में विषाद इस प्रकार विषमता के परिणाम उन अनगार भगवन्तों के नहीं थे। इहलोग-परलोग-अप्पडिबद्धा, संसार-पारगामी, कम्म-णिग्घायणट्ठाए अब्भुट्ठिया विहरंति। For Personal & Private Use Only Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .. उववाइय सुत्त भावार्थ - वे इहलोक और परलोक सम्बन्धी आसक्ति से रहित और संसार-पारगामी-चतुर्गति रूप संसार के पार पहुंचने वाले कर्म-नाश के लिये तत्पर हो कर विचरण करते थे। . विवेचन - इस पूरे सूत्र में अनगार का स्वरूप वर्णित है। भगवान् महावीर स्वामी के शिष्यों की संयम यात्रा, निर्लिप्तता, उपमाओं द्वारा स्तुति-प्रशंसा, अप्रतिबद्ध विहार की क्रमबद्धता, समभावना और ऐसी कठोर चर्या के उद्देश्य का वर्णन सुन्दर ढंग से हुआ है। अगारवास में आसक्त व्यक्ति की हलन चलनादि क्रिया में भाषा-प्रयोग में, आकांक्षा आदि में संयम नहीं रह सकता। उसकी वृत्ति प्राय: बहिर्मुख ही रहती है। उन्हें इहलौकिक स्वार्थ-परार्थ की चिन्ताएँ सताती रहती है। जीवनलक्ष्य के प्रति भी उनका सही विचार नहीं बन सकता। अन्तर्-व्यथा और उलझनों से भ्रान्तियाँ बढ़ती ही जाती हैं। जब कि अनगार-अवस्था में आस्थावान् व्यक्ति इन कठिनाइयों से सहज में पार हो जाता है और अपने लक्ष्य की ओर उसका वायुवेग-सी गति हो जाती है। वे घरबार को छोड़कर अनगार बन जाते हैं। अत: घर से सम्बन्धित तमाम आसक्तियाँ छोड़ देते हैं। स्वयं के लिये जिन्हें असार समझकर छोड़ दिया हो, फिर 'अन्य को वे ही वस्तुएँ प्राप्त हो' - ऐसे चिन्तन या ऐसी झञ्झट में वे कैसे पड़ सकते हैं और भविष्य में उन्हीं वस्तुओं की प्राप्ति की कामनाएँ उनके हृदय में कैसे रह सकती है ? अतः अनगार सहज ही ऐहिक और पारलौकिक आसक्तियों से मुक्त हो जाते हैं। जो सभी आसक्तियों को छोड़कर, आत्मिक लक्ष्य के अनुकूल जीवन व्यतीत करने की प्रतिज्ञा ग्रहण करता है तो वह अपकारी और उपकारी व्यक्तियों के प्रति, शुभ और अशुभ वस्तुओं के प्रति और अपनी अनुकूल और प्रतिकूल परिस्थितियों के प्रति समभाव रखने पर ही संसार-पारगामी होकर, कर्मक्षय के लिये तत्पर बन सकता है। अर्थात् स्पष्ट आत्मिक लक्ष्य की सतत स्मृति, बहिर्वृत्ति । से मुक्ति, समभावना, अनासक्ति, निर्लिप्तता और क्रिया में यतना के अस्तित्व से ही अनगार जीवन का निर्माण होता है। अनगारों की तपश्चर्या १८- तेसि णं भगवंताणं एएणं विहारेणं विहरमाणाणं इमे एयारूवे अभितरबाहिरए तवो-वहाणे होत्था। तं जहा-अभितरए छविहे, बाहिरए वि छब्बिहे। भावार्थ - इस प्रकार के विहार से विचरण करने वाले उन अनगार भगवंतों का इस प्रकार से बाह्य और आभ्यन्तर तपाचरण था। जैसे कि - आभ्यन्तर तप के छह प्रकार और बाह्य तप के भी छह प्रकार होते हैं। विवेचन - अन्तर्-साधनों से बहिराचरण को प्रभावित करके, अन्तर्मुख होने या आत्मिक दोषों को त्यागने की आन्तरिक क्रिया को आभ्यन्तर तप कहते हैं और बाहरी साधनों से आत्मक्रिया को प्रभावित करने अर्थात् जिन बाहरी साधनों से आत्मक्रिया दूषित होती हो उन साधनों के त्याग को For Personal & Private Use Only Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बाह्य तप ६१ बाह्यतप कहते हैं। मोक्षमार्ग में दोनों प्रकार के तप का स्थान है। शास्त्रों में वर्णित महापुरुषों के जीवन चरित्र भी इस बात की पुष्टि करते हैं। मोक्ष भावना से निरपेक्ष दोनों प्रकार के तप अकाम-निर्जरा में ही परिगणित होते हैं। आत्मलक्ष्य और आत्मज्ञान से शून्य निर्जरा-तप पुण्य-बन्ध में ही सहायक होकर रह जाता है। इसके प्रमाण स्वरूप में अभव्य जीव की साधना कही जा सकती है। सम्यग् दृष्टि की साधना की अपेक्षा से ही बाह्य और आभ्यन्तर भेद किये गये हों-ऐसा लगता है, क्योंकि विकलदृष्टि कृत आभ्यन्तर तप भी वस्तुतः बाह्यतप ही है और उस तप की संज्ञा अकामनिर्जरा-आत्मशुद्धि रूप फल की प्राप्ति न हो वैसा तप है। यथा - 'भीतर ही शरीर को तपाने के कारण और सम्यग्दृष्टि के द्वारा ही तप रूप से प्रतीत होने के कारण आभ्यन्तर तप कहलाता है और बाहरी शरीर को ही तपाने के कारण तथा मिथ्यादृष्टि के द्वारा भी तपरूप से प्रतीत होने के कारण तप की बाह्य संज्ञा है।' शक्ति होते हुए भी आभ्यन्तर तप के बहाने यदि बाह्यतप की उपेक्षा की जाती है तो आत्मा मिथ्या छल में फंसकर, बहिर्मुख बन जाता है और आभ्यन्तर तप की अवहेलना करके, बाह्यतप किया जाता है तो क्रोधादि कषायों की वृद्धि होती है, जिससे पौद्गलिक ऋद्धियों में उलझने की वृत्ति का निर्माण होता है। परस्पर निरपेक्ष दोनों प्रकार के तप केवलिप्रज्ञप्त धर्म से भ्रष्ट कर दे-यह भी संभव है। अतः दोनों प्रकार के तप के सामञ्जस्य पूर्ण आराधन में ही सम्यग्दृष्टि और चारित्र की सुरक्षा है। शक्ति के बहाने से भी बाह्यतप की उपेक्षा होती है। किन्तु मनोबल की दृढ़ता के साथ विविध बाह्य तपों का विधि सहित प्रयोग करने पर तपःशक्ति स्वतः ही विकसित हो सकती है और श्रमण अनेक अनिष्टों से बच सकता है। क्योंकि आत्मा के परिस्पंद से वीर्य पैदा होता है और जब तक आत्मा योग-मन, वचन और काया की क्रिया से युक्त है तब तक वह निःस्पन्द नहीं हो सकता। अतः वीर्य-क्रिया करने का उत्साह पैदा होगा ही। यदि उसका उपयोग नहीं किया जाता है तो आत्मा का अध:पतन होता है-आकुलता बढ़ती है और वृथा क्रियाएँ जन्म लेती है। इसलिये उस वीर्य का बाह्य और आभ्यन्तर तप में उपयोग करके, आत्मविकास को पूर्णता के चरम शिखर पर पहुँचाया जा सकता है। बाह्य तप १९-से किं तं बाहिरए ? बाहिरए छव्विहे पण्णत्ते, तं जहा - अणसणे १, अवमोयरिया (ऊणोयरिया) २, भिक्खायरिया ३, रसपरिच्चाए ४, कायकिलेसे ५, पडिसंलीणया ६। भावार्थ - बाह्य तप किसे कहते हैं ? बाह्य तप छह प्रकार का कहा गया है। जैसे - १. अनशन- नहीं खाना २. अवमोदरिक- कम खाना अथवा द्रव्य-भाव साधनों को कम काम में लेना ३. भिक्षाचा - याचना से प्राप्त संयमी जीवन के योग्य साधनों को लेना या वृत्ति-आजीविका के साधनों को घटाना ४. रस-परित्याग-रसास्वाद को छोड़ना ५. कायक्लेश - सुकुमारता त्यागने के लिये For Personal & Private Use Only Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२ उववाइय सुत्त कायिक दमन के योग्य उपायों को स्वीकार करना और ६. प्रतिसंलीनता - अन्तर्बाह्य चेष्टाओं का संवरण करने के लिए किये जाने वाले बाहरी उपाय। विवेचन - प्रश्न - तप किसे कहते हैं ? उत्तर - शरीर और कर्मों को तपाना तप है। जैसे अग्नि में तपा हुआ सोना निर्मल होकर शुद्ध हो जाता है, उसी प्रकार तप रूप अग्नि से तपा हुआ आत्मा कर्म मल से रहित होकर शुद्ध स्वरूप हो जाता है। तप दो प्रकार का है-बाह्य तप और आभ्यन्तर तप। बाह्य शरीर से सम्बन्ध रखने वाले को 'बाह्य तप' कहते हैं। _यदि ये बाह्यतप मुक्ति की अभिलाषा से तीव्र आन्तरिक रुचि से किये जाते हैं तो गौण रूप से आभ्यन्तर तप की साधना भी होती है और आत्मिक गुणों का विकास होता ही है। अनशन से मैत्री भावना का पोषण, कामुकता के उद्दीपन का अभाव, अनमोह का त्याग, दैहिक ममता पर विजय आदि गुण प्राप्त होते हैं। न्यूनोदरता से इच्छा-निरोध, इन्द्रिय-निरोध, मनोबल की दृढ़ता आदि गुण सधते हैं। भिक्षाचर्या से आवश्यकता की पूर्ति या अपूर्ति की विविध स्थितियों में समभाव की साधना की जा . सकती है। रसपरित्याग से अनासक्ति की पुष्टि होती है और असातावेदनीय का क्षय होता है। कायक्लेश से सुकुमारता के परिहार, सुख-शीलियापन के त्याग, ऋतु के अनुकूल शरीर को बनाने, कष्टसहिष्णुता आदि की साधना में सहायता मिलती है और प्रतिसंलीनता से चित्तशान्ति, एकाग्रता आदि : की वृद्धि होती है। से किं तं अणसणे ? अणसणे दुविहे पण्णते, तं जहा-इत्तरिए य आवकहिए य। भावार्थ - अनशन किसे कहते हैं ? - अनशन के दो भेद कहे गये हैं। जैसे - १. इत्वरिक - मर्यादित समय के लिये आहार का त्याग करना और २. यावत्कथिक - जीवन पर्यन्त आहार का त्याग करना। - विवेचन - प्रश्न - उत्कृष्ट इत्वरिक तप कितना होता है ?. उत्तर - अवसर्पिणी काल के प्रथम तीर्थंकर के शासन में एक वर्ष, दूसरे से लेकर तेईसवें तीर्थंकर तक आठ महीना और अन्तिम तीर्थंकर के शासन में छह महीना का उत्कृष्ट तप होता है, अर्थात् इस अवसर्पिणी काल के प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव के शासन में एक वर्ष, बीच के बाईस तीर्थङ्करों के शासन में आठ महीना और श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के शासन में छह महीने का उत्कृष्ट तप होता है। तीर्थंकर भगवन्तों का सब तप चौविहार ही होता है, बाकी सब सन्त-सतियों और श्रावक-श्राविका का तप चौविहार या तिविहार भी हो सकता है। जिस तीर्थंकर के शासन में जितना उत्कृष्ट तप होता है उतना ही उत्कृष्ट दीक्षा छेद दिया जा सकता है, उससे अधिक नहीं, यही बात तप के विषय में भी समझना चाहिये। इससे अधिक श्रद्धा, प्ररूपणा और फरसना करें तो भगवान् की आज्ञा का उल्लंघन होता है। For Personal & Private Use Only Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बाह्य तप ___ से किं तं इत्तरिए ? - इत्तरिए अणेगविहे पण्णत्ते। तं जहा-चउत्थभत्ते छट्ठभत्ते अट्ठमभत्ते दसमभत्ते बारसभत्ते चउद्दसभत्ते सोलसभत्ते, अद्धमासिए भत्ते, मासिए भत्ते, दोमासिए भत्ते, तेमासिए भत्ते, चउमासिए भत्ते, पंचमासिए भत्ते, छम्मासिए भत्ते। से तं इत्तरिए। भावार्थ - इत्वरिक अनशन किये कहते हैं ? - इत्वरिक अनशन के अनेक भेद कहे हैं। जैसे - चतुर्थभक्त-एक दिन रात के लिए आहार त्याग उपवास, षष्ठभक्त-दो दिन के उपवास बेला, अष्टमभक्त-तीन दिन के उपवास तेला, दशमभक्त-चार दिन के उपवास चोला, द्वादशभक्त-पांच दिन के उपवास पंचोला, चतुर्दशभक्त-छह दिन के उपवास, षोडशभक्त-सात दिन के उपवास अर्द्धमासिकभक्त-पंदरह दिन के उपवास, मासिकभक्त, द्विमासिक-भक्त, त्रैमासिकभक्त, चातुर्मासिकभक्त, पञ्चमासिकभक्त और षण्मासिकभक्त-छह महीने के उपवास। यह ऐसा इत्वरिक तप है। विवेचन - इत्वरिक अनशन के दूसरी तरह से छह भेद उत्तराध्ययन सूत्र अध्ययन ३० तथा औपपातिक सूत्र तथा ठाणांग ६ में बतलाये गये हैं यथा - १. श्रेणी तप, २. प्रतर तप ३. घन तप ४. वर्ग तप ५. वर्ग-वर्ग तप ६. प्रकीर्ण तप। . ___ इन तपों का विस्तृत विवेचन जिज्ञासुओं को उपरोक्त स्थलों पर देखना चाहिए। से किं तं आवकहिए ? - आवकहिए दुविहे पण्णत्ते। तं जहा - पाओवगमणे य भत्तपच्चक्खाणे य। भावार्थ - यावत्कथिक किसे कहते हैं ? - यावत्कथिक के दो भेद कहे गये हैं। जैसे - १. पादपोपगमन - वृक्ष की कटी हुई डाली के समान जीवन पर्यन्त स्थिर शरीर से रहकर आहार को त्याग देना और २. भक्तप्रत्याख्यान - जीवन पर्यन्त आहार का त्याग। . . से किं तं पाओवगमणे ? पाओवगमणे दुविहे पण्णत्ते। तं जहा-वाघाइमे य णिव्वाघाइमे य। णियमा अप्पडिकम्मे।से तं पाओवगमणे। भावार्थ- पादपोपगमन किसे कहते हैं ? पादपोपगमन के दो भेद कहे गये हैं। जैसे- १.व्याघातिमसिंह, दावानल आदि उपद्रवों के आने से निःस्पंद-निराहार रहना और २. निर्व्याघातिम-सिंह आदि के उपद्रवों के नहीं होने पर भी मरणकाल को समीप जानकर, स्वेच्छा से जीवनपर्यन्त नि:स्पंद-हलन-चलन से रहित निराहार रहना।इस अनशन में प्रतिकर्म-शरीर संस्कार खुजलाना, हलन-चलन आदि करते नहीं हैं। यह ऐसा पादपोपगमन यावत्कथिक अनशन है। से किं तं भत्तपच्चक्खाणे? भत्तपच्चक्खाणे दुविहे पण्णत्ते। तं जहा-वाघाइमे य णिव्वाघाइमे य। णियमा सप्पंडिकम्मे।सेतं भत्तपच्चक्खाणे।से तं अणसणे। भावार्थ - भक्त प्रत्याख्यान किसे कहते हैं ? - भक्त प्रत्याख्यान के दो भेद कहे गये हैं। जैसे - - For Personal & Private Use Only Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४ उववाइय सुत्त १. व्याघातिम - सिंह आदि के उपद्रवों के आने पर, उन्हें सहते हुए, जीवनभर के लिये तीन या चार आहार का त्याग करना और २. निर्व्याघातिम - उपद्रवों के नहीं आने पर भी जीवनभर के लिये तीन या चार आहार का त्याग करना। भक्तप्रत्याख्यान में प्रतिकर्म-शरीर-शुद्धि, हलन-चलन, गमन आदि इच्छानुसार किया जा सकता है। यह ऐसा भक्तप्रत्याख्यान है। इस प्रकार यह अनशन का स्वरूप कहा गया है। विवेचन - साधकों के लिये मरण भी महोत्सव बन जाता है। आगे-पीछे देह का त्याग अवश्य करना पड़ता है। यह जानते हुए भी मरण के समय धैर्य रखना बड़ा कठिन हो जाता है। किन्तु साधक प्रतिपल उस काल के लिये तैयार रहते हैं। फिर भी अपनी शारीरिक शक्ति आदि से अपने अन्तकाल को मजदीक जानकर, विशेष प्रकार की तैयारी प्रारंभ कर देते हैं और जीवनपर्यन्त आहारादि को छोड़ देते हैं। जब इस देह से अब संयम-साधना आदि नहीं हो सकती है तब इस में आसक्ति रखने से क्या लाभ? ऐसा विचार करके, जीने-मरने की आकांक्षा को छोड़कर दैहिक भाव से दूर हो जाते हैं और आत्मभाव में तल्लीन बन जाते हैं। से किं तं ओमोयरिया ? ओमोयरिया दुविहा पण्णत्ता।तं जहा-दव्वोमोयरिया य, भावोमोयरिया या भावार्थ - अवमोदरिका किसे कहते हैं ? अवमोदरिका - पेट को पूरा नहीं भरना-के दो भेद कहे गये हैं - १. द्रव्य-अवमोदरिका - अपने से भिन्न बाहरी साधनों का पेट भरकर उपयोग नहीं करना और भाव अवमोदरिका-आवेशात्मक भावों का सेवन नहीं करना। से किं तं दव्योमोयरिया ? दव्योमोयरिया दुविहा पण्णत्ता। तं जहा - उवगरणदव्वोमोयरिया, भत्त-पाण-दव्वोमोयरिया य। भावार्थ - द्रव्य अवमोदरिका किसे कहते हैं ? द्रव्य अवमोदरिका के दो भेद कहे गये हैं। जैसे१. उपकरण द्रव्य अवमोदरिका-वस्त्र आदि अल्प रखना और २. भक्तपान अवमोदरिका-आहारपानी अल्प मात्र में लेना। से किं तं उवगरण-दव्योमोयरिया ? उवगरण दव्योमोयरिया तिविहा पण्णत्ता।तं जहा- एगेवत्थे, एगे पाए, चियत्तोवगरण-साइजणया।सेतं उवगरण-दव्वोमोयरिया। भावार्थ - उपकरण द्रव्य अवमोदरिका किसे कहते हैं ? उपकरण द्रव्य अवमोदरिका के तीन भेद कहे गये हैं - जैसे १. एक वस्त्र २. एक पात्र और ३. प्रीतिकारी, विश्वासकारी और दोष रहित उपकरण रखना। यह ऐसी उपकरण-द्रव्य अवमोदरिका है। 'विवेचन - 'चियत्त उवगरण' के विभिन्न अर्थ मिलते हैं - १. दोषों से जो छोड़ दिये गये होंऐसे उपकरण २. संयमियों के द्वारा छोड़े गये उपकरण ३. जूने-पुराने वस्त्रादि और ४. प्रतीतकारी उपकरण। For Personal & Private Use Only Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बाह्य तप से किं तं भत्तपाण-दव्वोमोयरिया? भत्तपाण-दव्वोमोयरिया-अणेगविहा पण्णत्ता। तंजहा-अट्ठ-कुक्कुडि-अंडगप्पमाण-मेत्ते कवले आहारमाणे अप्पाहारे। भावार्थ - भक्तपान द्रव्य अवमोदरिका किसे कहते हैं ? भक्तपान द्रव्य अवमोदरिका के अनेक भेद हैं। जैसे १. मुख में आसानी से समा सके ऐसे आठ कवल प्रमाण मात्र आहार करना अल्पाहार है। दुवालस-कुक्कुडि-अंडग-प्ममाण-मेत्ते कवले आहारमाणे अवड्डोमोयरिया। भावार्थ - २ बारह कवल प्रमाण आहार करना अपार्द्ध आधी से अधिक अवमोदरिका है। सोलस-कुक्कुडि-अंडग-प्पमाण-मेत्ते कवले आहारमाणे दुभागपत्तो मोयरिया। भावार्थ - ३ सोलह कवल प्रमाण आहार करना द्विभाग-आधी अवमोदरिका है। चउव्वीस-कुक्कुडि-अंडग-प्पमाण-मेत्ते कवले आहारमाणे पत्तोमोयरिया। भावार्थ - ४ चौवीस कवल प्रमाण आहार करना प्राप्त-चौथाई अवमोदरिका है। एक्कतीस-कुक्कुडि-अंडग-प्पमाण-मेत्ते कवले आहारमाणे किंचूणोमोयरिया। भावार्थ - ५ इकत्तीस कवल प्रमाण आहार करना किञ्चिन्यून-कुछ कम अवमोदरिका है। बत्तीस-कुक्कुडि-अंडग-प्पमाण-मेत्ते कवले आहारमाणे पमाणपत्ता। एत्तो एगेण वि घासेण ऊणयं आहार-माहारेमाणे समणे णिग्गंथे णो पकाम-रस-भोईत्ति वत्तव्वं सिया।से तं भत्तपाण-दव्वोमोयरिया। से तं दव्वोमोयरिया। . भावार्थ - बत्तीस कवल प्रमाण आहार करने वाला प्रमाण प्राप्त-पूर्ण आहार करने वाला है। बत्तीस कवल से एक ग्रास भी कम खाने वाला श्रमण-निर्ग्रन्थ प्रकाम-रस-भोजी-बहुत अधिक खाने वाला कहे जाने योग्य नहीं है। यह ऐसी भक्तपान द्रव्य अवमोदरिका है। इस प्रकार यह द्रव्यअवमोदरिका का स्वरूप है। विवेचनं - आहार का प्रमाण बतलाने के लिए मूल पाठ में 'कुक्कुडि-अंडगप्पमाण-मेत्ते' शब्द दिया है। टीकाकार ने इसका अर्थ इस प्रकार किया है-कुक्कुटी (मुर्गी) के अण्डे प्रमाण का एक कवल समझना चाहिये। किन्तु यहाँ कुक्कुटी का अर्थ मुर्गी करना प्रकरण संगत नहीं है, इसलिए इसका अर्थ इस प्रकार करना चाहिये-कुटी का अर्थ है झोंपड़ी, जीव रूप पक्षी के लिए आश्रय रूप होने से : यह शरीर उसके लिए झोंपड़ी रूप है। यह शरीर रूपी कुटी कभी सदा के लिए भरती ही नहीं है, क्योंकि सुबह खाया और शाम को खाली और शाम को खाया सुबह खाली। इसलिए इसको कुक्कुटी कहते हैं अथवा यह शरीर रूपी कुटी अशुचि से उत्पन्न हुई है और इसमें अशुचि भरी हुई है और सदा । अशुचि ही झरती रहती है, इसलिए भी इसको कुक्कुटी कहते हैं और 'अडंग' का अर्थ है मुख। जैसा कि भगवती सूत्र शतक ७ उद्देशक १ की टीका में कहा है - कुटी इव कुटीरकमिव जीवस्याश्रयत्वात् कुटीशरीरं, कुत्सिताअशुचिप्रायत्वात्कुटी कुकुटी, For Personal & Private Use Only Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उववाइय सुत्त तस्याअण्डक-मिवाण्डकमुदर-पुरकत्वादाहारः कुकुट्यण्डकं, तस्सप्रमाणतोमात्राद्वात्रिंशत्तमांशरूपा येषां ते यथा कुकुट्यण्डक प्रमाण मात्राः। अथवा शरीरमेव कुक्कुटी, तन्मुखमण्डकं, तत्राक्षिकपोलकण्ठादिविकृति-मनापाद्य यः कवलो मुखे प्रविशति तत्प्रमाणम्। ___ अर्थ - यह शरीर कुक्कुटी है इस कुक्कुटी का उदर पूरक आहार है, इसलिए आहार को कुक्कुटी अंडग कहते हैं। अथवा शरीर कुक्कुटी है। उसके मुख को अंडग कहते हैं। शरीर के अंग, मुख, आँख, कपोल (गाल), कंठ आदि में किसी प्रकार विकृति (फूलाव) आये बिना जो मुख में आसानी से समा जाए और आसानी से गले में उतर जाए उसको एक कवल (कवा, ग्रास) कहते हैं। इस प्रकार बत्तीस कवल प्रमाण पुरुष का आहार कहा गया है। इसका तात्पर्य यह है कि जिस पुरुष का जितना आहार होता है उसके बत्तीसवें भाग को कुक्कुटी अंडग प्रमाण कहते हैं। इस व्याख्या के अनुसार यह समझना चाहिये कि यदि कोई पुरुष अपने हाथ से बत्तीस से अधिक यावत् ६४ कवल भी ले और उतने आहार से उसके उदर (पेट) की पूर्ति होती है तो उतना आहार उसके लिए प्रमाण प्राप्त' कहलाता है। तात्पर्य यह है कि जिस पुरुष का जितना आहार है अर्थात् जितने आहार से उसकी उदर पूर्ति होती है उस आहार को वह अपने हाथ के द्वारा कितने ही ग्रास (कवल) से मुख में क्यों न रखें किन्तु शास्त्रीय भाषा में वह आहार बत्तीस कवल प्रमाण (प्रमाण-प्राप्त) कहलाता है। उस आहार का चतुर्थ अंश (चौथा हिस्सा) खाना अल्पाहार ऊनोदरी है। बारह कवल प्रमाण आहार करना अढाई भाग ऊनोदरी है, उस आहार का आधा भाग खाना द्विभाग प्राप्त ऊनोदरी है। उस आहार का तीन चौथाई भाग खाना चतुर्थ अंश ऊनोदरी है और जिसकी जितनी खुराक है उतना आहार करना 'प्रमाण प्राप्त' आहार कहलाता है। इससे एक कवल भी कम आहार करने वाला मुनि प्रकाम-रस-भोजी नहीं कहलाता है। प्रश्न-अवमोदरिका (ऊनोदरी) को तप क्यों कहा गया है? उत्तर - यद्यपि ऊनोदरी में आहार किया जाता है तथा उसमें भी विगय की मर्यादा का कोई नियम नहीं है फिर इसे तप क्यों कहा गया? यह प्रश्न करना उचित है। इसका उत्तर यह है कि बिलकुल नहीं खाना अर्थात् उपवास करना किसी अपेक्षा से सरल है किन्तु आहार करने के लिए बैठकर पाव पेट अथवा आधा पेट खाकर उठ जाना किसी अपेक्षा कठिन है क्योंकि जो अवमोदरिका तप करता है वह अपनी खाने की इच्छा को रोकता है और इच्छा को रोकना तप है, जैसा कि कहा है "इच्छा निरोधस्तपः" अर्थात् - इच्छा को रोकना तप है, व्यक्ति कुछ भी खाये बिना रह सकता हो तो सर्वोत्तम बात है किन्तु ऐसा संभव नहीं इसलिए खाते हुये भी खाने की इच्छा पर काबू रहे। इस ध्येय की पूर्ति बहुत कुछ इस तप के द्वारा होती है। इसलिए अवमोदरिका को तप कहा गया है। For Personal & Private Use Only Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बाह्य तप सेकिंतंभावोमोयरिया ?भावोमोयरियाअणेगविहापण्णत्ता।तं जहा- अप्पकोहे अप्पमाणेअप्पमाए अप्पलोहे अप्पसद्देअप्पझंझे।सेतंभावोमोयरिया। सेतंओमोयरिया। भावार्थ - भाव अवमोदरिका किसे कहते हैं ? भाव अवमोदरिका के अनेक भेद हैं। जैसे - अल्प क्रोध, अल्प मान, अल्प माया, अल्प लोभ, अल्प शब्द अर्थात् कलह अर्थात् क्रोध से होने वाली शब्द की प्रवृत्ति की कमी, अल्प झञ्झ-अविद्यमान कलह विशेष। यह ऐसी भाव अवमोदरिका है। इस प्रकार अवमोदरिका का स्वरूप कहा गया है। विवेचन - अल्प शब्द - १. कलह नहीं करना या २. वचन का अभाव। यहाँ अल्प शब्द का अर्थ अभाव लिया गया है। इसका यह आशय प्रतीत होता है कि क्रोध आदि का उदय तो हो जाता है, किन्तु उन्हें किन्हीं उपायों से टाल देना या इनके निमित्तों से अलग हट जाना। अल्प शब्द थोड़े अर्थ में भी आता है और अभावं अर्थ में भी आता है। से किं तं भिक्खायरिया ? भिक्खायरिया अणेगविहा पण्णत्ता। तं जहादव्वाभिग्गहचरए___ भावार्थ - भिक्षाचर्या किसे कहते हैं ? भिक्षाचर्या के अनेक भेद हैं। जैसे १. द्रव्य - खाने-पीने की वस्तु आदि से सम्बन्धित प्रतिज्ञा को धारण करने वाले। - विवेचन - द्रव्य अभिग्रह-अमुक वस्तु मिले तो लेने की, द्रव्यों की संख्या आदि की प्रतिज्ञा करना। खेत्ताभिग्गहचरए कालाभिग्गहचरए भावाभिग्गह-चरए। . भावार्थ - २. स्व-पर ग्रामादि से सम्बन्धित प्रतिज्ञा का सेवन करने वाले, ३. पूर्वाण - पहला पहर आदि काल के विषय का अभिग्रह-प्रतिज्ञा करने वाले, ४. गान-हसन-वार्तादि में प्रवृत्त स्त्रीपुरुषादि से सम्बन्धित अभिग्रह करने वाले। - उक्खित्तचरए णिक्खित्तचरए उक्खित्त-णिक्खित्त-चरए णिक्खित्त-उक्खित्तचरए वट्टिज-माण-चरए साहरिजमाणचरए। भावार्थ - ५. भोजन पकाने के पात्र से गृहस्थ के अपने प्रयोजन के लिये निकाले हुए आहार के प्राप्त होने की प्रतिज्ञा करने वाले, ६. पाक भाजन - भोजन के पात्र से नहीं निकाले हुए आहार को लेने की प्रतिज्ञा करने वाले, ७. पाक भाजन से निकाल कर वहीं या अन्यत्र रखे हुए आहार की अथवा स्वप्रयोजन के लिये निकाले हुए और नहीं निकाले हुए दोनों तरह के आहार की लेने की प्रतिज्ञा वाले ८. पाक भाजन में रहे हुए भोजन में से गृहस्थ के स्व-प्रयोजन के लिए निकाले जाते हुए अर्थात् एकाध चम्मच निकाला हो और कुछ निकालना बाकी हो ऐसे आहार को लेने की प्रतिज्ञा वाले ९. खाने के लिये परोसे हुए भोजन में से लेने की प्रतिज्ञा वाले १० जो भोजन ठंडा करने के लिये पात्रादि में फैलाया For Personal & Private Use Only Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८ उववाइय सुत्त गया हो और वह पुनः समेट कर पात्रादि में डाला जा रहा हो ऐसे आहार को लेने की प्रतिज्ञा वाले अनगार भगवन्त थे । उवणीयचरए अवणीयचरए उवणीयावणीयचरए अवणीयउवणीय-चरए । भावार्थ - ११. किसी के द्वारा किसी के लिये भेजी हुई भेंट या उपहार - सामग्री में से लेने की प्रतिज्ञा वाले १२. किसी के लिये दी जाने वाली या एक स्थान से दूसरे स्थान पर रखी हुई आहारसामग्री में से लेने की प्रतिज्ञा वाले १३. उपहार - सामग्री जो कि स्थानान्तरित कर दी गई हो, उसमें से लेने की प्रतिज्ञा वाले । अथवा उपनीत और अपनीत दोनों प्रकार का आहार, अथवा दायक के द्वारा पहले गुण और बाद में अवगुण कथन सहित दिये जाने वाले आहार को लेने की प्रतिज्ञा वाले १४. किसी के लिये भेजने के लिये या उपहार देने के लिये अलग रखे हुए आहार अथवा पहले अपनीत और बाद में उपनीत - इस क्रम से दोनों प्रकार का आहार, अथवा दाता के द्वारा प्रथम अवगुण और बाद में गुण कथन सहित दिये जाने वाले आहार को लेने वाले । संसचरए असंसचरए तज्जायसंसट्टचरए । भावार्थ - १५. शाक आदि से खरडे हुए हस्तादि से दिये जाने वाले आहार को लेने की प्रतिज्ञा वाले १६ बिना खरडे हुए हस्तादि से दिये जाने वाले आहार को लेने की प्रतिज्ञा वाले १७. दिये जा वाले पदार्थ से भरे हुए हस्तादि से दिये जाने वाले आहार को लेने वाले । अण्णायचरए मोणचरए दिट्ठलाभिए अदिट्ठलाभिए पुट्ठलाभिए अपुट्ठलाभिए भिक्खालाभिए अभिक्ख-लाभिए । भावार्थ - १८ अज्ञात - जिसके द्वारा अपने प्रति अपनेपन की भावना से रहित आचरण होता हो. ऐसे व्यक्ति से भिक्षा लेने की प्रतिज्ञा करने वाले १९. मौन रूप से या मौन दाता से आहार लेने वाले २०. दिखाई देने वाले आहारादि को लेने वाले अथवा पहले देखे हुए दाता के हाथ से आहार-लाभ करने की प्रतिज्ञा वाले, २१ अदृष्ट भक्तादि अथवा पहले से अनुपलब्ध- नहीं देखे हुए दाता के आहार लाभ की प्रतिज्ञा वाले । २२ 'हे साधु ! तुम्हें क्या दें ?' इस प्रकार पूछकर दिये जाने वाले आहार को लेने वाले । २३. बिना प्रश्न किये ही दिये जाने वाले आहार को लेने वाले । २४. भिक्षा के समान भिक्षातुच्छ आहार लेने वाले २५. जो भिक्षा के तुल्य नहीं है ऐसी भिक्षा - सामान्य आहार लेने वाले । अणगिलाय ओवणहिए परिमिय - पिंड - वाइए सुद्धेसणिए संखादत्तिए । से तं भिक्खायरिया | भावार्थ - २६. अन्नग्लायक - अभिग्रह विशेष से सुबह में ही रातबासी ठण्डा आहार लेने वाले २७. उपनिहित- भोजन करने को बैठे हुए गृहस्थ के समीप में रखे हुए आहार में से लेने वाले २८. अल्प आहार लेने वाले, २९. शुद्ध आहार - व्यञ्जन से रहित या शङ्कादि दोष से रहित आहार लेने वाले For Personal & Private Use Only Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बाह्य तप ६९ ..................................................... और ३० दत्ति-पात्र में आहार क्षेपण-डालने की गिनती से आहार लेने वाले थे। यह भिक्षाचर्या का स्वरूप है। विवेचन - ‘अन्नग्लायक' की व्याख्या - ‘स चाभिग्रह विशेषात् प्रातरेव दोषान्नभुगिति' की गई है। यहां पर जो 'दोषा' शब्द आया है उसका अर्थ 'रात्रि' होता है। अत: दोषान्न का अर्थ है - रातबासी रहा हुआ भोजन लेने की प्रतिज्ञा वाले साधु। रात में बासी रही हुई रोटी आदि नहीं लेना चाहिए ऐसी प्ररूपणा करना आगम विरुद्ध है क्योंकि जब अभिग्रह धारी उत्कृष्ट आचारी मुनि भी रात बासी रोटी और कूर आदि धान्य का ओदन लेते हैं तो सामान्य साधु ले इसमें किसी प्रकार की आगम बाधा नहीं आती है। बल्कि रसनेन्द्रिय के द्वारा स्वाद विजय होती है। से किं तं रस-परिच्चाए? रस-परिच्चाए अणेगविहे पण्णत्ते। तं जहा-णिव्विगइए पणीय-रस-परिच्चाई आयंबिलए आयामसित्थभोई अरसाहारे विरसाहारे अंताहारे पंताहारे लुहाहारे (तुच्छाहारे) से तं रसपरिच्चाए। भावार्थ - रस-परित्याग किसे कहते हैं ? रसपरित्याग के अनेक भेद हैं। जैसे १. विकृति अर्थात् घी, तेल, दूध, दही, गुड़-शक्कर से रहित आहार करने वाले, २. जिसमें से घी दूध चासनी आदि के 'बिन्दु टपकते हों ऐसे आहार को छोड़ने वाले ३. आयंबिलक (आचामाम्ल)-मिर्च-मसाले से रहित रोटी-भात आदि रूखा-सूखा अन्न या भुना हुआ अन्न, पानी में भिगोकर खाने वाले, ४. ओसामन और उसमें गिरे हुए कण आदि को लेने वाले ५ अरस - हिंग आदि से बिना छौंका हुआ आहार करने वाले ६. विरस - पुराना धान्य जो स्वभाव से ही स्वाद रहित हो गया हो-ऐसा आहार करने वाले ७. अन्त - हलकी जाति का वल्लादि अन्न का - आहार करने वाले ८. प्रान्त - खाने के बाद बचा हुआ वल्लादि अन्न का - आहार करने वाले और ९. रूक्ष - रूखा सूखा, जीभ को अप्रिय लगने वाला - आहार करने वाले अनगार भगवन्त थे। ये रसपरित्याग का स्वरूप है। से किं तं कायकिलेसे ? कायकिलेसे अणेगविहे पण्णत्ते। तं जहा-ठाणट्ठिइए उक्कुडु-आसणिए पडिमट्ठाई वीरासणिए। भावार्थ - कायक्लेश किसे कहते हैं ? कायक्लेश के अनेक भेद हैं। जैसे - स्थानस्थितिक - खड़े या बैठे हुए एक आसन से स्थिर रहने वाले २. उत्कुटुकासनिक - पुट्ठों को जमीन पर न टिकाते हुए, केवल पैरों पर ही बैठने की स्थिति से रहने वाले ३. मासिकी आदि बारह भिक्षु प्रतिमा को अंगीकार करने वाले ४. वीरासनिक - भूमि पर पैर रखकर, सिंहासन के समान बैठने की स्थिति से रहने वाले। जैसे - कोई पुरुष सिंहासन पर बैठा हुआ हो उसके नीचे से सिंहासन (कुरसी) निकाल लेने पर भी वह वैसी ही स्थिति में स्थिर रहे उस रूप में स्थित रहना। यह आसन बड़ा कठिन है। For Personal & Private Use Only Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७० उववाइय सुत्त णेसजिए दंडायए लगडसाई आयावए, अवाउडए, अकंडुयए धुय केस मंसु लोमे अणिट्ठहए सव्व-गाय-परिकम्म-विभूस-विप्पमुक्के।से तं कायकिलेसे। भावार्थ - ५ निषद्या-पुढे टिकाकर या पलाठी से बैठने वाले, दण्डायतिक-दण्डे की तरह सीधा लम्बा होकर स्थित रहना। लकुटशायी - टेडी लकड़ी के समान सोना (स्थित रहना अर्थात् मस्तक को तथा दोनों पैरों की एड़ियों को जमीन पर टिकाकर शरीर के मध्य भाग को ऊपर उठाकर सोना ऐसा करने से शरीर टेडी लकड़ी की तरह टेड़ा हो जाता है) ६. आतापना अर्थात् शीतादि से देह को तापित करने वाले ७. शरीर को वस्त्रादि से नहीं ढकने वाले ८. नहीं खुजालने वाले ९. नहीं थूकने वाले और १०. शरीर के सभी संस्कारों और विभूषा से मुक्त रहने वाले भगवान् के शिष्य थे। यह कायक्लेश का स्वरूप है। विवेचन - आतापना के तीन भेद हैं - १. उत्कृष्टा अर्थात् निष्पन्न (सोये हुए व्यक्ति की) आतापना २. मध्यमा अर्थात् अनिष्पन्न (बैठे हुए व्यक्ति की) आतापना ३. जघन्या अर्थात् ऊर्ध्वस्थित (खड़े हुए व्यक्ति की) आतापना। इनके भी तीन-तीन भेद हैं। यथा - निष्पन्न-१. अधोमुखशायिता (औंधे मुख से सोकर ली जाने वाली) और २. पार्श्वशायिता-करवट से सो कर ली जाने वाली और ३. उत्तानशायिता (पीठ के बल-सीधे सोकर ली जाने वाली) आतापना। अनिष्पन्न - १. गोदोहिका (गाय दूहने की स्थिति में बैठकर ली जाने वाली) २. उत्कुटुकासनता (दोनों पैरों पर बैठकर ली जाने वाली) और ३. पर्यङ्कासनता (पलाठी से बैठकर ली जाने वाली) आतापना और ऊर्ध्वस्थित१. हस्तिशौण्डिका (दोनों कूल्हों को जमीन पर टिका कर बैठना और फिर एक पैर हाथी की सूंड की तरह ऊंचा रखना) २. एकपादिका (एक पैर से खड़े रहकर ली जाने वाली) और ३. समपादिका (सीधे खड़े रहकर ली जाने वाली) आतापना। से किं तं पडिलीणया ? पडिसंलीणया चउव्विहा पण्णत्ता। तं जहा-इंदियपडिसलीणया, कसाय-पडिसंलीणया, जोग-पडिसंलीणया, विवित्त-सयणासणसेवणया। भावार्थ - प्रतिसंलीनता किसे कहते हैं ? प्रतिसंलीनता के चार भेद कहे गये हैं। जैसे-१. इन्द्रियप्रतिसंलीनता - इंद्रियों की चेष्टाओं को रोकना २. कषायप्रतिसंलीनता - क्रोधादि कषायों को रोकना ३. योगप्रतिसंलीनता - योगों की प्रवृत्ति को रोकना और ४. विविक्त-शयनासन-सेवनता-स्त्री, पशु, पंडक (नपुंसक) रहित एकान्त स्थान में रहना। से किं तं इंदिय-पडिसंलीणया ? इंदिय-पडिसंलीणया पंचविहा पण्णत्ता। भावार्थ - इन्द्रियप्रतिसंलीनता किसे कहते हैं ? इन्द्रिय-प्रतिसंलीनता के पांच भेद कहे गये हैं। तं जहा-सोइंदिय-विसय-पयार-णिरोहो वा, सोइंदिय-विसयपत्तेसु अत्थेसु रागदोस-णिग्गहो वा। For Personal & Private Use Only Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बाह्य तप ७१ भावार्थ - जैसे-१. श्रोत्रेन्द्रिय-कान के विषय-शब्द में प्रवृत्ति को रोकना अर्थात् शब्दों को नहीं सुनना अथवा श्रोत्रेन्द्रिय को प्राप्त हुए विषय में राम-द्वेष नहीं करना। विवेचन - कान में शब्द नहीं पड़ने देना यह संभव नहीं है। किन्तु अपने कार्य की तल्लीनता, इन्द्रियों को अपने विषयों में प्रवृत्त होने से बहुत कुछ रोक सकती है। यदि कदाचित् प्रिय या अप्रिय शब्द कान में गिर भी गये हों तो उनके प्रति उदासीनता रखने से राग-द्वेष की प्रवृत्ति रुक सकती है। चक्खिदिय-विसय-पयार-णिरोहो वा, चक्खिदिय-विसय-पत्तेसु अत्थेसु रागदोस-णिग्गहो वा। भावार्थ - २ चक्षु इन्द्रिय-आंख के विषय रूप में प्रवृत्ति को रोकना-अच्छे-बुरे रूप नहीं देखना अथवा चक्षुइन्द्रिय को प्राप्त हुए विषय में राग-द्वेष नहीं करना। ___घाणिंदिय-विसय-पयार-णिरोहोवा, पाणिंदिय-विसय-पत्तेसुअत्थेसुराग-दोसणिग्गहो वा। भावार्थ - ३. घ्राणइन्द्रिय-नाक के विषय गंध में प्रवृत्ति को रोकना अथवा घ्राणइन्द्रिय को प्राप्त हुए अर्थ-गंध में राग-द्वेष नहीं करना। . जिभिदिय-विसय-पयार-णिरोहो वा, जिभिदिय-विसय-पत्तेसु अत्थेसु रागदोस-णिग्गहो वा। .. भावार्थ - ४. जिह्वा इन्द्रिय-जीभ के विषय में प्रवृत्ति को रोकना अथवा जिह्वा इन्द्रिय को प्राप्त हुए अर्थ-रस में राग-द्वेष नहीं करना। .. फासिंदिय-विसय-पयार-णिरोहो वा, फासिंदिय-विसय-पत्तेसु अत्थेस रागदोस-णिग्गहो वा। से तं इंदिय-पडिसंलीणया। भावार्थ - ५. स्पर्शन इन्द्रिय-त्वचा के विषय स्पर्श में प्रवृत्ति को रोकना अथवा स्पर्शन इन्द्रिय को प्राप्त हुए अर्थ-स्पर्श में राग-द्वेष नहीं करना। यह इन्द्रियप्रतिसंलीनता का स्वरूप है। विवेचन - इन्द्रियों के अर्थ (शब्दादि) के साथ होने वाले सम्बन्ध को 'विषय' और उन विषयों में होने वाली प्रीति-अप्रीति को 'विकार' कहते हैं । इन्द्रियों को शून्य या स्तब्ध कर देना अथवा उन्हें नष्ट कर देना यह साधना-मार्ग नहीं है। इन्द्रियों की प्रवृत्ति पर अंकुश रखना ही सही साधना मार्ग है। इन्द्रियों को - उनके अनुकूल विषयों को अधिक देने से उन पर काबू नहीं पाया जा सकता। इन्द्रियों का स्वच्छंद विचरण वैषयिक प्रवृत्ति है। किन्तु उन्हें आत्महितकर कार्यों में लगाना साधना है। इन्द्रियों का स्वभाव चपल है। अतः वे विषय की ओर दौड़ती रहती है। उस दौड़ को तेज होने से रोकने को ही 'प्रचारनिरोध' कहते हैं। अर्थात् इन्द्रियाँ तो अनायास ही 'विषययुक्त' बन जाती है। किन्तु उन विषयों के साथ आत्मा को नहीं जोड़ना चाहिए। अनुत्सुक भाव से इन्द्रियों को उनसे हटा लेना चाहिए। किन्तु अनायास ही जिन-अर्थों की For Personal & Private Use Only Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२ उववाइय सुत्त प्राप्ति हुई है या लाचारी से अर्थ प्राप्ति करनी पड़ती है, उनमें प्रीति या द्वेष के भाव नहीं करने को ही 'इन्द्रियनिग्रह' कहते हैं। जब 'विकार' का विष निकल जाता है, तब विषय 'अर्थ' मात्र रह जाते हैं। इन्द्रियप्रतिसंलीनता का आशय यही है कि अपने-अपने विषयों में दौड़ती हुई इन्द्रियों को खींच लेना' अर्थात् उनकी तल्लीनता के वेग को मोड़कर आत्मस्थ कर देना। अत: इसके मुख्यतः दो भेद हैं-१. विषयों के प्रति अनुत्सुकता और २. प्राप्त अर्थों में उदासीनता। पांच इन्द्रियों के शब्दादि २३ विषय हैं। यथा श्रोत्रेन्द्रिय के ३ विषय-जीव शब्द, अजीव शब्द, मिश्र शब्द ये ३ शुभ और ३ अशुभ इन छह पर , राग और छह पर द्वेष इस प्रकार १२ विकार। ___ चक्षुरिन्द्रिय के पांच विषय-काला, नीला, लाल, पीला और सफेद। ये ५ सचित्त, ५ अचित्त, ५ मिश्र ये १५ शुभ और १५ अशुभ इन ३० पर राग और ३० पर द्वेष। इस प्रकार ६० विकार। घ्राणेन्द्रिय के दो विषय - सुरभिगन्ध और दुरभिगन्ध। ये २ सचित्त, २ अचित्त, २ मिश्र इन ६ पर राग और ६ पर द्वेष। इस प्रकार १२ विकार। रसनेन्द्रिय के पांच विषय-तीखा, कड़वा, कषैला, खट्टा और मीठा। ये ५ सचित्त, ५ अचित्त, ५ मिश्र ये १५ शुभ और १५ अशुभ। इन ३० पर राग और ३० पर द्वेष। इस प्रकार ६० विकार। . स्पर्शनेन्द्रिय के आठ विषय-कर्कश (खुरदरा), मृदु (कोमल), लघु (हलका) गुरू (भारी), शीत (ठण्डा), उष्ण (गर्म), रूक्ष (लूखा) और स्निग्ध (चिकना)। ये ८ सचित्त, ८ अचित्त, ८ मिश्र ये २४ शुभ और २४ अशुभ इन ४८ पर राग और ४८ पर द्वेष। इस प्रकार ९६ विकार। प्रश्न - विषय किसे कहते हैं ? उत्तर - इन्द्रियाँ जिसको ग्रहण करती है, उसे विषय कहते हैं। । प्रश्न - शरीर में खुरदरा आदि क्या है ? उत्तर - शरीर में खुरदरा-पैर की एडी, कोमल-गले का तालु, हलका-केश, भारी-हड्डियाँ, ठंडाकान की लोल, गर्म-कलेजा, रूक्ष (लूखा)-जीभ, स्निग्ध (चिकनी)-आंख की कीकी। प्रश्न - विकार किसे कहते हैं ? उत्तर - विषयों पर राग द्वेष की भावना को विकार कहते हैं। प्रश्न- इन्द्रियों के विषय से कर्म बन्ध होता है या विकार से ? उत्तर - इन्द्रियाँ अपने-अपने विषय को ग्रहण करें, यह उनका स्वभाव है, उससे कर्मबन्ध नहीं होता है।किन्तु उनमें राग-द्वेष करने रूप विकार से कर्मबन्धहोता है, उस विषय में आचारांग सूत्र के दूसरे श्रुतस्कन्ध के पन्द्रहवें अध्ययन में कहा है कि - ण सक्का ण सोउं सहा, सोयविसयमागया। राग दोसा उ जे तत्थ, ते भिक्खू पडिवजए॥ For Personal & Private Use Only Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बाह्य तप ७३ अर्थ - शब्द कान में न पड़े यह तो संभव नहीं है, क्योंकि शब्दों को सुनना यह श्रोत्रेन्द्रिय का विषय है, इसलिए शब्द तो कान में पड़ेंगे ही इससे कर्मबन्ध का कारण नहीं होता है, किन्तु मनोज्ञ शब्दों पर राग करने से और अमनोज्ञ शब्दों पर द्वेष करने से कर्मबन्ध होता है क्योंकि राग-द्वेष करना कर्मबन्ध का कारण होता है, यही बात दूसरी इन्द्रियों के बारे में भी समझना चाहिए। रूप चक्षु का विषय बनता है। गन्ध घ्राणेन्द्रिय का, रस रसनेन्द्रिय का और स्पर्श स्पर्शनेन्द्रिय का विषय बनता है। इससे कर्मबन्ध नहीं होता किन्तु मनोज्ञ रूप, गन्ध, रस और स्पर्श पर राग भाव करने से तथा अमनोज्ञ रूप, गन्ध, रस और स्पर्श पर द्वेष करने से कर्मबन्ध होता है। उत्तराध्ययन सूत्र के ३२ वें अध्ययन में भी इसका विस्तृत वर्णन है। से किं तं कसाय-पडिसंलीणया ? कसाय-पडिसंलीणया चउव्विहा पण्णत्ता। भावार्थ - कषाय प्रतिसंलीनता किसे कहते हैं ? कषाय प्रतिसंलीनता के चार भेद कहे गये हैं। तं जहा-कोहस्सुदय-णिरोहो वा उदय-पत्तस्स वा कोहस्स विफलीकरणं। भावार्थ - जैसे-१. क्रोध के उदय को रोकना या उदय में आये हुए क्रोध को निष्फल करना। माणस्सुदय-णिरोहो वा उदय-पत्तस्स वा माणस्स विफलीकरणं। भावार्थ - २. मान के उदय को रोकना या उदय में आये हुए मान को निष्फल करना। माया-उदय-णिरोहो वा उदय-पत्ताए वा मायाए विफलीकरणं। भावार्थ - ३. माया के उदय को रोकना या उदय में आई हुई माया को निष्फल करना। लोहस्सुदय-णिरोहो वा उदय पत्तस्स वा लोहस्स विफलीकरणं। से तं कसायपडिसंलीणया। भावार्थ - ४. लोभ के उदय को रोकना या उदय में आये हुए लोभ को निष्फल करना। यह कषाय प्रतिसंलीनता का स्वरूप है। विवेचन - क्या संसारी और क्या साधक, सभी के जीवन में आवेशों को रोकने का प्रश्न उठता रहता है। क्योंकि आवेश बनते हुए कार्यों को बिगाड़ देते हैं। आवेशों के वशीभूत नहीं होना सहज नहीं है। बड़े-बड़े साधक भी इनके चक्कर में फंस जाते हैं। फिर साधारण मनुष्यों की तो बात ही क्या ? एक तरफ से इन्हें रोका जाता है, तो दूसरी तरफ से दूसरे विविध रूपों में प्रकट होते हैं। किन्तु दृढ़ मनोबली साधक इनसे हारता नहीं है। वह कषायों के विरोधी भावों में स्थिर होने का अभ्यास करता रहता है। उसे ही कषाय प्रतिसंलीनता कहते हैं। _ . कषाय-प्रतिसंलीनता के साधारणत: दो रूप हैं - १. उदय-निरोध और २ उदय विफलीकरण। क्रोधादि की अनिष्टता के भावों का विचार करना, इन्हें नहीं करने का बार-बार सङ्कल्प करना, अक्रोधादि गुणों से होने वाले लाभों को बार-बार याद करना, क्रोधादि के निमित्तों को सन्मुख नहीं For Personal & Private Use Only Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४ उववाइय सुत्त आने देना, जैसे अपने अधीन व्यक्तियों को दृढ़ता पूर्वक आदेश दिये जाते हैं, वैसे ही अपने-आपको इन्हें नहीं करने का आदेश देना, त्रिकाल महापुरुषों की शरण-ग्रहण पूर्वक इन अध्यात्म-दोषों की निन्दा-भर्त्सना करना और गुणीजनों के गुणों की प्रशंसा करते हुए उन गुणों की प्राप्ति की कामना करना आदि को 'उदयनिरोध' कहते हैं। क्रोधादि का उदय होने पर उन भावों से योगों को हटा लेना, उन भावों से विपरीत भावों को धारण करना, जैसे-क्रोध आने पर, क्षमा के-मैत्री के भाव धारण करना, इसी तरह मान के विरोधी मार्दव-नम्रता विनय भाव, माया के विरोधी ऋजुता-सरलता भाव और लोभ के विरोधी संतोष भाव से युक्त योगों को धारण करना आदि से 'उदय विफलीकरण' होता है। से किं तं जोग-पडिसंलीणया ? जोग-पडिसंलीणया तिविहा पण्णत्ता।तं जहामण-जोगपडिसंलीणया, वय-जोगपडिसंलीणया, काय-जोगपडिसंलीणया। भावार्थ - योग प्रतिसंलीनता किसे कहते हैं ? - योग प्रतिसंलीनता के तीन भेद कहे गये हैं। जैसे - १. मनोयोग-प्रतिसंलीनता, २. वचन योग प्रतिसंलीनता और ३. काय योग प्रतिसंलीनता।.. सेकिंतंमण-जोगपडिसंलीणया ?मण-जोगपडिसंलीणयाअकुसल-मणणिरोहो वा, कुसल-मण-उदीरणं वा।से तं मण-जोगपडिसंलीणया। . . भावार्थ - मनोयोग प्रतिसंलीनता किसे कहते हैं ? - अकुशल मन का निरोध-बुरे विचारों को नहीं आने देना या कुशल मन की उदीरणा करना-शुभ विचारों का अभ्यास करना, यह मनोयोग प्रतिसंलीनता-मन की एकाग्रता का अभ्यास है। से किं तं वय-जोगपडिसंलीणया ? वय-जोगपडिसंलीणया अकुसल-वयणिरोहो वा, कुसल-वय-उदीरणं वा। से तं वय-जोगपडिसंलीणया। ' ___भावार्थ - वचन योग प्रतिसंलीनता किसे कहते हैं ? अकुशल- अशुभ वचन का निरोध करना, अशुभ वचन की प्रवृत्ति को रोकना या कुशल वचन की उदीरणा करना, शुभ वचन का अभ्यास करना, यह वचन योग प्रतिसंलीनता-वाणी एक रूपता की साधना है। से किं तं काय-जोगपडिसलीणया ?कायजोग-पडिसंलीणया जण्णं सुसमाहियपाणिपाए कुम्मो इव गुत्तिंदिए सव्व-गाय-पडिसंलीणे चिट्ठइ। से तं काय जोगपडिसंलीणया।(से तं जोगपडिसंलीणया)। भावार्थ - काय योग प्रतिसंलीनता किसे कहते हैं ? हाथ पैर को स्थिर करके कछुए के समान इन्द्रियों को गुप्त करके, सारे शरीर के अंगों को संवृत्त करके बैठना काय योग प्रतिसंलीनता- कायिक एकाग्रता की साधना है। विवेचन - दैनिक कार्यों में प्रायः योगों की प्रवृत्ति अस्त-व्यस्त और बिखरी हुई रहती है और कभी-कभी मनुष्य अनिद्रा आदि रोगों से ग्रस्त हो जाते हैं। क्योंकि गलत और वृथा प्रवृत्ति के कारण For Personal & Private Use Only Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आभ्यन्तर-तप ७५ मन आदि को विश्रान्ति नहीं मिलती है। वैषयिकता के कारण योगों में तनाव बना रहता है। जिससे मनुष्य चिड़चिड़ा उतावला और बावला बन जाता है। तब वह अपने सांसारिक कार्यों को भी ठीक से नहीं कर पाता-साधना की तो बात ही दूर रही। जीव अनादि काल से योग-प्रवृत्ति करता रहता है। प्रवृत्ति की अतिशयता में आत्मानुभव होना सहज नहीं है। अत: योगों के प्रवृत्ति-जनित तनाव को दूर करने के लिये-उनकी क्रिया व्यवस्थिता और शक्ति शालिनी बनाने के लिये उन्हें शिथिल करना पड़ता है। यह कार्य 'योग-प्रतिसंलीनता' से सम्पादित होता है। 'काययोग प्रतिसंलीनता' के साथ-साथ जब मन योग प्रतिसंलीनता और वचन योग प्रतिसंलीनता का अभ्यास दृढ़ होकर सहज बनने लगता है, तब अनुपम शान्ति का अनुभव होता है और प्रवृत्ति व्यवस्थित बनती जाती है। बड़े-बड़े रोगों का भी शमन हो सकता है। आधुनिक मानस शास्त्रियों का 'शिथिलीकरण' इससे साम्य रखता है। से किं तं विवित्त-सयणासण-सेवणया ? विवित्त-सयणासण सेवणयाए जं णं आरामेसु उजाणेसु देवकुलेसु सभासु पवासु पणियगिहेसु पणियसालासुइत्थी-पसु-पंडग-संसत्त-विरहियासु वसहीसु फासु-एसणिज-पीढ फलगसेज्जा-संथारगं उवसंपज्जित्ता णं विहरइ। से तं पडिसंलीणया। से तं बाहिरए तवे। भावार्थ - विविक्त-शयनासन-सेवनता किसे कहते हैं ? आराम-पुष्प प्रधानवन फूलवाडी, उद्यान-फूल-फलादि से युक्त महावृक्षों का समुदाय-बगीचा, देवकुल-छतरियाँ या मन्दिर-सभागृह लोगों के बैठने का स्थान, प्रपा-जलदान स्थान-प्याउएं, पणितगृह- बर्तन आदि रखने के घर-गोदाम, पणितशाला, बहुत-से ग्राहक खरीददार और दायक-व्यापारी जनों के योग्य घर विशेष-जो कि स्त्री, पशु, पंडग-नपुंसक की संसक्तता अर्थात् युक्तता से रहित हो, ऐसे स्थानों में निर्दोष और निर्जीव अर्थात् संयमी जीवन में ग्रहण - करने योग्य पीठ, फलक-पटिये, शय्या-पैर फैलाकर सो सके ऐसा बिछौना, संस्तारक, शय्या से छोटा तृणादि का बिछौना को प्राप्त करके विचरने को विविक्त-शयनासन-सेवनता कहते हैं। यह प्रतिसंलीनता का स्वरूप है। यह बाह्य तप का स्वरूप पूर्ण हुआ। आभ्यन्तर-तप २०-से किं तं अब्भितरए तवे ? अभितरए तवे छबिहे पण्णत्ते। तं जहा - पायच्छित्तं, विणओ, वेयावच्चं, सज्झाओ, झाणं, विउस्सग्गो। . भावार्थ - आभ्यन्तर तप किसे कहते हैं ? आभ्यन्तर तप के छह भेद कहे गये हैं। जैसे १. प्रायश्चित्त - अतिचार आदि की विशुद्धि २. विनय - कर्म दूर हटाने के लिये नम्रता युक्त प्रवृत्ति ३. वैयावृत्य - आहारादि से संयमियों की सेवा ४. स्वाध्याय - शुद्ध ज्ञान का मर्यादा से युक्त पठनपाठन ५. ध्यान - एकाग्र शुभ चिन्तन या चित्तवृत्ति-निरोध और ६. व्युत्सर्ग - हेय का त्याग। For Personal & Private Use Only Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६ उववाइय सुत्त विवेचन - साधक के जागृत रहते हुए भी साधना में किसी न किसी प्रकार के दूषण लग ही जाते हैं। उन दोषों के कारण उसके हृदय में पश्चात्ताप होता है। उनकी शुद्धि करना चाहता है। अत: वह गुरुजनों के समक्ष नतमस्तक होकर, शुद्धि के उपायों को पूछता है। इस प्रकार दो आभ्यन्तर तपों का क्रम बनता है। पहला प्रायश्चित्त और दूसरा विनय। जो विनयवान् होता है, वैयावृत्य कर सकता है। वैयावृत्य से इतर समय में स्वाध्याय की जाती है। स्वाध्याय करते हुए एकाग्र-चिन्तन होता है-ध्यानदशा की प्राप्ति होती है। शुभ ध्यान से ही हेय का त्याग-व्युत्सर्ग होता है। यह आभ्यन्तर-तप के क्रमविधान का रहस्य है। से किं तं पायच्छित्ते ? पायच्छित्ते दसविहे पण्णत्ते। भावार्थ - प्रायश्चित्त किसे कहते हैं ? प्रायश्चित्त के दस भेद कहे गये हैं। तं जहा-आलोयणारिहे १ . भावार्थ - जैसे-१. आलोचनार्ह - दोषों को प्रकट करने से होने वाला प्रायश्चित्त अर्थात् विशुद्धि के लिये गुरु से निवेदन करना। विवेचन - भिक्षा, स्थंडिल, गमनागमन, प्रतिलेखना आदि दैनिक कृत्यों में लगने वाले दोषों के विषय में यह प्रायश्चित्त किया जाता है। गुरु या रत्नाधिक के समीप में अपने दोषों को निष्कपट भाव से प्रकट किया जाता है। इसीलिए इससे होने वाली विशुद्धि को भी 'आलोचनाह' कहा है। पडिक्कमणारिहे २, भावार्थ - प्रतिक्रमण - पाप से पीछे लौटने से होने वाला प्रायश्चित्त प्रतिक्रमणार्ह है।, विवेचन - पांच समिति, तीन गुप्ति के सम्बन्ध में सहसाकार आदि से लगने वाले दोषों के विषय में यह प्रायश्चित्त है। इसमें 'मिच्छा मि दुक्कडं' दिया जाता है अर्थात् 'मेरा दुष्कृत पाप मिथ्या हो-निष्फल हो। आदि चिन्तन पूर्वक दोषों के विषय में पश्चात्ताप होता है। तदुभयारिहे ३, भावार्थ - आलोचना और प्रतिक्रमण दोनों से होने वाला प्रायश्चित्त तदुभयार्ह होता है। विवेचन-निद्रावस्था में साधारण दुःस्वप्न से महाव्रतों में दोष लगे हैं-ऐसी शङ्का आदि दोषों के विषय में यह प्रायश्चित्त है। जिसमें गुरु के समक्ष आलोचना पूर्व 'मिथ्यादुष्कृत' दिया जाता है। विवेगारिहे ४, भावार्थ - परठना रूप त्याग के द्वारा होने वाला प्रायश्चित्त विवेकाह कहलाता है। विवेचन - अनजान में आधाकर्म आदि दोष से युक्त आहारादि आ जाय और यह बात विदित हो जाय, तब उसे उपभोग में न लेकर परठ देने से यह प्रायश्चित्त होता है। विउस्सग्गारिहे ५, For Personal & Private Use Only Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आभ्यन्तर-तप ७७ भावार्थ - कायोत्सर्ग के द्वारा होने वाला प्रायश्चित्त व्युत्सर्ह कहलाता है। विवेचन - उच्चार आदि के परिष्ठापन में, नदी उतरने आदि में विवशतावश लगे हुए, दोषों की शुद्धि के लिये यह प्रायश्चित्त है। जिसमें विभिन्न दोषों के लिये, विभिन्न प्रमाण युक्त श्वास-उच्छ्वास के कायोत्सर्ग विहित हैं। जैसे स्वप्नादि में लगे हुए दोषों के लिए १०० या १०८ श्वासोच्छ्वास का कायोत्सर्ग-शरीर को निश्चल रखना। तवारिहे६, भावार्थ - तप के द्वारा होने योग्य विशुद्धि तपार्ह कहलाता है। विवेचन - सचित्त वस्तु के स्पर्श से, आवश्यकी आदि समाचारी को नहीं करने से, प्रतिलेखनाप्रमार्जना आदि नहीं करने से लगे हुए दोषों की विशुद्धि के लिये बाह्यतप अनशनादि रूप प्रायश्चित्त होता है। छेदारिहे ७, भावार्थ - छेद-दीक्षापर्याय को कम करने से होने वाली विशुद्धि छेदाह कहलाती है। विवेचन - सचित्त पृथ्वी आदि की विराधना और प्रतिक्रमण नहीं करने आदि से लगे हुए दोषों की शुद्धि के हेतु छेद-दीक्षाकाल को घटा देना-दिया जाता है। : मूलारिहे ८, भावार्थ - महाव्रतों की फिर स्थापना के द्वारा होने वाला प्रायश्चित्त मूलाह कहलाता है। .... विवेचन - तीन बार प्रायश्चित्त स्थान के सेवन, हस्तकर्म, मैथुन, रात्रिभोजन आदि के द्वारा . चारित्र-भंग और किसी भी महाव्रत का जानबूझ कर भंग करने पर, जो पुनः नई दीक्षा दी जाती है, उसे 'मूलाई' प्रायश्चित्त कहते हैं। ... अणवट्टप्पारिहे ९, . भावार्थ - प्रायश्चित्त रूप में दिये हुए अमुक प्रकार के विशिष्ट तप को जब तक न करले तब तक उसका सम्बन्धविच्छेद रखना और गृहस्थभूत बनाकर वापिस दीक्षा भी नहीं देना-अनवस्थाप्यार्ह प्रायश्चित्त कहलाता है। विवेचन - इस प्रायश्चित्त के आने के तीन बड़े कारण हैं जो कि ठाणांग सूत्र के तीसरे ठाणे में ... और बृहत्कल्प के चौथे उद्देशे में बताये हैं। . पारंचियारिहे १०।से तं पायच्छित्ते। भावार्थ - सम्बन्ध विच्छेद करके तप विशेष कराने के बाद गृहस्थभूत बना कर महाव्रत स्थापना के द्वारा होने वाला प्रायश्चित्त-पारञ्चिताह कहलाता है। यह प्रायश्चित्त का स्वरूप है। विवेचन - इसके तीन कारण भी ठाणांग सूत्र के तीसरे ठाणे में और वृहत्कल्प के चौथे उद्देशे में बतलाये गये हैं। For Personal & Private Use Only Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८ उववाइय सुत्त से किं तं विणए? विणए सत्तविहे पण्णत्ते।तं जहा-णाणविणए, दंसणविणए, चरित्तविणए, मणविणए, वइविणए, कायविणए, लोगोवयारविणए। भावार्थ - विनय किसे कहते हैं ? विनय के सात भेद कहे गये हैं। जैसे-१. ज्ञानविनय २. दर्शनविनय ३. चारित्रविनय, ४. मनोविनय ५. वचनविनय ६. कायविनय और ७. लोकोपचार विनय-लोकव्यवहार से सम्बन्धित आत्मगुण-पोषक नम्र आचरण। से किं तं णाणविणए ? णाणविणए पंचविहे पण्णत्ते। तं जहाआभिणिबोहियणाणविणए, सुय-णाणविणए, ओहिणाणविणए, मणपजव-णाणविणए, केवलणाणविणए।से तं णाणविणए। भावार्थ - ज्ञानविनय किसे कहते हैं ? ज्ञानविनय के पांच भेद कहे गये हैं। जैसे-१. आभिनिबोधिक . ज्ञान-मतिज्ञान विनय, २. श्रुतज्ञान विनय ३. अवधिज्ञान विनय ४. मन:पर्यवज्ञान विनय और ५. केवलज्ञान विनय। इन ज्ञानों को यथार्थ मानते हुए इनके लिए यथा शक्ति पुरुषार्थ करना ज्ञान विनय कहलाता है। से किं तं दंसणविणए ? दंसणविणए दुविहे पण्णत्ते। तं जहा-सुस्सुसणाविणए, अणच्चासायणा-विणए। भावार्थ - दर्शन विनय किसे कहते हैं ? दर्शन विनय के दो भेद कहे गये हैं। जैसे-१. शुश्रूषणाविनय और २. अनत्याशातना विनय। . से किं तं सुस्सुसणाविणए ? सुस्सुसणाविणए अणगविहे पण्णत्ते। तं जहाअब्भुटाणे इवा, आसणाभिग्गहे इवा, आसणप्पदाणे इ वा। भावार्थ - शुश्रूषणा विनय - सम्यक् श्रद्धा युक्त का अविरोधी सेवा रूप विनम्र आचरण-किसे कहते हैं ? शुश्रुषणा विनय के अनेक भेद कहे गये हैं। जैसे-१. गुरुजन या गुणाधिक के अपने समीप आने पर, उन्हें आदर देने के लिये खड़े होना २. जहाँ जहाँ गुरुजन की बैठने की इच्छा हो, वहाँ वहाँ आसन ले जाना और ३. उन्हें आसन देना। सक्कारे इ वा, सम्माणे इ वा किनकम्मे इवा, अंजलिपग्गहे इ वा। भावार्थ - ४. सत्कार देना-वस्त्रादि से निमन्त्रित करना ५. सन्मान-बड़प्पन देना ६. विधि सहित वन्दना-नमस्कार करना ७. स्वीकृति या अस्वीकृति करते समय हाथ जोड़ना। एतस्स अणुगच्छणया, ठियस्स पज्जुवासणया, गच्छंतस्स पडिसंसाहणया। से तं सुस्सुसणाविणए। भावार्थ - आते हुए गुरुजन के सामने जाना, ९. बैठे हुए की पर्युपासना और १०. जाते हुए को पहुँचाने जाना। यह शुश्रूषणा विनय है। For Personal & Private Use Only Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आभ्यन्तर-तप ७९ से किं तं अणच्चासायणा विणए ? अणच्चासायणा विणए पणतालीसविहे पण्णत्ते। तं जहा-अरिहंताणं अणच्चसायणया, अरिहंतपण्णत्तस्स धम्मस्स अणच्चासायणया। भावार्थ - अनत्याशातना विनय किसे कहते हैं ? अनत्याशातना विनय के पैंतालीस भेद कहे गये हैं। १. अरिहन्त की आशातना नहीं करना अर्थात् तीर्थंकर भगवान् का अवर्णवाद नहीं बोलना २. अरिहन्त भगवान् के द्वारा कहे गये धर्म की आशातना नहीं करना अर्थात् अवर्णवाद नहीं बोलना। आयरियाणं अणच्चासायणया, एवं उवज्झायाणं थेराणं कुलस्स गगस्स संघस्स किरियाणं संभोगियस्स। भावार्थ -३. आचार्यों की आशातना नहीं करना. इसी प्रकार ४ उपाध्यायों की५. स्थविरों - ज्ञानचारित्रवय वृद्धों की ६. कुल की ७. गण की ८. संघ - साधु, साध्वी, श्रावक और श्राविका रूप चतुर्विध संघ की ९. क्रियावान् की १०. सांभोगिक- जिसके साथ वन्दना आदि व्यवहार किया जाता हो, उस गच्छ के साधु या एक समाचारी वाले की आशातना नहीं करना। .. आभिणिबोहियणाणस्स सुयणाणस्स ओहि-णाणस्स मणपजवणाणस्स केवलणाणस्स। - भावार्थ - ११ मतिज्ञान की १२. श्रुतज्ञान की १३. अवधिज्ञान की १४. मन:पर्यवज्ञान की और १५. केवलज्ञान की आशातना नहीं करना। ___एएसिं चेव भत्ति-बहुमाणे, एएसिं चेववण्णसंजलणया।सेतं अणच्चासायणाविणए। भावार्थ - १६ से ३० इन पन्द्रह की भक्ति-सेवा विनय बहुमान गुणानुराग का ऐसा तीव्र भावावेश-जिसमें पूज्य के प्रति सर्वस्व समर्पण कर देने की भावना रहती है करना और ३१ से ४५ इन पन्द्रह के यश को प्रकाशित करना-फैलाना। यह अनत्याशातना या अनाशातना विनय का स्वरूप है। से किं तं चरित्तविणए ? चरित्तविणए पंचविहे पण्णत्ते। भावार्थ - चारित्र विनय किसे कहते हैं ? चारित्र विनय के पांच भेद कहे गये हैं। तं जहा-सामाइय-चरित्तविणए, छेओवट्ठावणिय-चरित्तविणए, परिहारविसुद्धि.. चरित्तविणए, सुहम-संपरायचरित्तविणए, अहक्खाय-चरित्तविणए। सेतंचरित्तविणए। भावार्थ- जैसे-१. सामायिक चारित्र विनय २. छेदोपस्थापनीय चारित्र विनय ३. परिहार-विशुद्धि चारित्र विनय ४. सूक्ष्म सम्पराय चारित्र विनय और ५. यथाख्यात चारित्र विनय। यह चारित्र विनय है। से किं तं मणविणए ? मणविणए दुविहे पण्णत्ते। तं जहा-पसत्थमणविणए, अपसत्थमणविणए। For Personal & Private Use Only Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . उववाइय सुत्त भावार्थ - मनोविनय किसे कहते हैं ? मनोविनय के दो भेद कहे गये हैं। जैसे - १. प्रशस्त - अच्छा मनोविनय और २. अप्रशस्त - बुरा मनोविनय। से किं तं अपसत्थमणविणए ? अपसत्थमणविणए जे य मणे सावजे सकिरिए सकक्कसे कडुए गिट्ठरे फरुसे अण्हयकरे छेयकरे भेयकरे परितावणकरे उद्दवणकरे भूओवघाइए, तहप्पगारं मणो णो पहारेजा।से तं अपसत्थ मणोविणए। भावार्थ - अप्रशस्त मनोविनय किसे कहते हैं ? जो मन १. सावध - पापमय २. सक्रिय - कायिकी आदि क्रियायुक्त ३. सकर्कश ४. कटुक ५. निष्ठुर - कठोर ६. परुष - स्नेहरहित ७. आस्रवकारी - अशुभ कर्म को ग्रहण करने वाला ८. छेदकर- अंगादि को काटने के भाव करने वाला ९. भेदकर - अंगादि को बिंधने के भाव करने वाला, १०. परितापनकर - प्राणियों को संतापित करने के भाव वाला, ११. उद्रवणकर - मारणान्तिक वेदनाकारी या धन हरणादि उपद्रवकारी और १२. भूतोपघातिक- जीवों के घात की भावना वाला हो-ऐसे मन को धारण नहीं करना, अप्रशस्त मनोविनय है। यह अप्रशस्त मनोविनय है। से किं तं पसत्थमणोविणए ? पसत्थमणोविणए तं चेव पसत्थं णेयव्वं । एवं चेव वइविणओ वि एएहिं पएहिं चेव णेअव्वो। से तं वइविणए। भावार्थ - प्रशस्त मनोविनय किसे कहते हैं ? इसी प्रकार प्रशस्त मनोविनय का स्वरूप भी समझना चाहिए। इसी प्रकार वचन-विनय भी इन्हीं पदों के द्वारा समझ लेना चाहिए। यह वचन-विनय है। अर्थात् मन और वचन की शुभ प्रवृत्ति करना। विवेचन - प्रशस्त मनोविनय, अप्रशस्त से विपरीत स्वरूप वाला है। अर्थात् १. असावय २. निष्क्रिय ३. अकर्कश ४. अकटुक - मधुर ५. अनिष्ठुर - कोमल ६. अपरुष-करुणामय ७. अनास्रवकारी ८. अछेदकर ९. अभेदकर १०. अपरितापनकर ११. दया और १२ जीवों के प्रति साताकारी मन को धारण करना-प्रशस्त मनो-विनय है। मन-विनय की तरह वचन-विनय के भी भेद समझ लेना चाहिए अर्थात् सावदयादि वचन छोड़ना और असावदयादि वचन बोलना। से किं तं कायविणए ? कायविणए दुविहे पण्णत्ते। तंजहा-पसत्थकायविणए अपसत्थकायविणए। भावार्थ - कायविनय किसे कहते हैं ? कायविनय के दो भेद कहे गये हैं। जैसे-१. प्रशस्त कायविनय और २. अप्रशस्त कायविनय। से किं तं अपसत्थकायविणए ? अपसत्थकायविणए सत्तविहे पण्णत्ते। भावार्थ- अप्रशस्त कायविनय किसे कहते हैं ? अप्रशस्त कायविनय के सातभेद कहे गये हैं। तं जहा-अणाउत्तं गमणे, अणाउत्तं ठाणे, अणाउत्तं णिसीयणे, अणाउत्तं तुयट्टणे, For Personal & Private Use Only Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आभ्यन्तर-तप अणाउत्तं उल्लंघणे, अणाउत्तं पल्लंघणे, अणाउत्तं सव्विदिय-काय जोग-जुंजणया। से तं अपसत्थकायविणए। ___ भावार्थ - जैसे-१. बिना उपयोग असावधानी से चलना २. ठहरना ३. बैठना ४. सोना ५. लांघना ६. बारम्बार लांघना या कूदना और ७ बिना यतना के सभी इन्द्रियों और काया को प्रवृत्ति में लगाना। यह अप्रशस्त काय विनय है। इन असावधानी की प्रवृत्तियों को छोड़ना विनय है। विवेचन - अप्रशस्त मनविनय में 'तहप्पगारं मणो णो पहारेज्जा' पाठ आया है। उसकी भलामण अप्रशस्त वचन विनय के लिए भी दी है। अप्रशस्त काय विनय में ऐसी भलामण नहीं दी है, तथापि उसी प्रकार समझ लेना चाहिए, क्योंकि उत्तराध्ययन सूत्र के चौवीसवें अध्ययन की पचीसवीं गाथा से यह बात स्पष्ट होती है। उस अध्ययन में संरम्भादि में प्रवृत्त होते हुए मन, वचन काया को रोकने के लिए समान रूप से पाठ आया है। से किं तं पसत्थकायविणए ? पसत्थकायविणए एवं चेव पसत्थं भाणियव्वं। से तं कायविणए। भावार्थ - प्रशस्त कायविनय किसे कहते हैं ? इसी प्रकार प्रशस्त कायविनय के विषय में कहना चाहिए। यहाँ बताई हुई सातों क्रियाएँ तथा काया सम्बन्धी सभी क्रियाएँ उपयोग पूर्वक करना प्रशस्त कायविनय है। यह कायविनय है। . . से किं तं लोगोवयारविणए ? लोगोवयारविणए सत्तविहे पण्णत्ते। भावार्थ - लोकोपचारविनय किसे कहते हैं ? लोकोपचार-विनय के सात भेद कहे गये हैं। तं जहा-अब्भास वत्तियं १, परच्छंदाणुवत्तियं २, कजहेउं ३, कयपडिकिरिया .४, अत्त-गवेसणया ५, देस-कालण्णुया ६, सबढेसु अपडिलोमया ७। से तं लोगोवयारविणए। से तं विणए। भावार्थ - जैसे-१. गुरु महाराज आदि के समीप बैठना २. गुरुजन की इच्छानुसार प्रवृत्ति करना .३. ज्ञानादि के लिए सेवा-भक्ति करना ४. कृतज्ञता से - अपने ऊपर किये हुए उपकारों को स्मरण में रखकर सेवाभक्ति करना ५. वृद्ध - रोगी आदि पीड़ित संयतियों से, उनके सुख-दुःख की बात पूछना या उनकी सारसम्हाल करना ६ देश और काल को जानकर अपने ध्येय को हानि न पहुँचे इस प्रकार से आचरण करना और ७ सभी विषयों में- आराध्य सम्बन्धी सभी प्रयोजनों में-विपरीत आचरण का निवारण करना-अनुकूल बनना। यह लोकोपचार विनय है। यह विनय का स्वरूप है। विवेचन - लौकिक प्रवृत्ति की सदृशता होने के कारण, इसे लोकोपचार विनय कहा गया है। गुरुओं के समीपवर्ती रहने पर उनके सेवा का योग साधा जा सकता है। गुरुजन की इच्छानुसार प्रवृत्ति करने से अपनी इच्छा का निरोध होता है। स्वच्छन्दता नम्रता में परिणत होती है और गुरुजन For Personal & Private Use Only Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८२ उववाइय सुत्त •••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••• प्रसन्न रहते हैं। ज्ञानादि के लिये सेवाभक्ति करने पर, गुरुजनों को और स्वयं को चित्त-प्रसाद होता : है। जिससे ज्ञानादि की प्राप्ति सुगम बनती है। दुःखी साधु पुरुषों से सुख-दुःख, की बात पूछने पर, उन्हें असहयपन की अनुभूति नहीं होती है और स्वयं को भी, उनके दुःख में हिस्सा बंटाने से, मधुर शान्ति का अनुभव होता है। देश-कालज्ञता और सर्वार्थ में अप्रतिलोमता से स्व-पर का कल्याण सहज में साधा जा सकता है। से किं तं वेयावच्चे ? - वेयावच्चे दसविहे पण्णत्ते। . भावार्थ - वैयावृत्य-भात-पानी आदि से सेवा करना किसे कहते हैं ? - वैयावत्य के दस भेद कहे गये हैं। तं जहा-आयरियवेयावच्चे १, उवज्झायवेयावच्चे २, सेहवेयावच्चे ३, गिलाणवेयावच्चे ४, तवस्सिवेयावच्चे ५, थेरवेयावच्चे ६, साहम्मियवेयावच्चे ७, कुलवेयावच्चे ८, गणवेयावच्चे ९, संघवेयावच्चे १०, से तं वेयावच्चे। भावार्थ - जैसे-१. आचार्य की वैयावृत्य २. उपाध्याय की ३ शैक्ष - नवदीक्षित की ४. ग्लान - पीडित की ५. तपस्वी - अष्टम आदि करने वाले की ६ स्थविर - वय आदि से वृद्ध की ७ साधर्मिक साधु या साध्वी की ८ कुल - गच्छों के समुदाय की ९. गण - कुलों के समुदाय की और १०. संघ - गणों के समुदाय की वैयावृत्य - सेवा। यह वैयावृत्य का स्वरूप है। विवेचन - भगवती सूत्र आदि में बतलाया गया है कि एक आचार्य के या एक गुरु के शिष्यों को कुल कहते हैं और कुलों के समुदाय को गण और गणों के समुदाय को संघ कहते हैं। से किं तं सज्झाए ? सज्झाए पंचविहे पण्णत्ते। तं जहा-वायणा १, पडिपुच्छणा २, परियट्टणा ३, अणुप्पेहा ४, धम्मकहा ५। से तं सज्झाए। भावार्थ - स्वाध्याय किसे कहते हैं ? स्वाध्याय के पांच भेद कहे गये हैं। जैसे-१. वाचना - सूत्रों का पढ़ना-पढ़ाना २. प्रतिपृच्छना - शंका-समाधान ३. परिवर्तना - सीखे हुए ज्ञान की पुनरावृत्ति करना ४. अनुप्रेक्षा - सूत्र के अवलम्बन से युक्त चिन्तन-मनन करना और ५. धर्मकथा करना अर्थात् धर्मोपदेश देना। यह स्वाध्याय का स्वरूप है। से किं तं झाणे ? झाणे चउबिहे पण्णत्ते। तं जहा-अट्टझाणे १, रुहल्झाणे २, धम्मज्झाणे ३, सुक्क-ज्झाणे ४। भावार्थ - ध्यान - एकाग्रचिन्तन किसे कहते हैं ? ध्यान चार तरह का कहा गया है। जैसे-१. आर्त - रागादि भावना से युक्त ध्यान २. रौद्र - हिंसा आदि भावना से युक्त ध्यान ३. धर्म-धर्मभावना से युक्त ध्यान और ४. शुक्ल - निरञ्जन-शुद्ध ध्यान। For Personal & Private Use Only Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आभ्यन्तर-तप अट्टज्झाणेचउविहेपण्णत्ते।तंजहा-अमणुण्ण-संपओगसंपउत्ते, तस्सविप्पओगस्सइ-समण्णागए यावि भवइ १, मणुण्ण-संपओग-संपउत्ते, तस्स अविप्पओगस्सइ-समण्णागए यावि भवइ २। भावार्थ - आर्त्तव्यान के चार भेद कहे गये हैं। जैसे १. अमनोज्ञ - मन को नहीं भाने वाले साधनों के प्राप्त होने पर उनके वियोग की स्मृति-दूर हटाने के लिए लगातार चिन्तन करना २. मनोज्ञमन को प्रिय लगने वाले साधनों के प्राप्त होने पर, उनके अवियोग की स्मृति-सदा अपने पास सुरक्षित बने रहने का लगातार चिन्तन करना। ____ आयंक-संपओग-संपउत्ते, तस्सविप्पओग-स्सइ-समण्णागए याविभवइ ३, परिजूसिय-काम-भोग संपओग-संपउत्ते, तस्स अविप्पओग-स्सइ-समण्णागए यावि भवइ ४। भावार्थ - ३ आतङ्क - रोगों के आने पर उनके वियोग की स्मृति से युक्त होना और ४ सेवित और प्रीतिकर काम भोगों की प्राप्ति होने पर उनके अवियोग की स्मृति से युक्त होना। अट्टस्सणं झाणस्स चत्तारि लक्खणापण्णत्ता। तंजहा-कंदणया १, सोयणया २, तिप्पणया ३, विलवणया ४। भावार्थ - आर्तध्यान के चार लक्षण कहे गये हैं। जैसे - १. क्रन्दनता - जोरों से रोना २. शोचनता - दीनता ३. तेपनता- आंसू गिरना और ४. विलपनता - बिलखना, चित्त को क्लेश पहुँचाने वाले वचन बारम्बार बोलना अर्थात् विलाप करना। - रुद्दझाणे चउबिहे पण्णत्ते।तं जहा-हिंसाणुबंधी १, मोसाणुबंधी २, तेणाणुबंधी ३, सारक्खणाणुबंधी ४ 'भावार्थ - रौद्रध्यान के चार भेद कहे गये हैं। जैसे - १. हिंसानुबन्धी - हिंसा से सम्बन्धित एकाग्र चिन्तन २. मृषानुबन्धी- असत्य से सम्बन्धित एकाग्र चिन्तन ३. स्तेनानुबन्धी - चौर्य कर्म से सम्बन्धित एकाग्र चिन्तन और ४. संरक्षणानुबन्धी - धनादि के रक्षण के सम्बन्धित भयङ्कर चिन्तन या किसी को कैदखाना आदि में डलवाने सम्बन्धी चिन्तन। रुद्दस्स झाणस्स चत्तारि लक्खणा पण्णत्ता।तं जहा-उसण्णदोसे १, बहुदोसे २, अण्णाणदोसे ३, आमरणंतदोसे ।। - भावार्थ - रौद्रध्यान के चार लक्षण कहे गये हैं। यथा- १. ओसन्न दोष - हिंसा आदि दोषों में से किसी भी दोष में, अधिकता से लगातार लगे रहना-उनसे जरा भी अप्रीति नहीं होना २. बहुदोष - . हिंसादि बहुत-से या सभी दोषों में प्रवृत्ति करना ३. अज्ञानदोष - कुशास्त्र के संस्कार से, अधर्म स्वरूप For Personal & Private Use Only Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८४ उववाइय सुत्त हिंसादि में, धर्मबुद्धि से प्रवृत्ति करना ४. आमरणान्तदोष मरण पर्यत दोषों के प्रति अनुताप नहीं होना । - - विवेचन - आर्त्त और रौद्र ध्यान - अशुभ ध्यान है। यहाँ भगवान् के श्रमणों के विशेषणों के रूप में तप का वर्णन हो रहा है। अतः इन ध्यानों के वर्णन से यह आशय लेना चाहिए कि 'इन अशुभ ध्यानों को छोड़कर धर्म-शुक्ल रूप प्रशस्त ध्यान के ध्याता थे।' इसी प्रकार अशुभ विनय के विषय में यही समझना चाहिए। तपोवर्णन में अप्रशस्त का वर्णन इसीलिए है कि इनका स्वरूप समझ कर, प्रशस्त ध्यान को अप्रशस्त ध्यान होने से रोका जा सके। क्योंकि जरा--से लक्ष्य भेद से क्रिया-भेद उपस्थित हो जाता है। अतः अप्रशस्त को छोड़ना और प्रशस्त को स्वीकार करना, ये दोनों ही निर्जरा है । धम्मज्झाणे चव्विहे चउप्पडोयारे पण्णत्ते । भावार्थ - चार भेदों में समवतरित होने वाला धर्मध्यान चार प्रकार का कहा गया है। १, अवायविजए २, विवागविजए ३. संठाणविजए ४ । जहा - आणाविज भावार्थ - धर्मध्यान चार भेद हैं। जैसे - १. आज्ञाविचय- चिन्तन के द्वारा - सूत्रज्ञान के द्वारा तीर्थंकर भगवान् की सूत्रधर्म और चारित्रधर्म सम्बन्धी आज्ञा का विचार करना २. अपायविचयचिन्तनादि के द्वारा राग-द्वेषादि से होने वाले अनर्थों का विचार करना ३. विपाकविचय चिंतन आदि के द्वारा कर्मफल का विचार करना और ४. संस्थान विचय - लोक द्वीप आदि पदार्थों की आकृतियों, का चिन्तन करना । विवेचन - धर्मध्यान के चार भेद, चार लक्षण, चार लिंग और चार अवलम्बन हैं। इन चार भेटों में धर्मध्यान का समावेश होता है, इसलिए मूल में 'चउप्पडोयारे' (चतुष्प्रत्यवतार) कहा है। थोकड़े वाले तो ऐसा बोलते है कि 'धर्मध्यान के चार भेद और चार पाये।" मूल पाठ में आज्ञा विजय आदि शब्द दिये है। विजय शब्द का पर्याय वाची विचय शब्द भी है। इसलिए ठाणांग सूत्र के चौथे ठाणे में 44 'आज्ञाविचय आदि शब्द दिए है।" संस्थान विचय में लोक के स्वरूप का चिंतन करते हुए लोक में जीव के परिभ्रमण करने का चिन्तन करना चाहिये जैसा कि बारह भावनाओं में कहा है। यथा चौदह राजु उत्तंग नभ, लोक पुरुष संठान । तामे जीव अनादिते, भ्रमत है बिन ज्ञान ॥ अर्थ - लोक चौदह राजु परिमाण ऊँचा हैं और कमर पर हाथ धर कर नाचते हुए भोपे रूप पुरुष के आकार वाला है, उसमें मिथ्यात्व रूपी अज्ञान के कारण जीव अनादि काल से परिभ्रमण कर रहा है। धम्मस्स णं झाणस्स चत्तारि लक्खणा पण्णत्ता । तंजहा - आणारुई १, णिसग्गरुई २, उवएसई ३, सुत्त - रुई ४ | भावार्थ - धर्मध्यान के चार लक्षण कहे गये हैं। जैसे- १. आज्ञारुचि - वीतराग की आज्ञा में - For Personal & Private Use Only Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आभ्यन्तर-तप श्रद्धा-रुचि २. निसर्गरुचि- स्वभावतः ही धर्म में रुचि होना ३. उपदेशरुचि - साधु आदि के उपदेश से धर्म में रुचि होना या धर्म-उपदेश सुनने में रुचि और ४ सूत्ररुचि - आगमों से तत्त्वरुचि होना या आगमों में श्रद्धा होना। धम्मस्स णं झाणस्स चत्तारि आलंबणा पण्णत्ता।तं जहा- वायणा १, पुच्छणा २, परियट्टणा ३, धम्मकहा ४। भावार्थ - धर्मध्यान के चार आलम्बन-धर्मध्यान के शिखर पर चढ़ने के लिये सहायता लेने योग्य साधन कहे गये हैं। यथा-१. वाचना - जीव-अजीव के वास्तविक स्वरूप को बताने वाले आगम, ग्रन्थ, शास्त्रादि को पढना २. पृच्छना - शंका-समाधान या पढ़े हुए-जाने हुए विषय के सम्बन्ध में विविध प्रश्न उठाना और स्वतः ही समाधान करना या दूसरों से उत्तर प्राप्त करके, जिज्ञासावृत्ति का संस्कार करना अथवा अपने आपके विषय में अपने आपसे, पूर्ण जिज्ञासा के साथ उत्तर की राह देखते हुए, प्रश्न करना ३. परिवर्तना - सीखे हुए ज्ञान की पुनरावृत्ति करना-घुमा-फिराकर बार-बार एक ही विषय पर योगों-मन, वचन और काया की क्रिया को लगाना और ४. धर्मकथा - उपदेश देना, आप्तपुरुषों की जीवनियों, उपदेशप्रद गाथाओं के द्वारा आत्मानुशासन करना-अपने आपको आदेश देना। . . धम्मस्सणं झाणस्स चत्तारि अणुप्पेहाओ पण्णत्ताओ।जहा-अणिच्चाणुप्पेहा १, असरणाणुप्पेहा २, एगत्ताणुप्पेहा ३, संसाराणुप्पेहा ४। . . . भावार्थ - धर्मध्यान की चार अनुप्रेक्षाएँ-भावनाएँ-ध्यान साधने के लिये विचारों के अभ्यास : कही गई हैं। यथा- १. अनित्यानुप्रेक्षा-इष्टजन-सातादि के संयोग, ऋद्धि, विषयसुख, सम्पद् आरोग्य, देह, यौवन और जीवन अर्थात् जितने भी इन्द्रिय-गम्य पदार्थ हैं वें सभी अनित्य हैं-ऐसे विचारों का चिन्तन करना २. अशरणानुप्रेक्षा-जन्म, जरा और मरणादि के भय में-व्याधि और वेदना में-जिनेवर के वचन के सिवाय, लोक में कहीं पर कोई भी शरण नहीं है अथवा 'हे आत्मन् ! बाहरी पदार्थों से रक्षित होने की तेरी आशा व्यर्थ है। कोई किसी को कर्मभोग से बचा सके-ऐसा वस्तु स्वरूप ही नहीं है। तू अपने आपमें पूर्ण है। निजबल के विकास के द्वारा ही कष्टसागर से पार पहुंच सकता है। अत: हे आत्मन् ! तू अपने-आपमें स्थित हो जा। वीतराग-वचन मार्ग-प्रदर्शन कर रहे हैं'.......आदि विचारों का चिन्तन करना। ३. एकत्त्वानुप्रेक्षा-जन्म-मरण में और शुभ अशुभ भवरूपी भंवर में अकेले का ही गमन होता है। अतः अकेले से ही आत्मा का हित करना योग्य है अथवा हे आत्मन् ! तू अपनी वृत्तियों को अनेकधा क्यों बना रहा है ! तू अकेला है-एक है, अत: इन वृत्तियों को अपने से बाहर मत जाने दे। आत्मा ही कर्ता है। आत्मा ही भोक्ता है। जीव अकेला ही जन्मता और अकेला ही मरता है। "आयो अकेलो जासी अकेलो मन मे बात विचारो जी।" . आप अकेलो अवतरे, मरे अकेलो होय। यों कब हूं या जीव को, साथी सगो न कोय॥ For Personal & Private Use Only Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उववाइय सुत्त आदि अकेलेपन के आत्मावलम्बी विचारों का चिन्तन करना और ४ संसारानुप्रेक्षा-जीव ने सभी जीवों के साथ सभी तरह के सम्बन्ध किये हैं। जीव माता होकर पुत्री, पत्नी होकर बहिन, पुत्र होकर पिता और पिता होकर पुत्र-इस संसार में हो जाता है......आदि संसार के स्वरूप सम्बन्धी विचारों का चिन्तन करना। सुक्कझाणे चउविहे चउप्पडोयारे पण्णत्ते। तंजहा-पुहुत्तवियक्के सवियारी १, एगत्तवियक्के अवियारी २, सुहुमकिरिए अप्पडिवाई ३, समुच्छिण्ण-किरिए अणियट्टी ४। भावार्थ - शुक्लध्यान चार-चार भेदों से युक्त चार समवतार वाला कहा गया है। यथा - . शुक्लध्यान के चार प्रकार - १. पृथक्त्व-वितर्क-सविचारी - अर्थादि में योगों के विचरण से युक्त भेद सहित वितर्क-विकल्प अर्थात् ऐसा ध्यान जिसमें एक द्रव्य के आश्रित उत्पाद आदि पर्यायों के भेद से युक्त, पूर्वगत श्रुत के आलम्बन से विविध नयों का अनुसरण करने वाला विकल्प हो और अर्थ से व्यंजन में और व्यंजन से अर्थ में तथा मन आदि योगों का एक से दूसरे में विचरण हो, ऐसा चिन्तन करना। २. एकत्व-वितर्क अविचारी - शब्दार्थ और योगों के निज-संक्रमण से रहित अभेद-विकल्प अर्थात् ऐसा ध्यान जिसमें किसी भी एक योग में स्थित ध्याता का, भेद से रहित-द्रव्य के एक पर्याय का अनुसरण करने वाला-पूर्वगत शब्द या अर्थ रूप विकल्प हो, ऐसा चिन्तन करना ३. सूक्ष्मक्रिया अप्रतिपाती-निर्वाण काल के समय योग-निरोध करते हुए, अर्द्धनिरुद्ध काययोग की स्थिति में, उन्नति की गतिशील ऊर्ध्वमुखी अवस्था का होना रूप ध्यान और ४ समुच्छिन्नक्रिया अनिवर्ती-तीनों योगों के निरुद्ध हो जाने पर शैलेश (मेरु पर्वत की तरह) निष्कम्प-निष्क्रिय स्थिति अर्थात् शैलेशी अवस्था को प्राप्त करना, मुक्ति प्राप्त किये बिना पीछे नहीं हटना। अर्थात् मोक्ष प्राप्ति के पहले की अवस्था जहाँ से फिर लौटना नहीं होता है। सुक्कस्स णं झाणस्स चत्तारि लक्खणा पण्णत्ता। तंजहा-विवेगे १, विउसग्गे २, अव्वहे ३, असम्मोहे ४॥ भावार्थ - शुक्लध्यान के चार लक्षण कहे गये हैं। यथा-१. विवेक - देह से आत्मा का और आत्मा से सभी संयोगिक पदार्थों का बुद्धि से पृथक्करण २. व्युत्सर्ग - नि:संगता से देह और उपधि का त्याग ३. अव्यथा - देवादि के उपसर्ग से चलित नहीं होना-पीड़ा का आत्मा पर असर नहीं होने देना और ४. असंमोह- देवादिकृत माया और जिनप्रणीत सूक्ष्म पदार्थों के विषयों में मुग्ध नहीं होना अर्थात् भांत नहीं होना। सुक्कस्सणं झाणस्स चत्तारि आलंबणा पण्णत्तां तंजहा-खंती १, मुत्ती २, अजवे ३, मद्दवे ।। For Personal & Private Use Only Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आभ्यन्तर-तप ८७ भावार्थ - शुक्लध्यान के चार आलम्बन कहे गये हैं। जैसे- १. क्षान्ति - क्षमा-अक्रोधसहिष्णुता २. मुक्ति - निर्लोभता ३. आर्जव - सरलता कपट-त्याग और ४. मार्दव - मृदुता-कोमलतामान त्याग। सुक्कस्स णं झाणस्स चत्तारि अणुप्पेहाओ पण्णत्ताओ। अवायाणुप्पेहा १, असुभाणुष्पेहा २, अणंत-वत्तियाणुप्पेहा ३, विष्परिणामाणुप्पेहा ४। से तं झाणे। भावार्थ - शुक्लध्यान की चार अनुप्रेक्षाएँ-चिन्तन प्रणालियाँ कही गई हैं। यथा-१. अपायानुप्रेक्षाआत्मा में कर्म-प्रवेश से होने वाले अनर्थों का बार-बार चिन्तन २. अशुभानुप्रेक्षा – संसार की अशुभता का पुन:पुनः चिन्तन ३. अनन्तवृत्तितानुप्रेक्षा - भव-परम्परा के अनन्त चक्र का चिन्तन और ४. विपरिणामानुप्रेक्षा- प्रतिक्षण पलटते हुए वस्तु के विविध परिणामों का चिन्तन करना। यह ध्यान का स्वरूप है। विवेचन - प्रश्न - धर्मध्यान और शुक्लध्यान के सोलह-सोलह भेद किये गये हैं, तो सहज ही प्रश्न होता है कि, आर्तध्यान और रौद्रध्यान के भी सोलह-सोलह भेद क्यों नहीं किये गये हैं, अर्थात् उनके आठ-आठ भेद ही क्यों कहे हैं ? उनके चार-चार आलम्बन और अनुप्रेक्षाएँ क्यों नहीं कही हैं ? उत्तर - आलम्बन का अर्थ है आत्मा के गुण रूपी शिखर पर चढ़ने के लिए सहारा लेना और अनुप्रेक्षा का अर्थ है, ध्यान रूपी शिखर पर चढ़ने के लिए ध्यान साधने के लिए विचारों का बारम्बार अभ्यास करते रहना। धर्मध्यान और शुक्लध्यान ये दोनों ध्यान शुभ ध्यान एवं उत्तम ध्यान कहे जाते हैं। इन दोनों से आत्मा के गुणों की वृद्धि होती है। इसलिए आत्म गुणों में ऊपर चढ़ने के लिए आलम्बन और अनुप्रेक्षा (भावना) की आवश्यकता होती है। आर्तध्यान और रौद्रध्यान अशुभ एवं अधम ध्यान हैं, इनसे आत्मा के गुणों का पतन होता है। अत: पतन के लिए (नीचे गिरने के लिए) आलम्बन और भावना की आवश्यकता नहीं रहती है, जैसे कि मकान पर चढ़ने के लिए सीढियों की आवश्यकता होती है परन्तु मकान से नीचे गिरने के लिए सीढ़ियों की आवश्यकता नहीं होती है। नोट - चार ध्यानों का वर्णन ठाणांत सूत्र के चौथे ठाणे में है उनका विस्तृत हिन्दी विवेचन श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह बीकानेर के पहले भाग में है। से किं तं विउस्सग्गे ? विउस्सग्गे दुविहे पण्णत्ते। तंजहा-दव्वविउस्सग्गे भावविउस्सग्गे य। - भावार्थ - व्युत्सर्ग-आत्मा से भिन्न पदार्थों का त्याग किसे कहते हैं ? व्युत्सर्ग के दो भेद कहे गये हैं-१. द्रव्यव्युत्सर्ग और २. भावव्युत्सर्ग। . सेकिंतंदव्वविउस्सग्गे ?दव्वविउस्सग्गेचउबिहे पण्णत्ते।तंजहा-सरीरविउस्सग्गे १, गणविउस्सग्गे २, उवहिविउस्सग्गे ३, भत्तपाणविउस्सग्गे ४। से तं दव्वविउस्सग्गे। For Personal & Private Use Only Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८८ उववाइय सुत्त भावार्थ - द्रव्यव्युत्सर्ग-आत्मा से भिन्न द्रव्यों का त्याग किसे कहते हैं ? द्रव्यव्युत्सर्ग के चार भेद कहे गये हैं। जैसे- १. शरीरव्युत्सर्ग - शरीर (देह) की ममता के वर्धक साधनों का त्याग करना २. गणव्युत्सर्ग- गण का और गण के मिथ्याभिमान-वर्धक साधनों का त्याग करना ३. उपधिव्युत्सर्ग - साधन-सामग्रियों का और उनको मोहक बनाने के साधन आदि का त्याग करना और ४. भक्तपानव्युत्सर्ग• आहार- पानी का और उनकी आसक्ति का त्याग करना। यह द्रव्यव्युत्सर्ग का स्वरूप है। से किं तं भाव-विउस्सग्गे ? भाव - विउस्सग्गे तिविहे पण्णत्ते । तंजहाकसायविउस्सग्गे ९, संसारविउस्सग्गे २, कम्मविउस्सग्गे ३ । भावार्थ - भावव्युत्सर्ग-आत्मभाव से भिन्न भावों का त्याग करना किसे कहते हैं ? भावव्युत्सर्ग के तीन भेद कहे गये हैं। जैसे - १. कषायव्युत्सर्ग २. संसारव्युत्सर्ग और ३. कर्मव्युत्सर्ग। से किं तं कसायविउस्सग्गे ? कसायविउस्सग्गे चउव्विहे पण्णत्ते । तं जहा - कोह- कसाय- विउस्सग्गे १, माण-कसाय - विउस्सग्गे २, माया- कसाय - विउस्सग्गे ३, लोह - कसायविउस्सग्गे ४ । से तं कसाय - विउस्सग्गे । भावार्थ - कषायव्युत्सर्ग किसे कहते हैं ? कषायव्युत्सर्ग- आत्मभाव से भिन्न आवेशात्मक भावों के त्याग के चार भेद कहे गये हैं। यथा- १. क्रोध कषाय व्युत्सर्ग २. मान कषाय व्युत्सर्ग ३. माया छल कपट कषाय व्युत्सर्ग और ४ लोभ कषाय व्युत्सर्ग। यह कषायव्युत्सर्ग का स्वरूप है। से किं तं संसारविउस्सग्गे ? संसारविडस्सग्गे चउव्विहे पण्णत्ते । तंजहा - पोरइयसंसार - विउस्सग्गे ९, तिरिय - संसार - विउस्सग्गे २, मणुय - संसार - विउस्सग्गे ३, देवसंसारविसग्गे ४ । से तं संसारविउस्सग्गे । भावार्थ - संसारव्युत्सर्ग-आत्म दशा से विपरीत परिणति का त्याग किसे कहते हैं ? संसारव्युत्सर्ग चार भेद कहे गये हैं। यथा- १. नैरयिक संसार व्युत्सर्ग नरकगति के बन्ध के कारणों का त्याग २. तिर्यञ्च संसार व्युत्सर्ग- आत्मा के तिर्यञ्च अवस्था में परिणत होने के कारणादि का त्याग ३. मनुष्य संसार व्युत्सर्ग- मनुष्यगति के बन्ध कारणों का त्याग और ४. देव संसार व्युत्सर्गदेवगति के बंध के कारणों का त्याग। यह संसारव्युत्सर्ग का स्वरूप है। से किं तं कम्मविउस्सग्गे ? कम्मविउस्सग्गे अट्ठविहे पण्णत्ते तंजहा- णाणावरणिज्ज कम्मविउस्सग्गे ९, दरिसणावरणिज्ज कम्मविउस्सग्गे २, वेयणीय कम्म - विउस्सग्गे ३, मोहणीय कम्मविउस्सग्गे ४, आऊयकम्म विउस्सग्गे ५, णामकम्म विउस्सग्गे ६, गोयकम्म विउस्सग्गे ७. अंतराय कम्म विस्सग्गे ८ । से तं कम्म विउस्सग्गे । से तं विउस्सग्गे । For Personal & Private Use Only - Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारों की सक्रियता भावार्थ - कर्मव्युत्सर्ग-आत्मा के बन्धक भावों का त्याग किसे कहते हैं ? कर्मव्युत्सर्ग के आठ भेद कहे गये हैं। जैसे - १. ज्ञानावरणीय कर्म व्युत्सर्ग - ज्ञान गुण के आवरण रूप में कर्मपुद्गलों का जीव प्रदेशों के साथ सम्बन्धित हो जाने के कारणों का त्याग २. दर्शनावरणीयकर्म व्युत्सर्ग - सामान्य ज्ञान गुण के आवरण रूप में, कर्मपुद्गलों का जीव प्रदेशों के साथ बंध जाने के कारणों का त्याग ३. वेदनीय कर्म व्युत्सर्ग - साता और असाता की वेदना के कारण रूप कर्मपुद्गलों का आत्मा के साथ बद्ध होने के हेतुओं का और साता और असाता से आत्म-अभेदता की प्रतीति का त्याग ४. मोहनीय कर्म व्युत्सर्ग - स्व-प्रतीति और स्वभाव-रमण में बाधक कर्म-पुद्गलों का जीव के साथ बद्ध होने के हेतुओं का त्याग ५. आयुष्यं कर्म व्युत्सर्ग - जीव की अमरत्व शक्ति के बाधक कर्म पुद्गलों का जीव के साथ बद्ध होने के हेतुओं का और उस कर्म के उदय से होने वाली अवस्थाओं में अपनेपन के भान का त्याग ६. नाम कर्म व्युत्सर्ग - आत्मा के अमूर्तता-गुण को विकृत करने वाले कर्म पुद्गलों का जीव से बद्ध होने के कारणों का और उस कर्म के उदय से होने वाली दशाओं में अपनेपन की भ्रान्ति का त्याग ७. गोत्र-कर्म-व्युत्सर्ग - जीव के अगुरुलघु-न हलकापन और न भारीपन रूपगुण को विकृत करने वाले कर्म पुद्गलों के जीव के साथ बद्ध होने के कारणों का और उस कर्म के उदय से होने वाली दशाओं में अपनेपन की भ्रान्ति का त्याग और ८ अंतरायकर्म व्युत्सर्ग - जीव के अनन्त शक्ति गुण को सीमित करने वाले कर्मपुद्गलों का जीव से बद्ध होने के कारणों का त्याग। यह कर्मव्युत्सर्ग है। यह भावव्युत्सर्ग का स्वरूप है। :: विवेचन - यहाँ पर बाह्य और आभ्यन्तर तप का वर्णन किया गया है उसका आशय यह है कि श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के शिष्य इन दोनों प्रकार के तपों का आचरण करने वाले थे। उनका जीवन उपरोक्त तपों से सुवासित (सुगन्धित) था। अनगारों की सक्रियता २१- तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवओ महावीरस्स बहवे अणगारा भगवंतो - भावार्थ - उस काल और उस समय में (जब चम्पा नगरी में पधारे थे तब) श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के साथ बहुत से अनगार भगवन्त थे। अप्पेगइया आयारधरा जाव विवागसुयधरा (तत्थ तत्थ तहिं तहिं देसे देसे गच्छागच्छि गुम्मागुम्मि फड्डाफडिं च)। भावार्थ - उनमें कई आचारश्रुत के धारक यावत् विपाकश्रुत के धारक थे। अर्थात् आचारांग सूत्र से लेकर विपाकश्रुत तक ग्यारह अंगों के धारक थे। (वे उसी बगीचे में भिन्न-भिन्न जगह पर गच्छ For Personal & Private Use Only Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९० गच्छ रूप में विभक्त होकर तथा गच्छ के एक-एक भाग में विभक्त होकर एवं फुटकर फुटकर रूप में विभक्त होकर विराजते थे ।) अप्पेगइया वायंति । अप्पेगइया पडिपुच्छंति । अप्पेगइया परियट्टंति । अप्पेगड्या अणुप्पेहंति । भावार्थ - ऐसे उन अनगारों में से, वहाँ कई वाचना करते थे। कई प्रतिपृच्छा - प्रश्नोत्तर - शंका समाधान करते थे। कई पुनरावृत्ति करते थे और कई अनुप्रेक्षा करते थे । अप्पेगइया अक्खेवणीओ विक्खेवणीओ संवेयंणीओ णिव्वेयणीओ चउव्विहाओ कहाओ कहंति । भावार्थ - कई अनगार भगवन्त आक्षेपणी- मोह से हटाकर, तत्त्व की ओर आकर्षित करने वाली, विक्षेपणी-कुमार्ग से विमुख बनाने वाली, संवेगनी - मोक्षसुख की अभिलाषा उत्पन्न करने वाली औरं निर्वेदनी-संसार से उदासीन बनाने वाली, ये चार प्रकार की धर्म कथाएँ कहते थे । 1 उववाइय सुत्त अप्पेगइया उड्डुं जाणू अहोसिरा झाणकोट्ठोवगया संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणा विहरंति । भावार्थ - कई अनगार भगवन्त ऊँचे घुटने और नीचा शिर रखकर, ध्यान रूप कोष्ठ-कोठे में प्रविष्ट होकर संयम और तप आत्मा को भावित करते हुए विचरण करते थे । संसार - सागर से तिर कर पार होना संसार - भव्विग्गा भीया । भावार्थ - वे अनगार भगवन्त संसार के भय से उद्विग्न और डरे हुए थे । जम्मण- जर-मरण- करण- गंभीर - दुक्ख - पक्खुब्भिय - पउर-सलिलं । भावार्थ- संसार-सागर जन्म, जरा और मरण के द्वारा उत्पन्न हुए गंभीर दुःख रूप क्षुभित अपार जल से भरा हुआ है। संजोग - विओग-विची - चिंता - पसंग - पसरिय-वह-बंध-महल्ल- विउल-कल्लोलकलुण-विलविय - लोभ - कलकलंत - बोल-बहुलं । भावार्थ - उस दुःख रूप जल में संयोग-वियोग रूप लहरें पैदा होती है। वे तरंगें चिन्ता - प्रसंगों से फैलती हैं। वध और बन्धन रूप बड़ी मोटी कल्लोलें हैं, जो कि करुण विलाप और लोभ रूप कलकलायमान ध्वनि की अधिकता से युक्त है। अवमाणण- फेण-तिव्व-खिंसण- पुलंपुल - प्पभूय-रोग-वेयण- परिभव · For Personal & Private Use Only Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संसार-सागर से तिर कर पार होना .............00000000000000000000000000000000000000000000000 विणिवाय-फरुस-धरिसणा-समावडिय-कढिण-कम्म-पत्थर-तरंग-रंगंत-णिच्चमच्चुभय तोयपटुं-कसाय-पायाल-संकुलं। भावार्थ - भवसागर में भरे हुए दुःख रूप जल का ऊपरी भाग नित्यं मृत्युभय है। वह तिस्कार रूप फेन से फेनिल रहता है। क्योंकि तीव्र निन्दा, निरन्तर होने वाली रोग-वेदना, पराभिभव के सम्पर्क, कठोर वचन और भर्त्सना से बद्ध-मजबूत बने हुए कर्मोदय रूप कठिन पत्थरों पर संयोग-वियोगादि रूप तरंगे टकराती रहती हैं। भवसागर चार कषाय रूप पाताल कलशों से व्याप्त है। भव-सय-सहस्स-कलुस-जल-संचयं पइभयं। भावार्थ - संसार सागर में सैकड़ों-हजारों लाखों भवों के कलुष-पाप जल संचय-जल-राशि की वृद्धि के कारणों से युक्त है। वह प्रत्यक्ष भयङ्कर है। अपरिमिय-महिच्छ-कलुस-मइ-वाउ-वेग-उद्धम्म-माण-दग-रय-रयंधयार-वरफेण-पउर-आसा-पिवास-धवलं। भावार्थ - संसार सागर अपार महेच्छा से मलिन बनी हुई मति रूप वायु के वेग से ऊपर उठते हुए जल कणों के समूह के वेग-रय-आवेश से अन्धकार युक्त और वायु वेग से उत्पन्न होते हुए सुन्दर-अवमाननादि रूप फेन से छाई हुई या फेन के सदृश आशा-अप्राप्त पदार्थों के प्राप्ति की संभावना और पिपासा-अप्राप्त पदार्थों के प्राप्ति की आकांक्षा से धवल है। इसलिये मोह-महावत्त-भोग.भममाण-गप्पमाणच्छलंत-पच्चोणियत्त-पाणिय-पमाय-चंडबहुदुटु-सावय-समाहउद्धायमाण-पब्भार-घोर-कंदिय-महारव-रवंत-भेरव-रवं। भावार्थ - संसार सागर में मोह रूप बड़े-बड़े आवर्त है। आवर्त में भोग रूप भंवर-पानी के गोल घुमाव उठते हैं। अतः दुःख रूप पानी चक्कर लेता हुआ, व्याकुल होता हुआ, ऊपर उछलता हुआ और नीचे गिरता हुआ दिखाई देता है। वहाँ प्रमाद रूप भयंकर एवं अतिदुष्ट जलजन्तु हैं। जल के उठाव गिराव और जल जन्तुओं से घायल होकर इधर उधर उछलते हुए क्षुद्र जीवों के समूह हैं, जो क्रन्दन करते रहते हैं। इस प्रकार संसार सागर गिरते हुए दुःख रूप जल, प्रमाद रूप जल जन्तु और आहत संसारी जीवों के प्रतिध्वनि सहित होते हुए महान् कोलाहल रूप भयानक घोष से युक्त है। अण्णाण-भमंत-मच्छ-परिहत्थ-अणिहुयिंदिय-महामगर-तुरिय चरियखोखुब्भमाण-णच्चंत-चवल-चंचल-चलंत-घुम्मंत-जल-समूहं। - भावार्थ - संसार सागर में भमते हुए अज्ञान रूपी चतुर मत्स्य हैं और अनुपशान्त इन्द्रियाँ रूप महामगर हैं। ये मत्स्य-मगर जल्दी-जल्दी हलन-चलन करते हैं। जिससे दुःख रूप जल समूह क्षुभित होता है-नृत्य-सा करता हुआ चपल है-एक स्थान से दूसरे स्थान पर चलता हुआ एवं घूमता हुआ चञ्चल है। अरइ-भय-विसाय-सोग मिच्छत्त-सेल-संकडं। For Personal & Private Use Only Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९२ उववाइय सुत्त भावार्थ - अरति-अरुचि-संयम स्थानों में निरानन्द का भाव भय, विषाद, शोक और मिथ्यात्वमिथ्याभाव-कुश्रद्धा रूप पर्वतों से भवसागर व्याप्त है। अणाइ-संताण-कम्म-बंधण-किलेस-चिक्खिल-सुदुत्तारं। भावार्थ - वह भवसागर अनादि कालीन प्रवाह वाले कर्मबन्धन और क्लेश रूप कीचड़ से अति ही दुस्तर बना हुआ है। अमर-णर-तिरिय-णिरय-गइ-गमण-कुडिल-परिवत्त-विउल-वेलं। ' भावार्थ - वह देव, मनुष्य, तिर्यञ्च और नरक गति में गमन रूप कुटिल परिवर्तन-भंवर से युक्त विपुल ज्वार वाला है। चउरंत-महंत-मणवदग्गं रुदं (रुंदं) संसारसागरं। भावार्थ - चार गति रूप चार अन्त दिशा वाला महान् अनन्त और विस्तीर्ण या रौद्र संसार सागर भीमदरिसणिजं तरंति धीइ-धणिय-णिप्पकंपेण तुरिय चवलं संवर-वेरग्ग-तुंगकूवय-सुसंपउत्तेणं णाण-सित-विमल-मूसिएणं समत्त-विसुद्ध-लद्ध-णिज्जामएणं धीरा संजमपोएण सीलकलिया। भावार्थ - वे धीर और शीलवान् अनगार भयंकर दिखाई देने वाले संसार सागर को संयम रूपी जहाज से शीघ्र गति से पार कर रहे थे। वह संयमयान धैर्य रूप रस्सी के बन्धन से बिलकुल निष्कम्प बना हुआ था। संवर-हिंसादि से विरति और वैराग्य- कषायनिग्रह रूप ऊँचा कूपक-मस्तूल, स्तम्भ विशेष उस संयम पोत में सुन्दर ढंग से जुड़ा हुआ था। उस यान में ज्ञान रूप सफेद विमल वस्त्र ऊँचा किया हुआ तना हुआ-पाल था। विशुद्ध सम्यक्त्व रूप निर्यामक-कर्णधार या चालक-खिवैया प्राप्त हुआ था। पसत्थ-ज्झाण-तव-वाय-पणोल्लिय-पहाविएणं। भावार्थ - वह संयमपोत प्रशस्त ध्यान और तपरूप वायु की प्रेरणा से शीघ्रगति से चलता था। उजम-ववसाय-ग्गहिय-णिजरण-जयण-उवओग-णाण-दसण-चरित्तविसुद्ध-वय-भंड- भरिय-सारा। भावार्थ - उसमें उद्यम-अनालस्य और व्यवसाय-वस्तुनिर्णय या सद्व्यापार से गृहीत-क्रीतखरीदे हुए निर्जरा, यतना, उपयोग, ज्ञान, दर्शन, चारित्र और विशुद्ध व्रत रूप सार पदार्थ भाण्डक्रयाणक अनगारों द्वारा भरे गये थे। जिणवर-वयणोवदिट्ठ-मग्गेणं-अकुडिलेण सिद्धि-महा-पट्टणाभिमुहा समणवर-सत्थवाहा। For Personal & Private Use Only Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवों का आगमन ३ भावार्थ - जिनवर-राग द्वेष से रहित व्यक्तियों में श्रेष्ठ-के वचनों से उपदिष्ट मार्ग के द्वारा, वे श्रेष्ठ श्रमण सार्थवाह सिद्धि रूप महापट्टण-बड़े बन्दरगाह की ओर मुख रखकर सीधी गति से संयम पोत के द्वारा जा रहे थे। सुसुइ-सुसंभास-सुपण्ह-सासा। . भावार्थ - वे सम्यक्श्रुत-सत्सिद्धान्त ग्रन्थ, सुसंभाषण, सुप्रश्न और शोभन आशावाले थे अथवा सम्यक्श्रुत, सुसंभाषण और सुप्रश्न के द्वारा शिक्षा के दाता थे। गामे गामे एगरायं, नगरे नगरे पंचरायं दूइजंता जिइंदिया णिब्धया गयभया, सचित्ताचित्त-मीसिएसु दव्वेसु विरागयं गया संजया (संचयाओ) विरया मुत्ता लहुया णिरवकंखा साहु णिहुया चरंति धम्म। भावार्थ - वे अनगार, गांवों में एक रात्रि और नगरों में पांच रात्रि तक निवास करते हुए, जितेन्द्रिय-इन्द्रियों को जीतने वाले, निर्भय-भय मोहनीय के उदय को रोकने वाले, गत भय-भय के उदय को निष्फल करने वाले होकर, सचित्त-जीव सहित, अचित्त- निर्जीव और मिश्र-सजीव और निर्जीव अंश वाले द्रव्यों में वैराग्यवान् संयत-सम्यक् यत्न वाले, विरत-हिंसादि से निवृत्त, मुक्त-ग्रन्थि रहित-अनासक्त, लघुक-हलके, अल्प उपधिवाले निरवकांक्ष-अप्राप्त पदार्थ की आकांक्षा से रहित साधु-मोक्ष के साधक और निभृत- प्रशान्त वत्तिवाले होकर धर्म का आचरण करते थे। विवेचन - इस सूत्र में संसार सागर का और उसे तैरने का सांगोपांग वर्णन किया गया है। पहले सूत्रों में जितेन्द्रियादि विशेषण आ चुके हैं। पुन: इस सूत्र में भी ये विशेषण आये हैं। किन्तु इसे पनरुक्ति दोष नहीं समझना चाहिए। क्योंकि यह अनगार के गुणों का कीर्तन है। गुणवर्णन या स्तुति आदि में पुन:पुनः गुणवर्णन दूषण नहीं माना जाता है। जैसा कि टीका में कहा है - - ... सज्झाय-झाण-तव-ओसहेसु, उवएसु थुइ-पयाणेसु। संत-गुण-कित्तणासु य, ण हुंति पुनरुत्त दोसा उ॥ - - दूसरी बात कहीं श्रमणत्व गुण के व्याख्यान में तो कहीं स्थविरों के लक्षणों के कथन में ये विशेषण आये हैं। अत: थोड़ा बहुत अर्थ में अन्तर अवश्य रहता है और भिन्न व्यक्तित्वों के विषय में कथन होने से भी पुनरुक्ति दोष नहीं माना जा सकता है। देवों का आगमन २२- तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवओ महावीरस्स बहवे असुरकुमारा देवा अंतियं पाउब्भवित्था। भावार्थ - उस काल और उस समय में श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के समीप बहुत से असुरकुमार देव प्रकट हुए। For Personal & Private Use Only Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९४ उववाइय सुत्त देवों का शरीर और शृङ्गार काल-महाणील-सरिस-णील-गुलिय-गवल-अयसि-कुसुमप्पगासा। भावार्थ - उनका वर्ण-काली महानील मणि के समान था और नीलमणि, गुलिका, भैंसे के सींग और अलसी के फूल के समान दीप्ति थी। वियसिय-सयपत्तमिव पत्तल-णिम्मल-ईसिं-सितरत्त-तंब णयणा गरुलायतउज्जु-तुंग-णासा। भावार्थ - विकसित शतपत्र-कमल के समान निर्मल पक्ष्मल- बरौनीवाले कुछ-कुछ सफेद, लाल और ताम्रवर्ण वाले उनके नयन थे। उनकी नासिका गरुड़ की नाक-सी लम्बी, सीधी और ऊँची थी। उअचिय-सिल-प्पवाल-बिंबफल-सण्णि-भाहरोट्ठा। भावार्थ - संस्कारित शिला-प्रवाल और बिम्बफ़ल के समान लाल अधरोष्ठ थे। पंडुर-ससि-सकल-विमल-णिम्मल संख गोक्खीर-फेण-दगरय मुमालियाधवल-दंत सेढी। भावार्थ - उनके दांतों की पंक्ति निष्कलङ्क चन्द्र के टुकड़े, निर्मल शंख, गाय के दूध, फेन, जलकण और कमलनाल के समान सफेद थी। हुयवह णिद्धंत-धोय-तत्त-तबणिज-रत्त-तल-तालु-जीहा अंजण घणकसिण-रुयग-रमणिज-णिद्धकेसा भावार्थ - उनके हाथ-पैर के तलवे, तालु और जीभ, अग्नि से निर्मल बने हुए तपे हुए स्वर्ण के समान लाल थे। अञ्जन और मेघ के समान काले और रुचक मणि के समान रमणीय और स्निग्ध बाल थे। वामेग कुंडलधरा अहचंदणाणुलित्त गत्ता। भावार्थ - उनके बायें कान में एक-एक कुण्डल था। उनके शरीर पर चन्दन का गीला लेप लगा हुआ था। ईसिं-सिलिंध-पुष्फ-प्पगासाइं सुहुमाइं असंकिलि-ट्ठाइं वत्थाई पवर-परिहिया। भावार्थ - वे शिंलिध्र पुष्प के समान दीप्ति वाले कोमल-पतले और दूषण रहित वस्त्रों को उत्तम ढंग से पहने हुए थे। विवेचन - यहाँ मूल में 'सिलिंध' शब्द है। जिसका अर्थ टीकाकार ने 'ईषत् सित्' अर्थात् 'कुछ सफेद' किया है और मतान्तर में 'असुरेसु होंति रत्ता' ऐसा दिया है सो यह पाठ पन्नवणा सूत्र के दूसरे पद का है जिसका अर्थ टीकाकार ने 'इषत् रक्तानि' अर्थात् 'साधारण लाल' बताया है। यह लाल वस्त्र अर्थ ठीक मालूम पड़ता है। For Personal & Private Use Only Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवों का शरीर और शृङ्गार वयं च पढमं समइक्कंता, बितियं च वयं असंपत्ता, भद्दे जोव्वणे वट्टमाणा। भावार्थ - वे पहली वय-बाल अवस्था से पार पहुंचते हुए और दूसरी वय-यौवन अवस्था को नहीं पाये हुए-भद्र-यौवन- कुमार अवस्था में स्थित थे। विवेचन - वय के विषय में टीकाकार ने निम्नलिखित श्लोक उद्धृत किया है - आषोडशाद्भवेद्बालो, यावत् क्षीराननिवर्तकः। मध्यमः सप्ततिं यावत्, परतो वृद्ध उच्यते॥ अर्थात् १६ वर्ष की वय तक बाल, ७० वर्ष की वय तक मध्यम और इसके बाद वृद्ध अवस्था कही जाती है। तलभंगय-तुडीय-पवर-भूसण-णिम्मल-मणि-रयण-मंडियभुया (दस-मुद्दा मंडियग्ग-हत्था)। - उनकी भुजाएँ मणिरत्नों से बने हुए अति श्रेष्ठ तल भंगक- बाहु के आभरण, त्रुटिका-बाहु रक्षिका या तोड़े और निर्मल भूषणों से सुशोभित थी। दसों अंगुलियों में पहनी हुई अंगुठियों से उनके हाथ सुशोभित थे। चूलामणि चिंधगया भावार्थ - उनके चूडामणि-शिरोमणि रूप में चिह्न थे अर्थात् उनके मुकूट में चूड़ामणि का चिह्न था। सुरूवा महिड्डिया महजुइया महब्बला महायसा महासोक्खा महाणुभागा। भावार्थ - वे सुरूप, महर्द्धिक-विशिष्ट भवन परिवारादि वाले, महती द्युति के धनी, महाबली, महासौख्य के स्वामी और महानुभाग-अचिन्त्य शक्ति से सम्पन्न थे। - हार विराइय वच्छा, कडग-तुडिय थंभिय-भुया अंगय-कुंडल-मट्ठ-गंडतलकण्ण-पीढ-धारी विचित्तवत्थाभरणा, विचित्त-माला-मउलि-मउडा, कल्लाण-कयपवर-वत्थ-परिहिया, कल्लाण-कय-पवर-मल्लाणुलेवणा, भासुरबोंदी, पलंब वण मालधरा। भावार्थ - उनके वक्षस्थल हार से सुशोभित थे। उनकी भुजाएँ कंकणों और बाहुरक्षिका से स्तंभित-स्थिर बन रही थीं। वे भुजबंध, कुण्डल, सुन्दर स्वच्छ कपोल या कस्तुरी से चित्रित गण्डस्थल वाले और कर्णपीठ-कान के आभूषण के धारक थे। उनके वस्त्राभरण या हस्ताभरण विचित्र थे। उनके मस्तकों पर विचित्र पुष्पमालाओं से युक्त मुकुट थे। वे कल्याणकारी श्रेष्ठ फूलों और विलेपनों से युक्त, शुलती हुई मालाओं और सभी ऋतुओं के पुष्पों से बनी हुई घुटनों तक लटकती हुई मालाओं से विभूषित प्रकाशमान् देह वाले थे। दिव्वेणं वण्णेणं, दिव्वेणं गंधेणं, दिव्वेणं रूवेणं, दिव्वेणं फासेणं, दिव्वेणं For Personal & Private Use Only Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उववाइय सुत्त संघाएणं, दिव्वेणं संठाणेणं, दिव्वाए इड्डिए, दिव्वाए जुत्तिए, दिव्वाए पभाए, दिव्वाए छायाए, दिव्वाए अच्चिए, दिव्वेणं तेएणं, दिव्वाए लेसाए, दस दिसाओ उजोवेमाणा, पभासेमाणा, समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियं आगम्मागम्म, रत्ता समणं भगवं महावीरं तिक्खत्तो आयाहिणं पयाहिणं करेड। भावार्थ - वे देव दिव्य वर्ण, दिव्य गन्ध, दिव्य रूप, दिव्य स्पर्श, दिव्य संहनन-शारीरिक गठन, दिव्य संस्थान-आकार, दिव्य ऋद्धि, दिव्य द्युति, दिव्य प्रभा, दिव्य छाया-कान्ति, दिव्य अर्चि- शरीरस्थ रत्नादि की तेजोज्वाला, दिव्य तेज और दिव्य लेश्या- शारीरिक वर्ण से दशों दिशाएँ प्रकाशित करते हुए-शोभायमान करते हुए, भगवान् महावीर के समीप में बारम्बार आ-आ कर अनुराग सहित श्रमण भगवान महावीर की तीन बार आदक्षिणा प्रदक्षिणा करते थे। विवेचन - यहाँ देवों में "दिव्य संहनन' कहा है, उसका आशय यहाँ पर यह है-हड्डियों की रचना विशेष को संहनन कहते हैं। यह औदारिक शरीर की अपेक्षा समझना चाहिये। देवों का शरीर वैक्रिय होने से उसमें हड़ियाँ नहीं होती हैं। अतः यहाँ हड़ियों की रचना रूप संहनन नहीं समझना चाहिए, किन्तु उनकी शक्ति विशेष की अपेक्षा शरीर की दृढता होने से संहनन की तरह दिखाई देने से 'दिव्य संहनन' बतलाया है। टीकाकार ने 'वज्र ऋषभनाराच' अर्थ किया है. इसका यही अर्थ समझना चाहिए कि वज्रऋषभनाराच की तरह दृढ़। करेत्ता. वंदंति णमंसंति। वंदित्ता णमंसित्ता साइं साइं णाम गोयाइं साविंति णच्चासण्णे णाइदूरे सुस्सूसमाणा णमंसमाणा अभिमुहा विणएणं पंजलिउडा पज्जुवासंति। वन्दना नमस्कार करते थे और अपना-अपना नाम और गोत्र बतलाते थे। फिर न अधिक नजदीक न अधिक दूर स्थित रहकर भगवान् की ओर मुख रख कर, विनय सहित दोनों हाथ जोड़ कर पर्युपासना कर रहे थे। भवनपति देवों का वर्णन २३- तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवओ महावीरस्स बहवे असुरिंदवजिया भवणवासी देवा अंतियं पाउब्भवित्था-णागपइणो सुवण्णा, विजू अग्गीया दीवा उदही दिसाकुमारा य पवणथणिया य भवणवासी। णागफडा- गरुल-वयर-पुण्णकलस-सीह हयवर, गयंक मयरंक वरमउड वद्धमाण-णिजुत्त विचित्त-चिंधगया सुरूवा महिड्डिया सेसं तं चेव जाव पज्जुवासंति। । भावार्थ - उस काल और उस समय में, श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के समीप, असुरेन्द्र को छोड़कर, अन्य बहुत से नागकुमार, सुवर्णकुमार, विद्युत्कुमार, अग्निकुमार, द्वीपकुमार, उदधिकुमार, For Personal & Private Use Only Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवों का शरीर और शृङ्गार दिशाकुमार, पवनकुमार और स्तनितकुमार जाति के भवनवासी देव प्रकट हुए। उनके यथा स्थान से विचित्र- विविध चिह्न नियुक्त थे यथा - १. नागफण २. गरुड ३. वज्र ४. पुण्यकलश ५. सिंह ६. अश्व ७. हाथी ८. मगर और ९. वर्द्धमानक- शराव चिह्न से अङ्कित मुकुट थे । वे सुरूप महर्द्धिक आदि असुरकुमार देवों के वर्णन के समान है, यहाँ तक "पर्युपासना कर रहे थे।' विवेचन - नागकुमार देवों के मुकुट में नाग की फना का चिह्न होता है, सुवर्णकुमार के मुकुट में गरुड का, विद्युतकुमार के मुकुट में वज्र का अग्निकुमारों के पूर्ण कलश का, द्वीपकुमारों के सिंह का, उदधिकुमारों के घोड़े का, दिशाकुमारों के हाथी का, पवनकुमारों के मगर का और स्तनितकुमारों के वर्द्धमान स्वस्तिक का चिह्न होता है। ये सब चिह्न इन देवों के मुकुटों में होते हैं। "यहाँ असुरेन्द्र को छोड़कर " कहा है। इसका आशय यह है कि असुरकुमार जाति के देवों का वर्णन पहले आ चुका है। ९७ वाणव्यंतर देवों का वर्णन २४ - तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवओ महावीरस्स बहवे वाणमंतरा देवा अंतियं पाउब्भवित्था । भावार्थ - उस काल और उस समय में, श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के समीप, बहुत से वाणव्यन्तर देव प्रकट हुए। पिसाया १, भूयाय २, जक्ख ३, रक्खस ४, किंनर ५, किंपुरिस ६, भुयगवइणो महाकाया ७, गंधव्वणिकायगणा (गंधव्व पड़ गणा) णिउण गंधव्व गीयरइणो ८, अणपणिय ९, पणपणिय १०, इसिवाइय ११, भूयवाइय १२, कंदिय १३, महाकंदिया १४, कुहंड १५, प य १६, देवा । भावार्थ- वाणव्यन्तर देव निम्नलिखित जाति के थे - १. पिशाच, २. भूत, ३. यक्ष, ४. राक्षस, ५. किन्नर, ६. किंपुरुष, ७. महाकाय महोरग, ८. अति ललित गंधर्व नाट्य गीत और गीत- नाट्य वर्जित गेयगीत या संगीत में रति- आसक्ति - प्रीति रखने वाले गंधर्वनिकाय - गंधर्व जाति के गण, ९. अणपण्णिय, १०. पणपण्णिय, ११. ऋषिवादिक, १२. भूतवादिक, १३. क्रंदित, १४. महाक्रन्दित, १५. कुष्माण्ड और १६. प्रयत देव । चंचल-चवल-चित्त- कीलण दव-प्पिया गंभीर - हसिय- भणिय-पीय-गीय णच्चण-रई। भावार्थ- वे देव चञ्चल - चपल - अति चञ्चल चित्तवाले, क्रीड़ा और परिहास प्रिय थे। उन्हें Safaा प्रयोग प्रिय था। वे गीत और नृत्य में रतिवाले - आसक्त थे । वणमाला मेल -मउड - कुंडल - सच्छंद - विउव्विया - भरण- चारू - विभूसण-धरा For Personal & Private Use Only Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९८ उववाइय सुत्त सव्वोउय-सुरभि-कुसुम-सुरइय-पलंब-सोहंत-कंत-वियसंत-चित्त-वणमाल-रइयवच्छा कामगमी कामरूवधारी। भावार्थ - वे वनमाला, फूलों का सेहरा-आमेलक, मुकुट, कुण्डल, अपनी इच्छा के अनुसार विकुक्ति -विविध रूप बनाने की शक्ति से निर्मित, अलंकार और सुन्दर आभूषणों को पहने हुए थे। सभी ऋतुओं में उत्पन्न होने वाले सुगन्धित फूलों से सुन्दर ढंग से बनी हुई लम्बी मालाओं और शोभित, कान्त, विकसित एवं विचित्र वनमालाओं से उनके वक्षस्थल सुशोभित थे। वे इच्छागामी- जहां जाने का हो, वहां जाने की इच्छा करते ही उस स्थान पर पहुँच जाने वाले या इच्छित स्थान पर जाने वाले और काम रूपधारी-इच्छा होते ही रूप को पलटने की शक्तिवाले या इच्छित रूप के धारक थे। ___णाणाविह-वण्ण-राग-वर-वत्थ-चित्त-चिल्लिय-णियंसणाविविह-देसी-णेवत्थग्गहिय-वेसा। भावार्थ - वे नाना भाँति के वर्ण-रंगवाले, श्रेष्ठ वस्त्र और विविध भड़कीले परिधान-पहनावा के धारक थे। विविध देशारूढ़ वेश-भूषाएँ, उन्होंने ग्रहण कर रखी थी। .. पमुइय-कंदप्प-कलह-केलि-कोलाहल-प्पिया हास-बोल (केलि) बहुला। भावार्थ - वे प्रमुदित कन्दर्प-काम प्रधान क्रीड़ा, कलह राटी-रार, केलि-क्रीड़ा और कोलाहल में प्रीति रखने वाले थे। वे बहुत हँसने वाले और अधिक बोलने वाले थे। अणेग-मणि-रयण-विविह-णिजुत्त-विचित्त-चिंधगया सुरूवा महिड्डिया जाव पन्जुवासंति। भावार्थ - उन वाणव्यन्तर देवों के अनेक मणि-रत्नमय नियुक्त विविध एवं विचित्र चिह्न थे। वे सुरूप, महर्द्धिक थे-यावत् पर्युपासना करने लगे। विवेचन - पिशाच जाति के देवों के मुकुट के चिह्न कदम्बध्वज, भूत जाति के सुलस और यक्ष जाति के वट (बड़), राक्षस जाति के खट्वांग (मांचा), किन्नर जाति के अशोक वृक्ष, किंपुरुष जाति के चम्पक वृक्ष, महाकाल जाति के नाग और गन्धर्व जाति के तुम्बरी (फलविशेष) के चिह्न होते हैं। ज्योतिषी देवों का वर्णन २५-तेणं कालेणं तेणंसमएणंसमणस्स भगवओ महावीरस्स जोइसिया देवा अंतियंपाउभवित्था, विहस्सईचंदसूरसुक्क सणिच्चरा राहूधूमकेऊ बुहाय अंगारका य तत्त तवणिज-कणग-वण्णा जे गहा जोइसंमि चारं चरंति। भावार्थ - उस काल और उस समय में भगवान् महावीर स्वामी के समीप ज्योतिष्क देव प्रकट हुए। यथा-बृहस्पति, चन्द्र, सूर्य, शुक्र, शनिश्चर, राहू, धूमकेतु, बुद्ध और अंगारक-मंगल-जो कि तपे हुए स्वर्णबिन्दु के समान वर्ण वाले हैं-एवं वे ग्रह, जो ज्योतिष्चक्र में भ्रमण करते हैं वे भगवान् महावीर स्वामी के सेवा में आये। For Personal & Private Use Only Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवों का शरीर और शृङ्गार विवेचन - 'जे य गहा...' इस सूत्र में 'य' पद से बृहस्पति आदि नवग्रहों के सिवाय अन्य ग्रहों को ग्रहण किया गया है। क्योंकि मनुष्य लोक में और मनुष्य लोक के बाहर एक एक चन्द्र सूर्य रूप युगल के ८८-८८ ग्रह होते हैं। केऊ य गइरइया। अट्ठावीसविहा य णक्खत्त-देवगणा। णाणासंठाण-संठियाओ पंचवण्णाओ ताराओ। ठियलेस्सा चारिणो य अविस्साम-मंडल गई। पत्तेयं णामंकपागडिय-चिंध-मउडा। महिड्डिया जाव पजुवासंति। भावार्थ - गतिशील केतु अथवा नाना प्रकार वाले अट्ठाईस प्रकार के नक्षत्र देवगण और पांचों वर्ण के तारा जाति के देव सेवा में आये। उनमें स्थित-गति रहित रह कर प्रकाश करने वाले और निरन्तर-अविश्राम मण्डलाकार गति से चलने वाले दोनों तरह के ज्योतिष्क देव थे। प्रत्येक ने स्वनामाङ्कित विमान के चिह्न से मुकुट धारण किये थे। वे महर्द्धिक थे.... यावत् पर्युपासना करने लगे। विवेचन - 'धूमकेतु' के अतिरिक्त जलकेतु' आदि केतुओं का 'केऊ य गइरइया' पदों के द्वारा उल्लेख किया गया है। 'गइरइया' (गति में आनन्दानुभव करने वाले) विशेषण लोक की अपेक्षा से दिया गया है। नक्षत्रों के लिये 'देवगण' विशेषण प्रयोग हुआ है। क्योंकि कई नक्षत्र अनेक ताराओं के समूह के रूप में हैं। अत: वे नाना संस्थान वाले हैं। यह बात पन्नवणा के दूसरे स्थानपद से भी स्पष्ट होती है। वैमानिक देवों का वर्णन ... २६-तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवओ महावीरस्स वेमाणिया देवा अंतियं पाउब्भवित्था। सोहम्मीसाण-सणंकुमार-माहिद-बंभ-लंतक-महासुक्कसहस्साराणय-पाणयारण-अच्चुपवईपहिट्ठादेवा।जिण-दंसणुस्सगागमण-जणियहासा। • भावार्थ. - उस काल और उस समय में श्रमण भगवान् महावीर स्वामी की सेवा में सौधर्म, ईशान, सनत्कुमार, माहेन्द्र, ब्रह्म, लांतक, महाशुक्र, सहस्रार आणत, प्राणत, आरण और अच्युत देव लोकों के पति इन्द्र आये। वे सब देव अत्यन्त प्रसन्न थे। वे जिन-रागद्वेष विजेता तीर्थङ्कर भगवान् के दर्शन पाने को उत्सुक और आगमन से उत्पन्न हुए हर्ष से युक्त थे। पालक-पुप्फक-सोमणस-सिरिवच्छ-णंदियावत्त-कामगम-पीइगम-मणोगमविमल-सव्वओभह-णामधिजेहिं विमाणेहिं ओइण्णा वंदका जिणिंदं। - भावार्थ - वे जिनेन्द्र के वन्दक-वन्दना करने वाले देव १. पालक २. पुष्पक ३. सौमनस ४. श्रीवत्स ५. नन्द्यावर्त ६. कामगम ७. प्रीतिगम ८. मनोगम ९. विमल और १०. सर्वतोभद्र नाम के विमानों द्वारा स्वर्ग से उतरकर इस तिरछा लोक की पृथ्वी पर आये। विवेचन - बारह देवलोक के दस इन्द्र माने गये हैं। पालक आदि जो दस विमानों के नाम ऊपर For Personal & Private Use Only Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०० उववाइय सुत्त बताये गये हैं, वे इन दस इन्द्रों के क्रमशः यान विमान हैं, जिनका अर्थ है जाने आने के लिए काम में आने वाले विमान । मिग-महिस- वराह - छगल-दहुर- हय-गयवइ-भुयग-खग्ग-उस-भंक - विडिमपागडिय - चिंध - मउडा पसिढिल - वर - मउड - तिरीड धारी कुंडल - उज्जोवियाणणा मउड- दित्त - सिरया । भावार्थ - वे इन्द्र १. मृग २. महिष (भैंसा ) ३. वराह (सूअर ) ४. छगल (बकरा ) ५. मेंढक ६. घोडा ७. गजपति (श्रेष्ठ हाथी) ८. भुजंग (सर्प) ९. खग्ग ( गेंडा) और १०. वृषभ (सांड) के चिह्नों से चिह्नित मुकुटों को पहने हुए थे। वे मुकुट ढीले बन्धन वाले थे। कानों के कुण्डलों की प्रभा से उनके मुख उद्योत से युक्त हो रहे थे और मुकुटों से उनके शिर दीप्त थे। रत्ताभा पउमपम्हगोरा सेया सुभ-वण्ण-गंध- पासा - उत्तम - विउव्विणो विविहवत्थगंधमल्लधरा महिड्डिया महज्जुइया जाव पंजलिउडा पज्जुवासंति । भावार्थ - वे लाल वर्ण वाले कमलगर्भ 'समान पीले वर्ण वाले- पद्मगौर और सफेद वर्णवाले थे। वे उत्तम वैक्रिय करने की शक्ति वाले थे। विविध वस्त्र, गन्ध और माल्य के धारक, महर्षिक, महातेजस्वी.....यावत् हाथ जोड़कर पर्युपासना करने लगे । विवेचन - वैमानिक देवों के शरीर के तीन रंग होते हैं। पहले और दूसरे स्वर्ग के देवों के शरीर का रंग लाल, तीसरे चौथे और पांचवें स्वर्ग के देवों के शरीर का वर्ण पीला और आगे के स्वर्गों के देवों के शरीर का सफेद वर्ण होता है। चम्पा नगरी में लोकवार्त्ता २७- तेणं कालेणं तेणं समएणं चंपाए णयरीए सिंघाडग तिग चउक्क चच्चर चउम्मुह महापहपहेसु बहुजणसद्दे इ वा । महया जणसद्दे इ वा, जणवूहे इ वा, जणबोले इवा, जण कलकले इ वा, जणुम्मी इ वा, जणुक्कलिया इ वा, जणसण्णिवाए इ वा । भावार्थ - उस काल उस समय में चम्पा नगरी के सिंघाटकों में- सिंगाड़े के से करवा तिकोन स्थानों में, त्रिकों-जहां तीन मार्ग मिलते हैं ऐसे स्थानों में, चतुष्कों - चौक, चार रास्ते मिलते हैं ऐसे स्थानों में, चत्वरों-बहुत से मार्ग मिलते हैं ऐसे स्थानों में, चतुर्मुखों चौमुखे देवकुलों में, महापथराजमार्ग में और पथों - बाजार और गलियों में मनुष्यों का आपसी बातचीत से बहुत ही शब्द हो रहा था । वहां बहुत जनवृन्द था अथवा आपस में विचार-विमर्श हो रहा था। फुसफुसाहट की आवाज (अव्यक्त ध्वनि) आ रही थी । जनता में कलकल ध्वनि हो रही थी। लोग (जन) समुदाय उमड़ रहा था । छोटे छोटे झुण्ड के रूप में जन घूम रहे थे और एक स्थान से हटकर, दूसरे स्थान पर इकट्ठे हो रहे थे । For Personal & Private Use Only Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चम्पा नगरी में लोकवार्ता बहुजणो अण्णमण्णस्स एवमाइक्खइ, एवं भासइ, एवं पण्णवेइ, एवं परूवेइ'एवं खलु देवाणुप्पिया! समणे भगवं महावीरे, आइगरे तित्थयरे सयंसंबुद्धे, पुरिसुत्तमे जाव संपाविउकामे, पुव्वाणुपुव्विं चरमाणे, गामाणुगामं दूइज्जमाणे, सुहं सुहमेणं विहरमाणे, इहमागए, इह संपत्ते, इह समोसढे; इहेव चंपाए णयरीए बाहिं पुण्णभद्दे चेइए अहापडिरूवं उग्गहं उग्गिण्हित्ता संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरइ' श्रमण भावार्थ - उनमें बहुत से मनुष्य एक दूसरे को इस प्रकार सामान्य रूप से कहते थे,.... विशेष रूप से कहते थे,....प्रकट रूप से एक ही आशय को भिन्न भिन्न शब्दों के द्वारा प्रकट करते थे, इस प्रकार कार्य-कारण की व्याख्या सहित तर्क युक्त कथन करते थे- 'हे देवानुप्रिय ! बात ऐसी है कि भगवान् महावीर स्वामी जो कि स्वयं सम्बुद्ध आदिकर्त्ता और तीर्थंकर हैं, पुरुषोत्तम हैं.... यावत् सिद्धि गति रूप स्थान की प्राप्ति के लिये प्रवृत्ति करने वाले हैं - वे क्रमशः विचरण करते हुए एक गाँव से दूसरे गाँव को पावन करते हुए और सुखपूर्वक अर्थात् संयम और शरीर को खेद न हो इस प्रकार विहार करते हुए यहां पधारे हैं, यहां ठहरे हैं, यहां विराजमान हैं। इसी चम्पा नगरी के बाहर, पूर्णभद्र उद्यान में, संयमियों के योग्य स्थान को ग्रहण करके, संयम और तप से आत्मा को भावित करते हुए यहाँ विराजमान है। १०२ - तं महम्फलं खलु भो देवाणुप्पिया ! तहारूवाणं अरिहंताणं भगवंताणं णामगोयस्स वि सवणयाए; किमंग पुण अभिगमण वंदण णमंसण पडिपुच्छण पज्जुवासणयाए ? भावार्थ - 'हे देवानुप्रिय ! तथारूप महाफल की प्राप्ति कराने रूप स्वभाववाले अर्थात् अरिहन्त के गुणों से युक्त अरिहन्त भगवान् के नाम गोत्र को भी सुनने से महाफल की प्राप्ति होती है, तो फिर पास में जाने से, स्तुति करने से, नमस्कार करने से, संयम यात्रादि की समाधिपृच्छा करने से और उनकी सेवा करने से होने वाले फल की तो बात ही क्या ?' अर्थात् निश्चय ही महाफल की प्राप्ति होती है। 'एगस्स वि आयरियस्स धम्मियस्स सुवयणस्स सवणयाए, किमंग पुण विउलस्स अत्थस्स गहणयाए ? भावार्थ - उनके एक भी आर्य-श्रेष्ठ गुणों को प्राप्त कराने वाले और धार्मिक - निज स्वरूप को प्राप्त कराने वाले मार्ग के लक्ष्य वाले उत्तम वचन को सुनने से और विपुल अर्थ के ग्रहण करने से होने वाले फल की तो बात ही क्या है ? 'तं गच्छामो णं देवाणुप्पिया ! समणं भगवं महावीरं, वंदामो णमंसामो सक्कारेमो सम्माणेमो, कल्लाणं मंगलं देवयं चेइयं विणएणं पज्जुवासामो । भावार्थ - 'इसलिए हे देवानुप्रिय ! चलो हम सब - श्रमण भगवान् महावीर स्वामी की सेवा में चलें। उनकी स्तुति करें। उन्हें नमस्कार करें। उनका सत्कार करें। सन्मान करें। उन कल्याण के हेतु For Personal & Private Use Only Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्रनाइय सुत्त रूप, दुरितशमन-पापनाश के हेतुरूप, दिव्य स्वरूप अथवा दिव्य स्वरूप की प्राप्ति में हेतुरूप और ज्ञान स्वरूप अथवा ज्ञान प्राप्ति के हेतुरूप या निज स्वरूप की स्मृति के हेतुरूप की विनय से पर्युपासनासेवा करें। ___ एयं णे पेच्चभवे इहभवे य परभवे य हियाए सुहाए खमाए णिस्सेयसाए आणुगामियत्ताए भविस्सइ'. भावार्थ - 'वह हमारे द्वारा की गई भगवद् वंदना आदि परभव में और इस भव में पथ्य के समान हित के लिये, सुख के लिये, परिस्थितियों को साधना के अनुकूल बना लेने के लिये और मोक्ष के लिये या भव-परम्परा में मोक्षमार्ग में बाधक नहीं होने वाले सुखलाभ के लिये, हमें कारण रूप बनेंगी। भगवान् के पास जनसमूह का गमन - ' तिकट्टबहवे उग्गा उग्गपुत्ता, भोगा भोगपुत्ता- एवंदुपडोयारेणंराइण्णा, खत्तिया, माहणा, भडा, जोहा, पसत्यारो, मल्लई, लेच्छई, लेच्छईपुत्ता, अण्णे य बहवे राईसरतलवर-माडंबिय-कोडुबिय-इब्भ-सेट्ठि-सेणावइ-सत्थवाह-पभिइओ, अप्पेगइया वंदणवत्तियं, अप्पेगइया पूयणवत्तियं-एवं सक्कार-वत्तियं सम्माणवत्तियं दंसणवत्तियं कोऊहलवत्तियं। __ भावार्थ - इस कारण बहुत से उग्र-ऋषभदेव के द्वारा स्थापित आरक्ष के वंशज, उग्रपुत्र-कुमार अवस्था वाले उग्रवंशी, भोग-ऋषभदेव के द्वारा गुरु रूप से स्थापित व्यक्तियों के वंशज अर्थात् पुरोहित, भोगपुत्र, राजन्य-ऋषभदेव के वयस्यों के अर्थात् समान उम्र वाले मित्रों के वंशज, राजन्यपुत्र, क्षत्रियसामान्य राजकुलीन, क्षत्रियपुत्र, ब्राह्मण, ब्राह्मणपुत्र, भट-शूर, भटपुत्र, योद्धा, योद्धापुत्र, प्रशास्ता-धर्मशास्त्र पाठक, प्रशास्तृपुत्र, मल्लकी- राजविशेष, मल्लकिपुत्र, लिच्छवी, लिच्छवीपुत्र और भी बहुत से माण्डलिक राजा, युवराज, तलवर-पट्टबंध-विभूषित राजस्थानीय पुरुष, माडम्बिक-एक जाति के नगर के अधिपति, कौटुम्बिक, इभ्य, श्रेष्ठि- श्री देवता' अंकित सुवर्णपट्ट-विभूषित धनपति, सेनापति, सार्थवाह आदि में से कई वन्दना करने के लिये, कई पूजा करने के लिये, कई सत्कार-सन्मान करने के लिये, कई दर्शन करने के लिये, तो कई कुतूहलवश भगवान् के पास जाने को तैयार हुए। ___ अप्पेगइया अट्ठविणिच्छय हेउं-अस्सुयाइं सुणे-स्सामो, सुयाई णिस्संकियाई करिस्सामो; अप्पेगइया अट्ठाइं हेऊइं कारणाई वागरणाइं पुच्छिस्सामो। भावार्थ - कई लोग अर्थ निर्णय के लिये-'नहीं सुने हुए भाव सुनेंगे, सुने हुए भावों को संशयरहित बनाएँगे', कई-'जीवादि अर्थ, पदार्थों में रहे हुए धर्म और नहीं रहे हुए धर्म से सम्बन्धित For Personal & Private Use Only Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान् के पास जनसमूह का गमन १०३ अन्वय-व्यतिरेक हेतु, कारण-तर्क संगत या युक्तियुक्त व्याख्या और व्याकरण-दूसरों के द्वारा पूछे गये अर्थों के उत्तर पूछेगे'____ अप्पेगइया सव्वओ समंता मुंडे भवित्ता, अगाराओ अणगारियं पव्वइस्सामो, पंचाणुवइयं सत्तसिक्खावइयं दुवालसविहं गिहि धम्म पडिवग्जिस्सामो, अप्पेगइया जिण भत्तिरागेणं, अप्पेगइया जीयमेयं, त्ति कट्ट ण्हाया कयबलिकम्मा कयकोऊयमंगलपायच्छित्ता, सिरसा-कंठेमालकडा आविद्ध-मणिसुवण्णा कप्पियहारद्धहारतिसरय-पालंब-लंबमाणकडिसुत्तय-सुकय-सोहाभरणा पवरवत्थपरिहिया चंदणोलित्तगायसरीरा। भावार्थ - कई-'सभी से अपने सब भांति के सम्बन्धों का विच्छेद करके, गृहवास से निकलकर, अनगारधर्म को स्वीकार करेंगे' या पांच अणुव्रत और सात शिक्षाव्रत रूप गृहिधर्म-श्रावक धर्म को स्वीकार करेंगे, कई जिनभक्ति के राग से और कई-'यह जीत व्यवहार-दर्शन करने को जाना-हमारी वंश-परंपरा का व्यवहार है'- इस प्रकार विचार करके स्नान किया, बलिकर्म (अर्थात् तेल मालिश, उबटन आदि स्नान सम्बन्धी सारा कार्य) कौतुक और मंगल रूप प्रायश्चित्त करके, सुन्दर वस्त्रों से सुसज्जित हुए। उन्होंने शिर पर और कण्ठ में मालाएँ धारण की। मणि-सुवर्ण जडित अलंकार पहनें। सुन्दर हार, अर्द्धहार, तीन लडियों वाले हार, कटिसूत्र और अन्य भी शोभा बढ़ाने वाले आभरण धारण किये। देह के अवयवों पर चन्दन का लेप लगाया। __ अप्पेगइया हयगया, एवं गयगया रहगया जाण-गया जुग्गगया गिल्लिगया थिल्लिगया पवहणगया सिवियागया संदमाणियागया, अप्पेगइया पायविहारचारिणो पुरिसवग्गुरापरिक्खित्ता महया उक्किट्ठ-सीहणायबोल-कलकलरवेणं पक्खुब्भियमहासमुद्दरवभूयंपिव करेमाणा पायदइरेणं भूमिं कंपे-माणा अंबरतलमिव फोडेमाणा एगदिसिं एगाभिमुहा। ___ भावार्थ - कई घोड़े पर बैठे। इसी प्रकार हाथी, रथ, यान अर्थात् गाड़ी पर बैठे हुए, युग्य अर्थात् गोल्लदेश में प्रसिद्ध पालखी जो कि दो हाथ प्रमाण चार कोने वाली वेदिका से सुशोभित, गिल्लि अर्थात् हाथी पर रखे हुए अम्बाड़ी के समान सवारी, थिल्लि अर्थात् लाट देश में प्रसिद्ध पालखी विशेष, प्रवहन अर्थात् वेगसर नाम की सवारी शिविका-कूटाकार ढंकी हुई पालखी और स्यंदमाणिका-पुरुष प्रमाण लम्बी पालखी पर सवार हुए,तो कई पैदल ही चारों ओर पुरुषों से घिरे हुए, आनन्द-महाध्वनि, सिंहनाद, बोल और कलकल महान् शब्द से सारी नगरी को, घोष से युक्त क्षुभित महासमुद्र के तुल्यसी करते हुए एवं पैरों से धरती को कम्पित करते हुए तथा आकाश को स्फुटित करते हुए जिधर भगवान् विराजते थे उस दिशा की तरफ मुख करके चले। For Personal & Private Use Only Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उववाइय सुत्त चंपाए णयरीए मज्झंमज्झेणं णिगच्छंति । णिगच्छित्ता जेणेव पुण्णभद्दे चेइए, तेणेव उवागच्छंति । भावार्थ - चम्पा नगरी के मध्य से होकर निकले। फिर जहां पूर्णभद्र उद्यान था वहां आये । उवागच्छित्ता समणस्स भगवओ महावीरस्स अदूरसामंते छत्ताइए तित्थयराइसेसे १०४ पासंति । भावार्थ - कुछ नजदीक आने पर श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के तीर्थंकर रूप से परिचय देने वाले छत्राति छत्र आदि अतिशय देखें। पासित्ता जाण वाहणारं ठावइंति । ठावइत्ता जाणवाहणेहिंतो पच्चोरुहंति । पच्चोरुहित्ता जेणेव समणे भगवं महावीरे, तेणेव उवागच्छंति । भावार्थ - अतिशयों को देखकर, यान, गाड़ी, रथ आदि और वाहन बैल, अश्व आदि को ठहराये और उनसे नीचे उतरे। फिर जहां श्रमण भगवान् महावीर स्वामी थे वहां आये । उवागच्छित्ता समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो आयाहिणं पयाहिणं करेंति । करिता वंदंति णमंसंति । भावार्थ- वहां आकर, श्रमण भगवान् महावीर स्वामी की तीन बार आदक्षिणा- प्रदक्षिणा की; स्तुति : की और उन्हें नमस्कार किया। वंदित्ता णमंसित्ता णच्चासण्णे णाइदूरे सुस्सूसमाणा णमंसमाणा अभिमुहा विणएणं पंजलिउडा पज्जुवासंति । भावार्थ- स्तुति - नमस्कार करके, भगवान् की ओर मुख रखकर, विनय से दोनों हाथ जोड़कर, न अधिक नजदीक और न अधिक दूर ऐसे स्थान पर स्थित होकर, नमस्कार मुद्रा से श्रवण करते हुए, पर्युपासना - सेवा करने लगे। कोणिक को भगवान् की दिन चर्या का निवेदन २८ - तएण से पवित्तिवाउए इमीसे कहाए लद्धट्टे समागे हट्ठतुट्ठे जाव हियए । हाए जाव अप्पमहग्घा -भरणालंकियसरीरे, सयाओ गिहाओ पडिणिक्खमइ । भावार्थ - तब भगवान् महावीर स्वामी के आगमन की बात विदित होने पर वह प्रवृत्तिव्यापृतभगवान् की विहारचर्या की खबर रखने वाला मुख्य अधिकारी- इस बात को जानकर, बहुत खुश हुआ... यावत् विकसित हृदय हुआ । उसने स्नान किया.... अल्प भारवाले किन्तु मूल्यवान् आभरणों से शरीर को अलंकृत किया, फिर वह अपने घर से बाहर निकला । For Personal & Private Use Only Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कोणिक राजा का आदेश १०५ सयाओ गिहाओ पडिणिक्खमित्ता चंपा णयरिं मझमझेणं जेणेव बाहिरिया......सव्वेव हेट्ठिल्ला वत्तव्वया जाव णिसीयइ। भावार्थ - वह चम्पा नगरी के मध्य बाजार से होता हुआ जहां कोणिक राजा की बाहरी राजसभा थी....(इसके बाद का सभी वर्णन-जो कि पहले कहा जा चुका है-यहां तक कहना चाहिए, कि - 'कोणिक राजा भगवान् महावीर स्वामी को वंदना-नमस्कार करके, सिंहासन पर बैठा')। णिसीइत्ता तस्स पवित्तिवाउयस्स अद्धतेरस-सयसहस्साइं पीइदाणं दलयइ। दलयित्ता सक्कारेइ सम्माणेइ। सक्कारेत्ता सम्माणेत्ता पडिविसज्जेइ। भावार्थ - कोणिक राजा ने सिंहासन पर बैठकर, उस प्रवृत्तिव्यापृत को साढ़े बारह लाख स्वर्ण की मुद्राओं का प्रीतिदान दिया; सत्कार-सन्मान किया और उसे विसर्जित किया। विवेचन - इस मूल सूत्र में तो चाँदी या स्वर्ण के सिक्कों का उल्लेख नहीं है। किन्तु ग्रन्थान्तर में चक्रवर्ती आदि के प्रीतिदान का उल्लेख है। यथा - वित्ती उ सुवण्णस्सा बारस अद्धं च सय सहस्साइं। तावइय चिय कोडी पीईदाणं तु चक्किस्स॥ एवं चेव पमाणं नवरं रययं तु केसवा दिति। मंडलियाण सहस्सा, पीईदाणं सयसहस्सा॥ इसके अनुसार ही यहां 'स्वर्ण के सिक्के' अर्थ किया है। सुना जाता है कि - सवा सोलह मासे की एक मुद्रा होती है। कोई कोई 'चांदी की मुद्रा'-रूप अर्थ भी करते हैं। कोणिक राजा का आदेश . . २९- तएणं से कोणिए राया भंभसारपुत्ते बलवाउयं। आमतेत्ता एवं वयासी- भावार्थ - तब भंभसार के पुत्र कोणिक राजा ने बलवाउय- बल व्यापृत-सैन्यव्यापार में कुशल या सैन्य कर्मचारी-को बुलाया और वह उससे इस प्रकार बोला खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया ! आभिसेक्कं हत्थिरयणं पडिकप्पेहि। हयगयरहपवरजोहकलियं च चाउरंगिणिं सेणं सण्णाहेहि। भावार्थ - हे देवानुप्रिय ! आभिषेक्य (अभिषेक के योग्य अथवा विधिपूर्वक प्रधानपद पर स्थापित) हस्तिरत्न-श्रेष्ठ हाथी को सजाकर तैयार करो। घोड़े, हाथी, रथ और प्रवर योद्धाओं सहित चार अंगोंवाली सेना को तैयार करो-सजाओ। .. सुभद्दापमुहाण य देवीणं बाहरिया उवट्ठाण-सालाए पाडिएक्कपाडिएक्काई जत्ताभिमुहाई जुत्ताइं जाणाई उवट्ठवेह। . For Personal & Private Use Only Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६ उववाइय सुत्त भावार्थ - सुभद्रा आदि देवियों के, प्रत्येक के लिये गमन करने को तैयार, जुते हुए यानों को बाहरी सभाभवन में उपस्थित करो। चंपं णयरिं सब्भिंतर-बाहिरियं आसित्त-संमजिओवलित्तं सिंघाडग तिग चउक्कचच्चर-चउम्मुह महापहेसु आसित्तसित्तसुइसम्मट्ठ-रत्थं-तरावणवीहिअं मंचाइमंचकलियं। भावार्थ - चम्पा नगरी को बाहर और भीतर से जल से सिञ्चित, कूडेकर्कट से रहित बनवाकर और गोबर आदि से लिपवाकर संघाटग, त्रिक, चौक, चत्वर, चतुर्मुख और महापथों को छिटकाव, जलसिञ्चन और कूडे-कर्कट से रहित स्वच्छता से गलियों के मध्यभागों को-रथ्यान्तर और बाजार के मार्गों- आपणवीथि को मनोरम बनाओ। प्रेक्षकों के बैठने के लिये मञ्चातिमञ्च-सीढ़ियों के आकार के प्रेक्षकासनों की रचना करो। __णाणाविहरागउच्छियज्झयपडागाइपडागमंडियं लाउल्लोइयमहियं गोसीससरसरत्तचंदण जाव गंध-वट्टिभूयं करेह-कारवेह। भावार्थ - विविध रंगों के, ऊँचे किये हुए, सिंह, चक्र आदि चिह्नों से युक्त ध्वज, पताकाएँ और अतिपताकाएँ (ऐसी झण्डियाँ, जिनके आसपास और भी छोटी छोटी झण्डियाँ लगी हों) लगाओ। आँगन आदि लिपवाओ-पुतवाओ और गोशीर्ष चंदन, लालचंदन आदि सुगन्धित द्रव्यों की महक से मार्ग भर दो। ऐसा करो और करवाओ। ___ करित्ता कारवेत्ता एयमाणत्तियं पच्चप्पिणाहि। णिज्जाइस्सामि समणं भगवं महावीरं अभिवंदए। भावार्थ - इस आज्ञा का पालन करके, मुझे इसकी सूचना दो। मैं श्रमण भगवान् महावीर स्वामी की अभिवन्दना के लिये जाऊँगा। अभिवन्दना की तैयारी ३०- तएणं से बलवाउए कोणिएणं रण्णा एवं वुत्ते समाणे हट्टतुट्ठ जाव हियए, करयल-परिग्गहियं सिरसावत्तं, मत्थए अंजलिं कट्ट, एवं वयासी-'सामित्ति'। भावार्थ - तब कोणिक राजा के इस प्रकार कहने पर, उस बलवाउय-सेनानायक का चित्त प्रसन्न हुआ.....यावत् हृदय विकसित हुआ। उसने हाथ जोड़कर, शिर के चारों ओर घुमाये, अञ्जलि को शिर पर लगाई और फिर वह यों बोला-'जी स्वामिन् !' आणाइ विणएणं वयणं पडिसुणेइ। पडिसुणित्ता हत्थिवाउयं आमंतेइ। For Personal & Private Use Only Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - अभिवन्दना की तैयारी १०७ भावार्थ - यों उसने विनय सहित आज्ञा के वचन सुने, सुनकर, 'हत्थिवाउय' - हस्तिव्याप्तमहावत को बुलाया। आमंतेत्ता एवं वयासी - "खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया ! कोणियस्स रण्णो भंभसारपुत्तस्स आभिसेक्कं हत्थिरयणं पडिकप्पेहि। भावार्थ - उसने महावत को बुलाकर, इस प्रकार कहा-'जल्दी ही हे देवानुप्रिय ! भंभसार के पुत्र कोणिक राजा के आभिषेक्य-विधि सहित प्रमुख बनाये गये हस्तिरत्न को सजाकर, तैयार करो। हयगयरहपवरजोहकलियं चाउरंगिणिं सेणं सण्णाहेहि। सण्णाहित्ता एयमाणत्तियं पच्चप्पिणाहि। भावार्थ - और हाथी, घोड़े, रथ एवं श्रेष्ठ योद्धाओं से बनी चार अंगवाली सेना को तैयार करो। ऐसा करके, फिर मुझे आज्ञापालन की सूचना दो। तएणंसेहत्थिवाउए बलवाउस्स एयमढेसोच्चा,आणाएविणएणंवयणंपडिसुणेइ। भावार्थ - तब महावत ने सेनानायक की यह बात सुनकर, आज्ञा के वचन विनय सहित स्वीकार किये। पडिसुणित्ता छेयायरियउवएसमइविकप्पणा-विकप्पेहिं सुणिउणेहिं उजलणेवत्थहत्थपरिवत्थियं। भावार्थ - फिर निपुण छेकाचार्य-शिल्पाचार्य के उपदेश से मंजी हुई बुद्धि और कल्पना के विकल्पों-विविध विचारों से युक्त उस अति चतुर-महावत ने उस हस्ति रत्न को उज्ज्वल नेपथ्यसाजशृंगार, वेशभूषा से शीघ्र ही ढंक दिया। · · सुसजं धम्मियसण्णद्धबद्धकवइयउप्पीलिय-कच्छवच्छ गेवेयबद्धगलवरभूसणविरायंतं अहिय-तेअजुत्तं। भावार्थ - उस हाथी को सुन्दर ढंग से सजाया। धार्मिकों से वह सन्नद्ध-कवच से युक्त-तैयार, बद्धकवच से बंधा हुआ और कवच से युक्त किया गया अथवा धर्मित-कवच के पहनने योग्य हिस्से पहनाये गये, सन्नद्ध-कवच के जोड़ने योग्य भागों को जोड़कर पहनाये गये और बद्ध (बान्धने योग्य कवच के भाग कसे गये) कवचत्राला उसे बनाया। बांधने की रस्सी-कक्षा को वक्षस्थल पर कसी। गले में मालाएं बांधी और अन्य श्रेष्ठ आभूषणों से उसकी शोभा बढ़ाई। अत: वह अत्यन्त तेजस्वी दिखने लगा। 'सललिअवरकण्णपूरविराइयं पलंबउच्चूल-महुयरकयंधयारंचित्तपरिच्छेय-पच्छ्यं। भावार्थ - सूक्ष्म कलामय सुन्दर कर्णपूरों-कान के आभूषणों से उसे सुशोभित किया। कान के पास लटकाये हुए लम्बे झूमकों से और मदजल से आकर्षित बने हुए भ्रमरों से हस्ति के लिए अन्धकार-सा हो गया था। उस पर सुन्दर छोटा प्रच्छद-झूल डाला गया। अजुत्ता For Personal & Private Use Only Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८ उववाइय सुत्त सचावसर पहरणावरणभरियजुद्धसजं सच्छत्तं सज्झयं सघंटे सपडागं पंचामेलअपरिमंडियाभिरामं। भावार्थ - अस्त्र, कवच आदि युद्धसज्जा से युक्त किया। छत्र, ध्वज और घण्टा को यथास्थान योजित किये। फिर उसे पांच कलंगियों-आमेलक-चूडा से विभूषित करके, रम्य बनाया। . ओसारियजमलजुयलघंट, विजुपणद्धं व काल-मेह, उप्पाइयपव्वयं व चंकमंतं, मत्तं गुलगुलंतं महा-मेहंमिव मणपवणजइणवेगं, भीमं संगामिया योग्गं, आभिसेक्कं हत्थिरयणं पडिकप्पइ। भावार्थ - उसके दोनों तरफ समरूप से दो घण्टाएँ लटकाई। शस्त्र, अस्त्रादि की उज्ज्वल दीप्ति से युक्त होने से वह बिजली सहित काले मेघ के समान दिखाई दे रहा था। उसका देह इतना विशाल था कि मानो वह अपने स्थान से ऊँचा उठा हुआ कोई चलता-फिरता हुआ पर्वत हो। इस प्रकार मन और पवन की गति को भी मात करने वाले वेग से युक्त, मत्त और गुलगुल शब्द करते हुए उस प्रधान हस्तिरत्न को, संग्राम की सभी सामग्रियों से युक्त बनाकर तैयार किया। पडिकण्येत्ता हयगयरहपवरजोहकलियं चाउरंगिणिं सेणं सण्णाहेइ। सण्णाहित्ता जेणेव बलवाउए तेणेव उवागच्छइ। उवागच्छित्ता एयमाणत्तियं पच्चप्पिणइ। भावार्थ - महावत ने हस्तिरत्न को तैयार करके, अश्व, गज, रथ और श्रेष्ठ योद्धाओं वाली चतुरंगिनी सेना को सजाई। फिर वह 'हत्थिवाउय' - महावत 'बलवाउय'-सेना नायक के पास गया और आज्ञा-पालन की सूचना दी। ___ तए णं से बलवाउए जाणसालियं सह्यवेइ। सहावित्ता एवं वयासी - 'खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया! सुभापमुहाणं देवीणं बाहिरियाए उवट्ठाणसालाए पाडिएक्कपाडिएक्काइंजत्ताभिमुहाइं जुत्ताइंजाणाइंउवट्ठवेह।उवट्ठवित्ताएयमाणत्तियंपच्चप्पिणाहि'। भावार्थ - तब सेना नायक ने यानशालिक-रथादि यान और वाहनों का संरक्षक-को बुलाया और उससे इस प्रकार कहा- 'हे देवानुप्रिय ! जल्दी ही सुभद्रा आदि देवियों के लिये प्रत्येक के अलगअलग गमन करने को उद्यत-जुते हुए यानों को बाहरी सभाभवन में उपस्थित करो और आज्ञा पालन की सचना दो।' विवेचन - इस वर्णन-क्रम से ऐसा प्रतीत होता है कि-हस्तिरत्न और सेना की सजावट की सूचना मिलने के बाद यानशालिक को आज्ञा दी गई। किन्तु इसे वर्णनशैलीगत भास मात्र ही मानना चाहिए। क्योंकि एक-एक कार्य के पूरा होने के बाद यदि आज्ञा प्रदान होता रहे तो समय बहुत ही अधिक बीत जाता है। अतः यहाँ 'तएणं' पद से 'कोणिक राजा के आज्ञा देने के बाद' - यह आशय लेना चाहिए। For Personal & Private Use Only Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . अभिवन्दना की तैयारी १०९ तएणं से जाणसालिए बलवाउयस्स एयमढे आणाए विणएणं वयणं पडिसुणेइ। पडिसुणित्ता जेणेव जाणसाला तेणेव उवागच्छइ। भावार्थ - तब यानशालिक ने सेनानायक की आज्ञा के वचन विनय से सुने। इसके बाद जहाँ यानशाला थी वहाँ आया। तेणेव उवागच्छित्ता जाणाई पच्चुवेक्खइ। पच्चुवेक्खित्ता जाणाइं संपमज्जेइ। संपमजेत्ता जाणाई णीणेइ। (जाणाई संवट्टेइ संवट्टेइत्ता) जाणाई णीणेत्ता जाणाई संवट्टेइ। जाणाई संवदेत्ता जाणाणं दूसे पवीणेइ। भावार्थ - उसने यानशाला में आकर यानों का निरीक्षण किया। उनके ऊपर की धूलि पोंछी। यानों को बाहर निकाले। योग्य स्थान पर इकट्ठे किये। उनके ऊपर के ढंके हुए वस्त्रों-दूष्यों को अलग हटाए। अथवा उन्हें झूल से ढंके। पवीणेत्ता जाणाई समलंकरेइ समलंकरेत्ता जाणाई वरभंडगमंडियाइं करेइ। भावार्थ - यानों को यंत्र आदि से अलंकृत किये उन्हें श्रेष्ठ भूषणों से भूषित किये। करेत्ता जेणेव वाहणसाला तेणेव उवागच्छइ। तेणेव उवागच्छित्ता वाहणाई पच्चुवेक्खडा भावार्थ - वह जहाँ वाहनशाला थी वहाँ गया। उसने वाहनों का निरीक्षण किया। पच्चुवेक्खित्ता वाहणाइं संपमज्जेइ। संपमज्जेत्ता वाहणाइं णीणेइ। णीणेत्ता वाहणाई अप्फालेइ। अप्फालेत्ता दूसे पवीणेइ। पवीणेत्ता वाहणाइं समलंकरेइ। समलंकरेत्ता वरभंडगमंडियाइं करेइ। ..... भावार्थ - वाहनों का संप्रमार्जन किया। उन्हें बाहर निकाले। हाथ से थपथपाये। मच्छर आदि से रक्षा के लिये उन पर ढंके हुए वस्त्र अलग हटाये अथवा उन्हें वस्त्र से ढंके। उन्हें अलंकृत किये। श्रेष्ठ आभरणों से सजाए। . करेत्ता वाहणाइं जाणाइं जोएइ। जोएत्ता पओयलटुिं पओयधरे य समं आडहइ। भावार्थ - वाहनों-बैल आदि को यानों-गाड़ी, रथ आदि में जोड़े। पयोयलट्ठि-वाहनों को हांकने की लकड़ी आदि अथवा चाबुक और पयोयधरों-गाड़ी खेड़ने वाले या गाड़ीवान् को साथ में नियुक्त किये। . आडहित्ता वर्ल्ड वट्टमग्गं गाहेइ। गाहेत्ता जेणेव बलवाउए तेणेव उवागच्छइ। उवागच्छित्ता बलवाउयस्स एयमाणत्तियं पच्चप्पिणइ। __भावार्थ - उन जुते हुए यानों को मार्ग पर खड़े किये। फिर वह जहाँ सेनानायक था वहाँ आया और उनकी आज्ञा के पालन की सूचना दी। For Personal & Private Use Only Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११० उववाइय सुत्त तणं से बलवाए णयरगुत्तिए आमंते । आमंतेत्ता एवं वयासी- 'खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया ! चंपं णयरिं सब्भितरबाहिरियं आसित्त जाव कारवेत्ता एयमाणत्तियं पच्चप्पिणाहि ।' भावार्थ - तब सेनानायक ने नगरपाल - नगरगुप्तिक-नागरिक स्वच्छता के तंत्र संचालक या नगर रक्षक को बुलाया और इस प्रकार कहा- 'जल्दी ही हे देवानुप्रिय ! चम्पानगरी को बाहर और भीतर से स्वच्छ, जलसिञ्चित कराओ यावत् ऐसा करवा कर मुझे आज्ञापालन की सूचना दो। तणं णयरगुन्तिए बलवाउयस्स एयमट्टं आणाए विणएणं पडिसुणेइ | पडिसुणित्ता चंपं णयरिं सब्धितरबाहिरियं आसित्त जाव कारवेत्ता जेणेव बलवाडए तेणेव उवागच्छइ । उवागच्छित्ता एयमाणत्तियं पच्चष्पिणइ । भावार्थ - तब नगरपाल ने 'बलवाउय' -सेनानायक की इस आशय की आज्ञा विनय से सुनी। वह चम्पानगरी को भीतर और बाहर से सिञ्चित, स्वच्छ आदि करवा कर सेनानायक के पास आया और आज्ञा पालन की सूचना दी। तए णं से बलवाउए कोणियस्स रण्णो भंभसारपुत्तस्स आभिसेक्कं हत्थिरयणं पडिकप्पियं पासइ । हयगय जाव सण्णाहियं पासइ । सुभद्दापमुहाणं देवीणं पडिजाणाई उवट्ठवियाइं पासइ । चंपं णयरिं सब्भितर जाव गंधवट्टिभूयं कयं पासइ । भावार्थ - इसके बाद सेना नायक ने भंभसारपुत्र कोणिक राजा के अभिषेक्य हस्तिरत्न को सजा हुआ देखा। घोड़े, हाथी आदि सेना को सजी हुई देखी । सुभद्रा आदि देवियों के जुते हुए यान देखें और बाहर-भीतर से स्वच्छ यावत् सुगन्धित से महकती हुई चम्पानगरी को देखी । पासित्ता हट्ठतुट्ठचित्तमाणंदिए पीयमणे जाव हियए जेणेव कोणिए राया भंभसारपुत्ते, तेणेव उवागच्छइ । उवागच्छित्ता करयल जाव एवं वयासी । भावार्थ - देखकर, वह हृष्ट-तुष्ट चित्तवाला, आनंदित, प्रीतियुक्त मन वाला यावत् विकसित हृदय वाला हुआ और जहाँ भंभसारपुत्र कोणिक राजा था वहाँ उसके पास आया। फिर हाथ जोड़कर यावत् इस प्रकार बोला कप्पिए णं देवाणुप्पियाणं आभिसेक्के हत्थिरयणे, हयगयरहपवरजोहकलिया य चाउरंगिणी सेणा सण्णाहिया सुभद्दापमुहाणं च देवीणं बाहिरियाए य उवद्वाणसालाए पाडिएक्कपाडिएक्काई जत्ताभिमुहाई जुत्ताइं जाणाई उवट्ठावियाई, चंपा णयरी सब्धि - तरबाहिरिया आसित्त जाव गंधवट्टिभूया कया । तं णिज्जंतु णं देवाप्पिया ! समणं भगवं महावीरं अभिवंदउं । For Personal & Private Use Only Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिवन्दना की तैयारी १११ भावार्थ - देवानुप्रिय का आभिषेक्य-प्रधान हाथी तैयार है। घोड़े, हाथी, रथ और श्रेष्ठ योद्धाओं से युक्त चतुरंगिणी सेना सजा दी गई है। सुभद्रा आदि देवियों के लिये जुते हुए यान बाहरी सभा भवन में खड़े हैं और चम्पानगरी बाहर-भीतर से स्वच्छ, सिञ्चित यावत् महक से युक्त बना दी है। तो हे देवानुप्रिय ! अब श्रमण भगवान् महावीर स्वामी की अभिवन्दना के लिये प्रस्थान करें। कोणिक का स्नान मर्दन आदि ३१. तएणं से कोणिए राया भंभसारपुत्ते बल-वाउयस्स अंतिए एयमढे सोच्चा णिसम्म हद्वतुट्ठ जाव हियए जेणेव अट्टणसाला तेणेव उवागच्छइ उबागच्छइत्ता अट्टणसालं अणुपविसइ। भावार्थ - तब भंभसारपुत्र कोणिक राजा 'बलव्यापृत' से यह बात सुनकर, अवधारण करके, हृष्ट-तुष्ट यावत् विकसित हृदय हुआ और जहाँ व्यायामशाला-अट्टणशाला थी वहाँ आया। व्यायामशाला में प्रवेश किया। अणुपविसित्ता अणेगवायामजोग्गवग्गणवामहणमल्ल जुद्धकरणेहिं संते परिस्संते। भावार्थ - वहाँ व्यायाम के लिये अनेक योग्य वल्गन-उछलना-कूदना, व्यामर्दन-परस्पर के अंगों को मोडना, मल्लयुद्ध और करण-मल्लशास्त्र में प्रसिद्ध अंगभंग विशेष के द्वारा थके-श्रान्त, शिथिल - परिश्रान्त हुए। विवेचन - इस सूत्र में व्यायाम के लिये की गई पांच प्रकार की चेष्टाओं का वर्णन है। टीका से इन प्रकारों के विषय में विशेष प्रकाश नहीं मिलता। 'योग्या' का पर्यायवाची शब्द 'गुणनिका' मात्र दिया गया है। जिससे विशेष स्पष्ट आशय समझ में नहीं आता। प्रसंगवशात् यह अनुमान होता है कि - 'ऐसी चेष्टाएँ, जिसमें अंगों के खिंचाव और शिथिलीकरण की क्रियाएँ मुख्य हो या आकुञ्चन-प्रसारण के योग से किये जाने वाले व्यायाम।' ऐसा आशय हो। .. सयपागसहस्सपागेहिं सुगंधतेल्लमाइएहिं पीणणिजेहिं दप्पणिजेहिं मयणिज्जेहिं विंहणिज्जेहिं सव्विदियगायपल्हायणिजेहिं अभिगेहिं अभिगए समाणे; __. भावार्थ - फिर रस रुधिर आदि धातुओं के समताकारी- प्रीणनीय, बलकारी-दर्पणीय, कामोत्तेजकमदनीय, मांसवर्द्धक-बृंहणीय और सभी इन्द्रियों एवं सम्पूर्ण शरीर के लिये आनंदकारी प्रह्लादनीय शतपाक-सहस्रपाक नामक सुगंधित तेल आदि अभ्यंगों- मालिस के साधनों के द्वारा मर्दन कराने के बाद विवेचन- इस सूत्र में औषधिपक्वादि विषयों को ग्रहण करके संक्षेप में अभ्यंगशास्त्र का सार रख दिया है। 'सुगंध......' इस सूत्र में आये हुए आदि शब्द से घृतकर्पूरपानीय आदि ग्रहण करना चाहिए। तेल्लचम्मंसि पडिपुण्णपाणिपायसुकुमालकोमलतलेहिं पुरिसेहिं छेएहिं दक्खेहिं पत्तटेहिं कुसलेहिं मेहावीहिं णिउणसिप्पोवगएहिं अभिगणपरिमहणुव्व For Personal & Private Use Only Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२ उववाइय सुत्त लणकरणगुणणिम्माएहिं अट्ठिसुहाए मंससुहाए तया-सुहाए रोमसुहाए चउव्विहाए संवाहणाए संवाहिए समाणे; भावार्थ - तैलचर्म-आसन विशेष पर स्थित होकर हाथ-पैर के अत्यन्त कोमल तले वाले पुरुषों के द्वारा अस्थिसुखा-हड्डियों के लिए सुखकर, मांससुखा, त्वक्सुखा-चमड़ी के लिये सुख कर और रोमसुखा-इन चार प्रकार की सम्बाधना-चंपी से सम्बाधित (चंपी की गई है, जिनकी ऐसे) हुए। वे चंपी करने वाले पुरुष छेक निपुण, दक्ष, चतुर, प्राप्तार्थ-उस विषय के आचार्य से उस कला को सीखे हुए, कुशल-सम्बाधना कर्म में श्रेष्ठ या साधक, मेधावी-अपूर्व विज्ञान को ग्रहण करने की शक्ति वाले, अंगमर्दन आदि सूक्ष्म कलाओं के ज्ञाता और अभ्यंगन-तैलादि मर्दन, परिमर्दन- तैलादि को अंगों में पहुँचाने के लिये किये जाने वाले मर्दन विशेष और उद्वलन-उलटे रोएँ से किया जाने वाला मर्दन या मर्दन के बाद मल उतारने की क्रिया विशेष के करने में जो गुण हैं उनको निपजाने की शक्ति वाले थे। . विवेचन - इस सूत्र में अभ्यंगनकला और सम्बाधनाकला का संक्षेप में वर्णन हैं। इन कलाओं की भी शिक्षा ली जाती थी और उसके शिक्षण में भी पात्र-अपात्र का विचार किया जाता था। तैलचर्म-तैलमर्दन के बाद जिस पर स्थित रह कर चंपी करवाई जाती है, उसे तैलचर्म कहते हैं। अवगयखेयपरिस्समे अट्टणसालाउ पडिणिक्खमइ। भावार्थ - कोणिक राजा इस प्रकार खेद-दीनता या अनुत्साह और परिश्रम (व्यायाम-जनित शरीर की अस्वस्थता विशेष) के दूर हो जाने पर व्यायामशाला से बाहर निकला। पडिणिक्खमित्ता जेणेव मजणघरे तेणेव उवागच्छइ। तेणेव उवागच्छित्ता मजणघरं अणुपविसइ। भावार्थ-जहाँ स्नान घर था वहाँ आया उसमें प्रवेश किया। अणुपविसित्ता समत्तजालाउलाभिरामे विचित्त-मणि-रयणकुट्टिमतले रमणिज्जे ण्हाणमंडवंसि णाणामणिरयण-भत्तिचित्तंसि ण्हाणपीढंसि सुहणिसण्णे, सुहोदएहिं गंधोदएहिं पुष्फोदएहिं सुद्धोदएहिं पुणो पुणो कल्लाणगपवरमजणविहीए मजिए। भावार्थ - स्नान घर में प्रवेश करके, चारों ओर जाली अथवा मुक्ताजाली से व्याप्त अभिराम और विचित्र मणिरत्नों से बने हुए रमणीय आंगन वाले तथा नाना मणि-रत्नों से चित्रमय बनी हुई भित्ति वाले स्नानमण्डप में स्नानपीठ-स्नान के लिये बैठने की चौकी - पर सुख से बैठा। फिर तीर्थ आदि के जल अथवा सुखोदक-जिसका स्पर्श सुखकर बनाया गया हो ऐसा जल, गन्धोदक-श्रीखण्ड-चन्दन आदि रस से मिश्रित जल, पुष्पोदक- पुष्परस मिश्रित जल और शुद्धोदक-स्वाभाविक जल से कल्याणक- आनंदकारी और अतिश्रेष्ठ स्नान की विधि से स्नान किया। तत्थ कोउयसएहिं बहुविहेहिं कल्लाणगपवरमजणावसाणे पम्हलसुकुमालगंधकासाइयलूहियंगे सरससुरहिगोसीसचंदणाणुलित्तगत्ते। For Personal & Private Use Only Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिवन्दना की तैयारी ११३ भावार्थ - वहाँ बहुत प्रकार से रक्षादि की सैकड़ों कौतुक विधियों के द्वारा श्रेष्ठ कल्याणक मजन को समाप्त करने के बाद रोएंदार, सुकोमल, सुगन्धित और काषायित-हरड़े, बहेड़ा आदि कसीली औषधियों से रञ्जित अथवा काषाय-लाल वस्त्र से अंग पोंछा। फिर सरस सुरभित गोरोचन और चंदन से गात्र को लिप्त किया। ___अहयसुमहग्घदूसरयणसुसंवुए सुइमालावण्णग-विलेवणेआविद्धमणिसुवण्णे कप्पियहारद्धहारतिस-रयपालंबपलंब माणकडिसुत्तसुकयसोभे। भावार्थ - मल-मूषिकादि से अदूषित-अहत और बहुमूल्य दूष्यरत्न-प्रधानवस्त्र को उत्तम ढंग से पहना। पवित्र पुष्पमाला धारण की। कुंकुंमादि के शोभनीय विलेपन किये। मणिजटित सुवर्णालङ्कार पहने। गठित हार, अर्द्धहार-नवलड़ी का हार, त्रिसरक- तीन लड़िया हार, लम्बी लटकती हुई फूलमाला और कटिसूत्र- कंदोरा से शोभा की सुन्दरता से वृद्धि की। पिणद्धगेविजगअंगुलिजगललियंगयललिय-कयाभरणेवरकडगतुडियर्थभियभुए। भावार्थ - कण्ठले बांधे। अंगुठियाँ पहनी। इस प्रकार सुन्दर शरीर पर सुन्दर आभूषणों को धारण किये अथवा 'ललितांग' नामक देव के समान कोणिक राजा के केश और आभरण ललित थे। श्रेष्ठ कङ्कणों और तोड़ों से भुजाएँ स्तंभित हो गई थी। अहियरूवसस्सिरीए महिया पिंगलंगुलिए कुंडलउज्जोवियाणणे मउडदित्तसिरए हारोत्थय-सुकयरइयवच्छे। भावार्थ - इस प्रकार वह बहुत अधिक शोभा से युक्त हो गया। कुण्डलों की प्रभा से मुख दमकने लगा। मुकुट की कान्ति से. शिर दीप्त हो रहा था। हार के आच्छादन से वक्षस्थल रुचिर बना हुआ था। पालंबपलंबमाणपडसुकयउत्तरिजे णाणा-मणि-कणग-रयण-विमल-महरिहणिउणोवियमिसिमिसंत-विरइय-सुसिलिट्ठ-विसिट्ठ-लट्ठ-आविद्ध-वीरवलए। . भावार्थ - लम्बे लटकते हुए या झुम्बमान वस्त्र के उत्तरीय- ऊपर का वस्त्र को सुन्दर ढंग से धारण किया। श्रेष्ठ शिल्पी के द्वारा निर्मल और बहुमूल्य विविध मणि, स्वर्ण और रत्नों से चतुराई से परिकर्मित-कलात्मक बनाये गये, सुश्लिष्ट-जहाँ मजबूत जोड़ चाहिए वहाँ मजबूत जोड़ वाले, विशिष्ट मनोहर और देदीप्यमान वीर वलय-वीरत्व सूचक कड़े पहने। विवेचन - 'यदि अन्य कोई भी सुभट वीर है, तो वह इन वलयों का मोचन करके मुझको हराये'-इस प्रकार स्पर्धा करते हुए जिन कडों को पहना जाता है उन्हें 'वीर वलय' कहते हैं। किं बहुणा ? कप्परुक्खए चेव अलंकियविभूसिए णरवई सकोरंटमल्लदामेणं छत्तेणं धरिजमाणेणं चउचामरवाल-वीजियंगे मंगलजयसद्दकयालोए मजणघराओ पडिणिक्खमइ। For Personal & Private Use Only Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४ उववाइय सुत्त भावार्थ - अधिक क्या ? कल्पवृक्ष के समान अलंकृत और विभूषित होकर, जब नरपति मज्जनगृह से बाहर निकले उस समय कोरंट पुष्प की मालाओं से युक्त छत्र धारण किये हुए थे और आजुबाजु चार चामर डुलाये जा रहे थे। मनुष्यों को उसके दर्शन होने पर उन्होंने मंगल के लिए जयध्वनि की। मजणघराउ पडिणिक्खमित्ता अणेग-गण-णायगदंडणायग-राईसर-तलवरमाडंबिय-कोडुंबिय-इब्भसेट्ठि-सेणावइ-सत्थवाह-दूय-संधिवाल-सद्धि-संपरिवुडे धवल-महामेह-णिग्गए इव गहगण-दिप्यंतरिक्ख-तारागणाण मज्झें ससिव्व पियदंसणे णरवई जेणेव बाहिरिया उवट्ठाणसालाजेणेव आभिसेक्के हत्थिरयणे तेणेव उवागच्छइ। भावार्थ - मज्जनगृह से निकल कर अनेक गणनायक, दंडनायक, राजा, ईश्वर, तलवर, माडम्बिक, कौटुम्बिक, इभ्य, श्रेष्ठी, सेनापति, सार्थवाह, दूत और संधिपाल से घिरे हुए, सफेद महामेघ से निकले. हुए-से ग्रहगण, नक्षत्र और तारागण के मध्य में चन्द्र के समान प्रिय दर्शन वाला, नरपति-राजा जहाँ बाहरी सभाभवन था, जहाँ आभिषेक्य-प्रधान श्रेष्ठ हस्ति था वहां आया। . अभिवन्दना के लिए प्रस्थान उवागच्छित्ता अंजणगिरिकूडसण्णिभं गयवई णरवई दूरूढे। भावार्थ - वहाँ आकर, अञ्जनगिरि-काजल के पर्वत के शिखर के समान गजपति पर नरपति सवार हुआ। तएणं तस्स कोणियस्स रण्णो भंभसारपुत्तस्स आभिसिक्कं हत्थिरयणं दुरूढस्स समाणस्स तप्पढमयाए इमे अट्ठमंगलया पुरओ अहाणुपुव्वीए संपट्ठिया। भावार्थ - उस भंभसारपुत्र कोणिक राजा के आभिषेक्य हस्तिरत्न पर सवार हो जाने पर सर्व प्रथम ये आठ मंगल क्रमश रवाना किये गये। तं जहा-सोवत्थिय १, सिरिवच्छ २, णंदियावत्त ३, वद्धमाणक ४, भद्दासण ५, कलस ६, मच्छ ७, दप्पण ८। भावार्थ - वे इस प्रकार हैं-१. स्वस्तिक २. श्रीवत्स ३. नन्द्यावर्त ४. वर्द्धमानक ५. भद्रासन ६. कलश ७. मत्स्य और ८. दर्पण। तयाऽणंतरं च णं पुण्ण-कलस-भिंगारं, दिव्वा य छत्तपडागा सचामरा दसणरइयआलोयदरिसणिजा वाउद्धय-विजयवेजयंती उस्सिया गगणतलमणुलिहंती पुरओ अहाणुपुव्वीए संपट्ठिया। For Personal & Private Use Only Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिवन्दना के लिए प्रस्थान ११५ भावार्थ - इसके बाद जल से परिपूर्ण कलश एवं झारी और दिव्य छत्र पताका-जो कि चामर से युक्त, राजा के दृष्टिपथ में स्थित वायु से फहराती हुई विजय सूचक 'वैजयन्ती' नामक लघुपताकाओं से युक्त और ऊँची उठाई हुई थी, वह-गगन तल को स्पर्श करती हुई-सी आगे रवाना हुई। तयाऽणंतरं च णं वेरुलियभिसंतविमलदंडं पलंबकोरंटमल्लदामोवसोभियं चंदमंडलणिभं समूसियविमलं आयवत्त-पवरं सीहासणं वरमणिरयणपादपीढं सपाउयाजोयसमाउत्तं बहुकिंकरकम्मकरपुरिसपायत्तपरिक्खित्तं पुरओ अहाणुपुव्वीए संपद्वियं। भावार्थ - इसके बाद वैडूर्य-लहसुनिया रत्न के दैदीप्यमान विमल दण्डवाला, कोरण्ट पुष्प की लम्बी लटकती हुई मालाओं से सुशोभित, चन्द्रमण्डल के समान ऊँचा तना हुआ श्रेष्ठ आतपत्र- धूप से रक्षा करने वाला-छत्र, सिंहासन और श्रेष्ठ मणिरत्नों का पादपीठ-पैर रखने की चौकी-जिस पर राजा की पादुका की जोड़ रखी हुई थी और जो अनेक किङ्करों-प्रत्येक कार्य पृच्छापूर्वक करने वाले सेवक या किसी खास कार्य-विभाग में नियुक्त वैतनिक सेवक और पदातियों-पैदल सैनिकों से घिरा हुआ था-आगे आगे क्रमशः रवाना किया गया। तयाऽणंतरं बहवे लट्ठिग्गाहा कुंतग्गाहा चावग्गाहा चामरग्गाहा पासग्गाहा पोत्थयग्गाहा फलगग्गाहा पीढग्गाहा वीणग्गाहा कूवग्गाहा हडप्फग्गाहा पुरओ अहाणुपुव्वीए संपट्ठिया। भावार्थ - इसके बाद बहुत-से लट्ठधारी, कुंत-भाला विशेष धारी, धनुर्धारी, चामरधारी, पाशा-बूत सामग्री धारी, पुस्तक-आय के ज्ञान के लिए रखी जाने वाली नोंध या पण्डित के उपकरण-धारी, फलकधारी, पीठ-आसन विशेष धारी, वीणाधारी, कुतुप- पक्व तैलादि के भाजन या सुगंधित तैल के शीशे धारी और हडप्फ-द्रम्मादि सिक्के के भाजन या सुगन्धित चूर्ण-ताम्बूल आदि के लिए सुपारी आदि के डिब्बे-धारी पुरुषों को रवाना किये। - तयाऽणंतरं बहवे डंडिणो मुंडिणो सिंहडिणो जडिणो पिंछिणो हासकरा उमरकरा दवकरा चाटुकरा वादकरा कंदप्पकरा कोक्कुइया किट्टिकरा वायंता गायंता हसंता णच्चंता भासंता सावेंता (असिलट्ठिकुंतचावे, चामरपासे य फलगपात्थे य। वीणकूयग्गाहे, तत्तो य हडप्फगाहे य॥ १॥ दंडी, मुंडी, सिहंडी, पिच्छी जडिणो य हासकिड्डा य। दवकारा चटुकारा, कंदप्पिय कोक्कुइयगाहा॥ २॥ गायंता वायंता, णच्चंता तह हसंत हासिंता। सावेंता रावेंता, आलोय जयं पउंजंता॥ ३॥) For Personal & Private Use Only Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११६ उववाइय सुत्त रक्खंता आलोयं च करेमाणा, जयजयसई पउंजमाणा, पुरओ अहाणुपुवीए संपट्ठिया। भावार्थ - फिर बहुत से दण्डी, मुण्डी-मुण्डे हुए शिरवाले, शिखण्डी-शिखाधारी, जटीजटाधारी, मयूरपिच्छ आदि के धारक, हास्यकर-विदूषक, डमरकर-हुल्लड़बाज चाटुकर-खुशामदिये या प्रियवादी, दवकर-मजाकिये, वादकर-विवादी, कन्दर्पकर-काम प्रधान क्रीड़ा करने वाले या शृंगारिक चेष्टाएँ करने वाले, कौत्कुचिक- भांड और कीर्तिकर-भाट बजाते हुए, गाते हुए, हँसते हुए, नाचते हुए, बोलते हुए, शिक्षा देते हुए, रक्षा करते हुए, राजादि का अवलोकन करते हुए और ध्वनि करते हुए क्रमशः आगे रवाना हुए। तयाऽणंतरं जच्चाणं तरमल्लिहायणाणं हरिमेला-मउल मल्लियच्छाणं चंचुच्चियललियपुलियचलचवल-चंचलगईणं लंघणवग्गणधावणधोरणतिवईजइणसिक्खियगईणं ललंत-लामगललायवरभूसणाणं मुहभंडग-ओचूलगथासगमिलाण चमरीगंडपरिमंडियकडीणं किंकर-वर-तरुण-परिग्गहियाणं थासग अहिलाणचामरगंड-परिमंडियकडीणं-अट्ठसयं वरतुरगाणंपुरओ अहाणुपुव्वीएसंपट्टियं। भावार्थ - इसके बाद वेगादिकारक वर्ष वाले–यौवन वयवाले, स्थासक-आभूषण विशेष, अहिलाण (मुख संयमन-लगाम) से युक्त और चामरदण्ड से सजी हुई कटिवाले एक सौ आठ श्रेष्ठ घोड़े क्रमशः आगे रवाना किये। हरिमेला-वनस्पति विशेष की नवकलिका और मल्लिका सरीखी उनकी आँखें थी-सफेद आँखें थी। उनकी चाल बांकी, विलास युक्त-ललित और कोतल-पुलितनृत्यमय थी, उनके अस्थिर शरीर की चपलता से चञ्चल थी और लांघने, कदने, दौडने, गति की चतुराई, त्रिपदी-चलते हुए भूमि पर तीन पैरों का ही टिकना, जय या वेग से युक्त और शिक्षित थी। उनके गले में हिलते हुए रम्य श्रेष्ठ भूषण पड़े हुए थे। विमुख-भण्डक- मुख का भूषण-मोरा आदि, अवचूल-लम्बे गुच्छक, स्थासक, पलाण से युक्त और चामर दण्ड से सजी हुई कटिवाले थे। उन्हें श्रेष्ठ तरुण किङ्करों ने पकड रखे थे। ___ तयाऽणंतरं च ण ईसीदंताणं ईसीमत्ताणं ईसीतुंगाणं ईसीउच्छंग-विसाल-धवलदंताणं कंचणकोसी-पविठ्ठ-दंताणं कंचण-मणिरयण-भूसियाणं वर-पुरिसा-रोहग सुसंपउत्ताणं अट्ठसयं गयाणं पुरओ अहाणुपुवीए संपट्ठियं। । भावार्थ - उनके बाद एक सौ आठ हाथी क्रमशः आगे रवाना किये गये। उन कुछ मत्त और ऊँचे हाथियों के दांत कुछ बाहर निकले हुए थे। वे दांत पिछले हिस्से में कुछ विशाल थे, सफेद थे और स्वर्ण आवरण से युक्त थे। वे हाथी स्वर्ण और मणि रत्नों से भूषित थे। तयाऽणंतरं सच्छत्ताणं सज्झयाणं सघंटाणं सपडागाणं सतोरणवराणं For Personal & Private Use Only Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . अभिवन्दना के लिए प्रस्थान ११७ सणंदिघोसाणं सखिंखिणी-जालपरिक्खित्ताणं हेमवयचित्ततेणिसकणगणिज्जुत्तदारुयाणं कालायससुकय णेमि-जंत-कम्माणं सुसिलिट्ठवत्तमंडलधुराणं सुसंविद्ध-चक्कमंडलधुराणं आइण्ण-वरतुरग-सुसंपउत्ताणं कुसलनरच्छेयसारहिसुसंपग्गहिआणं हेमजाल गवक्खजाल खिंखिणि-घण्टाजाल परिक्खित्ताणं बत्तीसतोणपरिमंडियाणं सकंकडवडेंसगाणं सचावसर-पहरणावरण-भरिय-जुद्ध-सज्जाणं अट्ठसयं रहाणं पुरओ अहाणुपुव्वीए संपट्ठियं। भावार्थ- इसके बाद एक सौ आठ रथ यथाक्रम आगे बढाये गये। वे रथ. छत्र. ध्वज. घण्टा. पताका, तोरण और नंदिघोष-बारह प्रकार के बाजों की ध्वनि से यक्त थे। छोटी घण्टियों या बंघरियों के जाल से ढंके हुए थे। उनमें हिमवान् पर्वत पर उत्पन्न हुए विविध प्रकार के तिनिश-शीशम की जाति के वृक्ष की स्वर्ण खचित लकड़ी लगी हुई थी। 'कालायस' (एक जाति का लोहा) से नेमिपहिये की परिनी-पाटे को बन्धन-क्रिया-यंत्र कर्म के द्वारा सन्दर बनाई गई थी। उन रथों की धराएँ सुश्लिष्ट-उत्तम रीति से संधी हुई और बिलकुल गोल थीं। उनमें जातिवान् सुन्दर घोड़े जुते हुए थे और उनकी बागडोर, सारथि-कला में कुशल पुरुष पकड़े हुए थे। वे बत्तीस तोणों-तरकशों से सुसज्जित थे। कवचों और टोपों से युक्त थे। उनमें धनुष्य, बाण, खड्ग आदि युद्ध की सामग्री भरी हुई थी। . विवेचन - नंदिघोष अर्थात् बारह प्रकार के तूर्यों-बाजों का घोष। बारह तूर्य ये हैं - भंभा १, मउंद २, मद्दल ३, कडंब ४, झल्लरि ५, हुडुक्क ६, कंसाला ७। काहल ८, तलिमा ९, वंसो १०, संखो ११, पणवो १२, य बारसमो॥ तयाऽणंतरंचणंअसि-सत्ति-कोंत-तोमर-सूल-लउड-भिंडिमाल-धणु-पाणिसजं पायत्ताणीयं सणद्धबद्धवम्मियकवयाणं उप्पीलियसरासण वट्टियाणं पिणद्धगेवेजविमलवरबद्धचिंधपट्टाणं गहियाउहप्पहरणाणं पुरओ अहाणुपुव्वीए संपट्ठियं। भावार्थ - उन रथों के पीछे तलवार, शक्ति, कुन्त-भाला, लकुट-लट्ठियाँ, भिण्डिमाल और धनुष हाथ में लिये हुए, पदातिदल-पैदल सेना आगे आगे क्रमशः चल रहा था। ___तए णं से कोणिए राया हारोत्थय-सुकयरययवच्छे कुंडलउजोवियाणणे मउडदित्तसिरए णरसीहे णरवई णरिंदे णरवसहे मणुय-राय-वसभकप्पे अब्भहियराय-तेयलच्छीए दिप्पमाणे हथिक्खंधवरगए। भावार्थ - उनके बाद कोणिक राजा था। उसका वक्षस्थल हारों से सुशोभित था। कुण्डलों से मुख द्युतिमान हो रहा था। मुकुट से शिर देदीप्यमान था। वह नरों में सिंह, नरों के स्वामी नरों के इन्द्र, नरों में लिए हुए भार के निर्वाहक वृषभ और नृपतियों के नायक-चक्रवर्ती के तुल्य थे। हाथी के श्रेष्ठ स्कंध-खंधे पर स्थित अत्यधिक राजतेज रूप लक्ष्मी से देदीप्यमान थे। For Personal & Private Use Only Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११८ उववाइय सुत्त सकोरंटमल्लदामेणं छत्तेणं धरिजमाणेणं सेय-वरचामराहिं उद्धवमाणीहिं उद्धवमाणीहिं वेसमणे चेव णरवई अमरवई-सण्णिभाए इड्डीए पहियकित्ती। भावार्थ - कोरंट पुष्प की माला से युक्त छत्र को धारण किये हुए थे। श्रेष्ठ सफेद चामर ढुलाये जा रहे थे। वेश्रमण, नरपति-चक्रवर्ती और अमरपति-इन्द्र के तुल्य ऋद्धि से प्रसिद्ध कीर्ति वाले थे। हयगयरहपवरजोहकलियाए चाउरंगिणीए सेणाए समणुगम्ममाणमग्गे जेणेव पुण्णभद्दे चेइए तेणेव पहारेत्थ गमणाए।तएणं तस्स कोणियस्स रण्णो भंभसारपुत्तस्सं पुरओ महंआसा आसधरा आसवरा-उभओ पासिंणागाणागधरा, पिट्ठओरहसंगेल्लि। भावार्थ - वह अश्व, गज रथ और श्रेष्ठ योद्धा रूप चतुरंगिणी सेना से अनुगम्यमान-अनुगमन किये जाते हुए मार्ग में जहाँ पूर्णभद्र उद्यान था वहाँ जाने के लिए इच्छा सहित प्रवृत्त हुए। तब भंभसारपुत्र कोणिक राजा के आगे बड़े-बड़े घोड़े और घुड़ सवार थे, आजु बाजु हाथी और हाथी सवार थे और पीछे रथ समुदाय था। ____तए णं से कोणिए राया भंभसारपुत्ते अब्भुग्गयभिंगारे पग्गहियतालियंटे उच्छियसेयच्छत्ते पवीइयवालवीयणीए सव्विड्डीए सव्वजुत्तीए सव्वबलेणंसव्वसमुदएणं सव्वादरेणं सव्वविभूईए सव्वविभूसाए सव्वसंभमेणं सव्वपगईहिं सव्वणायगेहिं सव्वतालायरेहिं सव्वोरोहेहिं सव्वपुप्फ गंध वास मल्लांलकारेणं सव्वतुडियसद्द सणिणाएणं, महया इड्डीए, महया जुत्तीए, महया बलेणं, महया समुदएणं, महया वरतुडियजमगसमगपवाइएणंसंख-पणव-पडह-भेरि-झल्लरि-खरमुहि-हुडुक्क-मुरवमुइंग-दुंदुभि-णिग्घोसणाइयरवेणं चंपाए णयरीए मझं मझेणं णिगच्छइ। - भावार्थ - वह भंभसारपुत्र कोणिक राजा चम्पानगरी के मध्य से हो कर जा रहा था। उसके सामने सोवनझारी-पुरुष के द्वारा उठाई हुई थी। किसी के द्वारा पंखा झला जा रहा था। किसी के हाथ में सफेद छत्र ग्रहण किया हुआ था। इस प्रकार झली जाती हुई वालव्यजनिका-छोटे पंखे या चँवरी, सर्वऋद्धि-आभरणादि रूप लक्ष्मी, सर्व युक्ति-परस्पर उचित पदार्थों के संयोग, सर्व-बल सेना, सर्व समुदय-परिवारादि समुदाय, सर्व आदर-प्रयत्न, सर्व विभूति, सर्व विभूषा, सर्व संभ्रम-भक्ति जन्य उत्सुकता, सर्व पुष्प वास, माल्य और अलंकार और सर्व बजते हुए बाजों से युक्त एवं महती ऋद्धि, महती युति, महती सेना, महान् समुदय और एक साथ बजते हुए बहुत-से बाजे के साथ थे। शंख, भाण्डों के ढोल, नगाड़े, भेरी, झल्लरी, खरमुही-काहला, हुडुक्का, मुरज, मृदंग और दुंदुभि के निर्घोष की ध्वनि गूंज रही थी। कोणिक का जनता द्वारा स्वागत ३२. तए णं कोणियस्सरण्णो चंपा णगरि मझं मझेणं णिग्गच्छमाणस्स बहवे For Personal & Private Use Only Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिवन्दना के लिए प्रस्थान ११९ अत्यत्थिया कामत्थिया भोगत्थिया लाभत्थिया किब्बिसिया करोडिया कारवाहिया संखिया चक्कियाणंगलियामुहमंगलियावद्धमाणापूसमाणवाखंडियगणाताहिंइट्ठाहिं कंताहि पियाहिं मणुण्णाहिं मणामाहिं मणोभिरामाहिं उरालाहिं कल्लाणाहिं सिवाहिं धण्णाहिं मंगल्लाहिं सस्सिरीयाहिं हिययगमणिजाहिं हिययपल्हायणिजाहिं मिय महुरगंभीरगाहिगाहिं अट्ठसइयाहिं अपुणरुक्ताहिं वग्गूहि जयविजयमंगलसएहिं अणवरयं अभिणंदंता य अभिथुणंता य। एवं वयासी-'जय जय णंदा ! जय जय भद्दा ! भदं ते। अजियं जिणाहि जियं च पालेहि। जिय माझे वसाहि। भावार्थ - चम्पानगरी के मध्य से होकर निकलते हुए कोणिक राजा की बहुत से अर्थार्थी-धनप्राप्ति के अभिलाषी कामार्थी-मनोज्ञ शब्द और रूप की प्राप्ति के अभिलाषी, भोगार्थी- मनोज्ञ गंध, रस और स्पर्श की प्राप्ति के अभिलाषी, लाभार्थी-मात्र भोजनादि के इच्छुक, किल्विषिक-भांड आदि कापालिक, करपीडित, शांखिक-शंख फूंकने वाले, चाक्रिक-चक्र नामक शस्त्र के धारक या कुंभकार, तैलिक आदि, लांगलित-भट्ट विशेष या किसान, मुखमांगलिक-चाटुकार, वर्द्धमान-स्कंधों पर पुरुषों को आरोपित करने वाले, भाट-चारण और छात्र समुदाय के द्वारा इष्ट-वाञ्छित, कान्त, कमनीय-सुन्दर, प्रिय, मनोज्ञ-मन को खींचने वाली। मनोऽम- मन को भाने वाली और मनोऽभिराम-मन में रम जाने वाली वाणी से जय-विजय आदि सैकड़ों मांगलिक शब्दों से लगातार अभिनंदना-आनन्दवर्धक बधाई और अभिस्तवना-स्तुति की जा रही थी। वे इस प्रकार बोल रहे थे-'हे नन्द ! भुवन में समृद्धि के करने वाले ! तुम्हारी जय हो ! जय हो !' 'हे भद्र ! कल्याणवान् ! या कल्याणकारि ! तुम्हारी जय हो ! जय हो! 'आपका कल्याण हो ! नहीं जीते हुओं को जीतें। जीते हुए व्यक्तियों का पालन करें। जीते हुए व्यक्तियों के बीच में निवास करें।' - इंदो इव देवाणं चमरो इव असुराणं, धरणो इव णागाणं, चंदो इव ताराणं, भरहो इव मणुयाणं, बहूई वासाइं, बहूई वाससयाई, बहूई वाससहस्साई, बहूइं वास सयसहस्साई, अणहसमग्गो हट्टतुट्ठो परमाउं पालयाहि। ___ भावार्थ - 'देवों में इन्द्र के समान, असुरों में चमर-इन्द्र के समान, नागों में धरण-इन्द्र के समान, ताराओं में चन्द्र के समान और मनुष्यों में भरत चक्रवर्ती के समान बहुत वर्षों तक, बहुत-सी शताब्दियों तक, बहुत-सी सहस्राब्दियों-हजारों वर्षों तक, बहुत-सी शतसहस्राब्दियों-लाखों वर्षों तक, दोष रहित सपरिवार अति सन्तुष्ट और परमायु अर्थात् उत्कृष्ट आयु भोगें। इ8 जणसंपरिवुडो चंपाए णयरीए, अण्णेसिं च बहूणं गामा-गर-णयर-खेडकब्बड-मडंब-दोणमुह-पट्टण-आसम-णिगम-संवाह-संणिवेसाणं आहेवच्चं पोरेवच्चं For Personal & Private Use Only Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उववाइय सुत्त भट्टित्तं सामित्तं महय-रत्तं आणाईसरसेणावच्चं कारेमाणे पालेमाणे, महयाऽऽहयणट्टगीयवाइयतंती-तलतालतुडियघेणमुयंगपडुप्पवाइयरवेणं विउलाई भोगभोगाई भुंजमाणे विहराहि-त्तिकट्टु जय जय सद्दं पउंजंति । भावार्थ - 'इष्टजन से परिवृत्त होकर, चम्पा नगरी का एवं और भी बहुत से ग्राम आकर - M आदि के उत्पत्ति स्थान, नगर-कर से मुक्त शहर, खेट - धूलिकोट वाले गांव, कर्बट - कुनगर, मडम्ब,. द्रोणमुख - जलपथ और स्थलपथ से युक्त निवासस्थान, पत्तन - बन्दरगाह अथवा केवल जलमार्ग वाली या केवल स्थलमार्ग वाली बस्ती, आश्रम, निगम, संवाह पर्वत की तलेटी आदि के गांव और सन्निवेश-धोष आदि का आधिपत्य, पुरोवर्तित -आगेवानी, भर्तृत्त्व - पोषकता, स्वामित्व, महत्तरत्त्व - बड़प्पन और आज्ञा कारक सेनापतित्त्व करते हुए पालन करते हुए, कथानृत्य, गीतिनाट्य, वाद्य, वीणा, करताल, तूर्य, मेघ, मृदंग को कुशल पुरुषों के द्वारा बजाये जाने से उठने वाली महाध्वनि के साथ विपुल भोगों को भोगते हुए विचरें' - यों कहकर, वे व्यक्ति जयघोष करते थे। विवेचन - 'पत्तनं रत्नभूमिरित्यन्ये' अर्थात् दूसरे आचार्य 'पत्तन' का रत्नभूमि अर्थ करते हैं । 'आहयत्ति - आख्यानकप्रतिबद्धं, अहतं वा अव्यवच्छिन्नं, आहतं वा- आस्फालितं यन्नाद्यं - नाटकम्' अर्थात् कथाबद्ध या लगातार या नाचकूद युक्त नाटक । 'तलतालाश्च हस्तास्फोटरवाः, तला वा हस्ताः तालाः कशिकाः' अर्थात् 'तलताल यानी तालियों की आवाज या तल-हाथ और ताल-कंशिका - कांसी का वाद्य । तएण से कोणि राया भंभसारपुत्ते णयणमालासहस्सेहिं : पेच्छिज्जमाणे पेच्छिज्जमाणे हिययमालासहस्सेहिं अभिनंदिज्जमाणे अभिनंदिजमाणे उण्णइज्जमाणे मणोरहमालासहस्सेहिं विच्छिष्पमाणे विच्छिप्पमाणे, वयणमालासहस्सेहिं अभिथुव्वमाणे अभिथुव्वमाणे, कंतिसोहग्गगुणेहिं पत्थिज्जमाणे पत्थिज्जमाणे । भावार्थ - तब भंभसारपुत्र कोणिकराजा, हजारों नयनमालाओं से दर्शित बनता हुआ, हजारों हृदयमाला से अभिनंदित होता हुआ, हजारों मनोरथ माला से वाञ्छित होता हुआ, कान्ति-सौभाग्य से प्रार्थित होता हुआ, हजारों वचनों से प्रशंसित होता हुआ । बहूणं णरणारिसहस्साणं दाहिणहत्थेणं अंजलिमालासहस्साइं पडिच्छमाणे पडिच्छमाणे, मंजुमंजुणा घोसेणं पडिपुच्छमाणे पडिपुच्छमाणे, भवणपंतिसहस्साइं समइच्छमाणे समइच्छमाणे, चंपाए णयरीए मज्झमज्झेणं णिग्गच्छइ । भावार्थ - बहुत-से हजारों नर नारियों की दाहिने हाथ से दी हुई हजारों अञ्जलिमाला को- नमस्कार को स्वीकार करता हुआ, मीठे कोमल स्वर से कुशलवार्ता पूछता हुआ और हजारों भवनों की पंक्तियों को लांघता हुआ, चम्पानगरी के बीचोंबीच होकर निकला । १२० For Personal & Private Use Only Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान् की पर्युपासना १२१ भगवान् की पर्युपासना णिगच्छित्ता जेणेव पुण्णभद्दे चेइए तेणेव उवागच्छइ। उवागच्छित्ता समणस्स भगवओ महावीरस्स अदूरसामंते छत्ताईए तित्थयराइसेसे पासइ। भावार्थ - चम्पानगरी से निकलकर, जहाँ पूर्णभद्र उद्यान था, वहां आये। वहाँ आकर, न अधिक नजदीक न अधिक दूर ऐसे स्थान से श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के छत्र आदि तीर्थंकर के अतिशय ( विशेषताएँ) देखे। पासित्ता आभिसेक्कं हत्थिरयणं ठवेइ। ठवित्ता आभिसेक्काओ हत्थिरयणाओ पच्चोरुहइ। भावार्थ - तब आभिषेक्य हस्तिरत्न को खड़ा रखा और उससे नीचे उतरे। आभिसेक्काओ हत्थिरयणाओ पच्चोरुहित्ता अवहट्ट पंच रायककुहाइं। तं जहाखग्गं छत्तं उप्फेसं वाहणाओ वालवीयणं। भावार्थ - हस्तिरत्न से उतरकर, पांच राजचिह्नों को अलग किये यथा - खड्ग, छत्र, मुकुट, उपानद्-जूते और चामर। विवेचन - छत्र, चमर और मुकुट को, मोचड़ी अरु तलवार। राजा छोड़े पांच को, धर्म सभा मंझार॥ जेणेव समणे भगवं महावीरे, तेणेव उवागच्छइ।उवागच्छित्ता समणंभगवं महावीरं पंचविहेणं अभिगमेणं अभिगच्छइ। तं जहा - १ सच्चित्ताणं दव्वाणं विउसरणयाए २ अच्चित्ताणं दव्वाणं अविउसरणयाए ३ एगसाडियं उत्तरासंगकरणेणं, ४ चक्खुफासे अंजलिपग्गहेणं ५ मणसो एगत्तभावकरणेणं। भावार्थ - फिर जहां श्रमण भगवान् महावीर स्वामी थे, वहाँ आये और पांच अभिगम (=धर्म सभा के औपचारिक नियम) सहित श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के सन्मुख गये। यथा - १. सचित्तसजीव द्रव्यों को छोड़ना, २. अचित्त द्रव्यों का व्यवस्थित करना, ३. एक शाटक-अखण्ड-बिना सिले हुए वस्त्र दुपट्टे से उत्तरासंग (उत्तर-श्रेष्ठ+आसंग-लगाव) करना, ४. धर्मनायक के दृष्टि गोचर होते ही हाथ जोड़ना और ५. मन का एकत्व भाव करना या एक चित्त होना। विवेचन - सचित्त त्याग अचित्त रख, उत्तरासंग कर जोड़। कर एकाग्र चित्त को, सब झंझट को छोड़॥ For Personal & Private Use Only Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२ उववाइय सुत्त समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो आयाहिणं पयाहिणं करेइ, तिक्खुत्तो आयाहिणं पयाहिणं करेत्ता वंदइ णमंसइ भावार्थ - फिर श्रमण भगवान् महावीर स्वामी की तीन बार आदक्षिणा प्रदक्षिणा की, आदक्षिणा प्रदक्षिणा करके वंदना की और उन्हें नमस्कार किया। वंदित्ता णमंसित्ता तिविहाए पज्जुवासणाए पज्जुवासइ। तं जहा - काइयाए वाइयाए माणसियाए। भावार्थ - वंदना नमस्कार करके, तीन प्रकार की पर्युपासना से पर्युपासना करने लगा। यथा - कायिकी, वाचिकी और मानसिकी। काइयाए ताव संकुइयग्गहत्थपाए सुस्सूसमाणे णमंसमाणे, अभिमुहे विणएणं पंजलिउडे पज्जुवासइ। भावार्थ - कायिकी-हाथ-पैर को संकुचित करके श्रवण करते हुए-नमस्कार करते हुए, भगवान् की ओर मुँह रखकर, विनय से हाथ जोड़े हुए, पर्युपासना करता था। वाइयाए-जं जं भगवं वागरेइ-एवमेयं भंते ! तहमेयं भंते ! अवितहमेयं भंते ! असंदिद्धमेयं भंते ! इच्छियमेयं भंते ! पडिच्छियंमेयं भंते ! इच्छिय पडिच्छियंमेयं भंते ! से जहेयं तुब्भे वयह-अपडिकूलमाणे पज्जुवासइ। भावार्थ - वाचिकी-जो जो भगवान् कहते, उससे-'यह ऐसा ही है भन्ते !' 'यही तथ्य है भन्ते !' 'यही सत्य है भन्ते !' 'नि:संदेह ऐसा ही है भन्ते !' 'यही इष्ट है भन्ते !' 'यही स्वीकृत है भन्ते !' 'यही वाञ्छित-गृहीत है भन्ते !' - जैसा कि आप यह फरमा रहे हैं।' - यों अप्रतिकूल (अनुकूल) बनकर पर्युपासना करता था। माणसियाए महया संवेगंजणइत्ता तिव्वधम्माणुरागरत्तो पन्जुवासइ। भावार्थ - मानसिकी-अति संवेग-उत्साह या मुमुक्षुभाव उत्पन्न करके, धर्म के अनुराग में तीव्रता से आरक्त होकर पर्यपासना करता था। __सुभद्रा महारानी का प्रस्थान ३३. तएणं ताओ सुभद्दाप्यमुहाओ देवीओ अंतो अंतेउरंसि ण्हायाओ जाव पायच्छित्ताओ सव्वालंकार-विभूसियाओ; भावार्थ - तब भगवान् के आगमन की सूचना मिलने पर अन्तःपुर में निवास करनेवाली सुभद्रा प्रमुख देवियों ने स्नान किया यावत् प्रायश्चित्त किया और वे सभी अलंकारों से विभूषित हुई। __ बहूहिं खुजाहिं चिलाईहिं वामणीहिं वडभीहिं बब्बरीहिं पयाउसियाहि जोणियाहिं For Personal & Private Use Only Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान् की पर्युपासना १२३ पण्हवियाहिं इसिगिणियाहि वासिइणियाहिं लासियाहिं लउसियाहिं सिंहलीहिं दमीलीहिं आरबीहिं पुलंदीहिं पक्कणीहिं बहलीहिं मुरुंडीहिं सबरियाहिं पारसीहिं णाणादेसीविदेसपरिमंडियाहिं इंगियचिंतियपत्थिय (इंगियचिंतियपत्थियमणोगय) विजाणियाहिं सदेस-णेवत्थग्गहियवेसाहिं चेडिया चक्कवालवरिसधर-कंचुइज्जमहत्तरगवंदपरिक्खित्ताओ अंतेउराओ णिग्गच्छंति। ___ भावार्थ - फिर बहुत-सी कुब्जाओं, चेटिकाओं, वामनियों, वडभियों, बब्बरी, पयाउसिया, जोणिया, फ्ण्हविया, इसिगिणिया वासिइणिया, लासिया, लउसिया, सिंहली, दमिली, आरबी, पुलंदी, पक्कणी, बहली, मुरुंडी, सबरी और पारसी-इन नाना देश-विदेश की निवासिनियों-जो कि अपनी स्वामिनी के इंगित-मुखादि के चिह्न, या चेष्टा, चिन्तित-सोची हुई बात और प्रार्थित-अभिलषित मनोगत बात की जानकार थीं, जो अपने अपने देश की वेशभूषा को पहने हुए थी, उन चेटियों के समूह वर्षधर-नाजर, कृत नपुंसक, कंचुकीय-अन्त:पुर के रक्षक और महत्तरग-अंत:पुर के रक्षकों के अधिकारी से घिरी हुई, अन्तःपुर से निकली। , अंतेउराओ णिग्मच्छित्ता जेणेव पाडिएक्कजाणाइं तेणेव उवागच्छति।उवागच्छित्ता पाडिएक्कपाडिएक्काई जत्ताभिमुहाई जुत्ताई जाणाइंदुरूहंति। भावार्थ - जहां प्रत्येक रानियों के लिये यान खड़े थे, वहां आयीं और जुते हुए यात्राभिमुख यानों पर सवार हुई। दुरूहित्ता णियगपरियाल सद्धिं संपरिवुडाओ चंपाए णयरीए मज्झमझेणं णिग्गच्छंति।णिग्गच्छित्ता जेणेव पुण्णभद्दे चेइए तेणेव उवागच्छंति। __ 'भावार्थ - अपने परिवार से घिरी हुई चम्पानगरी के मध्य से होकर निकली। जहां पूर्णभद्र उद्यान था, वहां आयी। उवागच्छित्ता समणस्स भगवओ महावीरस्स अदूरसामंते छत्ताइए तित्थयराइसेसे पासंति। पासित्ता पाडिएक्क पाडिएक्काइं जाणाई ठवंति। ठवित्ता जाणेहितो पच्चोरुहंति। ___ भावार्थ - दृष्टि योग्य स्थान से श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के तीर्थकरत्व सूचक छत्रादि अतिशय देखे। तब यानों को ठहराये और उनसे नीचे उतरीं। _जाणेहिंतो पच्चोरुहित्ता बहूहिं खुजाहिं जाव परिक्खित्ताओ जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छंति। तेणेव उवागच्छित्ता समणं भगवं महावीरं पंचविहेणं अभिगमेणं अभिगच्छंति।तं जहा- १ सच्चित्ताणंदव्वाणं विउसरणयाए २ अच्चित्ताणं दव्वाणं अविउसरणयाए ३ विणओणयाए गायलट्ठीए ४ चक्खुफासे अंजलिपग्गहेणं ५ मणसो एगत्तीकरणेणं। For Personal & Private Use Only Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४ उववाइय सुत्त भावार्थ - बहुत-सी कुब्जाओं से यावत् घिरी हुई, जहां श्रमण भगवान् महावीर स्वामी थे, वहाँ आयीं और पांच अभिगम सहित उनके सन्मुख गई। यथा - १. सचित्त द्रव्यों को छोड़ना, २. अचित्त द्रव्यों को नहीं छोड़ना, ३. विनय से देह को झुकाना, ४. चक्षुःस्पर्श होने पर हाथ जोड़ना और ५. मन को एकाग्र करना। समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो आयाहिणं पयाहिणं करेंति। वंदंति। णमंसंति। वंदित्ता णमंसित्ता कोणियरायं पुरओ कट्ट ठिइयाओ चेव सपरिवाराओ अभिमुहाओ विणएणं पंजलिउडाओ पज्जुवासंति।। भावार्थ - फिर श्रमण भगवान् महावीर स्वामी की तीन बार आदक्षिणा प्रदक्षिणा की। वन्दना की। नमस्कार किया। वन्दना नमस्कार करके कोणिकराजा को आगे रखकर, परिवार सहित स्थित होकर, भगवान् की ओर मुख रख कर, विनय से करबद्ध होकर पर्युपासना करने लगीं। विवेचन - 'ठिइयाओ' का टीकाकार ने 'ऊर्ध्वस्थिता' अर्थात् 'खड़ी हुई' अर्थ किया है। तो उन रानियों ने ऐसा भक्तिभाव से किया था? या समवसरण में स्त्रियों को बैठने का अधिकार नहीं था?-और ऐसा था तो क्यों?-न इसका रहस्य समझ में आया और न कहीं इसका स्पष्टीकरण ही देखने में आया। - विचार करने पर यह अर्थ उचित नहीं लगता है। मूल पाठ में भी ऐसे अर्थ का भास नहीं होता है और सभा-विसर्जन के समय का पाठ तो इस अर्थ से बिलकुल विपरीत अर्थ को बतला रहा है। वहां सुभद्रा प्रमुख देवियों के लिए, 'उठाए उद्वित्ता' शब्दों के प्रयोग की कुछ भी आवश्यकता नहीं थी। अतः यह अर्थ ठीक लगता है कि - कोणिकराजा को आगे करके...वहीं पर ठहरी अर्थात् कोणिकराजा आगे और वे पीछे ठहरीं। _ 'उहाए-उद्वित्ता' शब्द का अर्थ पहले बैठी हुई थी सो फिर खड़ी हुई। यदि रानियाँ पहले से ही खड़ी रहीं हुई होती तो उठने की आवश्यकता नहीं थी, क्योंकि वो पहले ही खड़ी थी। दूसरी बात यह है कि, तीर्थंकर भगवान् के समवसरण में तिर्यंच और तिर्यंचणियाँ भी आती है। यदि स्त्रियों को बैठने का अधिकार न होकर खड़ी रहने का ही नियम हो तो उरपरिसर्पिनी और भुजपरिसर्पिनी कैसे खड़ी रह सकती है ? अर्थात् खड़ी नहीं रह सकती है। अतः स्त्रियाँ खड़ी रहकर ही व्याख्यान सुन सकती है ऐसा कहना आगम सम्मत नहीं है। भगवान् महावीर स्वामी की धर्म देशना ३४-तएणंसमणेभगवंमहावीरेकूणियस्सरण्णोभंभसारपुत्तस्स, सुभद्दाप्पमुहाणं देवीणं तीसे य महइ महालियाए परिसाए इसिपरिसाए मुणिपरिसाए जइपरिसाए देवपरिसाए अणेगसयाए अणेगसयवंदए अणेगसयवंदपरियालाए ओहबले अइबले For Personal & Private Use Only Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान् महावीर स्वामी की धर्म देशना १२५ महब्बले अपरिमियबलवीरियतेयमाहप्पकंतिजुत्ते सारयणवत्थणिय महुरगंभीरकोच णिग्योसदंदुभिस्सरे उरे वित्थडाए, कंठेऽवट्ठियाए, सिरे समाइण्णाए, अगरलाए अमम्मणाए फुडविसयमहुरगंभीरगाहियाए सव्वक्खरसण्णिवाइयाए पुण्णरत्ताए सव्वभासाणुगामिणीए सरस्सइए जोयणणीहारिणासरेणं अद्धमागहाए भासाए भासति अरिहा धम्म परिकहेइ। ___भावार्थ - तब ओघबली-सदा समान बलवाले, महाबली- प्रशस्त बलवाले, अपरिमित शारीरिक शक्ति-बल शारीरिक प्राण, वीर्य-आत्म जनित बल, तेज, माहात्म्य-महानुभावता और कान्ति से युक्त और शरद ऋतु के नव-मेघ की मधुर-गंभीर ध्वनि, क्रौंच पक्षी के निर्घोष और दुंदुभि-नाद के समान स्वर वाले उन श्रमण भगवान महावीर स्वामी ने भंभसारपत्र कोणिक को, सुभद्रा आदि देवियों को, कई सौ कई सौ वृन्द और कई सौ वृन्द परिवार वाली उस अति विशाल परिषद् को, ऋषि-अतिशय ज्ञानी साधु परिषद् को, मुनि-मौनधारी साधु परिषद् को, यति-चरण में उद्यत साधु परिषद् और देव परिषद् को, हृदय में विस्तृत होती हुई, कण्ठ में ठहरती हुई, मस्तक में व्याप्त होती हुई, अलग-अलग निज स्थानीय उच्चारणवाले अक्षरों से युक्त, अस्पष्ट उच्चारण से रहित या हकलाहट से रहित, उत्तम स्पष्ट वर्ण-संयोगो योगों से युक्त, स्वरकला से संगीतमय और सभी भाषाओं में परिणत होनेवाली सरस्वती के द्वारा, एक योजन तक पहुँचने वाले स्वर से, अर्धमागधी भाषा में धर्म को पूर्णरूप से कहा। तेसिं सव्वेसिं आयरियमणारियाणं अगिलाए धम्ममाइक्खइ। साऽविय णं अद्धमागहा भासा, तेसिं सव्वेसिं आरियमणारियाणं अप्पणो सभासाए परिणामेणं परिणमड़। - भावार्थ - उन सभी आर्य-अनार्यों को अग्लानि से-तीर्थङ्कर नामकर्म के उदय से अनायास: बिना थकावट के धर्म कहा। वह अर्द्धमागधी भाषा भी, उन सभी आर्य-अनार्यों की अपनी-अपनी स्वभाषा में परिवर्तित हो जाती थी। तं जहा-अस्थि लोए।अस्थि अलोए। एवं जीवा अजीवा, बंधे मोक्खे, पुण्णे पावे, आसवे संवरे, वेयणा, णिजरा, अरिहंता, चक्कवट्टी, बलदेवा, वासुदेवा, णरगा, णेरइया, तिरिक्खजोणिया, तिरिक्खजोणिणीओ, माया, पिया, रिसओ, देवा, देवलोया, सिद्धी, सिद्धा, परिणिव्वाणं, परिणिव्वुया। भावार्थ - वह धर्मकथा इस प्रकार है - 'लोक हैं। अलोक है। इसी प्रकार जीव-अजीव, बन्ध-मोक्ष, पाप-पुण्य, आस्रव-संवर, वेदना-निर्जरा, अरिहन्त, चक्रवर्ती, बलदेव-वासुदेव, नरकनैरयिक, तिर्यञ्चयोनिक-तिर्यञ्चयोनिका, माता-पिता, ऋषि, देव-देवलोक, सिद्धि-सिद्ध और परिनिर्वाणपरिनिर्वृत हैं। For Personal & Private Use Only Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६ उववाइय सुत्त विवेचन - शून्यवाद के निरसन के लिए लोक और अलोक के अस्तित्त्व का प्रतिपादन है। जीव के अस्तित्त्व के प्रतिपादन से लोकायत नास्तिक चार्वाक मत का खण्डन होता है अर्थात् जड़-अद्वैतवाद का खण्डन होता है और अजीव के अस्तित्त्व की मान्यता से आत्मा-अद्वैतादि वाद का खण्डन होता है। बंध और मोक्ष के प्रतिपादन से इस मत का निषेध हो जाता है कि - 'नाना आश्रया प्रकृति ही बद्ध और मुक्त होती है, न कि आत्मा।' 'पाप की ही हानि-वृद्धि सुख-दुःख में कारण है या पुण्य की वृद्धिहानि। अतः पाप ही है या पुण्य ही है' - इस एकान्त मान्यता पर, पाप-पुण्य का प्रतिपादन खण्डन करता है और इस मान्यता का भी कि- 'जगत-वैचित्र्य का कारण एक मात्र स्वभाव ही है। आस्रव और संवर के अस्तित्व से बन्ध-मोक्ष की निष्कारणता का प्रतिषेध होता है या वीर्य की प्रधानता का उद्घोष। वेदना (कर्म का अनुभव या पीड़ा) और निर्जरा (देशतः कर्मक्षय) के अस्तित्त्व से 'बिना भोगे कर्म क्षीण नहीं होते हैं' - इस बात का प्रतिपादन होता है। अरिहन्त, चक्रवर्ती, बलदेव वासुदेव इन चार की सत्ता का कथन, उनके अतिशायित्त्व (जगत् श्रेष्ठत्व) को अविश्वास की दृष्टि से देखने वालों में, उस विषय में श्रद्धा उत्पन्न कराने के लिए है। 'प्रमाण ग्राह्य नहीं होने से नरकादि नहीं है' इस मत का निषेध, नरक-नैरयिक के अस्तित्त्व से होता है। तिर्यंच आदि के प्रतिपादन से यह मत खण्डित हो जाता है कि 'प्रत्यक्ष प्रमाण की भ्रान्ति के कारण, यह कुवासनादि जन्य तिर्यगादि-प्रतिभास है। वस्तुत: उनकी सत्ता नहीं है।' माता-पिता के अस्तित्व के कथन से उनकी उपकारिता का निर्देश होता है और इस मत का खण्डन होता है कि - 'माता-पिता जनकता की अपेक्षा से कहे जाते हैं। तो फिर जूं, कृमि, गण्डोलक आदि को आश्रय करके भी यह व्यवहार होना चाहिए। क्योंकि वे भी अंगज है। किन्तु ऐसा होता नहीं है। इसलिए यह माता-पितृ रूप व्यवहार वास्तविक नहीं है।' 'ऋषि' की सत्ता से-'पुरुषों के , रागादि वाले होने के कारण कोई भी अतीन्द्रिय पदार्थों का दृष्टा नहीं हो सकता है' इस मत का खण्डन होता है। 'देव नहीं है-प्रत्यक्ष नहीं होने से'-इस मत का खण्डन देव-सत्ता के कथन से होता है। इसी प्रकार के मतों की भ्रान्ति हटाने के लिए सिद्धि-सिद्धालय एवं मोक्ष-सिद्ध और परिनिर्वाण-परम शान्ति-परिनिर्वृत्त अर्थात् परिनिर्वाण-मोक्ष को प्राप्त हुए सिद्ध जीव का कथन है। अस्थि पाणाइवाए मुसावाए अदिण्णादाणे मेहुणे परिग्गहे। अत्थि कोहे माणे माया लोभे....जाव मिच्छा-दसणसल्ले। भावार्थ - प्राणातिपात-प्राणघात, हिंसा, मृषावाद-असत्य, अदत्तादान-चोरी, मैथुन और परिग्रह है। क्रोध, मान, माया, लोभ यावत् मिथ्यादर्शन शल्य है। विवेचन - १. 'प्राणातिपात आदि कर्म बन्ध के हेतु नहीं है। क्योंकि बन्धनीय-बन्धने योग्य जीव का अभाव है'-इस मत का खण्डन प्राणातिपात आदि की सत्ता के कथन से होता है। २. 'जाव' शब्द से इन पदों का संग्रह होता है - 'पेजे दोसे कलहे अब्भक्खाणे पेसुण्णे परपरिवाए अरइरई मायामोसे।' प्रेम-अप्रकट माया और लोभ से व्यक्त होने वाला रोचकभाव, द्वेषअप्रकट मान और क्रोध से व्यक्त होने वाला अरोचक भाव, कलह-राटि, राड़, अभ्याख्यान-असत्य For Personal & Private Use Only Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान् महावीर स्वामी की धर्म देशना दोषारोपण, पैशुन्य - किसी के गुप्त दोषों को प्रकट करना, परपरिवाद - निन्दा, अरति रति- अरति मोहनीय के उदय से चित्त - उद्वेग जन्य भाव और मोहनीय से विषयों में होने वाली अभिरति अर्थात् क्लान्तिजन्य आकर्षण और माया - मृषा - कपट सहित झूठ - विश्वासघात । 'मायामृषा' - कपट सहित झूठ बोलना अथवा वेषान्तर और भाषान्तर- करण से जो परवञ्चन किया जाता है वह मायामृषा है। प्राणातिपात शब्द का अर्थ इस प्रकार है - पन्चेन्द्रियाणि त्रिविधं बलं च उच्छ्वासनिःश्वासमथान्यदायुः । प्राणादशैते भागवद्भिरुक्तास्तेषां वियोजीकरणं तु हिंसा ॥ अर्थ - शास्त्रों में पांच इन्द्रिय, तीन बल, आयु, श्वासोच्छ्वास इस प्रकार से ये १० प्राण भगवान् ने बतलाये हैं। इनका वियोग करना इसका नाम हिंसा है। अत्थि पाणाइवायवेरमणे मुसावायवेरमणे अदिण्णादाणवेरमणे मेहुणवेरमणे परिग्गहवेरमणे जाव मिच्छादंसणसल्लविवेगे । भावार्थ - 'प्राणातिपात विरमण - प्राणघात से वृत्ति हटा लेना, मृषावाद - विरमण - असत्य से . वृत्ति हटा लेना, अदत्तादान विरमण-चोरी से विरत होना, मैथुन विरमण, परिग्रह विरमण यावत् मिथ्यादर्शनशल्य विवेक - मिथ्या विश्वास रूप कांटे को त्यागना है। विवेचन - प्राणातिपात से विरमण और क्रोधादि के त्याग की सत्ता का कथन इसलिए है कि'सर्वथा अप्रमाद अशक्य नहीं है, अतः वह स्थिति असंभव नहीं है ' - इस बात के प्रतिपादन के द्वारा इसके मत का निरोध हो । १२७ सव्वमत्थि भावं अस्थि-त्ति वयइ । सव्वं णत्थिभावं णत्थि त्ति वयइ । • भावार्थ- 'सभी अस्तिभाव (स्वद्रव्यादि की अपेक्षा से होने वाले भाव) को अस्ति है । यह कहा और सभी नास्तिभाव ( पर द्रव्यादि की अपेक्षा से होने वाले भाव) को 'नास्ति' (नहीं है) - यह कहा । (अथवा तत्त्व का प्रतिपादन, विधानात्मक और निषेधात्मक दोनों शैलियों से किया ।) ' विवेचन - सभी द्रव्यों में अस्ति और नास्ति भाव विद्यमान हैं। अस्ति नास्ति भावों के अविरोधी संयोजन से ही, उनका वस्तुत्त्व कायम रह सकता है । अत: जैन धर्म की दृष्टि सापेक्ष है। सुचिण्णा कम्मा सुचिण्णफला भवंति । दुचिण्णा कम्मा दुचिण्णफला भवंति । भावार्थ - ‘सद्-आचरण (तपस्या आदि क्रियाएँ) सुचरितफल (सुचरित के हेतु रूप पुण्यकर्मादि बन्ध रूप फल) वाले होते हैं और बुरे आचरण दुश्चरित (अशुभ) फलवाले होते हैं।' . फुसइ पुण्णपावे । पच्चायंति जीवा । सफले कल्लाणपावए । भावार्थ - 'जीव (सुचरित से इन क्रियाओं से ) पुण्य-पाप बांधते हैं। ( जिससे ) जन्म-मरण करते हैं। (इस कारण कल्याण और पाप (शुभाशुभ कर्म) सफल हैं।' For Personal & Private Use Only Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८ उववाइय सुत्त धम्ममाइक्खइ-इणमेव णिग्गंथे पावयणे सच्चे अणुत्तरे केवलए पडिपुण्णे संसुद्धे णेयाउए सल्लकत्तणे। . भावार्थ - (भगवान् प्रकारान्तर से) धर्म की प्ररूपणा करने लगे-'यह निर्ग्रन्थ-प्रवचन (जड़चेतन की ग्रन्थि को छुडाने वाला उपदेश-आत्मानुशासन) सत्य है। अनुत्तर (सर्वोत्तम, अलौकिक) है। केवल (अद्वितीय या केवलि प्रणीत या अनन्त अर्थ की विषयता के कारण अनन्त) है। प्रतिपूर्ण (प्रवचन . गुणों से सर्वांग सम्पन्न) है। संशुद्ध-कषादि से शुद्ध स्वर्ण के समान गुणपूर्णता के कारण निर्दोष है। नैयायिक (प्रमाण से बाधित नहीं होने वाला) है। शल्यकर्तन (मायादि शल्य का निवारक) है। सिद्धिमग्गे मुत्तिमग्गे णिव्वाणमग्गे णिजाणमग्गे अवितहमविसंधि सव्वदुक्खप्पहीणमग्गे। · भावार्थ - सिद्धिमार्ग (कृतार्थता का उपाय) है। मुक्तिमार्ग (कर्म रहित अवस्था का हेतु) है। निर्याणमार्ग (पुनः नहीं लौटने वाले गमन का हेतु) है। निर्वाणमार्ग (सकल संताप रहितता का पन्थ) है। अवितथ (सद्भूतार्थ-वास्तविक) और अविसन्धि अर्थात् महाविदेह क्षेत्र की अपेक्षा से इसका न कभी विच्छेद हुआ है, न होता है और न कभी विच्छेद होगा और सर्व दुःख-प्रहीणमार्ग (सकल दुःखों को निःशेष करने का पन्थ अथवा जहाँ सभी दुःख प्रहीण हैं ऐसे मोक्ष का यह मार्ग) है। इहट्ठियाजीवासिझंति।बुज्झति।मुच्चंति।परिणिव्वायंति।सव्वदुक्खाणमंतंकरेंति। भावार्थ - इस (प्रवचन में) स्थित जीव सिद्ध (सिद्धिगमन के योग्य अथवा इस लोक में अणिमादि महासिद्धियों को प्राप्त) होते हैं। बुद्ध (केवलज्ञानी-पूर्णज्ञानी) होते हैं। मुक्त (भवोपग्राही काँश से रहित) होते हैं। परिनिर्वृत (कर्मकृत सकल संताप से रहित-आनन्दघन) होते हैं और सभी दुःखों का अन्त करते हैं। ___ एगच्चा पुण एगे भयंतारो पुव्वकम्मावसेसेणं अण्णयरेसु देवलोएसु देवत्ताए उववत्तारो भवंति। भावार्थ - या फिर एक ही मनुष्य देह धारण करना शेष रही है जिन्हें ऐसे (एगच्चा) कोई भदन्त • (कल्याणी) किसी देवलोक में पूर्व कर्म के बाकी रहने से देवरूप से उत्पन्न होते हैं। विवेचन - 'भयंतारो' शब्द का अर्थ होता है भदन्त अर्थात् कल्याणकारी अथवा प्रवचन का सेवन करने वाला। शुभ प्रवृत्ति वाले-इस विशेषण और 'पूर्व कर्मावशेष' इस पद द्वारा 'तप और संयम का फल देवलोक ही है'-इस एकान्त मान्यता का निषेध होता है। अर्थात् संयमी के देवलोक में उत्पन्न होने का मुख्य कारण 'संवर और निर्जरा' नहीं। किन्तु संवर और निर्जरा के कारणों का सेवन करते हुए होने वाली शुभ प्रवृत्ति और क्षय होते-होते अवशिष्ट रहे हुए कर्म हैं। For Personal & Private Use Only Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान् महावीर स्वामी की धर्म देशना १२९ "देवत्ताए' पद के द्वारा एकेन्द्रियादि रूप से उत्पन्न होने का निषेध होता है। महड्डिएसु जाव महासुक्खेसु दूरंगइएसु चिर- टिइएसु ते णं तत्थ देवा भवंतिमहड्डीए जाव चिरट्ठिइया हारविराइयवच्छा जाव पभासमाणा कप्पोवगा गइकल्लाणा आगमेसिभद्दा जाव पडिरूवा। भावार्थ - (वे देवलोक) महर्द्धिक यावत् महासौख्य वाले, अनुत्तर विमान तक की गति वाले (दूरंगतिक) और लम्बी स्थिति वाले हैं। वहाँ वे देव महर्द्धिक यावत् लम्बे आयुष्य वाले होते हैं। उनके वक्षस्थल हारों से सुशोभित होते हैं। यावत् वे अपनी देहप्रभा से दसों दिशा में प्रभा फैलाते हैं। वे देवलोक में उत्पन्न शुभ गति के धारक और भविष्य काल में भद्र (निर्वाण लक्षणात्मक) अवस्था को प्राप्त करने वाले यावत् प्रतिरूप होते हैं। विवेचन - इस 'सूत्र' में चार बार 'जाव' शब्द से पाठ को संक्षिप्त किया गया है। पहली बार के जाव से 'महज्जुइएसु महाबलेसु महायसेसु महाणुभागेसु', दूसरी बार के जाव' से-पूर्ववत्, तीसरी बार के जाव' से-'कडयतुडियर्थभियभुया अंगयकुंडलमट्ठगंडकण्णपीठधारी विचित्तहत्थाभरणा दिव्वेणं संघाएणं दिव्वेणं संठाणेणं दिव्याए इडीए दिव्वाए जुईए दिव्याए पभाए दिव्वाए छायाए दिव्वाए अच्चीए दिव्येणं तेएणं दिव्वाए लेसाए दस दिसाओ उज्जोवेमाणा' और चौथी बार के 'जाव' से 'पासाईया दरिसणिज्जा अभिरूवा' पदों का संग्रह किया गया है। इन शब्दों का अर्थ पहले कर दिया गया है। तमाइक्खइ। एवं खलु चाहिं ठाणेहिं जीवा जेरइयत्ताए कम्मं पकरंति। णेरइत्ताए कम्मं पकरेत्ता जेरइस उववज्जति। भावाथ - (निर्ग्रन्थ प्रवचन के फलकथन का उपसंहार करते हुए कहा गया कि-) यह उसका फल है। (भगवान् प्रकारान्तर से धर्म कहने लगे-) इस प्रकार के चार कारणों से जीव नैरयिक भव के कर्म का बन्ध करता है और नरक में उत्पन्न होता है। तं जहा-महारंभयाए महापरिग्गहयाए पंचिंदिय-वहेणं कुणिमाहारेणं। __ भावार्थ - यथा-महारंभता (अत्यधिक हिंसा के भाव), महा परिग्रहता (अत्यधिक संग्रह के भाव); पञ्चेन्द्रियवध और मांसाहार से। ___एवं एएणं अभिलावेणं तिरिक्खजोणिएसु माइल्लयाए णियडिल्लयाए अलियवयणेणं उक्कंचणयाए वंचणयाए। भावार्थ - इस प्रकार इस अभिलाप (सूत्र पाठ) से तिर्यंच योनिकों में (उत्पन्न होते हैं)-यथामायावीपनसे, निकृति (वेष आदि बनाकर ठगना) से, झूठ बोलने से और उत्कञ्चनता-(मुग्ध जन को ठगने में प्रवृत्त हुए व्यक्ति का, समीपवर्ती किसी चतुर पुरुष के चित्त में सन्देह प्रविष्ट नहीं होने देने के For Personal & Private Use Only Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३० उववाइय सुत्त लिए, क्षणभर के लिए, किसी प्रकार की क्रिया नहीं करती हुई-सी अवस्था में स्थित रहना) वञ्चनता (प्रतारणा-धूर्तता) से। मणुस्सेसु-पगइभद्दयाए पगइविणीययाए साणुक्कोसयाए अमच्छरिययाए। भावार्थ - (इन कारणों से) मनुष्यों में (उत्पन्न होते हैं)-यथा-स्वाभाविक भद्रता (दूसरों को दुःखी नहीं करने के भाव या सरलता) से, स्वाभाविक विनीतता से, सदयता से और अमत्सरता (अन्य के उत्कर्ष के प्रति ईर्ष्या का अभाव या गुणादि के उत्कर्ष में प्रमोदभावना) से। देवेसु-सरागसंजमेणं, संजमासंजमेणं, अकाम-णिजराए बालतवोकम्मेणं। तमाइक्खइ। भावार्थ - देवों में (उत्पन्न होते हैं-) सराग संयम से, संयमा-संयम (-देशविरति) से, अकाम निर्जरा (निरुद्देश्य या विवशता वश कष्ट-सहना) से और बाल (वास्तविक समझ से शून्य) तप से। - यह धर्म कहा। जह णरगा गम्मंति, जे णरगा जा य वेयणा णरए। सारीरमाणसाई, दुक्खाई तिरिक्ख जोणीए॥ भावार्थ - जिस प्रकार नैरयिक नरक में जाते हैं और वहाँ पर जो नैरयिक जैसी वेदना पाते हैं। तिर्यञ्च योनि में जो शारीरिक-मानसिक दुःख होते हैं। (उसका कथन किया)। माणुस्सं च अणिच्चं, वाहिजरामरणवेयणापउरं। देवे य देवलोए, देविड् िदेवसोक्खाई॥ भावार्थ - व्याधि, बुढापा, मृत्यु और वेदना से भरपूर अनित्य मनुष्य भव का (स्वरूप) और देव और देवलोक, उनकी ऋद्धि एवं उनके सुख का (कथन किया)। णरगं तिरिक्खजोणिं, माणुसभावं च देवलोयं च। .. सिद्धे य सिद्धवसहि, छज्जीवणियं परिकहेइ॥ भावार्थ - नरक, तिर्यंच योनि, मनुष्य के भाव, देवलोक, सिद्ध, सिद्धालय और छह जीवनिकाय को सम्पूर्ण रूप से कहा। जह जीवा बझंति, मुच्चंति जह य परिकिलिस्संति। जह दुक्खाइणं अंतं, करंति केई अपडिबद्धा॥ भावार्थ - जिस प्रकार जीव बन्धते हैं, मुक्त होते हैं और जिस प्रकार महान् क्लेश पाते हैं एवं कई अनासक्त व्यक्ति जिस प्रकार दुःखों का अन्त करते हैं (यह समझाया)। For Personal & Private Use Only Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान् महावीर स्वामी की धर्म देशना अट्टा अट्टियचित्ता, जह जीवा दुक्खसागरमुविंति। जह वेरग्गमुवगया, कम्मसमुग्गं विहाडंति॥ भावार्थ - आर्त (शरीर से दुःखी) और आर्तचित्त वाले जीव जिस प्रकार दुःखसागर में गिरते हैं और जिस प्रकार वैराग्य को प्राप्त होकर, कर्मदल को चूर कर देते हैं-(यह समझाया)। जहा रागेण कडाणं, कम्माणं पावगो फलविवागो। जह य परिहीणकम्मा, सिद्धा सिद्धालयमुविंति॥ भावार्थ - जिस प्रकार राग से किये हुए कर्मों का फल-विपाक पापरूप (होता है) और जिस प्रकार सकल कर्म से रहित सिद्ध सिद्धालय को प्राप्त होते हैं-(यह समझाया)। तमेव धम्मं दुविहं आइक्खइ। तंजहा-अगारधम्म अणगारधम्मं च। भावार्थ - उसी धर्म को दो प्रकार का कहा। वह यथा-अगारधर्म और अनगार धर्म। अणगारधम्मो ताव-इह खलु सव्वओ सव्वत्ताए मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वयइ। भावार्थ - अनगार धर्म इस संसार में जो सर्वत: द्रव्य और भाव से सम्पूर्ण आत्मा से सर्वात्मनासभी क्रोधादि आत्म परिणामों के त्याग से मुंड होकर, गृहवास से निकल कर अनगार अवस्था में जाते ... सव्वाओ पाणाइवायाओ वेरमणं मुसावाय वेरमणं अदिण्णादाण वेरमणं मेहुण वेरमणं परिग्गह वेरमणं राईभोयणाउ वेरमणं। भावार्थ - वे सम्पूर्ण प्राणातिपात, मृषावाद, अदत्तादान, मैथुन, परिग्रह और रात्रि भोजन से विरत (होते हैं)। । अयमाउसो ! अणगार सामाइए धम्मे पण्णत्ते। " भावार्थ - हे आयुष्मन् ! यह अनगार सामायिक (अनगारों का सैद्धान्तिक या समाचरणीय) धर्म कहा गया है। एयस्स धम्मस्स सिक्खाए उवट्ठिए णिग्गंथे वा णिग्गंथी वा विहरमाणे आणाए आराहए भवइ। .. भावार्थ - इस धर्म की शिक्षा में उपस्थित निर्ग्रन्थ या निर्ग्रन्थी विचरण करते हुए तीर्थंकर भगवान् की आज्ञा के आराधक होते हैं। ___ अगारधम्मं दुवालसविहं आइक्खइ।तं जहा-पंचअणुव्वयाई, तिण्णि गुणव्वयाई, चत्तारि सिक्खावयाइं। For Personal & Private Use Only Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३२ उववाइय सुत्त भावार्थ - अगार धर्म (गृहस्थ उपासक का धर्म) बारह प्रकार का कहा। यथा-पांच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षा व्रत। पंच अणुव्वयाइं। तंजहा-थूलाओ पाणाइवायाओ वेरमणं। थूलाओ मुसावायाओ वेरमणं।थूलाओ अदिण्णादाणाओ वेरमणं। सदारसंतोसे।इच्छापरिमाणे। __ भावार्थ - पांच अणुव्रत। यथा-स्थूल प्राणातिपात से निवृत्ति। स्थूल मृषावाद से निवृत्ति। स्थूल अदत्तादान से निवृत्ति। स्व-स्त्री-संतोष और इच्छा की मर्यादा। तिण्णिगुणव्वयाइंतंजहा-अणत्थदंडवेरमणं दिसिव्वयं उवभोगपरिभोगपरिमाणं। भावार्थ - तीन गुणव्रत-गुणों की वृद्धि करने वाले नियम। यथा-अनर्थदण्ड-आत्मगुणघातक निरर्थक प्रवृत्ति का त्याग। दिग्व्रत-दिशाओं में गमन सम्बन्धी मर्यादा और उपभोग-जिन्हें कई बार भोगी जा सके ऐसी वस्तुएँ-जैसे वस्त्र आदि और परिभोग-एक ही बार भोगी जा सके ऐसी वस्तुएँ जैसे खान-पान, उबटन आदि का परिमाण। चत्तारि सिक्खावयाइं। तं जहा-सामाइयं। देसावगासियं। पोसहोववासे। अतिहिसंविभागे। भावार्थ - चार शिक्षाव्रत-अभ्यास सम्बन्धी व्रत यथा - सामायिक-समभाव की सम्पूर्ण साधना के लिये किया जाने वाला नियत समय का अभ्यास। दिशावकाशिक-नित्यप्रति निवृत्ति की वृद्धि का अभ्यास, पौषधोपवास-आत्मभाव के पोषण के लिए आहार, अब्रह्म आदि का नियत तिथियों में त्याग और अतिथि के लिये विभाग-अनिमंत्रित संयमीजन अथवा साधर्मी बन्धुओं को अपने अनुग्रह के लिये, संयमोपयोगी और जीवनोपयोगी स्व-अधिकत सामग्री का भाग, आदर सहित देकर और सदैव संविभाग की भावानुवृत्ति से अकेले ही भोगने की भावना को दूर हटाने का अभ्यास।। अपच्छिमा मारणंतिया संलेहणाजूसणाराहणा। अयमाउसो ! अगारसामाइए धम्मे पण्णत्ते। भावार्थ - अन्तिम मरण रूप अन्तवाली और तप के द्वारा काया को कश बनाने वाली क्रिया की सेवना और आराधना- ज्ञानादि गुणों की विशेष रूप से पालना। हे आयुष्मन् ! यह अगार-सामायिक (गृहस्थाचार) धर्म कहा गया है। एयस्स धम्मस्स सिक्खाए उवट्ठिए समणोवासए वा समणोवासिया वा विहरमाणे आणाए आराहए भवइ। भावार्थ : इस धर्म की शिक्षा में उपस्थित श्रमणोपासक (श्रावक) वा श्रमणोपासिका (श्राविका) जीवन व्यतीत करते हुए तीर्थंकर भगवान् की आज्ञा के आराधक होते हैं। For Personal & Private Use Only Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सभा-विसर्जन १३३ सभा-विसर्जन ३५- तए णं सा महइमहालिया महच्चपरिसा मणुस्सपरिसा समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए धम्म सोच्चा-णिसम्म हट्ठतुटु जाव हियया उट्ठाए उठे। भावार्थ - तब वह विशाल मनुष्य-सभा, श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के समीप धर्म को सुनकर-हृदय में धारण कर, हर्षित, संतुष्ट.....यावत् विकसित हृदय हुई और उत्थान पुरुषार्थ के द्वारा उठकर खड़ी हुई। - उट्ठाए उद्वित्ता समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो आयाहिणं पयाहिणं करेइ। करेत्ता वंदइ णमंसड़। भावार्थ - उत्थान से उठ कर श्रमण भगवान् महावीर स्वामी की तीन बार आदक्षिणा प्रदक्षिणा की आदक्षिण-प्रदक्षिणा करके वन्दना की और नमस्कार किया। वंदित्ता णमंसित्ता अत्यंगइया मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइए। अत्थेगइया पंचाणुव्वइयं सत्तसिक्खावइयं दुवालसविहं गिहिधम्म पडिवण्णा। - भावार्थ - कई श्रोता मुण्डित होकर गृहवास से निकल कर अनगार अवस्था में आये और कइयों ने पांच अणुव्रत और सात शिक्षा व्रत रूप बारह प्रकार के गृहस्थ धर्म को स्वीकार किया। _ विवेचन - तीन गुणव्रत को भी शिक्षाव्रत में गिन लेने के ये कारण हो सकते हैं-कथन-संक्षेप, दोनों का उत्तरगुण होना, नियम रूप होना, अभ्यास रूप होना आदि। __अवसेसा णं परिसा समणं भगवं महावीरं वंदइ णमंसइ। वंदित्ता णमंसित्ता एवं वयासी भावार्थ - शेष परिषदा ने श्रमण भगवान् महावीर स्वामी को वंदना की-नमस्कार किया। फिर इस प्रकार बोली- सुयक्खाए ते भंते !णिग्गंथे पावयणे।एवं सुपण्णत्ते सुभासिए सुविणीए सुभाविए अणुत्तरे ते भंते ! णिग्गंथे पावयणे। भावार्थ - हे भंते (हे पूज्य) ! आपने निर्ग्रन्थ-प्रवचन सुन्दर रूप से कहा। इसी प्रकार सुप्रज्ञप्त-विशेषता युक्त उत्तम रीति से कहा हुआ, सुभाषित-सुन्दर भाषा से कहा हुआ, सुविनीतशिष्यों में उत्तम विनियोजित, सुभावित-तत्त्व कथन उत्तम भाव युक्त बना हुआ और अनुत्तर-सर्वोत्तम है। भंते ! जड़-चेतन की ग्रन्थियों का मोचक आपका उपदेश है। For Personal & Private Use Only Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३४ उववाइय सुत्त धम्मं णं आइक्खमाणा तुब्भं उवसमं आइक्खह। उवसमं आइक्खमाणा विवेगं आइक्खह। विवेगं आइक्खमाणा वेरमणं आइक्खह। वेरमणं आइक्खमाणा अकरणं पावाणं कम्माणं आइक्खह। भावार्थ - हे भगवन् ! आपने धर्म की व्याख्या करते हुए उपशम-क्रोधादि के निरोध का व्याख्यान किया। उपशम की व्याख्या करते हुए विवेक-बाह्य परिग्रह या बहिर्भाव के त्याग का स्वरूप कहा। विवेक की व्याख्या करते हुए विरमण-मन की निवृत्ति अथवा निज स्वरूप में लौटने की प्रक्रिया का कथन किया और विरमण की व्याख्या करते हुए पापकर्मों-अशुभ भाव आत्मा की मलिन अवस्था में गति को नहीं करने का कहा। विवेचन - पापों का अकरण, विरमण, विवेक और उपशम ये क्रियात्मक धर्म के प्रमुख अंग हैं। क्रियात्मक धर्म पापकर्मों के त्याग से प्रारम्भ होकर, उपशम में प्रतिष्ठित होता है। णत्थि णं अण्णे केइ समणे वा माहणे वा जे एरिसं धम्ममाइक्खित्तए। किमंग पुण एत्तो उत्तरतरं ! भावार्थ - आपके सिवाय अन्य कोई श्रमण या ब्राह्मण नहीं है। जो ऐसा धर्म कह सके। तो फिर इससे बढ़ कर धर्म का उपदेश कौन दे सकता है ? अर्थात् कोई नहीं। एवं वदित्ता जामेव दिसं पाउब्भूया तामेव दिसं पडिगया। भावार्थ - इस प्रकार कहकर, जिस दिशा से आये थे, उसी दिशा में वापिस गये। कोणिक राजा और रानियों का वापिस गमन .३६- तए णं कूणिए राया भंभसारपुत्ते समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए धम्मं सोचा णिसम्म हट्टतुटु जाव हियए उठाए उडेइ। उट्टाए उद्वित्ता समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो आयाहिणं पयाहिणं करेइ करित्ता वंदइ णमंसइ। वंदित्ता णमंसित्ता एवं वयासी-सुयक्खाए ते भंते ! णिग्गंथे पावयणे जाव किमंग पुण एत्तो उत्तरतरं? एवं वदित्ता जामेव दिसं पाउब्भूए तामेव दिसं पडिगए। भावार्थ - इसके बाद भंभसार श्रेणिक के पुत्र उस कोणिक राजा ने श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के पास में धर्मोपदेश सुनकर एवं उसका अच्छी तरह पूर्वापर विचार कर एवं हृदय में धारण कर For Personal & Private Use Only Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कोणिक राजा और रानियों का वापिस गमन चित्त में अधिक से अधिक आनन्द और संतोष प्राप्त किया। फिर अपने स्थान से उठा । उठकर श्रमण भगवान् महावीर स्वामी को तीन बार आदक्षिण- प्रदक्षिणा की। वैसा करके वंदना नमस्कार किया । वन्दना नमस्कार कर वह इस प्रकार बोला कि - हे भगवन् ! आप द्वारा सुआख्यात - सुन्दर रूप से कहा गया। सुप्रज्ञप्त - सुन्दर रीति से समझाया गया सुभाषित। हृदय स्पर्शी भाषा में प्रतिपादित किया गया । निर्ग्रन्थ प्रवचन रूप धर्मोपदेश सर्वप्रधान और सर्वश्रेष्ठ है इससे श्रेष्ठ और प्रधान धर्म के उपदेश की तो बात ही कहां अर्थात् इससे बढ़कर प्रधान और श्रेष्ठ धर्म आप वीतराग के सिवाय दूसरा कोई कह ही नहीं सकता है। ऐसा कहकर कोणिक राजा जिधर से आया था उधर लौट गया अर्थात् अपने महलों की तरफ चला गया। १३५ ३७ - तए णं ताओ सुभद्दापमुहाओ देवीओ समणस्स भगवओ महावीरस्स अंति धम्मं सोच्चा- णिसम्म हट्ठतुट्ठ जाव हिययाओ.......उट्ठाए उट्ठित्ता - समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो आयाहिणं पयाहिणं करेंति । करित्ता नंदंति णमंसंति । वंदित्ता णमंसित्ता एवं वयासी- सुयक्खाए ते भंते ! णिग्गंथे पावयणे जाव किमंग पुण इत्तो उत्तरतरं ? एवं वदित्ता जामेव दिसिं पाउब्भूयाओ तामेव दिसिं पडिंगयाओ। समोसरणं सम्मत्तं । भावार्थ - इसके बाद वे सुभद्रा प्रमुख रानियाँ श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के पास धर्म सुनकर एवं उसे हृदय में धारण कर बहुत ही अधिक प्रसन्न और संतुष्ट हुई। फिर अपने स्थान से उठ कर खड़ी हुई। खड़ी होकर श्रमण भगवान् महावीर स्वामी को तीन बार आदक्षिण- प्रदक्षिणा कर वन्दना नमस्कार किया। वन्दना नमस्कार करके इस प्रकार बोली कि - 'हे भगवन् ! आपने इस निर्ग्रन्थ प्रवचन का उपदेश बहुत ही सुन्दर ढंग से दिया। अच्छी तरह से समझाया यावत् इससे बढ़ कर प्रधान और श्रेष्ठ धर्म का उपदेश आप वीतराग के सिवाय कौन दे सकता है, अर्थात् कोई नहीं दे सकता है। ऐसा कह कर सुभद्रा प्रमुख आदि रानियाँ जिधर से आई थी उधर चली गई अर्थात् अपने महलों की तरफ चली गई। यह औपपातिक सूत्र का समवसरण नामक पूर्वार्द्ध सम्पूर्ण हुआ । ॥ इति ॥ ॥ समवसरण वर्णन समाप्त ॥ For Personal & Private Use Only Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३६ उववाइय सुत्त औपपातिक पृच्छा ३८- तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवओ महावीरस्स जेटे अंतेवासी इंदभई नामं अणगारे गोयम-गोत्तेणं। भावार्थ - उस काल और उस समय श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के ज्येष्ठ शिष्य गौतम गौत्रीय इन्द्रभूति नाम के अनगार थे। ___ सत्तुस्सेहे समचउरंससंठाणसंठिए वइरोसह-नारायसंघयणे कणगपुलगणिग्घसपम्हगोरे। भावार्थ - उनका शरीर सात हाथ ऊँचा था। उनकी आकृति समचतुरस्र संस्थान-संस्थित थी। उनकी देहयष्टि का बन्धन सर्वोत्तम-वज्र-ऋषभ-नाराच-संहनन था। निकष-सोने की कसौटी का पत्थर पर-अङ्कित स्वर्णरेखा-सी पद्मगौर-कमल के गर्भ-सी गोरी उनकी कान्ति थी। उग्गतवे दित्ततवे तत्ततवे महातवे घोरतवे उराले घोरे घोरगुणे घोरतवस्सी। भावार्थ-वे उग्र तपस्वी, दीप्त-कर्मवन को जलाने के लिये प्रदीप्त अग्नि के समान ज्वलित तेजोमय, तपस्वी, तप्ततपस्वी, महातपस्वी, भीम-घोरतपस्वी घोर, घोरगुणी और घोर तपस्वी थे। विवेचन - उग्र, दीप्त, तप्त और महा-ये तप के चार विशेषण दिये गये हैं। 'उग्र' पद तप में तल्लीनता का सूचक है। दीप्त' पद उनके तप की सार्थकता बतला रहा है। 'तप्त' पद उनके स्वयं की तपोरूपता का सङ्केत कर रहा है। अर्थात् वे इस प्रकार तपोरूप बन गये थे-जिस प्रकार कि तपा हुआ लोहे का गोला। 'महा' विशेषण प्रशस्त वा बृहत् अर्थ में आया है। 'ओराले' अर्थात् उदार प्रधान तपस्वी थे। 'भीम' किस प्रकार?-अतिकष्टमय तप को करते हुए, समीपवर्ती अल्प सत्त्व वाले जीवों के लिये भयानक हो गये थे। 'घोर'=१ परीषह-इन्द्रिय-कषायादि रिपुओं का विनाश करने में २. आत्मनिरपेक्ष-अपने आपके प्रति उदासीन (-अन्य)। 'घोरगुण'-अन्य से कठिनता से पाले जा सके, ऐसे मूलगुण आदि के धारक थे। ___घोरबंभचेरवासी उच्छूढसरीरे संखित्तविउलतेयलेस्से समणस्स भगवओ महावीरस्स अदूरसामंते उड्जाणू अहोसिरे झाणकोट्ठोवगए संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरइ। भावार्थ - घोर ब्रह्मचर्यवासी-अल्पसत्त्व वाले जीवों के द्वारा मुश्किल से पालन हो सकने के कारण कठिन ब्रह्मचर्य वास के धारक, शरीर संस्कार के त्यागी, संक्षिप्त-विपुल शरीर के भीतर लीनअनेक योजन प्रमाण क्षेत्राश्रित वस्तुओं को जलाने में समर्थ होने से विस्तीर्ण, तेजोलेश्या-लब्धि विशेष के स्वामी वे गौतम स्वामी श्रमण भगवान् महावीर स्वामी से न अधिक नजदीक न अधिक दूर, ऊर्ध्व For Personal & Private Use Only Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ औपपातिक पृच्छा १३७ जानु-ऊँचे घुटने और अधोशिर-नीचे मुख रखकर अर्थात् उत्कुटुकासन से बैठकर, ध्यान रूपी कोष्ठकोठे में प्रवेश करके, संयम और तप से आत्मा को भावित करते हुए विचर रहे थे। विवेचन - उत्कृष्ट तपस्या करने के कारण गौतम स्वामी को ऐसी विशिष्ट तेजोलेश्या प्राप्त हो गई थी। जिसकी इतनी शक्ति होती है कि अनेक योजन प्रमाण क्षेत्र में रही हुई समस्त वस्तुओं को वह क्षण मात्र में भस्म कर डालती है। किन्तु ऐसी विस्तृत और विपुल लेश्या को भी इन्होंने अपने शरीर के भीतर ही अन्तर्हित (छिपा) कर रखी थी। उसका उपयोग नहीं करते थे। ___ध्यान रूपी कोठे में विराजमान थे यहाँ ध्यान को जो कोठे की उपमा दी है। उसका कारण यह है कि-जिस प्रकार कोठे में रहा हुआ गेहूँ, जौ, आदि धान्य इधर-उधर नहीं बिखरता है उसी प्रकार ध्यान में बैठे हुए की, इन्द्रियाँ और अन्तःकरण की वृत्तियाँ बाहर इधर उधर नहीं हो सकती हैं, मानसिक प्रत्येक वृत्तियाँ इस अवस्था में सम्पूर्ण नियन्त्रित हो जाती हैं। श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के सबसे बड़े शिष्य का नाम इन्द्रभूति था और उनका गोत्र गौतम था। परन्तु वे अपने गोत्र के कारण ही इस नाम से प्रसिद्ध हो गये थे। भगवान् महावीर स्वामी भी उनको 'गोयम' (गौतम) इसी नाम से पुकारते थे। जैसा कि उत्तराध्ययन सूत्र के द्रुम पत्रक नामक दसवें अध्ययन में ३७ गाथाओं में से ३६ गाथाओं में गोयम शब्द का ही प्रयोग हआ है, तथा भगवती सूत्र के प्रश्नोत्तरों में तथा अन्य अनेक जगहों में 'हे गोयमा' इस शब्द का प्रयोग हुआ है। .. ___तएणं से भगवं गोयमे जायसड्ढे जायसंसए जायकोऊहल्ले, उप्पण्णसड्ढे उप्पण्णसंसए उप्पण्ण-कोऊहल्ले, संजायसड्ढे संजायसंसए संजायकोऊहल्ले, समुप्पण्णसड्डे समुप्पण्णसंसए समुप्पण्णकोऊहल्ले उठाए उढेइ। उट्ठाए उछित्ता जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ। उवागच्छित्ता समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो आयाहिणं पयाहिणं करेइ। करेत्ता वंदइ। णमंसइ। वंदित्ता णमंसित्ता णच्चासण्णे णाइदूरे सुस्सूसमाणे णमंसमाणे अभिमुहे विणएणं पंजलिउड़े पजुवासमाणे एवं वयासी भावार्थ - तब भगवान् गौतम स्वामी के मन में श्रद्धा पूर्वक इच्छा उत्पन्न संशय अनिर्धारित अर्थ में शंका, जिज्ञासा एवं कुतूहल उत्पन्न हुआ, फिर उनके मन में विशेष श्रद्धा, संशय और कुतूहल समुत्पन्न हुआ। वे अपने स्थान से उठे। उठकर जहाँ श्रमण भगवान् महावीर स्वामी थे। वहाँ आये आकर भगवान् महावीर स्वामी को तीन बार आदक्षिण-प्रदक्षिणा की, वन्दना नमस्कार किया। वन्दना नमस्कार करके भगवान् के न अधिक नजदीक और न अधिक दूर सुश्रूषा-सुनने की इच्छा करते हुये, प्रणाम करते हुए सामने विनय पूर्वक हाथ जोड़े हुए उनकी पर्युपासना-अभ्यर्थना करते हुए इस प्रकार बोले- । For Personal & Private Use Only Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३८ उववाइय सुत्त विवेचन - गौतम स्वामी के मन में तत्त्व का निर्णय करने के लिए इच्छा उत्पन्न हुई, कारण कि इन्हें इस प्रकार का संशय उत्पन्न हुआ कि यह औपपातिक सूत्र आचारांग सूत्र का उपांग है। आचारांग सूत्र के प्रथम अध्ययन के प्रथम उद्देशक में जो आत्मा का उपपात कहा है, सो किस प्रकार से कहा है। अत: भगवान् मेरे संशय युक्त प्रश्न का उत्तर न मालूम किस तरह से देंगे। इस बात को जानने के लिए कुतूहल (उत्कंठा) उत्पन्न हुआ। क्योंकि भगवान् के ऊपर ही उनके चित्त में अतिशय श्रद्धा थी। इसलिए उनसे ही निर्णय करने के लिए श्रद्धा उत्पन्न हुई। ___ 'उत्पन्न संशय, उत्पन्न कौतुहल' इत्यादि पदों द्वारा वाचार्थ में, अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा की तरह उत्तरोत्तर रूप से (आगे-आगे) से विशेषता बतलाने के लिए सूत्रकार ने 'जात, उत्पन्न, संजात, समुत्पन्न' इन पदों का प्रयोग किया है। कर्म बन्धन जीवे णं भंते ! असंजए अविरए अप्पडिहय-पच्चक्खायपावकम्मे सकिरिए असंवुडे एगंत-दंडे एगंतबाले एगंतसुत्ते पावकम्मं अण्हाइ? - हंता अण्हाइ॥१॥ भावार्थ - हे भन्ते (भगवन्) ! जिसने संयम नहीं साधा, प्राणातिपातादि से निवृत्ति नहीं कीअविरत, वास्तविक श्रद्धान के द्वारा पाप कर्मों को हलके नहीं किये-अप्रतिहत, सर्वविरति-सम्पूर्ण त्योग वृत्ति से आते हुए पाप कर्मों को नहीं रोके, जो कायिकी आदि क्रिया से युक्त हैं, जिसने इन्द्रियों का निरोध नहीं किया, जो स्व-पर को सर्वथा पापकर्म से दण्डित करता है, सर्वथा मिथ्यादृष्टि है, मिथ्यात्व निद्रा से बिलकुल सुप्त है, वह जीव पापकर्म से लिप्त होता है क्या ? - हाँ होता है। विवेचन - किसी मत की मान्यता है कि-जब जीव भोगयोनि में होता है तब वहाँ परवशता के कारण कर्मबन्ध नहीं करता है, किन्तु केवल पापकर्मों को भोगता ही है। कुछ ऐसे ही भाव से उत्पन्न हुई यह जिज्ञासा, इस प्रश्न के मूल में प्रतीत होती है कि-'क्या कर्मबन्ध के सभी कारणों के विद्यमान् रहते हुए, जीव अबन्धक हो सकता है ? यदि ऐसा होता हो तो संयतादि अवस्था मुक्ति के लिये अनावश्यक है ? एक न एक दिन सम्पूर्ण कर्मों को भोग लने के बाद जीव अनायास ही जन्म-मरण से मुक्त हो जायगा।' यह शङ्का भगवान् के उत्तर से निर्मूल हो जाती है। असंयत आदि विशेषणों से युक्त जीव का, एक क्षण के लिए भी कर्म-बन्ध नहीं रुकता है। अविरत-विरति रहित। किस कारण असंयत है ? - क्योंकि अविरत है-विरति से रहित है। अथवा निन्दा द्वारा अतीतकालकृत पापों को प्रतिहत करना और अनागतकालभावी पापों को निवृत्ति से प्रत्याख्यात करना अर्थात् जिसने ऐसा किया हो वह प्रतिहत-प्रत्याख्यात है और जिसने ऐसा नहीं किया हो वह 'अप्रतिहत-प्रत्याख्यात पापकर्मा' है। For Personal & Private Use Only Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्म-बन्धन १३९ जीवे णं भंते ! असंजय-अविरयअप्पडिहय-पच्चक्खाय पावकम्मे सकिरिए असंडेएगंतदंडे एगंतबाले एगंतमुत्तेमोहणिजपावकम्मंअण्हाइ?-हंताअण्हाइ॥२॥ भावार्थ - हे भन्ते (हे भगवन्) ! वह जीव जो असंयत है-जिसने संयम की आराधना नहीं की, जो अविरत है-हिंसा आदि से विरत नहीं है, जिसने प्रत्याख्यान द्वारा पाप कर्मों को प्रतिहत नहीं किया सम्यक् श्रद्धापूर्वक पाप का त्याग नहीं किया, हलका नहीं किया, जो सक्रिय-कायिक वाचिक तथा मानसिक क्रियाओं से युक्त है-क्रियाएं करता है, जो असंवृत्त है-संवर रहित है जिसने इन्द्रियों का संवरण या निरोध नहीं किया, जो एकान्तदंडयुक्त है-जो अपने को तथा ओरों को पाप कर्म द्वारां एकान्ततः-सर्वथा दण्डित करता है, जो एकान्त-बाल है-सर्वथा मिथ्यादृष्टि-अज्ञानी है, जो एकान्त सुप्त है-मिथ्यात्व की निद्रा में बिलकुल सोया हुआ है, क्या वह मोहनीय पाप-कर्म से लिप्त होता हैमोहनीय पाप-कर्म का बन्ध करता है ? हाँ गौतम ! करता है। जीवेणंभंते!मोहणिजंकम्मंवेएमाणे किंमोहणिजंकम्मंबंधइ ? वेयणिजंकम्म बंधइ ? गोयमा! मोहणिजपि कम्मं बंधइ, वेयणिजंपि कम्मं बंधइ। णण्णत्थ चरिममोहणिज कम्मं वेएमाणे वेयणिज कम्मं बंधइ णो मोहणिजं कम्मं बंधइ॥३॥ भावार्थ - हे भन्ते (हे भगवन्) ! जीव, मोहनीय कर्म को वेदता हुआ, क्या मोहनीय कर्म बांधता है ? - क्या वेदनीय कर्म बांधता है ? ___ - गौतम ! मोहनीय कर्म भी बांधता है और वेदनीय कर्म को भी बांधता है। किन्तु चरम मोहनीय कर्म को वेदता हुआ वेदनीय-सुखादि अनुभूति के कारण रूप कर्म को बांधता है, मोहनीय कर्म को नहीं बांधता है। __ विवेचन - जीव, सूक्ष्मसम्पराय नामक दसवें गुणस्थान में, चरममोहनीय लोभमोहनीय को सूक्ष्म किट्टिका रूप में वेदते हुए, वेदनीय को बांधता है। क्योंकि वेदनीय के अबन्धक सिर्फ चौदहवें गुणस्थानवर्ती अयोगी ही होते हैं और वह मोहनीय को नहीं बांधता है। क्योंकि सूक्ष्मसम्पराय में स्थित जीव मोहनीय और आयुष्य को छोड़कर छह कर्म प्रकृतियों का ही बन्धक होता है। कहा है - __'सत्तविहबंधगा होति पाणिणो आउवजियाणं तु। तह सुहुमसंपराया छव्विहबंधा विणिहिट्ठा॥ मोहाउयवजाणं पयडीणं ते उ बंधगा भणिया। - जब जीव आयुष्य कर्म को नहीं बांधता है तब वह सप्तविध बन्धक होता है और जब सूक्ष्मसंपराय नामक दसवें गुणस्थान में होता है तब मोहनीय और आयुष्य कर्म को नहीं बांधता हैं तब वह षडविह बन्धक कहलाता है। वेदनीय और मोहनीय कर्म का बहुत निकट का सम्बन्ध है। वेदनीय कर्म, मोहनीय की उदयावस्था में प्रायः उसका पोषक हो जाता है और मोहनीय की उदयावस्था तक ही अघातिया कर्म का For Personal & Private Use Only Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४० उववाइय सुत्त अशुभ रूप में बन्ध होता है अथवा मोहनीय कर्म का वेदन ही अघातिया कर्मों में शुभता-अशुभता का निमित्त बनता है। अघातिया कर्म ही भवं पनाही कर्म है। इन भवोपग्राही कर्मों में से भी, मुक्त होने से कुछ क्षणों के पहले तक वेदनीय कर्म का ही बन्ध होता है। जिस भव में मोहनीय कर्म का क्षय होता है, उसी भव में वेदनीय कर्म भी क्षीण हो जाता है। अतः भव-परम्परा की वृद्धि में इस कर्मयुगल का बहुत बड़ा हाथ है। यही कारण है कि उपपात सम्बन्धी प्रश्नों की उत्थानिका के रूप में, अन्य कर्मों की वेदना और बन्ध के विषय में प्रश्न न करते हुए, इन्हीं के विषय में प्रश्न किया गया है। असंयत यावत् एकान्त सुप्त का उपपात जीवे णं भंते ! असंजए अविरए अप्पडिहय-पच्च-क्खाय पावकम्मे सकिरिए असंवुडे एगंतदंडे एगंतबाले एगंतसुत्ते ओसण्णतसपाणघाई। कालमासे कालं . किच्चा णिरइएसु उववजइ ? - हंता उववज्जइ॥४॥ _भावार्थ - हे भन्ते ! जिसने संयम का पालन नहीं किया यावत् जो एकान्त सुप्त है और जो बहुलता से त्रस प्राणियों का घातक है, वह जीव काल के समय में काल करके क्या नैरयिकों में उत्पन्न होता है ? - हाँ, होता है। ___ जीवे णं भंते ! असंजए अविरए अप्पडिहय-पच्चक्खाय पावकम्मे इओ चुए पेच्चा देवे सिया ? - गोयमा ! अत्थेगइया देवे सिया। अत्थेगइया णो देवे सिया। भावार्थ - हे भन्ते ! जिसने संयम नहीं पाला यावत् जिसने पापों से निवृत्ति नहीं की, वास्तविक श्रद्धान के द्वारा पापकर्म को हलके नहीं किये और सर्वविरति से आते हुए पापकर्मों को नहीं रोके, वे जीव यहाँ से मरकर, दूसरे जन्म में क्या देव हो सकते हैं? . हे गौतम ! कोई देव होते हैं, कोई देव नहीं होते। सेकेणटेणं भंते ! एवं वुच्चइ-अत्थेगइया देवे सिआ, अत्थेगइया णो देवे सिआ ?गोयमा!जेइमे जीवागामागर-णयर-णिगम-रायहाणि-खेड-कब्बड-मडंब-दोणमुहपट्टणासम-संबाह-सण्णिवेसेसु अकामतण्हाए अकामछुहाए अकामबंभ-चेरवासेणं अकामअण्हाणगसीयायवदंसमसगसेयजल्लमल्लपंक- परितावेणं अप्पतरोवाभुजतरो वा कालं अप्पाणं परिकिलेसंति।अप्पतरो वा भुजतरो वा कालं अप्पाणं परिकिलेसित्ता कालमासे कालं किच्चा अण्णयरेसु वाणमंतरेसु देवलोएसु देवत्ताए उववत्तारो भवंति। तहिं तेसिं गइ, तहिं तेसिं ठिइ, तहिं तेसिं उववाए पण्णत्ते। कठिन शब्दार्थ - ग्राम - जहाँ अठारह प्रकार का कर लिया जाता है अथवा जहाँ रहने वालों For Personal & Private Use Only Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ असंयत यावत् एकान्त सुप्त का उपपात १४१ की बुद्धि मंद होती है उसे 'ग्राम' कहते हैं, नगर - जहाँ अठारह प्रकार के कर नहीं लिये जाते हैं उसे 'नगर' कहा जाता है, खेड - जहाँ मिट्टी का प्राकार हो वह खेड या 'खेडा' कहा जाता है, कर्बट - जहाँ व्यापार धन्धा नहीं चलता हो अथवा जहाँ अनेक प्रकार के कर लिये जाते हैं ऐसा छोटा नगर कर्बट (कस्बा) कहा जाता है, मडम्ब - जिस ग्राम के चारों और अढ़ाई कोस तक अन्य कोई ग्राम न हो उसे मडम्ब कहा जाता है, पट्टण - दो प्रकार का है-जहाँ जल मार्ग पार करके माल आता हो वह 'जलपत्तन' कहा जाता है। जहाँ स्थल मार्ग से माल आता हो उसे 'स्थलपत्तन' कहा जाता है, आकर - लोहा आदि धातुओं की खानों में काम करने वालों के लिए वहीं पर बसा हुआ ग्राम आकर कहा जाता है, द्रोणमुख - जहाँ जल मार्ग और स्थल मार्ग से माल आता हो ऐसा नगर दो मुंह वाला होने से द्रोणमुख कहा जाता है, निगम - जहाँ व्यापारियों का समूह रहता हो वह निगम कहा जाता है, आश्रम - जहाँ संन्यासी तपश्चर्या करते हों वह आश्रम कहा जाता है, एवं उसके आस-पास बसा हुआ ग्राम भी आश्रम कहा जाता है, निवेश - व्यापार हेतु विदेश जाने के लिए यात्रा करता हुआ सार्थवाह (अनेक व्यापारियों का समूह) जहाँ पड़ाव डाले वह स्थान निवेश कहा जाता है। अथवा एक ग्राम के निवासी कुछ समय के लिए दूसरी जगह ग्राम बसावें वह ग्राम भी निवेश कहा जाता है। अथवा सभी प्रकार के यात्री जहाँ-जहाँ विश्राम लें वे सब स्थान निवेश कहे जाते हैं। इसे ही आगम में कहीं जगह 'सन्निवेश' कहा है, सम्बाध - खेती करने वाले कृषक दूसरी जगह खेती करके पर्वत आदि विषम स्थानों पर रहते हों वह ग्राम सम्बाध कहा जाता है। अथवा व्यापारी दूसरी जगह व्यापार करके पर्वत आदि विषम स्थानों पर रहते हों। वह ग्राम सम्बाध कहा जाता है। अथवा जहाँ धान्य आदि के कोठार हों वहाँ बसे हुए ग्राम को भी सम्बाध कहा जाता है, घोष - जहाँ गायों का युथ रहता हो वहाँ बसे हुए ग्राम को घोष (गोकुल) कहा जाता है, अंशिका - ग्राम का आधा भाग, तीसरा भाग या चौथा भाग जहाँ आकर बसे वह वसति 'अंशिका' कही जाती है, पुटभेदन - अनेक दिशाओं से आए हुए माल की पेटियों का जहाँ भेदन (खोलना) होता है वह 'पुटभेदन' कहा जाता है, राजधानी - जहाँ रहकर राजा शासन करता हो वह राजधानी कही जाती है, संकर - जो ग्राम भी हो, खेड भी हो, आश्रम भी हो ऐसा मिश्रित लक्षण वाला स्थान 'संकर' कहा जाता है। यह शब्द मूल में नहीं है भाष्य में है। . भावार्थ - हे भन्ते ! आप किस कारण से इस प्रकार कहते हैं कि - कोई जीव देव होते हैं और कोई जीव देव नहीं होते ? हे गौतम ! जो ये जीव ग्राम, आकर, नगर, निगम, राजधानी, खेड, कर्बट, मडंब, द्रोणमुख, पट्टण, आश्रम, संबाह और सन्निवेशों में, कर्मक्षयादि की इच्छा से रहित भूख-प्यास के सहने से ब्रह्मचर्य के पालन से अस्नान, शीत, आतप, मच्छर, स्वेद-पसीना, 'जल्ल'- रज, 'मल्ल'-सूख कर कठोर बना हुआ मैल और पङ्क-पसीने से गीला बना हुआ मैल के परिताप से थोड़े या बहुत काल तक अपने आपको क्लेश देते हैं। थोड़े-बहुत समय तक अपने को क्लेशित करके, काल के समय में काल करके, For Personal & Private Use Only Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४२ उववाइय सुत्त वाणव्यन्तर देवलोक में से किसी देवलोक में, देव रूप से उत्पन्न होते हैं। वहाँ उनका जाना, स्थित रहना और देव रूप से होना कहा गया है। विवेचन - वेदनीय कर्म की तीव्र वेदना के कारण मोहनीय कर्म का वेदन मंद हो जाता है। जिससे देवायु का बन्ध होता है। यथा इत्थ वि समोहया मूढचेयणा वेयणाणुभवखिण्णा। तंमित्तचित्तकिरिया ण संकिलिस्संति अण्णत्थ॥१५७॥ - तिर्यग् लोक में भी वेदनीय समुद्घात को प्राप्त हुए जीव, मूढ चेतना वाले और वेदनानुभव से खिन्न हो जाते हैं। अतः चित्त वेदना में ही लीन हो जाता है। अन्यत्र रागादि परिणाम को प्राप्त नहीं होता है। ता तिव्व राग दोसाभावे, बंधो वि पयणुओ तेसिं। सम्मोहओचिय तहा खओ विणेगंतमुक्कोसो ॥१५८॥ इस प्रकार तीव्र राग-द्वेष के अभाव में बंध भी हलका होता है किन्तु निमित्त की दुर्बलता के कारण क्षय भी उत्कृष्ट नहीं होता है। (श्रावकप्रज्ञप्ति ग्रन्थ) .. तेसिणं भंते ! देवाणं केवइयं कालं ठिइ पण्णत्ता ? - गोयमा ! दसवाससहस्साई ठिइ पण्णत्ता। भावार्थ - हे भन्ते ! उन देवों का आयुष्य, कितने काल का बतलाया गया है। हे गौतम ! दस हजार वर्ष की स्थिति बतलाई गई है। अस्थि णं भंते ! तेसिं देवाणं इड्डी वा, जुई वा, जसे इ वा, उट्ठाणे इ वा, कम्मे इवा, बले इ वा, वीरिए इवा, पुरिसक्कारपरिक्कमे इ वा ? - हंता अत्थि। भावार्थ - हे भन्ते ! उन देवों के ऋद्धि-परिवारादि सम्पत्ति द्युति-शरीर, आभरणादि की दीप्ति, यश-ख्याति, उत्थान, कर्म, बल- शारीरिक बल, वीर्य-जीवप्रभव या जीव जनित बल, पुरुषकार पुरुषार्थपुरुषाभिमान और पराक्रम-हिंमतभरी बहादुरी है ? - हाँ ! है। ते णं भंते ! देवा परलोगस्साराहगा ? - णो इणद्वे समढे॥५॥ भावार्थ - हे भन्ते ! क्या वे देव परलोक के आराधक हैं ? यह अर्थ समर्थ नहीं हैं अर्थात् वे परलोक के आराधक नहीं हैं। बन्दी.......आदि का उपपात सेजेइमेमामागर-णयर-णिगम-रायहाणि-खेड-कब्बड-मडंब-दोणमुह-पट्टणा For Personal & Private Use Only Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बन्दी.....आदि का उपपात १४३ सम-संबाह-सण्णिवेसेसुमणुया भवंति।तंजहा-अंडुबद्धगाणियलबद्धगा हडिबद्धगा चारगबद्धगा हत्थच्छिण्णगा पायच्छिण्णगा कण्णच्छिण्णगा णक्कच्छिण्णगा उट्ठच्छिण्णगा जिब्भच्छिण्णगा सीसच्छिण्णगा मुखच्छिण्णगा मज्झच्छिण्णगा वेकच्छछिण्णगा। भावार्थ - ये जो इन ग्राम, आकर यावत् सन्निवेशों में मनुष्य रहते हैं। यथा-अन्दुक-लोहे या काठ के बन्धन विशेष से जिनके हाथ पैर जकड़े हुए हैं, बेड़ियों से जकड़े हुए. खोड़े में फंसे हुए, अन्धकारमय कारागार में पड़े हुए, सजा आदि के कारण छिदे हुए हाथ, पैर, कान, नाक, होठ, जीभ, शीश, मुख छेदन किये हुए, कमर या उदर और जनेऊ के आकार में छिदे हुए अंग वाले। विवेचन - किसी अपराध के कारण जो काट या लोहे के बन्ध से हाथ पैर आदि अंग बांध दिये जाते हैं अथवा बहुत बड़े अपराध के कारण जिनके नाक, कान आदि अंग काट दिये जाते हैं। ऐसे अपराधियों का यहाँ पर कथन किया गया है। हियउप्पाडियगा णयणुप्पाडियगा दसणुप्पाडियगा वसणुप्पाडियगा गेवच्छिण्णगा तंडुलच्छिण्णगा। - भावार्थ - जिनके हृदय का मांस नोच लिया गया हो, जिनके नेत्र उखाड़ लिये गये हों, जिनके दांत उखड़वा लिये हों, जिनके अण्डकोश उखाड़े गये हों, जिनके गले के अवयव छेद दिये गये हों, जिसके मांस के चावल के दाने के बराबर टुकड़े किये गये हों,-ऐसे व्यक्ति। कागणिमंसक्खाइयया ओलंबिया लंबियया घंसियया घोलियया फाडियया पीलियया सूलाइयया सूलभिण्णगा। - भावार्थ - जिसे उसकी देह से ही कोमल मांस उखाड़-उखाड़ कर खिलाया गया हो, जो रस्सी से बान्ध कर खड्डे में लटकाये गये हों, जो भुजाओं से वृक्ष की शाखा पर बांधे गये हों, जो चंदन के समान घिसे गये हों, जो दही के समान घोलित (मथा गया) हुए हों, जो लकड़ी के समान कुठार से फाड़ दिये गये हों, जो इक्षु के समान यंत्र में पीले गये हों, जो शूली पर चढ़ाये गये हों, जो शूल से भिन्न हो गये हों, ऐसे व्यक्ति। खारवत्तिया वझवत्तिया सीहपुच्छियया। भावार्थ - जिस पर क्षार डाला गया हो या जो क्षार में फेंके गये हो, जो गीले चमड़े से बांधे गये हों, जिनका लिंग काट दिया हो अथवा जिनको सिंह की पूंछ से बांधकर घसीटा गया हो। ऐसे व्यक्ति। दवग्गिदडगा पंकोसण्णगा पंकेखुत्तगा वलय-मयगा वसट्टमयगा णियाणमयगा अंतोसल्लमयगा गिरिपडियगा तरुपडियगा मरुपडियगा गिरिपक्खं-दोलिया तरुपक्खंदोलिया मरुपक्खंदोलिया।। For Personal & Private Use Only Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४४ उववाइय सुत्त भावार्थ - दावाग्नि से जले हुए, कीचड़ में डूबे हुए, कीचड़ में फंसे हुए, संयम से भ्रष्ट बनकर या भूख आदि परीषहों से घबराकर मरे हुए, विषय-सेवन में परतंत्र होने से पीड़ित होकर मरे हुए या हरिण के समान शब्दादि विषयों में लीन बनकर मरे हुए, निदान करके मरे हुए, बाल तपस्वी आदि, भावशल्य को या मध्यवर्ती भल्लि आदि शल्य को निकाले बिना ही मरे हुए, पर्वत से गिरकर या महापाषाण के गिरने से मरे हुए, वृक्ष से गिरकर या वृक्ष के गिरने से मरे हुए निर्जल प्रदेश में जा पड़ने वाले, पर्वत से झंपापात करके मरने वाले, वृक्षों से झंपापात करके मरने वाले, मरुभूमि की रेती में गिर कर मरने वाले। . जलपवेसिगा जलणपवेसिगा विसभक्खियगा सत्थोवाडियगा वेहाणसिया गिद्धपिट्ठगा कंतारमयगा दुभिक्खमयगा। भावार्थ - जल में प्रवेश करके मरने वाले, अग्नि में प्रवेश करने वाले, विष भक्षण करने वाले, शस्त्र से अपने आपको विदारने वाले, गले में फाँसी लगा कर या तरुशाखादि आकाश में उछल कर मरने वाले, किसी के मरे हुए कलेवर में प्रवेश करके गृद्ध पक्षियों की चोंचों से मरने वाले, जंगल में और दुर्भिक्ष में मरने वाले। - असंकिलिट्ठपरिणामातेकालमासेकालंकिच्चाअण्णयरेसुवाणमंतरेसुदेवलोएसु देवत्ताए उववत्तारो भवंति। तहिं तेसिं गइ, तहिं तेसिं ठिइ, तर्हि तेसिं उववाए पण्णत्ते। भावार्थ - यदि ये व्यक्ति संक्लिष्ट परिणाम–महा आर्त-रौद्र ध्यान वाले न हों तो काल के समय काल करके, वाणव्यंतर के देवलोक में से किसी देवलोक में देव रूप से उत्पन्न होते हैं। वहाँ उनकी गति, स्थिति और उत्पत्ति कही गई है। तेसिणं भंते ! देवाणं केवइयंकालं ठिइ पण्णत्ता ? - गोयमा ! बास्सवाससहस्साइं ठिइ पण्णत्ता। भावार्थ- हे भन्ते ! वहाँ उनकी कितनी स्थिति होती है ?- हे गौतम ! बारह हजार वर्ष की...। अस्थि णं भंते ! तेसिं देवाणं इड्डी वा जुई वा जसे इ वा बले इवा वीरिए इवा पुरिसक्कारपरिक्कमे इ वा ?-हंता अत्थि।ते णं भंते ! देवा परलोगस्साराहगा ? - णो इणढे समढे ॥६॥ भावार्थ- हे भन्ते! उन देवों के ऋद्धि यावत् पराक्रम है? - हाँ है। हे भन्ते ! वे देव, परलोक के आराधक हैं ? हे गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है अर्थात् वे परलोक के आराधक नहीं है। विवेचन - उपरोक्त जीवों के देवों में उत्पन्न होने का कारण यह है कि वे परवश होकर कष्ट सहन करते हैं, उस अकाम कष्ट सहन करने से वे वाणव्यंतर देवों में उत्पन्न होते हैं। उनमें भी हलकी जाति के देव और अल्प रिद्धि और अल्प आयुष्य वाले देव होते हैं। क्योंकि वाणव्यतरों For Personal & Private Use Only Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रपकृति वाले आदि जीवों का उपपात १४५ की उत्कृष्ट स्थिति एक पल्योपम की होती है। पल्योपम के सामने हजारों वर्षों की स्थिति बहुत अल्प गिनी जाती है। भद्रप्रकृति वाले आदि जीवों का उपपात से जे इमे गामागर-णयर-णिगम-रायहाणि-खेड-कब्बड-मडंब-दोणमुहपट्टणासम-संबाह-सण्णिवेसेसु मणुया भवंति। - भावार्थ - ये जो ग्राम, आकर यावत् सन्निवेशों में मनुष्य होते हैं। तंजहा-पगइभद्दगा पगइउवसंता पगइपयणु कोह-माण-माया-लोहा मिउ-मद्दवसंपण्णा अल्लीणा, भद्दगा, विणीया, अम्मापिउ-सुस्सूसगा अम्मापिईणं अणतिक्कमणिजवयणा, अप्पिच्छाअप्पारंभाअप्प-परिग्गहा, अप्पेणंआरंभेणंअप्पेणं समारंभेणं अप्पेणं आरंभसमारंभेणं वित्तिं कप्पेमाणा बहई वासाई आउयं पालंति। भावार्थ- यथा-स्वभाव से ही भद्र अर्थात् परोपकार करने वाले, स्वभाव से ही शान्त, स्वभाव से ही क्षणिक या हलके क्रोध, मान, माया और लोभ वाले, कोमल-अहङ्कार रहित स्वभाव वाले, गुरुजनों-बड़ों के आश्रित, विनीत, माता-पिता के सेवक, माता-पिता के वचनों का उल्लंघन नहीं करने वाले, अल्प इच्छा वाले, अल्प आरम्भ वाले, अल्प परिग्रह वाले, अल्प आरम्भ, अल्प • समारंभ-जीवों को परितापित करना और अल्प आरम्भ समारम्भ से आजीविका उपार्जन करने वाले बहुत वर्षों की आयु भोगते हैं। ... पालित्ता कालमासे कालं किच्चा अण्णयरेसु वाणमंतरेसु देवलोएसु देवत्ताए उववत्तारो भवंति। तहिं तेसिं गई, तहिं तेसिं ठिई, तहिं तेसिं उववाए पण्णत्ते। तेसिणं भंते ! देवाणं केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता ? - गोयमा ! चउद्दसवास सहस्साइं ॥७॥ ... भावार्थ - आयुष्य भोग करके काल के समय में काल करके वाणव्यंतर के किसी देवलोक में देवरूप से उत्पन्न होते हैं। हे गौतम ! उनकी चौदह हजार वर्ष की स्थिति है। गतपतिका (प्रोषित भर्तृका) आदि का उपपात सेजाओइमाओगामागर-णयर-णिगम-राय-हाणिखेड-कब्बड-मडंब-दोणमुहपट्टणासम-संबाह-सण्णिवेसेसु इत्थियाओ भवंति। . - ये जो ग्राम यावत् सन्निवेशों में स्त्रियाँ होती हैं। - तंजहा-अंतोअंतेउरियाओ, गयपइयाओमयपइयाओबालविहवाओछड्डियल्लियाओ For Personal & Private Use Only Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४६ उववाइय सुत्त माइरक्खियाओ पियरक्खियाओ भायरक्खियाओ कुलघरक्खियाओ मित्तणाइ-.. णियय संबंधि रक्खियाओ ससुरकुलरक्खियाओ। भावार्थ - जैसे-जो अन्तःपुर में रहती हों, जिनके पति परदेश चले गये हों, जो बाल विधवा हों, जिन्हें पतियों ने छोड़ दिया हों, जो माता, पिता या भाई से रक्षित हों, जो कुलगृह-पीहर या श्वशुरकुल-सुसराल से रक्षित हों। परूढ-णह-के स-कक्ख-रोमाओ ववगयपुप्फगंधमल्लालंकाराओ अण्हाणगसेय जल्लमलपंकपरितावियाओ ववगयखीर-दहि-णवणीय-सप्यितेल्लगुल-लोणमहुमज्जमंसपरिचत्तकयाहाराओ। भावार्थ - (विशिष्ट संस्कार के अभाव के कारण) जिनके नख, केश और कांखं के बाल बढ़ गये हों, जो फूल, गंध, माला और अलङ्कारों से रहित हों, जो अस्नान, स्वेद, रज, मल और पङ्क-पसीने से गीले हुए मैल से परितापित हों, जो दूध, दही, मक्खन, घी, तैल, गुड़ और नमक से रहित तथा मधु, मद्य और मांस से रहित आहार का सेवन करती हों। अप्पिच्छाओ अप्पारंभाओ अप्पपरिग्गहाओ, अप्पेणं आरंभेणं, अप्पेणं समारंभेणं, अप्पेणं आरंभसमारंभेणं वित्तिं कप्पेमाणीओ, अकामबंभचेरवासेणं तामेव पइसेनं णाइक्कमइ। भावार्थ - जिनकी इच्छाएँ अल्प हों, जो अल्प हिंसा वाली हों, जिनका परिग्रह-धनादि का सञ्चय अल्प हो और जो अल्प आरम्भ-हिंसा, अल्प समारम्भ-परिताप और अल्प आरम्भ-समारम्भ से वृत्तिआजीविका करने वाली हों, ऐसी स्त्रियाँ अकाम-निर्जरा की इच्छा के बिना ब्रह्मचर्य के पालन से उसी पति की शय्या का अतिक्रमण नहीं करती हैं अर्थात् अकाम ब्रह्मचर्य का पालन करती हुई रहती हैं, किन्तु उपपति नहीं करती हैं। ताओ णं इत्थियाओ एयारूवेणं विहारेणं विहरमाणीओ सेसं तं चेव जाव चउसट्ठिवाससहस्साइं ठिई पण्णत्ता॥८॥ भावार्थ - वे स्त्रियाँ इस प्रकार की चर्या से जीवन व्यतीत करती हैं। अकाम ब्रह्मचर्य का पालन करने से वे वाणव्यंतर देवों में उत्पन्न होती है, वहाँ उनकी चौंसठ हजार वर्ष की स्थिति होती है। द्वि द्रव्य भोजी आदि का उपपात से जे इमे गामागर-णयर-णिगम-रायहाणि-खेड-कब्बड-मडंब-दोणमुहपट्टणासम-संबाह-संण्णिवेसेसु मणुआ भवंति।तं जहा-दगबिइया दगतइया दगसत्तमा दगएक्कारसमा। For Personal & Private Use Only Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वि द्रव्य भोजी आदि का उपपात १४७ भावार्थ - ये जो मनुष्य ग्राम यावत् सन्निवेशों में होते हैं। जैसे-उदकद्वितीय-ओदन द्रव्य की अपेक्षा से दूसरा द्रव्य जल अर्थात् एक भात और दूसरा जल ऐसे दो द्रव्य के भोजी, उदकतृतीय-ओदन आदि दो द्रव्य और तीसरा जल के भोजी, उदकसप्तम-ओदन भात आदि छह द्रव्य और सातवें जल के भोजी, उदक एकादश-भात आदि दस द्रव्य और ग्यारहवें जल के भोजी। गोयमा गोव्वइया गिहिधम्मा धम्मचिंतका अविरुद्ध-विरुद्धवुड्डसावकप्पभियओ। भावार्थ - यहाँ गौतम शब्द का अर्थ है बैल से आजीविका करने वाले, बैल को आगे करके जनता को उसकी क्रीडा दिखाकर उससे अन्न आदि की याचना कर अपना जीवन निर्वाह करने वाले, गौव्रतिक-गाय से सम्बन्धित व्रत वाले, गृहधर्मी, धर्मचिन्तक- धर्मशास्त्र पाठक, अविरुद्धवैनयिकभक्तिमार्गी, विरुद्ध-अक्रियावादी वृद्धश्रावक-ब्राह्मण अथवा वृद्ध-तापस और श्रावक-ब्राह्मण आदि। विवेचन - पैरों में पड़ने आदि विचित्र शिक्षा से शिक्षित और जनता के चित्त को अपनी तरफ आकर्षित करने में चतुर छोटे बैल के द्वारा विचित्र खेल दिखाकर अपनी आजीविका करने वाले को यहाँ पर 'गौतम' कहा है। गाय के सम्बन्धित व्रत के करने वाले को 'गोव्रतिक' कहते हैं। वे गायों के ग्राम के बाहर निकलने पर बाहर निकलते हैं, चरने पर चरते हैं, पानी पीने पर पीते हैं, जब वह गाय घर आती है, तब वे भी घर आते हैं और सोने पर सोते हैं। कहा है - . गावीहिं समं निग्गम-पवेस-सयणासणाइ पकरेंति। भुंजंति जहा गावी, तिरिक्खवासं विहाविंता॥ ... - गृहस्थ धर्म ही श्रेष्ठ है-ऐसा विचार करके देव, अतिथि आदि के लिये दानादि रूप गृहस्थ धर्म का अनुगमन करने वाले को 'गृहिधर्मा' कहते हैं। अविरुद्ध-वैनयिक-देवादि का विनय करने वाला कहा हैअविरुद्ध विणयकरो, देवाईणं पराए भत्तीए। जह वेसियायणसुओ, एवं अण्णेऽविणायव्वा॥ - वृद्ध अर्थात् तापस। वृद्धकाल-पुरातन काल में दीक्षा लेने के कारण और आदिदेव के काल में सकल लिंगियों में पहले उत्पन्न होने के कारण तापसों को 'वृद्ध' कहा गया है। - धर्मशास्त्र को श्रवण करने के कारण ब्राह्मणों को श्रावक कहा गया है अथवा वृद्ध शब्द को श्रावक का विशेषण मान लिया जाय तो भी 'वुड्डसावय' पुराने श्रावक का अर्थ ब्राह्मण ही होगा। तेसिं मणुयाणं णो कप्पइ इमाओणव रसविगइओ आहारित्तए।तं जहा-खीरं दहिं णवणीयं सप्पिं तेल्लं फाणियं महुं मजं मंसं।णण्णत्थ एक्काए सरिसवविगहए। तेणं मणुया अप्पिच्छा तं चेव सव्वं । णवरं चउरासीइ वाससहस्साइं ठिई पण्णत्ता ॥९॥ For Personal & Private Use Only Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४८ उववाइय सुत्त ++++++++++++++++ +++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++ भावार्थ - उन मनुष्यों के ये नव विकृतियाँ खाने का कल्प नहीं है। यथा-दूध, दही, मक्खन, घी, तैल, गुड-फाणित, मधु- शहद, मद्य-शराब और मांस। इन में से एक सरसों का तैल छोड़कर। वे मनुष्य अल्प इच्छा वाले यावत् शेष सब पूर्ववत्। केवल स्थिति चौरासी हजार वर्ष की है। _ विवेचन - 'तं चेव सव्वं' पद से 'अप्पारंभा अप्पपरिग्गहा अप्पेणं आरंभेणं अप्पेणं समारंभेणं अप्पेणं आरंभसमारंभेणं वित्तिं कप्पेमाणा बहुई वासाइं आऊयं पालंति। पालित्ता कालमासे कालं किच्चा अण्णयरेसु वाणमंतरेसु देवलोएसु देवत्ताए उववत्तारो भवंति। तहिं तेसिं गई....' आदि वाक्यों का संक्षेपीकरण समझना चाहिए। अर्थ पूर्ववत् अर्थात् इन शब्दों का एवं इस पाठ का अर्थ पहले कर दिया गया है। वानप्रस्थ तापसों का उपपात से जे इमे गंगाकूलगा वाणपत्था तावसा भवंति। तं जहा-होत्तिया पोत्तिया कोत्तिया जण्णई सड्डई थालई हुंबउट्ठा दंतुक्खलिया उम्मजगा संमजगा णिमज्जगा संपक्खालगा। ___ भावार्थ - वे तापस जो ये गंगा के किनारे रहने वाले वानप्रस्थ-वनवासी तापस होते हैं। जैसेहोत्रिक (अग्निहोत्र करने वाले) वस्त्रधारी, कौत्रिक-भूमिशायी (भूमि पर सोने वाले) यज्ञयाजी (याज्ञिक-यज्ञ करने वाले), श्रद्धा करने वाले, पात्र रखने वाले या खप्परधारी कुण्डिकाधारी, फलभोजी, एक बार पानी में डुबकी लगा कर स्नान करने वाले (उन्मज्जक), सन्मज्जक (उन्मज्जन के बार-बार करने से स्नान करने वाले), निमज्जक (पानी में कुछ देर तक डूब कर स्नान करने वाले) संप्रक्षालक (मिट्टी आदि के द्वारा रगड़ कर अंगों को धोने वाले)। . दक्खिणकूलगा उत्तरकूलगा संखधमगा कूलधमगा मियलुद्धया हत्थितावसा भावार्थ - गंगा के दक्षिण के किनारे पर ही रहने वाले, गंगा के उत्तरी किनारे पर ही रहने वाले, शंख बजाकर भोजन करने वाले, किनारे पर स्थित होकर शब्द करके भोजन करने वाले मृगलुब्धक, हस्तितापस (हाथी को मारकर उसके भोजन से बहत काल व्यतीत करने वाले)। उहंडगा दिसापोक्खिणो वक्कवासिणो अंबुवासिणो बिलवासिणो चेलवासिणो जलवासिणो रुक्खमूलिया। भावार्थ - डण्डे को ऊँचा रखकर फिरने वाले, दिशाओं की तरफ पानी छींट कर फूल-फलादि चुनने वाले, वल्कलधारी-वृक्ष की झाल के कपड़े पहनने वाले (अम्बुवासी ? बिलवासी), वस्त्रधारी, जल में ही रहने वाले, वृक्ष के मूल में रहने वाले। अंबुभक्खिणो वाउभक्खिणो सेवालभक्खिणो मूलाहाराकंदाहारा तयाहारा For Personal & Private Use Only Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रव्रजित श्रमण कान्दर्पिक आदि का उपपात १४९ पत्ताहारा पुष्फाहारा बीयाहारा परीसडियकंद-मूल-तय-पत्त-पुप्फ-फलाहारा जलाभिसेयकढिणगायभूया। भावार्थ - मात्र जलभक्षक, वायुभक्षक, शैवाल (काँई पानी के ऊपर आने वाला मैल)भक्षक, मूलाहारी, कंदाहारी, त्वक् (छाल) आहारी, पत्राहारी, पुष्पाहारी, बीजाहारी, सडे हुए या गिरे हुए या किसी के द्वारा छोड़े गये कंद, मूल, छाल, पत्र, फूल और फल का आहार करने वाले, बिना स्नान किये भोजन नहीं करने वाले, या स्नान के कारण सफेद बनी हुई देहवाले। आयावणाहिं पंचग्गितावेहिं इंगालसोल्लियं कंडुसोल्लियंपिव कट्ठसोल्लियंपिव अप्पाणं करेमाणा बहूई वासाइं परियायं पाउणंति। बहूइं वासाइं परियायं पाउणित्ता, कालमासे कालं किच्चा, उक्कोसेणं जोइसिएसु देवेसुदेवत्ताए उववत्तारो भवंति जाव पलिओवमं वाससयसहस्समब्भहियं ठिई जाव आराहगा?-णो इणढे समटे॥१०॥ . भावार्थ - और पञ्चाग्नि की आतापना के द्वारा अपने आपको अंगारों से पका हुआ-सा, भाड़ में भुना हुआ-सा यावत् करते हुए, बहुत वर्षों तक उस अवस्था को पाकर के, काल के समय में काल करके उत्कृष्ट रूप से ज्योतिषी देवों में देवरूप से उत्पन्न होते हैं। यावत् पल्योपम और एक लाख वर्ष अधिक की स्थिति यावत् ये परलोक के आराधक नहीं हैं। - प्रव्रजित श्रमण कान्दर्पिक आदि का उपपात से जे इमे गामागर जाव सण्णिवेसेस पव्वइया समणा भवंति।तं जहा-कंदप्पिया कुक्कुइया मोहरिया गीयरइप्पिया णच्चणसीला। ते णं एएणं विहारेणं विहरमाणा बहूई वासाइं सामण्णपरियायं पाउणंति। __ भावार्थ - ये जो ग्राम आकर यावत् सन्निवेशों में प्रव्रजित श्रमण (निर्ग्रन्थ) होते हैं। जैसे-हासपरिहास करने वाले (कान्दर्पिक), भांड के समान चेष्टा को करते हुए स्वयं हँसकर दूसरों को हँसाने बाले (कौकुचिक) उटपटांग वृथा बोलने वाले (मौखरिक) गीत के साथ रमणक्रीड़ा जिसे प्रिय हो या गीतरति वाले लोग जिसे प्रिय हों ऐसे श्रमण (गीतरतिप्रिय) और अस्थिर शीलाचार वाले या नर्तनशील। वे ऐसी चर्या से काल व्यतीत करते हुए, बहुत वर्षों तक श्रामण्यपर्याय को पालते हैं। बहूइं वासाइं सामण्ण परियायं पाउणित्ता तस्स ठाणस्स अणालोइयअप्पडिक्कंता कालमासे कालं किच्चा, उक्कोसेणं सोहम्मे कप्पे कंदप्पिए देवेसु देवत्ताए उववत्तारो भवंति। तहिं तेसिं गई, तहिं तेसिं ठिई जाव सेसं तं चेव। णवरं पलिओवमं वाससयसहस्समब्भहियं ठिई॥११॥. For Personal & Private Use Only Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५० उववाइय सुत्त यावत् उस स्थान की (अतिचार-दोष सेवन की) आलोचना प्रतिक्रमण (उनको दोष रूप से मानकर पश्चाताप) किये बिना ही, काल के समय में कालकर के, उत्कृष्ट सौधर्मकल्प (पहले देवलोक) में कान्दर्पिक देवों में उत्पन्न होते हैं यावत् एक लाख वर्ष अधिक एक पल्योपम की स्थिति होती है। परिव्राजकों का उपपात से जे इमे गामागर जाव सण्णिवेसेसु परिव्वायगा भवंति। तं जहा-संखा जोई कविला भिउच्चा। भावार्थ - ये जो ग्राम आकर यावत् सन्निवेशों में परिव्राजक होते हैं। यथा-सांख्य (बुद्धिअहङ्कारादि तत्त्वों को मानने वाले और प्रकृति और पुरुष दोनों को जगत् का कारण मानने वाले) योगी । (अध्यात्म शास्त्र के अनुष्ठायी) कापिल (निरीश्वर सांख्य), भार्गव। विवेचन - सांख्य और योगियों का तत्त्वज्ञान समान है। अन्तर केवल इतना ही है कि सांख्य तत्त्वज्ञान पर अधिक जोर देते हैं और योगी अनुष्ठान पर। सांख्य को कुछ लोग निरीश्वरवादी मानते हैं तो कुछ लोग ईश्वरवादी। किन्तु ऐसा प्रतीत होता है कि उनमें दोनों प्रकार के मतवादी थे। जों निरीश्वरवादी थे वे कापिल कहलाते थे। ' जो सृष्टि के कारण रूप से अनादि से निर्लिप्त पुरुष विशेष को मानते हैं, वे ईश्वरवादी और सृष्टिकर्ता रूप से ईश्वर को मानने से इन्कार करते हैं, वे निरीश्वरवादी कहलाते हैं। भृगुऋषि के शिष्य भार्गव कहलाते हैं। हंसा परमहंसा बहुउदया कुडिव्वया कण्हपरिव्वायगा। भावार्थ - चार प्रकार के परिव्राजक यति हंस-पर्वत की गुफा, आश्रम, देवकुल आदि में रहने वाले और भिक्षार्थ ग्राम में प्रवेश करने वाले परिव्राजक, परमहंस-वे परिव्राजक यति जो नदी के पुलिनों-किनारों पर या समागम प्रदेशों में रहते हों और चीर, कौपीन और कुश का त्याग करके प्राण छोड़ते हों, बहूदक-गांव में एक रात्रि और नगर में पांच रात तक वास करते हुए, अपने योग्य प्राप्त सामग्री का उपयोग करते हुए विचरण करने वाले परिव्राजक यति, कुटीचर-वे जो घर में रहते हुए क्रोध, लोभ और मोह से दूर रहकर अहङ्कार का त्याग करते हैं और कृष्ण परिव्राजक- नारायण भक्त परिव्राजक विशेष। तत्थ खलु इमे अट्ठ माहणपरिव्वायगा भवंति। तं जहाकण्हे य करकंडे य, अंबडे य परासरे। कण्हे दीवायणे चेव, देवगुत्ते य णारए॥ For Personal & Private Use Only Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिव्राजकों का उपपात भावार्थ - उन परिव्राजकों में ये आठ जाति के ब्राह्मण परिव्राजक होते हैं । यथा - १. कृष्ण २. करकण्ड ३. अम्बड ४. पाराशर ५. कृष्ण ६. द्वीपायन ७. देवगुप्त और ८. नारद । तत्थ खलु इमे अट्ठ खत्तियपरिव्वायगा भवंति । तं जहा सीलई ससिहारे य, णग्गई भग्गई ति य । विदेहे रायाराया, रायारामे बलेति य ॥ भावार्थ - उनमें ये आठ क्षत्रिय परिव्राजक होते हैं। यथा - १. सीलई - शीलजित २. ससिहारशशिधर ३. नग्गई ४. भग्गई ५. विदेह ६. रायाराय ७. रायाराम और ८ बल । विवेचन इन सोलह जाति के परिव्राजकों का वर्णन कहीं देखने में नहीं आया। टीकाकार ने भी 'लोकतोऽवसेयाः' कहकर, व्याख्या नहीं की है। अर्थात् लोगों से अथवा अन्य ग्रन्थों से इनका स्वरूप जान लेना चाहिए । ते णं परिव्वायगा रिउव्वेय - जजुव्वेय- सामवेय- अहव्वणवेय इतिहासपंचमाणं णिग्घंदुछट्टाणं संगोवंगाणं सरहस्साणं चउण्हं वेयाणं सारगा पारगा धारगा वारगा । भावार्थ - वे परिव्राजक ऋजुः, यजुः साम, अथर्वण, पांचवां इतिहास - पुराण और छट्ठे निघण्टु नाम कोश रूप अंगोपांग और रहस्य सहित चारों वेदों के सारग-अध्यापन के द्वारा प्रवर्तक या दूसरों को याद करवाने के कारण स्मारक, पारग-अन्त तक पहुँचने वाले और धारग-धारण करने में समर्थ थे। वारग-अशुद्ध उच्चारण तथा परिव्राजक के नियमों के विरुद्ध आचरण करने वालों के वारक अर्थात् रोकने वाले 1 सडंगवी सद्वितंतविसारया संखाणे सिक्खाकप्पे वागरणे छंदे णिरूत्ते जोतिसामयणे अ य बहू बंभणएसु परिव्वाएसु य सत्थेसु सुपरिणिट्टिया यावि हुत्था । भावार्थ - शिक्षा - अक्षर-स्वरूप निरूपकशास्त्र, कल्प- तथाविध आचार निरूपक शास्त्र, व्याकरण, छन्द, निरुक्त - शब्दों की निरुक्ति प्रतिपादक शास्त्र और ज्योतिष शास्त्र इन वेदों के छह अंगों के ज्ञाता षडंगविद्, षष्ठितंत्र- कापिलीय तंत्र के पण्डित और गणित संखाण तथा और भी वेद के व्याख्यान रूप ब्राह्मण सम्बन्धी शास्त्रों में पूर्ण रूप से निष्णात थे। ते णं परिव्वायगा दाणधम्मं च सोयधम्मं च तित्थाभिसेयं च आघवेमाणा पण्णवेमाणा परूवेमाणा विहरंति । भावार्थ- वे परिव्राजक दानधर्म, शौचधर्म - स्वच्छता रूप धर्म और तीर्थाभिषेक - तीर्थस्नान का कथन करते हुए समझाते हुए प्रतिपादन करते हुए विचरते थे । अम्हे किंचि असुई भवइ, तण्णं उदएण य मट्टियाए य पक्खालियं सुई भवइ । १५१ For Personal & Private Use Only Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५२ उववाइय सुत्त भावार्थ - जो हमें किञ्चित् भी अशुचि होती है तो उसे जल और मिट्टी से धोकर पवित्र हो जाते हैं। एवं खलु अम्हे चोक्खा चोक्खायारा, सुई सुइ-समायारा भवेत्ता, अभिसेयजलपूयप्पाणो अविग्घेणं सग्गं गमिस्सामो। भावार्थ - 'इस प्रकार हम स्वच्छ-विमल देह और वेशवाले और स्वच्छ-विमल आचार वालेशुचि पवित्र और शुचि आचार वाले होकर, जलद्वारा अभिषेक-स्नान से पवित्र आत्मा बनकर निर्विघ्न स्वर्ग में जायेंगे।' तेसि णं परिव्वायगाणं णो कप्पइ-अगडं वा तलायं वा णई वा वावं वा पुक्खरिणिं वा दीहियं वा गुंजालियं वा सरं वा सरसिं वा सागरं वा ओगाहित्तए। णण्णत्थ अद्धाणगमणे। भावार्थ - उन परिव्राजकों का मार्ग में गमन के सिवाय, कूप, तालाब, नदी, बावडी, पुष्करिणी-कमलों से भरा हुआ गोलघाटबन्ध जलाशय, दीर्घिका-सारणी, गुञ्जालिका-एक तरह की बावड़ी-वक्रसारणी, सरोवर, महासरोवर और सागर में प्रवेश करने का कल्प नहीं है। णो कप्पइ सगडं वा जाव संदमाणियं वा दूरुहित्ता णं गच्छित्तए। भावार्थ - कल्प-आचार नहीं है-गाड़ी यावत् डोली में चढ़कर चलने का कल्प (आचार) नहीं तेसि णं परिव्वायगाणं णो कप्पइ-आसं वा हत्थिं वा उट्टे वा गोणिं वा महिसं वा खरं वा दूरुहित्ता णं गमित्तए। भावार्थ - उन परिव्राजकों का कल्प नहीं है-घोड़े, हाथी, ऊँट, बैल, भैंस और गधे पर सवार होकर चलने का। तेसि णं परिव्वायगाणं णो कप्पइ-णडपेच्छा इ वा जाव मागहपेच्छा इ वा पिच्छित्तए। भावार्थ - उन परिव्राजकों का कल्प नहीं है, नटप्रेक्षा-नट के अभिनय यावत् मागधप्रेक्षा देखने का। तेसि णं परिव्वायगाणं णो कप्पइ-हरियाणं लेसणया वा घट्टणया वा थंभणया वा लूसणया वा उप्पाडणया वा करित्तए। भावार्थ - उन परिव्राजकों का कल्प नहीं हैं-वनस्पति को परस्पर मिलाने या मसलने, इकट्ठी करने, ऊँची करने और उखाड़ने का। For Personal & Private Use Only Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिव्राजकों का उपपात १५३ तेसि णं परिव्वायगाणं णो कप्पइ-इत्थिकहा इ वा भत्तकहा इ वा देसकहा इ वा रायकहा इ वा चोरकहा इ वा अणत्थदंडं करित्तए। भावार्थ - उन परिव्राजकों का स्त्रीकथा, भातकथा, देशकथा, राजकथा और चोरकथा-जिनसे कि स्व-पर को क्लेश हो ऐसी निरर्थक कथाएँ करने का कल्प नहीं है क्योंकि इन कथाओं को करने से अनर्थदण्ड रूप कर्म का बन्ध होता है। तेसिणं परिव्वायगाणंणो कप्पइ-अयपायाणि वा तउयपायाणि वा तंबपायाणिवा जसदपायाणिवासीसगपायाणिवारुप्पपायाणिवासुवण्णपायाणिवाअण्णयराणिवा बहुमुल्लाणि वा धारित्तए। णण्णत्थ लाउपाएण वा दारुपाएण वा मट्टियापाएण वा भावार्थ - उन परिव्राजकों का तुम्बे, लकड़ी और मिट्टी के पात्रों के सिवाय, लोहे, त्रपुक-कथीर ताम्ब, जसद, शीशे, चांदी और सोने के पात्र रखने का कल्प नहीं है। तेसि णं परिव्वायगाणं णो कप्पइ-अयबंधणाणि वा तउयबंधणाणि वा तंबबंधणाणि.............जाव बहुमुल्लाणि धारित्तए। भावार्थ - उनके.....लोहे के बन्धन, कथीर के बन्धन, ताम्बे के बन्धन......यावत् किसी भी प्रकार के बहुमूल्य बन्धन वाले (पात्र) रखना नहीं कल्पता है। .. तेसि णं परिव्वायगाणं णो कप्पइ णाणाविह-वण्णराग-रत्ताइं वत्थाई धारित्तए। णण्णत्थ एक्काए धाउरत्ताए। भावार्थ - उन परिव्राजकों को गेरुएँ रंग से रंगे हुए (धातुरत्त) वस्त्र के सिवाय-दूसरे नाना प्रकार के रंगों से रंगे हुए वस्त्र धारण करने का कल्प नहीं है। तेसि णं परिव्वायगाणं णो कप्पइ-हारं वा अद्धहारं वा एकावलिं वा मुत्तावलिं वा कणगावलिं वा रयणावलिं वा मुरविं वा कंठमुरविं वा पालंबं वा तिसरयं वा कडिसुत्तं वा दसमुहियाणंतकं वा कडयाणि वा तुडियाणि वा अंगयाणि वा के ऊराणि वा कुंडलाणि वा मउडं वा चूलामणिं वा पिणिद्धित्तए। णण्णत्थ एकेणं तंबिएणं पवित्तएणं। ... भावार्थ - उन परिव्राजकों को एक ताम्बे की पवित्रक- अंगूठी के सिवाय, अन्य हार, अर्द्धहार, एकावली, मुक्तावली, कनकावली, रत्नावली, मूरवि, कंठमुरवी-कंठला, प्रालम्ब-लम्बीमाला त्रिसरक, कटिसूत्र, दस अंगुठियाँ, कटक, त्रुटित, अंगद, केयूर, कुंडल या चूडामणि-मुकुट पहनने का कल्प नहीं है। तेसि णं परिव्वायगाणं णो कप्पइ गंथिमवेढिमपूरिमसंघातिमे चउविहे मल्ले धारित्तए। णण्णत्थ एगेणं कण्णपूरेणं। For Personal & Private Use Only Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५४ उववाइय सुत्त भावार्थ - उन परिव्राजकों को एक कर्णपूरक-फूलों का कान का आभरण के सिवाय, अन्य ग्रन्थिम-गूंथी हुई, वेष्टिम- लपेटने से बनी हुई, पूरिम-वंशशलाका-जाल के पूरणमय या पूरने से बनी हुई और संघातिम-संघात से बनी हुई-नाल में नाल उलझाने से बनी हुई इन चार तरह की मालाओं को धारण करने का कल्प नहीं है। तेसि णं परिव्वायगाणं णो कप्पइ-अगलुएण वा चंदणेण वा कुंकुमेण वा गायं अणुलिंपित्तए।णण्णत्थ एक्काए गंगामट्टियाए। भावार्थ - उन परिव्राजकों को एकमात्र गंगा की मिट्टी के सिवाय, अगरु, चन्दन अथवा कुंकुम से शरीर को लिप्त करने का कल्प नहीं है। तेसि णं कप्पइ मागहए पत्थए जलस्स पडिगाहित्तए। से वि य वहमाणे, णो चेव णं अवहमाणे। से वि य थिमिओदए, णो चेव णं कद्दमोदए। से वि य बहुपसण्णे, णो चेव णं अबहुपसण्णे। से वि य परिपूए, णो चेव णं अपरिपूए। से वि य णं दिण्णे, णो चेव णं अदिण्णे। से वि य पिबित्तए, णो चेव णं हत्थपायचरुचमस-पक्खालणट्ठाए सिणाइत्तए वा। भावार्थ - उन परिव्राजकों को एक मागध प्रस्थक जल ग्रहण करना कल्पता है। वह भी बहता हुआ, बंधा हुआ नहीं। निर्मलभूमि का जल, नीचे कीचड़ जमा हुआ हो ऐसा नहीं। अतिस्वच्छ, गंदा । नहीं। छना हुआ, बिना छना हुआ नहीं। दिया हुआ, अदत्त नहीं। पीने के लिए ही, किन्त हाथ. पैर. चरु, चमस- लकड़ी का चम्मच-दर्विका धोने के लिये या स्नान करने के लिये नहीं। विवेचन - जैसे आजकल अंग्रेजी तोल जैसे कि-पाव, आधासेर, पांच सेर, मण आदि तोल प्रसिद्ध है। वैसे ही पहले मागधादि तोल प्रसिद्ध थे। मागधप्रस्थक का उल्लेख उपर्युक्त सूत्र में हुआ है। वह प्रमाण इस प्रकार है। यथा दो असईओ पसई, दोहिं पसईहिं सेइया होइ। चउसेइओ उ कुलओ चउकुलओ पत्थओ होइ॥ चउपत्थमाढयं तह, चत्तारि य आढया भवे दोणो। दो असई (असती) = १ पसई (प्रसृति)। दो पसई = १ सेइया (सेतिका)। चार सेइया = १ कुलओ (कुलवः)। चार कुलओ = १ पत्थओ (प्रस्थक)। चार पत्थओ (प्रस्थक) = १ आढय (आढक)। चार आढय = १ दोणो (द्रोण)। For Personal & Private Use Only Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अम्बड़ परिव्राजक के सात सौ शिष्य १५५ तेसि णं परिव्वायगाणं कप्पइ मागहए अद्धाढए जलस्स पडिग्गाहित्तए। से वि य वहमाणे, णो चेव णं अवहमाणे। जाव णो चेव णं अदिण्णे। से वि य हत्थपायचरुचमस-पक्खालणट्ठाए, णो चेव णं पिबित्तए सिणाइत्तए वा। भावार्थ - उन परिव्राजकों के आधा मागध आढक जल लेने का कल्प है। वह भी बहता हुआ, बंधा हुआ नहीं। यावत् अदत्त नहीं। हाथ, पैर, चरु, चमस को धोने के लिए, पीने और स्नान के लिए नहीं। ते णं परिव्वायगा एयारूवेणं विहारेणं विहरमाणा बहूई वासाइं परियायं पाउणंति। पाउणित्ता कालमासे कालं किच्चा उक्कोसेणं बंभलोए कप्पे देवत्ताए उववत्तारो भवंति। तहिं तेसिं गई, तहिं तेसिं ठिई जाव दस सागरोवमाइं ठिई पण्णत्ता। जाव सेसं तं चेव॥१२॥ . भावार्थ - वे परिव्राजक इस तरह की चर्या करते हुए, बहुत वर्षों तक उस अवस्था को धारण करते हैं। फिर काल के समय में काल करके, ब्रह्मलोक कल्प-पांचवें स्वर्ग में देव रूप से उत्पन्न होते हैं। उनकी दस सागरोपम की स्थिति है। शेष उसी प्रकार। अम्बड़ परिव्राजक के सात सौ शिष्य ३९- तेणं कालेणं तेणं समएणं अम्मडस्स परिव्वायगस्स सत्त अंतेवासिसयाई गिम्हकालसमयंसि जेट्ठामूलमासंसि गंगाए महाणईए उभओकूलेणं कंपिल्लपुराओ णयराओ पुरिमतालं णयरं संपट्ठिया विहाराए। ... भावार्थ - उस काल उस समय 'अम्बड़' परिव्राजक के सात सौ अन्तेवासी-शिष्य ग्रीष्मकाल के • ज्येष्ठा-मूल अर्थात् ज्येष्ठ मास में गंगा महानदी के दो किनारों से 'कपिल्लपुर' नगर से पुरिमताल नगर को जाने के लिए रवाना हुए। तए णं तेसिं परिव्वायगाणं तीसे अगामियाए छिण्णावायाए दीहमद्धाए अडवीए कंचि देसंतर-मणुपत्ताणं, से पुव्वग्गहिए उदए अणुपुव्वेणं परिभुंजमाणे झीणे। भावार्थ - तब वे परिव्राजक उस ग्राम से रहित और सार्थ गोकुलादि के मिलन से रहित, लम्बे मार्गवाली अटवी के किसी भाग में पहुँच गये। पहले ग्रहण किया हुआ पानी बार-बार पीने से समाप्त हो गया। तए णं ते परिव्वायगा झीणोदगा समाणा तण्हाए. पारब्भमाणा-पारब्धमाणा उदगदातारमपस्समाणा अण्णमण्णं सद्दावेंति। For Personal & Private Use Only Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५६ उववाइय सुत्त भावार्थ - तब वे परिव्राजक पानी के समाप्त हो जाने से, प्यास के बढ़ने से और जल-दाता के दिखाई नहीं देने से, एक दूसरे को पुकारने लगे अथवा परस्पर बातें करने लगे। सहावित्ता एवं वयासी-एवं खलु देवाणुप्पिया ! अम्हं इमीसे अगामियाए जाव अडवीए कंचि देसंतरमणुपत्ताणं, से उदए जाव झीणे तं सेयं खलु देवाणुप्पिया ! अम्हं इमीसे अगामीए जाव अडवीए उदगदातारस्स सव्वओ समंता मग्गणगवेसणं करित्तए। भावार्थ - पुकार कर इस प्रकार बोले-'हे देवानुप्रिय ! इस ग्राम रहित अटवी के किसी भाग में हम आ पड़े हैं। जल खत्म है। अतः हे देवानुप्रियो ! इसी में भला है कि हम इस ग्राम रहित अटवी में एक साथ चारों ओर जलदाता की खोज करे।' त्तिकदृ अण्णमण्णस्स अंतिए एयमटुं पडिसुणंति। पडिसुणित्ता तीसे अगामियाए जाव अडवीए उदग-दातारस्स सव्वओ समंता मग्गणगवेसणं करेंति। भावार्थ - इस प्रकार एक-दूसरे के पास से यह बात सुनने लगे। सुनकर वे उस ग्राम रहित अटवी में चारों ओर एक साथ जलदाता की खोज करने लगे। करित्ता उदगदातारमलभमाणा दोच्चंपि अण्ण-मण्णं सद्दावेंति। सद्दावेत्ता एवं वयासी भावार्थ - उदकदाता के नहीं मिलने पर, पुनरपि अन्योन्य बातें करने लगे। इस प्रकार बोले - इह णं देवाणुप्पिया ! उदगदातारो णत्थि। तं णो खलु कप्पइ अम्हं अदिण्णं गिण्हित्तए। अदिण्णं साइजित्तए। तं मा णं अम्हे इयाणिं आवइकालंमि अदिण्णं गिण्हामो-अदिण्णं साइजामो।मा णं अम्हं वयलोवे भविस्सइ। भावार्थ - 'देवानुप्रियो ! यहाँ उदकदाता नहीं है। अदत्त ग्रहण करने का हमारा कल्प नहीं है और न अदत्त भोगने का ही। तो हम इस आपत्तिकाल में भी अदत्त ग्रहण नहीं करें-नहीं भोगें, तो हमारे व्रत का लोप नहीं होगा। ___ तं सेयं खलु अम्हं देवाणुप्पिया ! तिदंडए कुंडियाओ य कंचणियाओ य करोडियाओ य भिसियाओ य छण्णालए य अंकुसए य केसरियाओ य पवित्तए य गणेत्तियाओ य छत्तए य वाहणाओ य पाउयाओ य धाउरत्ताओ य एगंते एडित्ता, गंगं महाणइं ओगाहित्ता, वालुयासंथारए संथरित्ता, संलेहणाझोसियाणं भत्तपाणपडियाइक्खियाणं पाओवगयाणं कालं अणवकंख-माणाणं विहरित्तए। __ भावार्थ - 'तब हे देवानुप्रियो ! यही अच्छा है कि-हम त्रिदण्ड, कमण्डलु, रुद्राक्ष की मालाएँ, करोटिका-मिट्टी का पात्र विशेष, वृषिका-बैठने की पट्टडी, षण्णालक (त्रिकाष्ठिका), अंकुशक For Personal & Private Use Only Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अम्बड़ परिव्राजक के सात सौ शिष्य १५७ देवार्चन के लिए वृक्ष के पत्तों को खींचने का साधन, केशरिका-प्रमार्जन के लिए वस्त्रखण्ड, पवित्रकताम्बे की अंगूठी, गणेत्रिक-हस्ताभरण विशेष, छत्र, पादुकाएँ और गैरिकवस्त्र एकान्त में छोड़कर गंगा महानदी को पार करके या नदी में प्रवेश करके, बालुका का संस्तारक-बिछौना करके, संलेखना-देह और विचारों के विरोधक संस्कार को क्षीण करने की क्रिया का सेवन करते हुए, भात-पानी का त्याग करके, वृक्ष की कटी हुई डाली के समान पादपोपगमन संथारा करके मरण की इच्छा नहीं करते हुए शान्त चित्त से रहें। त्तिकट्ट अण्णमण्णस्स अंतिए एयमढेपडिसुणंति।जाव पडिसुणित्ता, तिदंडए जाव एगंते एडेइ। एडित्ता गंगं महाणइं ओगाहेंति। ओगाहित्ता वालुयासंथारए संथरंति। . भावार्थ - इस प्रकार यह बात एक-दूसरे के कर्णोपकर्ण सुनी। सुनकर त्रिदण्ड आदि को एकान्त में छोड़े। गंगा महानदी में प्रवेश किया। रेत का संस्तारक-बिछौना बनाया। ___वालुयासंथारयं दुरुहिंति। दुरुहित्ता पुरत्थाभिमुहा संपलियंकणिसण्णा करयल जाव कट्ट एवं वयासी__ भावार्थ - रेत के संस्तारक पर बैठे। पूर्वाभिमुख पद्मासन से बैठ कर, हाथ जोड़ कर यावत् इस प्रकार बोले णमोत्थु णं अरहंताणं जाव संपत्ताणं। णमोत्थु णं समणस्स भगवओ महावीरस्स जाव संपाविउकामस्स। णमोत्थु णं अम्मडस्स परिव्वायगस्स अम्हं धम्मायरियस्स धम्मोवदेसगस्स। . भावार्थ - अर्हन्त भगवान् को नमस्कार हो यावत् सिद्धि स्थान पर पहुँचे सिद्ध भगवन्तों को नमस्कार हो, नमस्कार हो श्रमण भगवान् महावीर स्वामी को जो निकट भविष्य में सिद्धिस्थान प्राप्त करने वाले हैं, हमारे धर्माचार्य धर्मोपदेशक अम्बड परिव्राजक को नमस्कार हो' : पुचि णं अम्हे अम्मडस्स परिव्वायगस्स अंतिए थूलगपाणाइवाए पच्चक्खाए जावज्जीवाए। धूलग मुसावाए अदिण्णादाणे पच्चक्खाए जावजीवाए। सब्वे मेहुणे पच्चक्खाए जावज्जीवाए।थूलए परिग्गहे पच्चक्खाए जावजीवाए। ... भावार्थ - पहले हमने 'अम्बड' परिव्राजक के पास जीवन भर के लिए स्थूल प्राणातिपात, स्थूल मृषावाद, अदत्तग्रहण, सर्व मैथुन तथा स्थूल परिग्रह का त्याग किया था। __ इयाणिं अम्हे समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए सव्वं पाणाइवायं पच्चक्खामो जावज्जीवाए। एवं जाव सव्वं परिग्गहं पच्चक्खामो जावज्जीवाए। सव्वं कोहं माणं 'मायं लोहं पेजं दोसं कलहं अब्भक्खाणं पेसुण्णं परपरिवायं अरइरई मायामोसं For Personal & Private Use Only Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५८ उववाइय सुत्त मिच्छादसणसल्लं अकरणिजं जोगं पच्चक्खामो जावजीवाए। सव्वं असणं पाणं खाइमं साइमं चउव्विहंपि आहारं पच्चक्खामो जावजीवाए। ___ भावार्थ - अब हम श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के पास जीवन भर के लिए सम्पूर्ण . प्राणातिपात यावत् सम्पूर्ण परिग्रह, सम्पूर्ण क्रोध, मान, माया, लोभ, राग, द्वेष, कलह, अभ्याख्यान, पैशुन्य, परपरिवाद, अरतिरति, मायामृषा, मिथ्यादर्शनशल्य नहीं करने योग्य योग-मन, वचन और काया की क्रिया, अशन-अन्नादि पान-पानी, खाद्य-मेवा आदि और स्वादय-मुखवासादि-इन चार प्रकार के आहार का त्याग करते हैं। ____जं पि य इमं सरीरं उद्रं कंतं पियं मणुण्णं मण्णामं थेजं (पेजं) वेसासियं, संमयं बहुमयं अणुमयं, भण्डकरंडगसमाणं माणं सीयं मा णं उण्हं, माणंखुहा, माणं . पिवासा, मा णं वाला, मा णं चोरा, मा णं दंसा, मा णं मसगा, मा णं वाइयपित्तियसंणिवाइयं विविहा रोगायंका परीसहोवसग्गा फुसंतु-त्तिकट्ट एयं पिणं चरिमेहिं ऊसासणीसासेहिं वोसिरामि। भावार्थ - 'यह जो शरीर इष्ट-वल्लभ, कान्त-सुन्दर, प्रिय, मनोज्ञ-मन भावन, मणोम-मनोरम, • प्रेय-प्रीति के योग्य या प्रेज्य-पूजनीय, विश्वसनीय, सम्मत-स्वयं को मान्य, बहुमत-बहुतों का इष्ट और अनुमत-विगुण देखने पर भी पुनः पुनः मान्य था और जिसे भूषण के करण्डक के समान माना था। कहीं इसे शीत न लग जाय, गर्मी न लग जाय, कहीं यह भूखा न रह जाय, कहीं प्यासा न मर जाय, कहीं इसे सर्प आदि न सतावें, कहीं यह चोरों से पीड़ित न हो जाय, डांस-मच्छर के उपद्रव में न फंस जाय, वात, पित्त और सन्निपातादि विविध रोगों से आतङ्कित न हो जाय और परीषह-क्षुधादि और उपसर्ग-देवादि के कष्ट न सहना पड़े-इस प्रकार सुरक्षा से जिसे रखा है, उसे भी अन्तिम श्वासउच्छ्वास में त्याग दें।' त्ति कट्ट संलेहणाझूसिया झूसणा भत्तपाण पडियाइक्खिया पाओवगया कालं अणवकंखमाणा विहरंति। तए णं ते परिव्वायगा बहूई भत्ताइं अणसणाए छेदंति। छेदित्ता आलोइय पडिक्कंता समाहिपत्ता काल मासे कालं किच्चा बंभलोए कप्पे देवत्ताए उववण्णा। तहिं तेसिं गई जाव दस सागरोवमाइं ठिई पण्णत्ता। परलोगस्स आराहगा। सेसं तं चेव। भावार्थ - इस प्रकार उत्साह पूर्वक अपनी इच्छा से तपस्या से शरीर को कृश (दुर्बल) करते हुए भात-पानी का त्याग करके, वृक्ष की कटी हुई डाली के समान स्थिर अवस्था में रहकर, मरने की इच्छा नहीं करते हुए, काल व्यतीत करने लगे। तब उन परिव्राजकों ने बहुत-से भक्त-भोजनकाल को For Personal & Private Use Only Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अम्बड़ परिव्राजक १५९ अनशन-अनाहार से छेदन किये। छेदन करके अपने अतिचारों की आलोचना की और उनका प्रतिक्रमण किया अर्थात् उन अतिचारों से पीछे हटे। समाधि-शान्ति-चित्त विशुद्धि पाई। समाधि को प्राप्त करके काल के समय में काल करके, ब्रह्मलोक कल्प में देवरूप से उत्पन्न हुए-वहाँ उनकी दस सागरोपम की स्थिति है। वे परलोक के आराध अम्बड परिव्राजक ४०- बहुजणेणं भंते ! अण्णमण्णस्स एवमाइ-क्खइ, एवं भासइ, एवं पण्णवेइ एवं परूवेइ-एवं खलुअम्मडे परिव्वायए कंपिल्लपुरेणयरे घरसए आहारमाहरेइ, घरसए वसहि उवेइ। से कहमेयं भंते ! एवं! भावार्थ - हे भगवन्! बहुत-से मनुष्य परस्पर इस प्रकार कहते हैं, इस प्रकार बोलते हैं, इस प्रकार जतलाते हैं और प्ररूपणा करते हैं कि - 'अम्बड़ परिव्राजक 'कंपिल्लपुर' नगर में सौ घरों में आहार करता है-सौ घरों में निवास करता है तो क्या भन्ते ! यह बात ऐसी ही है?' गोयमा ! जण्णं से बहुजणो अण्णमण्णस्स एवमाइक्खइ जाव एवं परूवेइ-एवं खलु अम्मडे परिव्वायए कंपिल्लपुरे जाव घर सए वसहिं उवेइ, सच्चे णं एसमटे। अहं पिणं गोयमा ! एवमाइक्खामि जाव एवं परूवेमि-एवं खलु अम्मडे परिव्वायए जाव वसहिं उवेइ। भावार्थ - हे गौतम ! जो बहुजन इस प्रकार कहते हैं कि अम्बड़ परिव्राजक सौ घरों में निवास करता है यह बात सत्य है। हे गौतम ! मैं भी इस प्रकार कहता हूँ।' : सेकेणटेणं भंते ! एवं वुच्चइ-अम्मडे परिव्वायए जाव वसहिं उवेइ। . भावार्थ - हे भन्ते ! किस कारण से इस प्रकार कहते हैं कि-अम्बड परिव्राजक सौ घरों में आहार करता है और सौ घरों में निवास करता है। - गोयमा ! अम्मडस्स णं परिव्वायगस्स पगइभद्दयाए जाव विणीययाए छटुंछट्टेणं अणिक्खित्तेणं तवोकम्मेणं ऊर्ल्ड बाहाओ पगिज्झिय पगिल्झिय सूराभिमुहस्स आयावणभूमीए आयावेमाणस्स, सुभेणं परिणामेणं पसत्थेहिं अज्झवसाणेहिं पसत्थाहिं लेसाहिं विसुज्झ-माणीहिं, अण्णया कयाइं तदावरणिजाणं कम्माणं खओवसमेणं ईहावूहामग्गंणगवेसणं करेमाणस्स वीरियलद्धीए वेउब्बियलद्धीए ओहिणाणलद्धी समुप्पण्णा। For Personal & Private Use Only Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६० उववाइय सुत्त भावार्थ - हे गौतम ! स्वाभाविक भद्रता और स्वाभाविक सरलता से यावत् विनीतता से युक्त, निरन्तर षष्ठोपवास-दो-दो दिन के उपवास अर्थात् बेले-बेले की तपस्या रूप तपःकर्म सहित, भुजाएँ ऊँची रख कर और मुख सूर्य की ओर करके आतापना भूमि में आतापना लेने वाले 'अम्बड' परिव्राजक को, शुभ परिणाम, प्रशस्त अध्यवसाय और विशुद्ध होती हुई प्रशस्त लेश्या के द्वारा, किसी समय तदावरणीय-वीर्य लब्धि और वैक्रिय लब्धि के आवरक तथा अवधिज्ञानावरण कर्मों का क्षयोपशम होने . पर जिज्ञासात्मक मति-ईहा, निर्णयात्मक मति-व्यूह, वस्तुगत धर्म के आलोचन-मार्गण और वस्तु में जो धर्म नहीं है उनके आलोचन-गवेषण रूप बुद्धि का व्यापार करते हुए, वीर्यलब्धि और वैक्रिय लब्धि के साथ अवधिज्ञान लब्धि प्राप्त हुई। - विवेचन - लेश्या-मन, वचन और काया की क्रिया में प्रयुक्त पुद्गलद्रव्य और उसके निमित्त से होने वाला आत्मिक असर। अध्यवसाय-भावमन का व्यापार। परिणाम-जीव की परिणति। ज्यों-ज्यों मन, वचन और काया की क्रिया शुभ होती है, त्यों-त्यों उनसे गृहीत पुद्गल द्रव्य भी शुभ और शुद्ध होता जाता है। जिससे अध्यवसाय में शुभता आती है। फिर शुभ अध्यवसायों से जीव की परिणति शुभ होती है और अन्त में शुद्ध दशा में भी स्थिति हो सकती है। प्रायः साधक दशा से साध्य दशा में पहुंचने का यही राजमार्ग प्रतीत होता है। ईहा-यह वही है या अन्य?' इस प्रकार की आलोचनाभिमुख मति। व्यूह'यह वही है'-इस प्रकार का निश्चय । यथा-यह दूँठा है या पुरुष? (ईहा)। यह तो दूंठा ही है-(व्यूह)। . क्योंकि बेलें आदि लिपटी हुई दिखाई दे रही हैं-(मार्गण) और पुरुष के समान शिर आदि भी नहीं हिला रहा है-(गवेषण)। इन सब बातों को करने से अम्बड परिव्राजक को वीर्य लब्धि और वैक्रिय लब्धि के साथ अवधिज्ञान लब्धि प्राप्त हुई। ____तएणं से अम्मडे परिव्वायए ताए वीरियलद्धीए वेउव्वियलद्धीए ओहिणाणलद्धीए समुप्पण्णाए जणविम्हावणहेउं कंपिल्लपुरे घरसए जाव वसहिं उवेइ। से तेणटेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ-अम्मडे परिव्वायए कंपिल्लपुरे णयरे घरसए जाव वसहिं उवेइ। भावार्थ - तब वह 'अम्बड' परिव्राजक वीर्यलब्धि-विशेष-शक्ति की प्राप्ति, वैक्रियलब्धिअनेक रूप बनाने की शक्ति और अवधिज्ञानलब्धि-रूपी पदार्थों को आत्म प्रदेशों से जानने की शक्ति के प्राप्त होने पर, मनुष्यों को विस्मित करने के लिये 'कंपिल्लपुर' नगर में सौ घरों में आहार करता हैसौ घरों में निवास करता है। इस कारण हे गौतम ! मैं इस प्रकार कहता हूँ, कि-'अम्बड परिव्राजक सौ घरों में आहार करता है और सौ घरों में निवास करता है।' विवेचन - अम्बड और अम्बड के शिष्यों ने पहले परिव्राजक धर्म को स्वीकार करके परिव्राजक दीक्षा अंगीकार की थी। इसलिए वे परिव्राजक कहलाते थे और परिव्राजकों के वस्त्र गेरुएँ रंग के होने से अम्बड आदि के वस्त्र भी गेरुएँ रंग के थे तथा उपकरण भी त्रिदण्ड, कुण्डीका आदि थे। फिर श्रमण भगवान् महावीर स्वामी का सम्पर्क होने से उन्होंने जैन धर्म को स्वीकार किया और श्रावक के व्रत For Personal & Private Use Only Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ " अम्बड़ परिव्राजक १६१ अंगीकार किये किन्तु वेश वही परिव्राजक का रखा था इस कारण से अम्बड को और उनके शिष्यों को मूल पाठ में "परिव्राजक" कहा है। वे शुद्ध सम्यक्त्व और निरातिचार श्रावक व्रत पालन करने से परलोक के आराधक हुए हैं। पहू णं भंते ! अम्मडे परिव्वायए देवाणुप्पियाणं अंतिए मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइत्तए?-णो इणढे समढ़े। भावार्थ - हे भन्ते ! अम्बड परिव्राजक देवानुप्रिय के पास में मुंडित होकर गृहवास से निकलकर, अनगार अवस्था को प्राप्त करने के लिए समर्थ है ? हे गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है अर्थात् अम्बड मेरे पास दीक्षा नहीं लेगा। गोयमा ! अम्मडे णं परिव्वायए समणोवासए अभिगय-जीवाजीवे जाव अप्पाणं भावमाणे विहरइ। णवरं ऊसियफलिहे अदंगुयदुवारे चियत्तंतेउरघर-दार-पवेसी एयं 'ण वुच्चइ। भावार्थ - किन्तु हे गौतम ! अम्बड परिव्राजक श्रमणोपासक होकर, जीव और अजीव को जानता हुआ यावत् आत्मा को भावित करता हुआ विचरण करता रहेगा। 'ऊसिय' आदि तीन विशेषण नहीं कहना चाहिए। विवेचन - 'जाव' शब्द से 'उवलद्धपुण्णपावे आसव' आदि विशेषणों का ग्रहण होता है। जिनका अनुवाद २० वें प्रश्न में आयेगा। ऊसियफलिहे' आदि तीन विशेषण यहाँ नहीं कहने चाहिये, क्योंकि ये परिव्राजक-संन्यासी के वेष में श्रावक बने हैं। इसलिए इनके घर आदि नहीं है। अतएव ये तीन विशेषण इनके लिए नहीं कहने चाहिए। -- अम्मडस्स णं परिव्वायगस्स थूलए पाणाइवाए पच्चक्खाए जावजीवाए जाव परिग्गहे, णवरं सव्वे मेहुणे पच्चक्खाए जावजीवाए। .. भावार्थ - अम्बड के स्थूल प्राणातिपात, स्थूल मृषावाद अदत्तादान तथा सर्व मैथुन और स्थूल परिग्रह के जीवन भर के लिए प्रत्याख्यान हैं। अम्मडस्स णं णो कप्पइ अक्खसोयप्यमाणमेत्तं पि जलं सयराहं उत्तरित्तए। णण्णत्थ अद्धाण-गमणेणं। 'भावार्थ - अम्बड को मार्ग गमन के सिवाय, गाड़ी की धुरा डूबने जितने जल में भी अकस्मात् उतरना नहीं कल्पता है। ___ अम्मडस्स णं णो कप्पइ सगडं एवं चेव भाणियव्वं जाव णण्णत्थ एगाए गंगामट्टियाए। For Personal & Private Use Only Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२ उववाइय सुत्त भावार्थ - अम्बड को गाड़ी आदि यानों में बैठना नहीं कल्पता है। इसी प्रकार 'एगाए गंगाए मट्टियाए' तक कहना चाहिए अर्थात् पहले परिव्राजकों के वर्णन में जो ये विशेषण आ चुके हैं वैसे ही विशेषणों से युक्त 'अम्बड' भी थे। ____ अम्मडस्स णं परिव्वायगस्स णो कप्पइ-आहाकम्मिए वा उद्देसिए वा मीसजाए इ वा अज्झोयरए इ वा पूइकम्मे इवा कीयगडे इ वा पामिच्चे इ वा अणिसिटे इ वाअभिहडे. इ वा ठइत्तए इ वा रइए इ वा कंतारभत्ते इ वा दुब्भिक्खभत्ते इ वा पाहुणगभत्ते इ वा गिलाणभत्ते इ वा वदलियाभत्ते इ वा भोत्तए वा पाइत्तए वा। भावार्थ - अपने लिये बनाया हुआ, किसी साधु के लिये बनाया हुआ, साधु और गृहस्थ दोनों के लिये बनाया हुआ, गृहस्थ के बनते हुए भोजन में साधु के लिए कुछ और बढ़ाकर बनाया हुआ, अपने लिए बनाए हुए भोजन-पान के अंश से मिश्रित बना हुआ, अपने लिए खरीदा हुआ, उधार लिया हुआ, घर के व्यक्ति या मुखिया से बिना पूछे दिया जाने वाला, सामने लाकर दिया जाने वाला, अपने लिये ही अलग रखा हुआ, अपने लिये संस्कारित किया हुआ, अटवी उल्लंघन के लिए घर से लाया हुआ पाथेय भाता रूप आहार अथवा भिक्षुकों के निर्वाह के लिये जंगल में संस्कारित किया हुआ, दुर्भिक्ष पीड़ितों के लिए या दुर्भिक्ष के कारण भिक्षुओं के लिये बना हुआ, पाहुने से सम्बन्धित रहा हुआ, रोगी के लिए बना हुआ और दुर्दिन-बादल आदि से आच्छन्न दिन में गरीबों के लिए बना हुआ भोजन-पान, अम्बड : को खाना-पीना नहीं कल्पता है। अम्मडस्स णं परिव्वायगस्स णो कप्पइ-मूलभोयणे इ वा जावं बीयभोयणे इ वा भोत्तए वा पाइत्तए वा। भावार्थ - अम्बड परिव्राजक के मूलभोजन यावत् बीजभोजन करने का कल्प नहीं है। विवेचन - 'जाव' शब्द से-'कंदभोयणे इ वा' 'फलभोयणे इ वा' और 'हरियभोयणे इ वा' आदि पदों का ग्रहण होता है। अर्थ-कंद से लेकर बीज तक का सचित्त वस्तु का भोजन अम्बड को नहीं कल्पता है। ___ अम्मडस्स णं परिव्वायगस्स चउविहे अणत्थदंडे पच्चक्खाए जावज्जीवाए। तं जहा-अवज्झाणायरिए पमायायरिए हिंसप्पयाणे पावकम्मोवएसे। भावार्थ - अम्बड परिव्राजक ने जीवन भर के लिए चार प्रकार के अनर्थदण्ड अर्थात् निरर्थक हिंसक क्रियाएँ छोड़ दी हैं। यथा-बुरे ध्यान का सेवन, प्रमाद-सेवन, हिंसा के साधन अन्य को देना और पाप से होने वाली क्रियाओं के करने का उपदेश देना। अम्मडस्स कप्पइ मागहए अद्धाढए जलस्स पडिग्गाहित्तए। से वि य वहमाणे णो चेवणं अवहमाणए जाव से वि य पूए, णो चेवणं अपरिपूए।से वि य सावजेत्ति For Personal & Private Use Only Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अम्बड़ परिव्राजक १६३ काउं, णो चेवणं अणवजे। से वि य जीवा त्ति कट्ट, णो चेव णं अजीवा। से वि य दिण्णे, णो चेव णं अदिण्णे। से वि य दंतहत्थपायचरुचमसपक्खालण-द्वयाए पिबित्तए वा, णो चेव णं सिणाइत्तए। .. भावार्थ - बहता हुआ जल, किन्तु बन्धा हुआ नहीं, छना हुआ जल, किन्तु अनछना नहीं, वह सावध जल है, किन्तु निरवद्य नहीं है, सजीव है किन्तु अजीव नहीं है, दत्त जल किन्तु अदत्त नहीं-ऐसा मगध का आधा आढक जल, हाथ-पैर, दांत, चरु, चमस धोने के लिए और पीने के लिये, किन्तु स्नान के लिये नहीं-अम्बड के लेने का कल्प है। अर्थात् हाथ आदि धोने के लिए और पीने के लिए बहते हुए प्रवाह से, सावद्य और सजीव से छानकर दिया हुआ जल मगध के आधे आढक जितना लेने का, अम्बड के कल्प है। विवेचन - 'यह जो जल का परिमाण करण है वह जल सावध है-सजीव है'-ऐसा करके परिमाण करना अथवा छना हुआ जल किस कारण से ग्रहण करते हैं ? जल सावध है, उसमें पूतरकादि जीव हैं-ऐसा सोचकर। यह भाव है। ___ अर्थात् अम्बड़ ने यह प्रतिज्ञा नहीं की थी, कि-"मैं सावध और सजीव जल ही काम में लूंगा।' क्योंकि ऐसी प्रतिज्ञा सुप्रत्याख्यान में नहीं गिनी जा सकती। अत: इन प्रतिज्ञागत वाक्यों का यह आशय है, कि - 'जिस जल का मैं उपयोग करता हूँ, वह जल सावध और सजीव है, किन्तु निरवद्य और निर्जीव नहीं है'-ऐसा विचार करके, जल की मर्यादा की, अथवा जल को छानकर उपयोग में लेने का नियम लिया। 'त्ति काउं' और 'त्ति कट्ट' शब्दों से भी यही ध्वनि निकलती है। ... अम्बड परिव्राजक ने परिव्राजक अवस्था में इस प्रकार पानी की मर्यादा की थी सो श्रावकपने में भी पूर्व-प्रतिज्ञा को ही कायम रखा था। वह उस जल को सचित्त समझता था यह उसकी श्रद्धा थी, किन्तु इससे उसके श्रावकपने में किसी प्रकार की बाधा नहीं आती थी, क्योंकि श्रावक सर्व सचित्त का सर्वथा त्यागी नहीं होता है। to अम्मडस्स कप्पइ मागहए आढए जलस्स पडिग्गाहित्तए। से वि य वहमाणे जाव "दिण्णे णो चेव णं अदिण्णे। से वि य सिणाइत्तए, णो चेव णं हत्थपायचरुचमससक्खालणट्ठयाए पिबित्तए वा। भावार्थ - अम्बड के मागध एक आढक जल लेने का कल्प है। वह भी बहता हुआ....जाव द्वित....स्नान के लिये, किन्तु हाथ, पैर......आदि धोने और पीने के लिए नहीं। अम्मडस्स णो कप्पइ अण्णउत्थिया वा, अण्णउत्थियदेवयाणि वा, मण्णउत्थियपरिग्गहियाणि वा चेइयाइं वंदित्तए वा णमंसित्तए वा जाव पज्जुवासित्तए जाणण्णत्थ अरिहंते वा. अरिहंतचेइयाइं वा। TRE For Personal & Private Use Only Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४ उववाइय सुत्त भावार्थ - 'अम्बड' को नहीं कल्पता है-अन्य तीर्थकों अन्य तीर्थिक देवों और अन्य तीर्थिकों से परिगृहीत 'चेइयों' को वन्दन-नमस्कार करना यावत् उनकी पर्युपासना करना, केवल अरिहन्तों और अरिहन्तचेइयों को छोड़ कर। विवेचन - यहाँ मूल पाठ में 'अण्णउत्थिया' आदि तीन शब्द आये हैं, इसी प्रकार के तीन शब्द उपासकदशांग सूत्र के प्रथम आनन्द अध्ययन में भी आये हैं। जिनका अर्थ वहाँ इस प्रकार किया गया है'अन्य तीर्थिक अर्थात् बौद्ध विमांसक, अन्य तीर्थियों के द्वारा माने हुए सरागी देव और अन्य तीर्थयों के माने हुए चेइय अर्थात् साधुओं को वन्दना करना मुझे नहीं कल्पता है।' नोट - इसमें आए हुए चेइय शब्द को मूर्तिपूजक सम्प्रदाय अरिहन्त प्रतिमा ऐसा अर्थ करते हैं, किन्तु वह संगत नहीं है इस विषय में श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह बीकानेर के तीसरे भाग के परिशिष्ट में बहुत विस्तृत सप्रमाण खुलासा दिया है। . अम्बड के भविष्य के भव । अम्मडे णं भंते ! परिव्वायए कालमासे कालं किच्चा कहिं गच्छिहिइ ? कहिं उववजिहिइ?- गोयमा! अम्मडे णं परिव्वायए उच्चावएहिं सीलव्वयगुणवेरमणपच्चक्खाणपोसहोववासेहिं अप्पाणं भावमाणा बहूई वासाइं समणोवासयपरियायं पाउणिहिइ। पाउणित्ता मासियाए संलेहणाए अप्पाणं झूसित्ता सटैि भत्ताइं अणसणाए छेदित्ता, आलोइयपडिक्कंते समाहिपत्ते कालमासे कालं किच्चा बंभलोए कप्पे देवत्ताए उववजिहिइ। तत्थ णं अत्थेगइयाणं देवाणं दस सागरोवमाइं ठिई पण्णत्ता। तत्थ णं अम्मडस्सवि देवस्स दस सागरोवमाइं ठिई। भावार्थ - हे भन्ते ! अम्बड परिव्राजक काल के समय में काल करके कहाँ जायगा ? कहाँ उत्पन्न होगा ? .. हे गौतम ! अम्बड परिव्राजक छोटे बड़े विविध प्रकार के शीलव्रत-अणुव्रत, गुणव्रत, विरमणरागादि से विरति के प्रकार, प्रत्याख्यान-णम्मुक्कारसहिय आदि पच्चक्खाण और पौषधोपवास-अष्टमी आदि पर्व दिनों में की जाने वाली विशेष प्रकार की आत्मिक साधना के द्वारा अपनी आत्मा को भावित करते हुए बहुत वर्षों तक श्रमणोपासक अवस्था को पालेगा। फिर एक महीने की संलेखना से आत्मा में लीन होकर-अप्याणं-आत्मा को झूसित्ता-सेवन करके, साठ भक्त-भोजन के समय को निराहार अवस्था से काटकर, आत्म-दोषों का स्मरण करके, उनसे पीछे हटता हुआ समाधि-आत्मशान्ति की प्राप्ति करता हुआ, काल के समय में काल करके, ब्रह्मलोककल्प में देवरूप से उत्पन्न होगा। वहाँ पर कई देवों की स्थिति दस सागरोपम की होती है। तो वहाँ पर 'अम्बड' देव की भी स्थिति दस सागरोपम की होगी। For Personal & Private Use Only Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अम्बड के भविष्य के भव १६५ से णं भंते ! अम्मडे देवे ताओ देवलोगाओ आउक्खएणं भवक्खएणं ठिइक्खएणं अणंतरं चयं चइत्ता। कहिं गच्छिहिइ? कहिं उववजिहिइ? - गोयमा! महाविदेहे वासे जाइं कुलाई भवंति-अड्डाइं दित्ताइं वित्ताई विच्छिण्णविउलभवण-सयणासणजाणवाहणाई बहुधणजायरूवरययाई आओगपओगसंपउत्ताइं विच्छड्डिय-पउरभत्तपाणाई बहुदासीदास-गोमहिसगवेलगप्पभूयाइं बहुजणस्स अपरिभूयाइं। तहप्पगारेसु कुलेसु पुमत्ताए पच्चायाहिइ। - भावार्थ - हे भन्ते ! अम्बड' देव उस देवलोक से आयु.... भव-देव-गति और स्थिति के क्षीण होने पर, चव कर कहाँ जाएगा? कहाँ उत्पन्न होगा? हे गौतम ! महाविदेह क्षेत्र में जो कुल हैं, वे समृद्ध, दर्पवान् और प्रसिद्ध हैं। अनेकों भवन, शयनासन, यान और वाहनों से युक्त हैं। उनके यहाँ धन, सोने, चांदी की कमी नहीं हैं। वे अर्थलाभ के उपायों का सफलता से प्रयोग करते हैं। कुल मनुष्यों के भोजन के बाद, अन्य बहुत-से मनुष्यों का भी गुजारा हो सके, इतना प्रचुर भोजन-पान उनके यहाँ बनता है। वहाँ दास-दासियों की भी कमी नहीं। वे गायें आदि पशुधन से समृद्ध हैं। ऐसे कुलों में से एक कुल में पुरुष रूप से उत्पन्न होगा। 'विवेचन - आयुक्षय - आयुःकर्म के दलिकों का आत्मा से सम्बन्ध छूटना। भवक्षय - देवादि भव के निबन्धनभूत कर्मों का क्षय होना। स्थितिक्षय - आयुःकर्म और दूसरे भी तद्योग्य कर्मों का आत्मा के साथ लगे रहने का काल समाप्त हो जाना। . . :: देव की जो 'अम्बड' संज्ञा कही गई है, वह इस भव की अपेक्षा से। वहाँ अन्य संज्ञा होना संभव है। तए णं तस्स दारगस्स गब्भत्थस्स चेव समाणस्स अम्मापिईणं धम्मे दढा पइण्णा भविस्सइ। . भावार्थ - तब उस बालक के गर्भ में आते ही माता-पिता की धर्म में दृढ़ प्रतिज्ञा होगी। से णं तत्थ णवण्हं मासाणं बहुपडिपुण्णाणं अद्धट्ठमाणराइंदियाणं वीइक्कंताणं सुकुमालपाणिपाए जाव ससिसोमाकारे कंते पियदंसणे सुरूवे दारए पयाहिइ। - भावार्थ - वहाँ पूर्ण नव महीने और साढ़े सात रात्रि-दिन बीतने पर, सुकुमार हाथ-पैर वाले यावत् चन्द्र के समान सौम्याकार, कान्त और प्रिय दर्शन वाले सुरूप बालक का जन्म होगा। तए णं तस्स दारगस्स अम्मापियरो पढमे दिवसे ठिइवडियं काहिति। भावार्थ - तब उस बालक के माता-पिता पहले दिन कुल क्रम के अनुसार पुत्र जन्म के योग्य क्रिया करेंगे। For Personal & Private Use Only Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६६ उववाइय सुत्त बिईयदिवसे चंदसूरदंसणियं काहिति। छट्टे दिवसे जागरियं काहिंति। भावार्थ - दूसरे दिन 'चन्द्र-सूर्य-दर्शनिका' नामक जन्म उत्सव करेंगे। छठे दिन 'जागरिका' नामक जन्मोत्सव करेंगे। ___ एक्कारसे दिवसेवीइक्कंतेणिव्वित्तेअसुइ-जायकम्पकरणे, संपत्ते बारसाहे दिवसे अम्मापियरो इमं एयारूवंगोणं गुण-णिप्फण्णंणामधेजंकाहिंति-जम्हाणं अम्हं इमंसि दारगंसि गब्भत्थंसि चेव समाणंसि धम्मे दढपइण्णा, तं होउ णं अम्हं दारए दढपइण्णे णामेणं। तए णं तस्स दारगस्स अम्मा-पियरो णामधेनं करेहिंति-दढपइण्णे-त्ति। भावार्थ - ग्यारह दिन बीत जाने पर-जनन-क्रिया सम्बन्धी अशुचि के विधान के निवृत्त होने पर-बारहवें दिन माता-पिता यह इस रूप से गुणों से सम्बन्धित गुणनिष्पन्न-गुणानुसार बनने वाला नामसंस्कार करेंगे- क्योंकि यह बालक गर्भ में था, उस समय धर्म में हमारी दृढ़ प्रतिज्ञा हुई थी। अतः हमारा बालक 'दढपइण्ण'-दृढ़प्रतिज्ञ नाम से प्रसिद्ध हो।' तब माता-पिता उस बालक का नाम 'दढपइण्ण' रखेंगे। तं दढपइण्णं दारगं अम्मापियरो साइरेगऽटुवास-जायगं जाणित्ता सोभणंसि तिहिकरणणक्खत्तमुहत्तंसि कलायरियस्स उवणेहिति। भावार्थ - फिर वे 'दढपइण्ण' बालक को आठ वर्ष से अधिक का हुआ जानकर, शुभ तिथि, करण और नक्षत्र वाले मुहूर्त में कलाचार्य के पास ले जायेंगे। तएणं से कलायरिए तं दढपइण्णं दारगं लेहाइयाओ गणियप्पहाणाओ सउणरूयपजवसाणाओ बावत्तरि कलाओ सुत्तओ य अत्थओ य करणओ य सेहाविहिइ, सिक्खाविहिइ। भावार्थ - तब कलाचार्य उस 'दढपइण्ण' बालक को लेखादि-लेखनकला आदि में है जिसके ऐसी, गणितप्रधान 'शकुनरुत' पर्यन्त बहत्तर कलाएं सूत्र से, अर्थ से और प्रयोग से सधाएंगे-सिखाएंगे। _ तंजहा-लेहं, गणियं, रूवं, णटुं, गीयं वाइयं, सरगयं, पुक्खरगर्य, समतालं, जूयं, जणवायं, पासकं, अट्ठावयं, पोरेकच्चं, दगमट्टियं, अण्णविहिं, पाणविहिं, वत्थविहिं, विलेवणविहि, सयणविहि, अजं, पहेलियं,मागहियं,गाहं, गीइयं, सिलोयं, हिरण्णजत्तिं, सुवण्णजुत्तिं, गंधजुत्तिं, चुण्णजुत्तिं, आभरण-विहि, तरुणीपडिकम्मं, इथिलक्खणं, पुरिसलक्खणं, हयलक्खणं, गयलक्खणं, गोणलक्खणं, कुक्कुडलक्खणं, चक्कलक्खणं, छत्तलक्खणं, चम्मलक्खणं, दंडलक्खणं, असिलक्खणं, मणिलक्खणं, काकणिलक्खणं, वत्थुविज्ज, खंधारमाणं,णगरमाणं, वत्थुणिवेसणं, वूहं पडिवूह, चार For Personal & Private Use Only Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अम्ब के भविष्य के भव पडिचारं, चक्कवूहं, गरुलवूहं, सगडवूहं, जुद्धं, णिजुद्धं, जुद्धाइजुद्धं, मुट्ठिजुद्धं, बाहुजुद्धं, लयाजुद्धं, इसत्थं, छरुप्पवाहं, धणुव्वेयं, हिरण्णपागं, सुवण्णपागं, वट्टखेड्डु, सुत्तखेड, णालियाखेड, पत्तच्छेजं, कडवच्छेजं, सज्जीवं, णिज्जीवं, सउणरुय - मिति बावत्तरिकलाओ सेहावित्ता। १६७ भावार्थ- बहत्तर कलाओं के नाम यथा - १. लेख २. गणित ३. रूप ४. नाट्य ५. गीत ६. वादित ७. स्वरगत ८. पुष्करगत ९. समताल १०. द्यूत ११ जनवाद १२. पाशक १३. अष्टापद १४. पौरस्कृत्य १५. उदक- मिट्टियं १६. अन्नविधि १७. पानविधि १८. वस्त्रविधि १९. विलेपनविधि २०. शयनविधि २१. आर्या २२. प्रहेलिका २३. मागधिका २४. गाथा २५. गीतिका २६ श्लोक २७. हिरण्ययुक्ति २८. सुवर्णयुक्ति २९. गन्धयुक्ति ३०. चूर्णयुक्ति ३१. आभरणविधि ३२. तरुणीप्रतिकर्म ३३. स्त्रीलक्षण ३४. पुरुषलक्षण ३५. हयलक्षण ३६. गजलक्षण ३७. गोलक्षण ३८. कुक्कुटलक्षण ३९. चक्रलक्षण ४०. छत्रलक्षण ४९. चर्मलक्षण ४२. दंडलक्षण ४३. असिलक्षण ४४. मणिलक्षण ४५. काकणिलक्षण ४६. वास्तुविद्या ४७. स्कंधारमाण, ४८. नगरमाण ४९. वास्तुनिवेसन ५०. व्यूह - प्रतिव्यूह ५१. चार प्रतिचार ५२. चक्रव्यूह ५३. गरुडव्यूह ५४. शकटव्यूह ५५. युद्ध ५६. नियुद्ध ५७. युद्धातियुद्ध ५८. मुष्टियुद्ध ५९. बाहुयुद्ध ६०. लतायुद्ध ६१. 'इसत्थं छरुप्पवाह' - इषु-शस्त्र, क्षुर - प्रवाह, ६२. धनुर्वेद ६३. हिरण्यपाक ६४. सुवर्णपाक ६५. वट्टखेड्ड-वृत्त खेल ६६. सुत्तखेड्ड- सूत्र - खेल ६७. नालियाखेड्ड-नालिका-खेल ६८. पत्रच्छेद्य ६९. कुडवछेद्य ७०. सजीव ७१. निर्जीव और ७२. शकुनरुत- ये बहत्तर कलाएँ सिखायेंगे। विवेचन - तत्कालीन शिक्षा-पद्धति के तीन अंग बताये हैं। स्मृति के लिये सूत्रात्मक पद्धति से, समझ के विकास के लिये व्याख्यात्मक पद्धति से और दक्षता के लिए प्रयोगात्मक पद्धति से शिक्षा दी जाती थी। सिक्खावित्ता अम्मापिईणं उवणेहि । तए णं तस्स दढपइण्णस्स दारगस्स - अम्मापियरो तं कलायरियं विउलेणं असणपाणखाइमसाइमेणं वत्थगंधमल्लालंकारेण य सक्कारेहिंति-सम्माणेर्हिति । सक्कारेत्ता सम्माणेत्ता विपुलं जीवियारिहं पीइदाणं दलइस्सइ । जाव दलइत्ता पडिविसज्जेहिंति । भावार्थ - तब कलाचार्य उसे माता-पिता के पास ले जायेंगे। तब उस 'दढपइण्ण' के माता-पिता उन कलाचार्य का विपुल अशन, पान, खाद्य, स्वाद्य, वस्त्र, गन्ध, माल्य और अलंकार से सम्मान करेंगेसत्कार करेंगे। यावत् जीविका के योग्य विपुल प्रीतिदान देंगे। फिर विसर्जन करेंगे। - तण से दढपणे दारए बावत्तरिकलापंडिए णवंगसुत्त - पडिबोहिए अट्ठारसदेसी भासाविसारए गीवरई गंधव्वणट्ट - कुसले हयजोही गयजोही रहजोही बाहुजोही बाहुप्पमद्दी वियालचारी साहसिए अलं भोगसमत्थे यावि भविस्स | For Personal & Private Use Only Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८ उववाइय सुत्त भावार्थ - तब वह बहत्तर कला में पण्डित, सुप्त नव अंगों की जागृति वाला, अठारह देश की भाषा में विशारद, संगीत-प्रेमी, गन्धर्व-नाट्य में कुशल, हय(घोड़ा), गज(हाथी) रथ और बाहुयुद्ध का कुशल योद्धा, बाहुओं से प्रमर्दन करने वाला, विकालचारी-रात्रि में भी भ्रमण करने में निर्भय और साहसिक 'दढपइण्ण' बालक पूर्णत: भोगानुभव करने की शक्ति वाला होगा। . विवेचन - 'नवांग सुप्तप्रतिबोधित' अर्थात् दो कान, दो आँखें, दो घ्राण-नाक, एक जिह्वा, एक त्वचा और एक मन-ये नव अंग, जो बाल अवस्था के कारण सोये हुए-से-अव्यक्त चेतना वाले थे वे जागृत-यौवन से व्यक्त चेतना वाले हुए। तएणं दढपइण्णं दारगं अम्मापियरो बावत्तरि-कलापंडियं जाव अलं भोगसमत्थं वियाणित्ता, विउलेहिं अण्णभोगेहिं पाणभोगेहिं लेणभोगेहिं वत्थभोगेहि सयणभोगेहिं उवणिमंतेहिंति। भावार्थ - तब माता-पिता 'दढपइण्ण' बालक का बहत्तर कला में पण्डित यावत् पूर्ण भोगसमर्थ जान कर, विपुल अन्नभोग-अन्नादि खाने योग्य भोग्य पदार्थ, पानभोग-पानी आदि पीने योग्य पदार्थ, लयनभोग-गृह आदि निवास योग्य पदार्थ, वस्त्रभोग-वस्त्र आदि पहनने योग्य पदार्थ और शयनभोग-शय्या आदि सोने-आराम करने योग्य पदार्थ में जोडेंगे। तएणं से दढपइण्णे दारए तेहिं विउलेहि अण्णभोगेहिं जाव सयणभोगेहिं णो सजिहिइ, णो रजिहिइ, णो गिज्झिहिइ, णो मुज्झिहिइ णो अज्झोववजिहिइ। भावार्थ - वह 'दढपइण्ण' बालक अन्न आदि भोगों में संग-सम्बन्ध स्थापित नहीं करेगा, रागरञ्जित नहीं होगा, अप्राप्त भोगों की आकांक्षा नहीं करेगा और अत्यन्त लीन नहीं होगा। से जहा णामए उप्पले इवा, पउमे इवा, कुसुमे इवा, णलिणे इवा, सुभगे इवा, सुगंधे इ वा, पोंडरीए इ वा, महापोंडरीए इ वा, सयपत्ते इ वा, सहस्सपत्ते इ वा, सयसहस्सपत्तेइवा, पंके जाए, जलेसंवुड्डेणोवलिप्पइपंकरएणं, णोवलिप्पइजलरएणं, एवमेव 'दढपइण्णे' विदारए कामेहिं जाए, भोगेहिं संवुड्डे, णोवलिप्पिहिइ-कामरएणं, णोवलिप्पिहिइ भोगरएणं, णोवलिप्पिहिइ मित्तणाइणियगसयणसंबंधिपरिजणेणं। भावार्थ - जैसे उत्पल-नीलकमल, पद्म-पीत कमल, कुसुम-रक्त कमल, नलिन-कुछ कुछ लाल-गुलाबी कमल, सुभग-सुनहरा कमल, सुगन्ध-नील कमल अथवा हरा कमल, पुण्डरीक-सफेद कमल, महापुण्डरीक, शतपत्र-सौ पंखड़ी वाला कमल, सहस्रपत्र हजार पंखड़ी वाला कमल और शतसहस्रपत्र-लाख पंखड़ी वाला, कीचड़ में उत्पन्न हुए और जल में वृद्धि पाए, किन्तु लिप्त नहीं होते हैं, पंक-रज-कीचड़ के सूक्ष्म कणों से-लिप्त नहीं होते हैं जलरज-जल कण से। वैसे ही वह 'दढपइण्ण' बालक भी काम में उत्पन्न हुआ और भोगों में पला, किन्तु लिप्त नहीं होगा कामरज-शब्द For Personal & Private Use Only Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अम्बड के भविष्य के भव १६९ और रूपरूपी रज से, लिप्त नहीं होगा, भोगरज-गंध, रस और स्पर्श रूप रज से और लिप्त नहीं होगा मित्र, सजातीय, भाई-बेटे-णियग, स्वजन-मामा आदि, सम्बन्धी-श्वसुरादि और परिजन-दासी-दास आदि में। से णं तहारूवाणं थेराणं अंतिए केवलं बोहिं बुझिहिइ। बुज्झित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइहिइ। भावार्थ - वह तथारूप-जिन आज्ञावर्ती स्थविरों के समीप विशुद्ध सम्यग्-दर्शन-केवलबोधि का अनुभव करेगा यावत् फिर गृहवास से निकलकर अनगार बनेगा। से णं भविस्सइ अणगारे भगवंते इरियासमिए जाव गुत्त-बंभयारी। तस्स णं भगवंतस्स एएणं विहारेणं विहरमाणस्स अणंते अणुत्तरे णिव्वाघाए णिरावरणे कसिणे पडिपुण्णे केवलवरणाणदंसणे समुप्पजिहिइ। भावार्थ - वे अनगार भगवन्त हलन-चलन में यतनावान् यावत् ब्रह्मचर्य के रक्षक नियमों से युक्त ब्रह्मचारी-गुप्त-ब्रह्मचारी होंगे। ऐसी चर्या से विचरने वाले उन भगवन्त को अनन्त पदार्थों को विषय बनाने वाला-अनन्त, सर्वश्रेष्ठ-अनुत्तर, किसी भी प्रकार की रुकावट-भीत आदि या ओट में रहे हुए पदार्थों को भी जानने में समर्थ-णिव्वाघाय, आवरण से रहित, सकल अर्थों का ग्राहक-कसिण और अपने समस्त अंशों से युक्त-पडिपुण्ण श्रेष्ठ केवल समस्त निर्मल आत्म-प्रदेशों के द्वारा स्वतः ही होने वाला-ज्ञान-विशेष अवबोध और केवल दर्शन-सामान्य अवबोध उत्पन्न होगा। तए णं से दढपइण्णे केवली बहूई वासाइं केवलिपरियागं पाउणिहिइ। पाउणित्ता मासियाए संलेहणाए अप्पाणं झूसित्ता, सर्टि भत्ताइ अणसणाए छेएत्ता, जस्सट्टाए कीरइ णग्गभावे मुंडभावे अण्हाणए अदंतवणए केसलोए बंभचेरवासे अच्छत्तगं अणोहवाहणगं भूमिसेजा फलहसेजा कट्ठसेज्जा परघरपवेसो-लद्धावलद्धं परेहिं हीलणाओ खिंसणाओ णिंदणाओ गरहणाओ तज्जणाओ तालणाओ परि-भवणाओ पव्वहणाओ उच्चावया गामकंटगा बावीसं परीसहोवसग्गा अहियासिजंति, तमट्ठमाराहित्ता चरिमेहिं उस्सासणिस्सासेहिं सिज्झिहिइ, बुज्झिहिइ, मुच्चिहिइ, परिणिव्वाहिइ, सव्वदुक्खाणमंतं करेहिड्॥ १४ ॥ भावार्थ - वे 'दढपइण्ण' केवली बहुत वर्षों तक केवली अवस्था में विचरेंगे। फिर एक महीने की संलेखना के द्वारा अपने में आपको लीन करके अथवा अपने से ही आपको सेवित करके, भोजन के साठ भक्तों को बिना खाये-पीये ही काटकर, जिस लक्ष्य के लिए नग्नभाव स्वीकार किया था। मुण्डभाव-क्रोधादि दस प्रकार के मुण्डन को, अस्नान, अदन्तवन-दांत नहीं धोना, केशलोच-बालों को उखाड़ना, ब्रह्मचर्यवास-बाह्य-आभ्यन्तर आत्मसाधना, छत्र धारण नहीं करना, जूते नहीं पहनना, For Personal & Private Use Only Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७० उववाइय सुत्त भूमिशय्या, फलकशय्या, काष्ठशय्या और परघर में प्रवेश जहाँ चाहे आहार मिला या नहीं मिला अथवा सन्मान सहित मिला या अपमान सहित मिला, हीलना - जन्म और कर्म के सम्बन्ध में तिरस्कार, निंदना-मन के द्वारा घृणा, खिंसना - लोगों के समक्ष घृणा, गर्हणा - अपने समक्ष ही बहुत से व्यक्तियों के बीच अपनी निंदा होना, तर्जना - अंगुली आदि बताते हुए या चटखाते हुए 'जानता है रे जाल्म !' इत्यादि कहना, ताडना— चपेटादि से पिटाई, परिभवना - पराभव, प्रव्यथना- लोगों के द्वारा उत्पन्न किये गये भय, इन्द्रियों के लिये उत्कृष्टतर दुःखकर बाईस परीषह-संयम मार्ग में चलते हुए आने वाले कष्ट और उपसर्गों-देवादि कृत सङ्कट को सहन कर, उस लक्ष्य की आराधना करके, अन्तिम उच्छ्वासनि:श्वास में सिद्ध होंगे, बुद्ध होंगे, मुक्त होंगे, परिनिर्वृत्त होंगे और सब दुःखों का अन्त करेंगे। प्रत्यनीक का यावत् उपपात ४१ - से जे इमे गामागर जाव सण्णिवेसेसु पव्वइया समणा भवंति । तं जहाआयरियपडिणीया उवज्झाय-पडिणीया कुलपडिणीया गणपडिणीया, आयरिय-. उवज्झायाणं अयसकारगा अवण्णकारंगा अकित्ति - कारगा । भावार्थ - वे जो ग्राम आदि में प्रव्रजित श्रमण होते हैं। जैसे- आचार्य के प्रत्यनीक - विरोधी, उपाध्याय के प्रत्यनीक, कुल के प्रत्यनीक और गण के प्रत्यनीक, आचार्य - उपाध्याय का अपयश करने वाले और अनादर करने वाले । बहूहिं असब्धावुब्भावणाहिं मिच्छत्ताभिणिवेसेहि य अप्पाणं च परं च तदुभयं च वुग्गामाणा वुप्पा - माणा विहरित्ता, बहूई वासाई सामण्णपरियागं पाउणंति । भावार्थ - वे - आचार्यादि के विरोधी असद्भाव के आरोपण अथवा उत्पादन और मिथ्याभिनिवेश के द्वारा अपने को, दूसरों को और स्व-पर को बुरी बात की पकड़ असत्य हठाग्रह में लगाते हुएअसद्भाव-अनहोनी बातों की आरोपण - कल्पना में मजबूत बनाते हुए, विचरण करके बहुत वर्षों तक श्रमण पर्याय का पालन करते हैं। पाउणित्ता तस्स ठाणस्स अणालोइय- अपडिक्कंता कालमासे कालं किच्चा उक्कोसेणं लंतए कप्पे देव - किब्बिसिएस देवकिब्बिसियत्ताए उववत्तारो भवंति । तर्हि तेसिं गई जाव तेरस सागरोवमाई ठिई जाव अणाराहगा । सेसं तं चेव ॥ १५ ॥ भावार्थ - श्रमण पर्याय का पालन करके उन दोषों का आलोचन - प्रतिक्रमण किये बिना ही, काल के समय में काल करके, उत्कृष्ट लान्तककल्प - छट्ठे स्वर्ग में देवकिल्विषिकों - चाण्डाल तुल्य देवों में किल्विषिक - साफ-सफाई करने वाले देव रूप से उत्पन्न होते हैं। उनकी स्थिति तेरह सागरोपम की होती हैं। वे परलोक के आराधक नहीं होते हैं। शेष पूर्ववत् । For Personal & Private Use Only Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यंच योनिकों का उपपात १७१ ___ संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च योनिकों का उपपात से जे इमे सण्णिपंचिंदियतिरिक्खजोणिया पजत्तया भवंति। तं जहा-जलयरा खहयरा थलयरा। भावार्थ - ये जो संज्ञी-मन वाले पञ्चेन्द्रिय-पांचों इन्द्रियों वाले तिर्यञ्च योनिक-पशु आदि पर्याप्तक होते हैं। जैसे-जलचर, खेचर और स्थलचर।। तेसि णं अत्थेगइयाणं सुभेणं परिणामेणं, पसत्थेहिं अज्झवसाणेहिं लेसाहिं विसुज्झमाणीहिं तयावरणिजाणं कम्माणं खओवसमेणं ईहावूहमग्गणगवेसणं करेमाणाणं सण्णीपुव्वजाइसरणे समुप्पजइ। - भावार्थ:- उनमें से कई जीवों को शुभ परिणाम, प्रशस्त अध्यवसाय और विशुद्ध लेश्या से तदावरणीय-पूर्वजन्म की स्मृति के आवारक कर्मों का क्षयोपशम होने से, पदार्थों को जानने में प्रवृत्त हुई बुद्धि और पदार्थों का निश्चयात्मक ज्ञान कराने वाली बुद्धि के द्वारा वस्तु के स्वकीय धर्मों के अस्तित्व और परकीय धर्मों के नास्तित्व रूप हेतु से, वस्तु तत्त्व का निर्णय करते हुए, मन वाले जीव के रूप में किये हुए पहले के भवों की स्मृति रूप जातिस्मरण ज्ञान उत्पन्न होता है। तए णं ते समुप्पण्णजाइसरणा समाणा सयमेव पंचाणुव्वयाइं पडिवजंति। पडिवजित्ता बहूहिं सीलव्वय-गुणवेरमण-पच्चक्खाणपोसहोववासेहिं अप्पाणं भावेमाणा बहूई वासाइं आउयं पालेंति। भावार्थ - तब जातिस्मरण ज्ञान के उत्पन्न होने पर, स्वयं ही पांच अणुव्रतों को स्वीकार करते हैं। स्वीकार करके बहुत-से शीलव्रत, गुणव्रत, विरमण, प्रत्याख्यान और पौषधोपवास से आत्मा को भावित करते हुए, बहुत वर्षों की आयुष्य का पालन करते हैं। ___पालित्ता भत्तं पच्चक्खंति। बहूई भत्ताइं अणसणाए छेयंति। छेइत्ता आलोइयपडिक्कंता समाहिपत्ता कालमासे कालं किच्चा, उक्कोसेणं सहस्सारे कप्ये देवत्ताए उववत्तारो भवंति। तहिं तेसिं गई जाव अट्ठारस सागरोवमाइं ठिई पण्णत्ता। परलोगस्स आराहगा। सेसं तं चेव॥१६॥ भावार्थ - बहुत वर्षों तक आयुष्य का पालन करके भक्त का प्रत्याख्यान करते हैं। प्रत्याख्यान करके बहुत से भोजन के भक्तों का छेदन करते हैं और दोषों की आलोचना प्रतिक्रमण करके, समाधि को प्राप्त करते हैं और काल के समय में काल करके, उत्कृष्ट सहस्रारकल्प-आठवें स्वर्ग में देव रूप से उत्पन्न होते हैं। उनके अठारह सागरोपम की स्थिति होती है। वे परलोक के आराधक होते हैं। शेष पूर्ववत्। For Personal & Private Use Only Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७२ उववाइय सुत्त आजीविक मत के अनुयायियों का उपपात से जे इमे गामागर जाव सण्णिवेसेसु आजीविया भवंति। तंजहा-दुघरंतरिया तिघरंतरिया सत्तघरंतरिया उप्पलबेंटिया घरसमुदाणिया विजुअंतरिया उट्टियासमणा। भावार्थ - ये जो ग्राम यावत् सन्निवेशों में आजीविक गोशालक मतानुयायी होते हैं। जैसे-एक घर से भिक्षा लेकर, बीच में दो घरों को छोड़कर भिक्षा लेने वाले, तीन घर के अन्तर से भिक्षा लेने वाले, सात घर के अन्तर से भिक्षा लेने वाले, नियम विशेष से कमलडंठल की भिक्षा लेने वाले, प्रत्येक घर पर भिक्षाटन करने वाले, बिजली चमकने पर भिक्षा-ग्रहण नहीं करने वाले और मिट्टी के बड़े भाजन में प्रविष्ट होकर तप करने वाले। ते णं एयारूवेणं विहारेणं विहरमाणा बहूई वासाइं परियायं पाउणित्ता, कालमासे कालं किच्चा, उक्कोसेणं अच्चुए कप्पे देवत्ताए उववत्तारो भवंति। तहिं तेसिं गई जाव बावीसं सागरोवमाइं ठिई। अणाराहगा। सेसं तं चेव॥१७॥ भावार्थ - वे इस प्रकार की चर्या से बहुत वर्षों की पर्याय-अवस्था को पालकर, काल के समय में काल करके, उत्कृष्ट अच्युत कल्प-बारहवें स्वर्ग में देव रूप से उत्पन्न होते हैं। उनकी बावीस सागरोपम की स्थिति होती है। वे परलोक के आराधक नहीं होते हैं। शेष पूर्ववत्। अत्तुक्कोसिय.....उपपात से जे इमे गामागर जाव सण्णिवेसेसु पव्वइया समणा भवंति। तं जहाअत्तुक्कोसिया परपरिवाइया भूइकम्मिया भुजो भुजो कोउयकारगा। भावार्थ - ये जो ग्राम यावत् सनिवेशों में प्रव्रजित श्रमण होते हैं। जैसे-आत्मोत्कर्षिक-अपना ही उत्कर्ष बतलाने वाले, पर-परिवादिक-दूसरों के निन्दक, भूतिकर्मिक-ज्वरादि से पीडितों की उपद्रव से रक्षा के लिये भूति-भभूत-भस्मि देने वाले और बार-बार कौतुक-सौभाग्यादि के निमित्त की जाने वाली क्रिया विशेष करने वाले। ___ ते णं एयारूवेणं विहारेणं विहरमाणा बहूइं वासाइं सामण्ण-परियागं पाउणंति। पाउणित्ता तस्स ठाणस्स अणालोइय अपडिक्कंता, कालमासे कालं किच्चा, उक्कोसेणं अच्चुए कप्पे आभिओगेसु देवेसु देवत्ताए उववत्तारो भवंति। तहिं तेसिं गई जाव बावीसं सागरोवमाइं ठिई परलोगस्स अणाराहगा। सेसं तं चेव॥ १८॥ For Personal & Private Use Only Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निह्नवों का उपपात १७३ भावार्थ - वे इस चर्या से विचरते हुए, बहुत वर्षों की श्रमण अवस्था को पालते हैं और पालन करके उन दोष-स्थानों की आलोचना-प्रतिक्रमण किये बिना ही, काल के समय में काल करके, उत्कृष्ट अच्युतकल्प में आभियोगिक-सेवक जाति देवों में देव रूप से उत्पन्न होते हैं। उनकी बाईस सागरोपम की स्थिति होती है। वे परलोक के आराधक नहीं होते हैं। शेष पूर्ववत्। विवेचन - उन श्रमणों के देवत्व का कारण चारित्र है और सेवकता का कारण आत्मोत्कर्ष आदि है। निह्नवों का उपपात से जे इमे गामागर जाव सण्णिवेसेसु णिहगा भवंति। तं जहा-बहुरया, जीवपएसिया, अव्वत्तिया, सामुच्छेइया, दोकिरिया, तेरासिया, अबद्धिया। भावार्थ - ये जो ग्राम सन्निवेशों में निह्नव-जिनोक्त धर्म के अपलापक होते हैं। जैसे-१. बहुरतअनेक समयों के द्वारा ही कार्य की निष्पत्ति मानने वाले, २. जीवप्रादेशिक-एक प्रदेश भी न्यून हो वह जीव नहीं होता है, अत: जिस एक-प्रदेश की पूर्णता से जीव, जीव रूप से माना जाता है, वही एक-प्रदेश जीव है ऐसा मानने वाले ३. अव्यक्तिक-समस्त जगत् अव्यक्त है-ऐसा मत मानने वाले ४. सामुच्छेदिक-नरकादि भावों का प्रतिक्षण क्षय होता है-ऐसे मत को मानने वाले ५. द्वैक्रियाएक समय में दो क्रिया का अनुभव होना मानने वाले ६. त्रैराशिक-जीव, अजीव और नो जीव रूप तीन . राशियों के मानने वाले और ७ अबद्धिक-जीव कर्म से सर्पकंचुकिवत् स्पृष्ट है, क्षीर-नीरवत् बद्ध नहीं. ऐसे मत के मानने वाले। ... इच्चेते सत्त पवयणणिण्हगा केवलं-चरियालिंग-सामण्णा मिच्छदिट्ठी बहूहिं असब्भावुब्भावणाहिं मिच्छत्ताभिणिवेसेहिं च अप्याणं च परं च तदुभयं च वुग्गामाणा वुप्पाएमाणा विहरित्ता, बहूई वासाइं सामण्णपरियागं पाउणंति। . भावार्थ - ये सात प्रवचन के अपलाप, चर्या और लिंग की अपेक्षा से साधु के तुल्य-किन्तु मिथ्यादृष्टि, बहुत-से असद्भाव के उत्पादन और मिथ्यात्व के अभिनिवेश के द्वारा स्वयं को, दूसरों को और स्व-पर को झूठे आग्रह में लगाते हुए-असत् आशय में दृढ़ बनाते हुए, बहुत वर्षों तक साधु अवस्था में रहते हैं। पाउणित्ता कालमासे कालं किच्चा, उक्कोसेणं उवरिमेसु गेवेजेसु देवत्ताए उववत्तारो भवंति। तहिं तेसिं गई जाव एक्कतीसं सागरोवमाई ठिई। परलोगस्स अणाराहगा। सेसं तं चेव। - भावार्थ - फिर काल के समय में काल करके, उत्कृष्ट ऊपरी ग्रैवेयक में देव रूप से उत्पन्न For Personal & Private Use Only Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७४ उववाइय सुत्त होते हैं। वहाँ उनकी एकतीस सागरोपम की स्थिति होती हैं। वे परलोक के आराधक नहीं होते हैं। शेष पूर्ववत्। विवेचन - ये निह्नववाद क्रमशः जमाली, तिष्यगुप्त, आषाढाचार्य के शिष्य, अश्वमित्र, गंगाचार्य, रोहगुप्त और गोष्ठामाहिल से उत्पन्न हुए थे। जमाली को छोड़ कर, शेष निह्नवों का आविर्भाव भगवान् महावीर देव के निर्वाण के पश्चात् हुआ था। निह्नवों की क्रिया आदि जिनशासन के अनुसार ही होती है। किन्तु सिद्धान्त के किसी एकदेश को लेकर वे हठाग्राही-मिथ्याभिनिवेशी बन जाते हैं। नोट - इन सात निह्नवों का तथा दिगम्बर मत प्रवर्तक वोटिक नामक आठवें निह्नव का वर्णन विस्तार के साथ विशेषावश्यक भाष्य और हरिभद्रीयाआवश्यक में दिया गया है। इनके मत की उत्पत्ति तथा शंका-समाधान आदि का बहुत ही रोचक वर्णन है, जिसका हिन्दी अनुवाद श्री जैन सिद्धांत बोल संग्रह बीकानेर के दूसरे भाग में बोल नं. ५६१ पृष्ठ ३४२ से ४११ तक में दिया गया हैं। जिज्ञासुओं को वहाँ देखना चाहिये। प्रतिविरत-अप्रतिविरत अल्पआरंभी...... का उपपात से जे इमे गामागर जाव सण्णिवेसेसु मणुया भवंति। तं जहा-अप्पारंभा अप्पपरिग्गहा धम्मिया धम्माणुया धम्मिट्ठा धम्मक्खाई धम्मप्पलोइया धम्मपलजणा धम्म-समुदायारा धम्मेणं चेव वित्तिं कप्पेमाणा, सुसीला सुव्वया सुप्पडियाणंदा। ___ भावार्थ - ये जो ग्राम यावत् सन्निवेशों में मनुष्य होते हैं। जैसे-अल्प आरम्भ करने वाले, अल्प परिग्रही, धार्मिक-श्रुत-चारित्र रूप धर्म के धारक, धर्मानुराग-धर्म का अनुसरण करने वाले, धर्मेष्ट धर्म को ही इष्ट मानने वाले, धर्माख्यायी-धर्म का कथन करने वाले, धर्मप्रलोकी-धर्म को ही उपादेय मानने वाले, धर्मप्ररञ्जक-धर्म के रंग में रंगे हुए, धर्मसमुदाचार-धर्म रूप सदाचार वाले, श्रुत और चारित्र धर्म से अविरुद्ध भाव के द्वारा आजीविका का उपार्जन करने वाले, सुशील, सुव्रत-सव्रती और सुप्रत्यानन्द-शुभभाव के सेवन में सदा प्रसन्न चित्त रहने वाले। साहूहिएगच्चाओपाणाइवायाओपडिविरयाजावज्जीवाए, एगच्चाओअपडिविरया। एवंजावपरिग्गहाओ।एगच्चाओ कोहाओमाणाओ मायाओलोहाओपेजाओदोसाओ कलहाओ अब्भक्खाणाओ पेसुण्णाओ परपरिवायाओ अरइरइओ मायामोसाओ मिच्छादसणसल्लाओ पडिविरया जावजीवाए, एगच्चाओ अपडिविरया। भावार्थ - वे साधुओं के पास में जीवन भर के लिए अंशत: स्थूल प्राणातिपात का त्याग करते हैं, देश से त्याग नहीं करते हैं। इसी प्रकार यावत् स्थूल परिग्रह का परिमाण करते हैं। अंशतः क्रोध, मान, माया, लोभ, राग, द्वेष, कलह, अभ्याख्यान, पैशुन्य, परपरिवाद, रति अरति, मायामृषा और मिथ्यादर्शनशल्य For Personal & Private Use Only Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिविरत - अप्रतिविरत अल्पआरंभी.....का उपपात मन, वचन और काया से त्याग करते हैं और देश से त्याग नहीं करते हैं । जीवनभर के लिए और अंशतः नहीं हटाते हैं। विवेचन - ' साहूहिं' पदकी संयोजना पूर्ववर्ती 'सुप्पडियाणंदा' पद से भी हो सकती है और उत्तरवर्ती 'एगच्चाओ....' आदि पदों से भी हो सकती है । पूर्ववर्ती पद से संयोजित होने पर यह अर्थ होगा - 'साधुओं के प्रति अत्युत्तम भावना रखने वाले ।' १७५ मिथ्यादर्शन से जन्य अन्ययूथिकों के प्रति वन्दनादि की क्रिया । उनसे भाव से तो विरत है। किन्तु राजाभियोगादि के कारण अविरत हैं। वस्तुतः देखा जाय तो श्रमणोपासक त्याग की दृष्टि से तो सभी सावद्यादि क्रियाओं को त्याज्य ही समझता है । किन्तु निवृत्त होने में शक्त्य नुसार ही प्रवृत्त होता है । अपनी अंशतः अनिवृत्ति में, वह स्वकीय आत्मिक दुर्बलता का ही अनुभव करता है । अर्थात् दृष्टि में तो पूर्णत: विशुद्धि है, किन्तु प्रवृत्ति में नहीं । अंशत: क्रिया-निवृत्ति में भी वही दृष्टि-विशुद्धि कार्य कर रही है। जो सूत्रकार ने 'विरया' शब्द के स्थान पर 'पडिविरया' शब्द का प्रयोग किया है, इसमें यही रहस्य प्रतीत होता है। एगच्चाओ आरंभसमारंभाओ पडिविरया जावज्जीवाए, एगच्चाओ अपडिविरया । एगच्चाओ करणकारावणाओ पडिविरया जावज्जीवाए, एगच्चाओ अपडिविरया । · एगच्चाओ पयणपयावणाओ पडिविरया जावज्जीवाएं, एगच्चाओ पयणपयावणाओ अपडिविरया । भावार्थ - अंशतः आरंभ-समारंभ से जीवनभर के लिए क्रिया-निवृत्त होते हैं और अंशत: अनिवृत्त। अंशतः करने-कराने से पचन- पचावन से निवृत्त होते हैं- जीवनभर के लिए और अंशत: अनिवृत्त । एगच्चाओ कोट्टणपिट्टणतज्जणतालणवहबंध-परिकिलेसाओ पडिविरया जावज्जीवाए, एगच्चाओ अपडिविरया । एगच्चाओ ण्हाणमद्दणवण्णगविलेवणसद्दफरिसरसरूवगंधमल्लालंकाराओ पडिविरया जावज्जीवाए, एगच्चाओ अपडिविरया । भावार्थ - अंशत: कुट्टन अर्थात् कूटना, पिट्टन-मुद्गरादि से पीटना, तर्जन - उपालंभ देना, ताडनचपेटादि से मारना, वध - मारना, बन्ध- रस्सी आदि से बांधना और परिक्लेश- बाधाउत्पादन से जीवनभर के लिए और स्नान, मर्दन, वर्णक, विलेपन, शब्द, स्पर्श, रस, रूप, गंध, माल्य और अलङ्कार से जीवनभर के लिए निवृत्त होते हैं और अंशत: निवृत्त नहीं होते हैं। जेबावणे तहप्पगारा सावज्जजोगोवहिया कम्मता पर - पाणपरियावणकरा कज्जंति, तओ वि जाव एगच्चाओ अपडिविरया । तं जहा - समणोवासगा भवंति । भावार्थ - और भी इस प्रकार निन्द्य-पापात्मक क्रिया से युक्त - सावद्ययोग और कूड़-कपट के For Personal & Private Use Only Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७६ उववाइय सुत्त प्रयोजन से युक्त-औपधिक कर्मांश व्यापार-जो दूसरों के प्राणों को कष्ट कर हो-करते हैं, उनसे यावत् अंशत: अनिवृत्त हैं। जैसे कि-श्रमणोपासक होते हैं। __ अभिगयजीवाजीवा उवलद्धपुण्णपावा आसव-संवरणिजरकिरियाअहिगरणबंधमोक्खकुसला। भावार्थ - वे जीव और अजीव के स्वरूप को अनेक दृष्टियों से समझे हुए, पुण्य और पाप के अन्तर-रहस्य को पूर्णत: पाये हुए और आस्रव-आत्मा में कर्म-आगमन के मार्ग, संवर-कर्म-प्रवाह को रोकने के उपाय, निर्जरा-देशतः कर्म-क्षय, क्रिया-शरीरादि की प्रवृत्ति या प्रवृत्ति से अनिवृत्ति, अधिकरण-संसार के आधार या खड्गादि का निवर्तन और संयोजन, बन्ध-जड़-चेतन के मिश्रण की प्रक्रिया और मोक्ष-चेतन से जड़ का वियोग समस्त कर्मों का क्षय-में कुशल होते हैं। . . असहेजाओ देवासुरणागसुवण्णजक्खरक्खस्स-किण्णरकिंपुरिसगळंलगंधव्वमहोरगाइएहिं देवगणेहिं णिग्गंथाओ पावयणाओ अणइक्कमणिज्जा। भावार्थ - वे श्रमणोपासक धर्म जनित सामर्थ्य के अतिशय से देव आदि की सहायता की इच्छा नहीं रखते हैं। अथवा अपने द्वारा किये हुए शुभ और अशुभ कर्मों का फल आत्मा स्वयं ही भोगता है। अतएव वे दूसरों की सहायता की इच्छा नहीं रखते हैं। ऐसी उनकी मानसिक दृढ़ता होती हैं। वे देववैमानिक देव, असुर-नागकुमार-भवनपति जाति के देव, सुवर्ण-ज्योतिष्क देव, यक्ष-राक्षस-किन्नरकिंपुरुष-व्यन्तर जाति के देव, गरुड-सुवर्णकुमार, गन्धर्व-महोरग-व्यन्तर देव विशेष आदि देवगणों के द्वारा निर्ग्रन्थ-प्रवचन से विचलित नहीं होते हैं। __णिग्गंथे पावयणे णिस्संकिया णिक्कंखिया णिव्वि-तिगिच्छा, लद्धद्वा गहियट्ठा पुच्छियट्ठा अभिगयट्ठा विणिच्छियट्ठा अट्ठिमिंजपेम्माणुरागरत्ता-'अयमाउसो ! णिग्गंथे पावयणे अटे, अयं परमटे, सेसे अणटे।' भावार्थ - निर्ग्रन्थ-प्रवचन में निःशङ्कित होते हैं, वे अन्य दर्शन के आडम्बर को देखकर उधर आकर्षित नहीं होते हैं और वे करणी के फल के प्रति संदेह रहित होते हैं। वे लब्धार्थ-अर्थ को पाये हुए, गृहीतार्थ-अर्थ को धारे हुए, पृष्टार्थ-प्रश्न पूछकर अर्थ को जाने हुए, अभिगतार्थ-अर्थ को अनेक दृष्टियों से जाने हुए और विनिश्चितार्थ-अर्थ में पूर्णतः निश्चयात्मक बुद्धि रखने वाले होते हैं। उनकी अस्थि-मज्जा तक निर्ग्रन्थ-प्रवचन के प्रेमानुराग से रंगी हुई होती है। यह उनका अन्तर्घोष है कि-'हे आयुष्मन् ! यह जड़-चेतन की ग्रन्थियों को खोलने वाला प्रवचन ही अर्थ-सार, जीवन-लक्ष्य का साधक है, यही परमार्थ-चरम सत्य, उपकार-परायण है और शेष-सुखकर लगने वाले पदार्थ, उनको पाने की साधना, कुप्रावचन आदि अनर्थ-व्यर्थ या हानिकर है। विवेचन - मार्ग की सत्यता का सन्देह, अन्य मार्ग का आकर्षण और कार्य की सफलता में For Personal & Private Use Only Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिविरत-अप्रतिविरत अल्पआरंभी.....का उपपात १७७ डगमगाता हुआ विश्वास साधना के नाशक और अवरोधक हैं। मार्ग की सत्यता की प्रतीति, अन्यत्र आकर्षण का अभाव और उसकी सफलता का दृढ़ निर्णय साधना के उत्पादक, प्रेरक और पोषक हैं। लब्धादि पदों के द्वारा बुद्धि के विविध रूपों का निर्देश किया गया है। बुद्धि के संग्राहात्मक धारणात्मक, जिज्ञासात्मक, प्रदेशात्मक और व्यवसायात्मक कार्य का वर्णन है। बुद्धि के इन विविध रूपो से क्रियाशील होने पर ही साधना में सच्ची प्रीति और मुस्तदी की प्राप्ति हो सकती है। ___'निर्ग्रन्थ प्रवचन ही अर्थ है, परमार्थ है, शेष अनर्थ है'-यह अन्तर्जल्प ही साधना की रीढ़ का कार्य करता है। वे अन्य को प्रेरित करने के लिए भी यही उद्घोष करते हैं। __ऊसियफलिहा अवंगुयदुवारा चियत्तंतेउरघरदारप्पवेसा चउद्दसट्ठमुट्ठिपुण्णमासिणीसु पडिपुण्णं पोसहं सम्मं अणुपालेमाणा, समणे णिग्गंथे फासुएसणिजेणं असणपाणखाइमसाइमेणं वत्थपडिग्गह-कंबलपायपुंछणेणं ओसह-भेसजेणं पडिहारएणं च पीढफलगसेज्जासंथारएणं पडिलाभेमाणा विहरंति। भावार्थ - वे साफ स्फटिक के समान निर्मल चित्त वाले और कपाट से द्वार को बन्द नहीं रखने वाले अर्थात् सद्दर्शन के लाभ के कारण कहीं भी पाषण्डियों से नहीं डरने वाले-शोभनमार्ग के परिग्रहण के कारण निर्भय होते हैं। लोगों के अन्तःपुर, गृह या द्वार में उनका प्रवेश प्रीतिकर होता है अर्थात् अति-धार्मिकता के कारण सर्वत्र अनाशङ्कनीय होते हैं अर्थात् उन पर किसी प्रकार की शंका नहीं की जाती है। वे चतुदर्शी, अष्टमी, अमावस्या और पूर्णिमा के दिन प्रतिपूर्ण पौषध-आत्मा की पुष्टि के लिए आहार, अब्रह्म आदि चार तरह के त्याग की एक दिन-रात की साधना का विशेष शुद्धिपूर्वक पुनः पुनः पालन करते हुए, श्रमण-निर्ग्रन्थ के लिए निर्दोष और ग्रहण करने योग्य अशन, पान, खादिम, स्वादिम, वस्त्र, पात्र, कम्बल, रजोहरण, औषध-एक द्रव्याश्रित वस्तु यथा- सूंठ आदि भैषज्य-अनेक द्रव्यों की समुदाय रूप वस्तु यथा त्रिफलादि, काम हो जाने पर पुनः लौटा दिये जाने योग्य-पडिहारिय आसन, पाट, निवास स्थान और संस्तारक को प्रतिलाभित करते-देते हुए विचरण करते हैं। - विवेचन - 'ऊसिय...पवेसी' इन तीन पदों का उपर्युक्त अर्थ वृद्ध व्याख्या के अनुसार है। अन्य व्याख्या-'ऊसिय'.......अर्गला से रहित गृहद्वार वाले अर्थात् अतिशय दानी होने के कारण भिक्षुओं के प्रवेश में कोई रुकावट नहीं थी। 'अवंगुय....' औदार्य के कारण उनके घर के द्वार सदा खुले रहते थे। 'चियत्त'.... वे दूसरों के घरों में और यहाँ तक कि राजा के अन्तःपुर में भी चले जाते तो उन पर किसी प्रकार की शंका या अविश्वास नहीं किया जाता था। . विहरित्ता भत्तं पच्चक्खंति। ते बहूई भत्ताइं अणसणाए छेदिति। छेदित्ता आलोइय पडिक्कंता समाहिपत्ता, कालमासे कालं किच्चा, उक्कोसेणं अच्चुए For Personal & Private Use Only Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७८ उववाइय सुत्त कप्पे देवत्ताए उववत्तारो भवंति। तेहिं तेसिं गई जाव बावीसं सागरोवमाई ठिई। आराहया। सेसं तहेव॥२०॥ भावार्थ - फिर आहारादि का त्याग करते हैं। बहुत से भोजन के भक्तों को बिना खाये-पीये काटते हैं। .....आलोचना प्रतिक्रमण करके, समाधि को प्राप्त होते हैं। काल के समय में काल करके उत्कृष्ट अच्युत कल्प-बारहवें स्वर्ग में देवरूप से उत्पन्न होते हैं। उनकी बाइस सागरोपम की स्थिति. होती हैं। वे जिनेन्द्र भगवान् की आज्ञा आराधक होते हैं। शेष पूर्ववत्। अनारम्भी.........का उपपात से जे इमे गामागर जाव सण्णिवेसेसु मणुया भवंति। तं जहा-अणारंभा. अपरिग्गहा धम्मिया जाव कप्येमाणा सुसीला सुव्वया सुपडियाणंदा साहू सव्वाओं पाणाइवायाओ पडिविरया जाव सव्वाओ परिग्गहाओ पडिविरया। सव्वाओ कोहाओ माणाओ मायाओ लोभाओ जाव मिच्छादसणसल्लाओ पडिविरया। भावार्थ - ये जो ग्राम-नगर यावत् सन्निवेशों में मनुष्य होते हैं। जैसे - अहिंसक अर्थात् आरम्भ के सर्वथा त्यागी, अपरिग्रही, श्रुतचारित्र धर्म के धारक यावत् धर्मानुसार ही वृत्ति करने वाले सुन्दर शील वाले, सुन्दर व्रतों वाले शुभभाव के सेवन में सदा प्रसन्न-उत्साह युक्त, साधु-आत्मभाव की साधना में तल्लीन-जो सर्वथा प्राणातिपात के त्यागी यावत् सर्वथा परिग्रह के त्यागी यावत् सर्वतः क्रोध, मान, माया लोभ यावत् मिथ्यादर्शनशल्य तक सभी पापों के त्यागी होते हैं। सव्वाओआरंभसमारंभाओपडिविरया।सव्वाओकरण-कारावणाओपडिविरया। सव्वाओ पयण-पयावणाओ पडिविरया। सव्वाओ कुट्टणपिट्टणतजणतालणवहबंधपरिकिलेसाओ पडिविरया। सव्वाओ ण्हाणमहणवण्णगविलेवण सद्दफरिसरसरूवगंध-मल्लालंकाराओ पडिविरया। जेयावण्णे तहप्पगारा सावजजोगोवहिया कम्मंता परपाण परियावणकरा कजंति, तओ वि पडिविरया जावज्जीवाए। . भावार्थ - सर्वथा आरम्भ, समारम्भ के त्यागी होते हैं और दूसरों से करने-कराने और अनुमोदन के त्यागी होते हैं तथा पचन-पचावन (पकाने-पकवाने) से कूटने-पीटने, तिरस्कार करने, मार मारने, वध करने, बांधने और दुःखित करने या बाधा उत्पन्न करने के सर्वथा त्यागी होते हैं तथा स्नान, मर्दन, वर्णक-उबटन, विलेपन, शब्द, स्पर्श, रस, रूप, गंध, माल्य और अलङ्कार से निवृत्त हो चुके हैं और भी जो प्राप्त होने वाले इसी प्रकार के दूसरों के प्राणों को परितप्त करने वाली पाप क्रिया से युक्त और कूड-कपटादि आवेश से जन्य कर्माशों को करते हैं-उनसे भी वे जीवन भर के लिए निवृत्त होते हैं। For Personal & Private Use Only Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७९ अनारम्भी......का उपपात ................mmmmmmmmmmmmmmmmmmmmm से जहाणामए अणगारा भवंति-इरियासमिया भासासमिया जाव इणमेव णिग्गंथं पावयणं पुरओ काउं विहरंति। तेसि णं भगवंताणं एएणं विहारेणं विहरमाणाणं अत्थेगइयाणं अणंते जाव केवलंवरणाण-दंसणे समुप्पज्जइ। भावार्थ - जैसे कि कोई-यथानामक अनगार होते हैं-ईर्यासमिति में अर्थात् चलने, फिरने में, भाषा में यत्नावान्....यावत् निर्ग्रन्थ-प्रवचन को ही सन्मुख रखते हुए या दृष्टि के आगे रखकर, विचरण करते हैं। इस प्रकार की चर्या से विचरण करते हुए उन भगवन्तों में से कुछ को अनन्त अनुत्तर केवलज्ञान और केवल दर्शन उत्पन्न होता है। ते बहूई वासाइं केवलिपरियागं पाउणंति। पाउणित्ता भत्तं पच्चक्खंति। जाव पच्चक्खित्ता बहूई भत्ताइं अणसणाइं छेदेति।छेदित्ता जस्सट्ठाए कीरइ णग्गभावे जाव अंतं करंति। भावार्थ - वे बहुत वर्षों तक केवली अवस्था में विचरण करते हैं। फिर भात-पानी का त्याग करते हैं। बहुत से भोजन के भक्तों को निराहार रहकर काट देते हैं। फिर वे जिस अर्थ के लिए देह के साज-संवार से विरक्त बने थे। यावत् उस अर्थ को पाकर सब दुःखों का अन्त कर देते हैं। . जेसि पि य णं एगइयाणं णो केवलवरणाणदंसणे समुप्पज्जइ, ते बहूई वासाइं छउमत्थपरियागंपाउणंति।पाउणित्ताआबाहे उप्पण्णेवाअणुप्पण्णेवा भत्तंपच्चक्खंति। तेबहई भत्ताइंअणसणाएछेदेति।छेदित्ताजस्सट्टाएकीरइणग्गभावेजावतमट्ठमाराहित्ता चरिमेहिं ऊसासणीसासेहिं अणंतं अणुत्तरं णिव्वाघायं णिरावरणं कसिणं पडिपुण्णं केवलवरणाणदंसणं उप्पाडिंति। तओ पच्छा सिज्झिहिंति जाव अंतं करेहिति। - भावार्थ - और कइयों को केवलज्ञान-केवलदर्शन उत्पन्न नहीं होता है। वे. बहुत वर्षों तक छद्मस्थ-कर्मावरण से युक्त अवस्था में विचरण करते हैं। फिर किसी रोगादि बाधा के उत्पन्न होने या नहीं होने पर भात-पानी को त्याग देते हैं। बहुत से भोजन के भक्तों को निराहार.....बिताकर, जिस ध्येय से धारण किया था-नग्न भाव उस ध्येय की आराधना करके, अन्तिम श्वास-निःश्वास में अनन्त, अनुत्तर, निर्व्याघात, निरावरण, कृत्स्न और प्रतिपूर्ण केवलज्ञान और केवलदर्शन को प्राप्त करते हैं। उसके बाद सिद्ध होंगे यावत् दुःखों का नाश करेंगे। विवेचन - केवलज्ञान-केवलदर्शन उत्पन्न होने के बाद जीव उसी भव में मोक्ष चला जाता है। इसलिए मूल पाठ में 'सिज्झिहिंति जाव अंतं करेहिति' के स्थान पर 'सिझंति जाव अंतं करेंति' अपठ उचित लगता हैं, किन्तु मूल प्रति में वैसा ही पाठ है इसलिए यह भविष्यत् कालीन पाठ ही For Personal & Private Use Only Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८० उववाइय सुत्त प्रश्न - छद्यस्थ किसे कहते हैं? उत्तर - छानि अर्थात् घातिकर्मणि तिष्ठति इति छद्मस्थः। अर्थ - छद्म शब्द से यहाँ पर घाती कर्मों का ग्रहण किया हैं। आत्मा के गुणों का घात करने वाले कर्मों को घातीकर्म कहते हैं-वे चार हैं- यथा-ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय और अन्तराय। ये चार घातीकर्म जिस जीव के क्षय नहीं हुए हैं, उसे छद्मस्थ कहते हैं। एगच्चा पुण एगे भयंतारो पुव्वकम्मावसेसेणं कालमासे कालं किच्चा, उक्कोसेणं सव्वट्ठसिद्धे महाविमाणे देवत्ताए उववत्तारो भवंति। तहिं तेसिं गई तेत्तीसं सागरोवमाई ठिई। आराहगा। सेसं तं चेव॥२१॥ भावार्थ - पुनः कोई एक अनगार भगवन्त भविष्य में एक ही मनुष्य देह को धारण करने वाले क्षीण होते हुए कर्मों में से शेष रहे हुए कर्मों के कारण, उत्कृष्ट सर्वार्थसिद्ध महाविमान में देवरूप से उत्पन्न होते हैं। वहाँ उनकी तैतीस सागरोपम की स्थिति होती है। वे जिनेन्द्र भगवान् की आज्ञा के आराधक होते हैं। शेष पूर्ववत्। सर्वकामविरत का उपपात से जे इमे गामागर जाव सण्णिवेसेसु मणुया भवंति। तं जहा-सव्वकामविरया सव्वरागविरया सव्वसंगातीता सव्वसिणेहाइक्कंता अक्कोहा णिक्कोहा खीणक्कोहा जाव एवं माण माया लोहा, अणुपुव्वेणं अट्ठकम्म-पयडीओ खवित्ता उप्पिं लोयग्गपइट्ठाणा हवंति॥ २२॥ भावार्थ - ये जो ग्राम यावत् सन्निवेशों में मनुष्य होते हैं। जैसे-समस्त शब्दादि विषयों से निवृत्त या उनमें उत्सुकता से रहित, विषयाभिमुखता के कारण रूप समस्त आत्म-परिणाम विशेष से निवृत्त, सभी जगत्-सम्बन्धों से परे रहे हुए, सम्बन्धों के हेतु रूप समस्त स्नेह के त्यागी, क्रोध को विफल करने वाले क्रोध का उदय ही नहीं होने देने वाले, क्रोध को क्षीण कर देने वाले इसी प्रकार मान, माया, लोभ को भी क्षीण कर देने वाले क्रमशः आठ कर्म प्रकृतियों को क्षय करके ऊपर लोकाग्रह पर स्थित हो जाते हैं अर्थात् सिद्ध, बुद्ध और मुक्त हो कर मोक्ष में चले जाते हैं। - विवेचन - क्रोधोदय के निमित्त कारणों के मिलने पर क्रोध का उदय हो चुका है, किन्तु किन्हीं उपायों से उसे बाहर प्रकट होने से रोक दिया जाता है, वह अक्रोध है। निमित्त कारणों के मिलने पर, उनसे दूर हट कर या अन्यमनस्कता-प्रसन्नतादि के भाव या ऐसे ही किसी उपाय के द्वारा क्रोध का उदय ही नहीं होने देना-निष्क्रोध है। अनुप्रेक्षादि के समय, अन्तर-समरांगण में क्रोध निःशेष कर देना-क्रोध भय है। चारित्रमोहनीय कर्म के अन्य प्रकारों का भी इसी प्रकार क्षय होता है। ऐसा समझ लेना चाहिये। For Personal & Private Use Only Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ केवलिसमुद्घात के पुद्गल १८१ केवलिसमुद्घात के पुद्गल ४२-अणगारेणंभंते !भाविअप्पा केवलि-समुग्घाएणं समोहणित्ता केवलकप्पं लोयं फुसित्ता णं चिट्ठइ ?-हंता चिट्ठइ। भावार्थ - हे भन्ते ! भावित आत्मा अनगार केवलिसमुद्घात (मुक्ति के निकट अधिकारी आत्मा के कर्मों की साम्यावस्था के लिये होने वाली एक विशिष्ट प्रकार की स्वाभाविक आत्मिक प्रक्रिया) से समवहत होकर, सम्पूर्ण लोक को स्पर्श करके, स्थित रहते हैं ?-हाँ ! स्थित रहते हैं। विवेचन - जीव-परिणति या अध्यवसाय विशेष से आत्म-प्रदेश संकुचित विस्तृत होकर कर्मप्रदेशों को झाड़ देते हैं-उसे समुद्घात कहते हैं। जैसे कि-पक्षी अपने पंखों पर लगी हुई धूलि या जल की बूंदें उन्हें फैला कर सिकोड़ कर झाड़ देते हैं। से णूणं भंते ! केवलकप्पे लोए तेहिं णिजरा पोग्गलेहिं फुडे ? - हंता फुडे। भावार्थ - हे भन्ते ! क्या उन खिरे हुए पुद्गलों से सम्पूर्ण लोक व्याप्त हो जाता है ? - हाँ व्याप्त हो जाता है। छउमत्थे णं भंते ! मणुस्स तेसिं णिजरा पोग्गलाणं किंचि वण्णेणं वण्णं, गंधेणं गंध, रसेणं रसं, फासेणं फासं जाणइ? पासइ?-गोयमा ! णो इणद्वे समढे। . भावार्थ - हे भन्ते ! छद्मस्थ मनुष्य क्या उन निर्जरित हुए पुद्गलों के किञ्चित् वर्णरूप से वर्ण को, गन्धरूप से गन्ध को, रस रूप से रस को, स्पर्श रूप से स्पर्श को जानता और देखता है? - . - हे गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है अर्थात् छद्मस्थ मनुष्य उन निर्जरा के पुद्गलों को नहीं जानता और नहीं देखता है। से केणटेणं भंते ! एवं वुच्चइ-छउमत्थे णं मणुस्से तेसिं णिजरा पोग्गलाणं णो किंचि वण्णेणं वण्णं जाव जाणइ पासइ ? भावार्थ - हे भन्ते ! आप यह किस आशय से कहते हैं, कि छद्मस्थ मनुष्य उन निर्जरा के पुद्गलों को नहीं जानता और नहीं देखता है। गोयमा ! अयं णं जंबुद्दीवे दीवे सव्वद्दीवसमुद्दाणं सव्वब्भंतरए सव्वखुड्डाए, वट्टे तेल्लपूयसंठाणसंठिए, वट्टे रह चक्कवालसंठाणसंठिए, वट्टे पुक्खरकण्णियासंठाणसंठिए, वढेपडिपुण्णचंदसंठाणसंठिए, एक्कंजोयणसयसहस्सं,आयामविक्खंभेणं, तिण्णि जोयण-सयसहस्साइंसोलससहस्साई, दोण्णि य सत्तावीसे जोयणसए, तिण्णि य कोसे अट्ठावीसं च धणुसयं, तेरस य अंगुलाई, अद्धंगुलियं च किंचि विसेसाहिए। परिक्खेवेणं पण्णत्ते। For Personal & Private Use Only Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८२ उववाइय सुत्त भावार्थ - हे गौतम ! यह जम्बूद्वीप, सभी द्वीप समुद्रों के बिलकुल बीचोबीच सबसे छोटा जम्बूद्वीप, तेलपुये-तैल में तले हुए मालपूये के समान गोल, रथ के पहिये के समान गोल, कमल के. बीजकोश के समान गोल, पूर्णचन्द्राकार के समान गोल आकार वाला, एक लाख-योजन का लम्बाचौड़ा, तीन लाख सोलह हजार दो सौ सत्तावीस योजन, तीन कोश, एक सौ अट्ठाईस धनुष्य, साढ़े तेरह अंगुल और कुछ अधिक परिधि वाला है। देवे णं महिड्डीए महजुइए महब्बले महाजसे महासुक्खे महाणुभावे सविलेवणं गंधसमुग्गयं गिण्हइ। गिण्हित्ता तं अवदालेइ। अवदालित्ता जाव इणामेव-त्तिकट्ट केवलकप्पंजंबूहीवंतिहिंअच्छराणिवाएहिंतिसत्तखुत्तोअणुपरियट्टित्ताणंहव्वमागच्छेजा, से णूणं गोयमा ! से केवलकप्पे जंबुद्दीवे दीवे तेहिं घाणपोग्गलेहिं फुडे ?-हंता.फुडे। भावार्थ - महा ऋद्धि वाला, महाद्युति वाले, महाबली महायशस्वी महासौख्य का धारक और महानुभाव देव, विलेपन के सुगन्धित द्रव्य से भरे हुए डिब्बे को लेकर खोलता है। खोल कर तीन बार चुटकी बजाने जितने काल में इक्कीस बार सम्पूर्ण जम्बूद्वीप की परिक्रमा करके जल्दी आवे तो हे .गौतम ! क्या सम्पूर्ण जम्बूद्वीप उस सुगन्धित द्रव्य से व्याप्त हो जाता है ?-हाँ भगवन् ! सारा जंबूद्वीप उस सुगन्धित द्रव्य से व्याप्त हो जाता है। छउमत्थे णं गोयमा ! मणुस्से तेसिं घाणपोग्गलाणं किंचि वण्णेणं वण्णं जाव जाणइ? पासइ ? भगवं ! णो इणढे समटे। से तेणटेणं गोयमा ! एवं वुच्चइछउमत्थे णं मणुस्से तेसिं णिजरापोग्गलाणं णो किंचि वण्णेणं वण्णं जाव जाणइपासइ। एए सुहमाणं ते पोग्गला पण्णत्ता। . भावार्थ -हे गौतम ! छद्मस्थ मनुष्य उस सुगन्धित द्रव्य को क्या जानता है ? देखता है ? हे भगवन् ! यह संभव नहीं है। हे गौतम ! इसी कारण से कहा है कि-छद्मस्थ मनुष्य उन निर्जरित हुए पुद्गलों के वर्णादि को नहीं जानता है, नहीं देखता है। क्योंकि वे पुद्गल सूक्ष्म होते हैं। समणाउसो! सव्वलोयं पि य णं ते फुसित्ता णं चिटुंति। भावार्थ - और हे आयुष्मन् श्रमणो ! वे पुद्गल सम्पूर्ण लोक का स्पर्श करके स्थिर रहते हैं। केवलि समुद्घात का कारण कम्हा णं भंते ! केवली समोहणंति ? कम्हा णं केवली समुग्घायं गच्छंति? भावार्थ - हे भगवन् ! केवली किस कारण से समुद्घात करते हैं अर्थात् आत्म-प्रदेशों को फैलाते हैं ? - किस कारण से फैले हुए आत्म-प्रदेशों की स्थिति को प्राप्त होते हैं ? विवेचन-प्रश्न-केवली भगवान् केवली समुद्घात जानबूझ कर करते हैं या स्वाभाविक हो जाती है ? For Personal & Private Use Only Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ केवलि समुद्घात का कारण १८३ उत्तर - कुछ लोग ऐसा कह देते हैं कि, केवली समुद्घात स्वाभाविक हो जाती है किन्तु यह कथन आगम सम्मत नहीं है। क्योंकि ठाणांग सूत्र के आठवें ठाणे में और समवायांग सूत्र के आठवें समवाय में तथा पण्णवणा सूत्र आदि दूसरे आगमों में कहा है- 'पढमे समए दंडं करेइ' अर्थात्-केवली भगवान् पहले समय में आत्म प्रदेशों को चौदह राजू परिमाण लंबाई में दंड की तरह दंड कर देते हैं। दूसरे समय में कपाट कर देते हैं, तीसरे समय में मंथान के समान कर देते हैं और चौथे समय में सम्पूर्ण लोक को भर देते हैं और इसी उलटे क्रम से वापिस प्रतिसंहरण कर लेते हैं। यहाँ मूल पाठ में करेइ' शब्द दिया है जिसका अर्थ होता है-करते हैं, किन्तु 'भवइ' अर्थात् स्वाभाविक हो जाती है ऐसा शब्द नहीं दिया है। निष्कर्ष यह है कि केवली भगवान् केवली समुद्घात जान बूझ कर करते हैं। प्रश्न - केवली समुद्घात किसे कहते हैं ? उत्तर - अर्न्तमुहूर्त में मोक्ष प्राप्त करने वाले केवली भगवान् के समुद्घात को केवली समुद्घात कहते हैं, वह वेदनीय नाम और गोत्र कर्म को विषय करता है। प्रश्न-क्या सभी केवली भगवान् केवली समुद्घात करते हैं ? उत्तर - नहीं, सभी केवली भगवान् केवली समुद्घात नहीं करते हैं, किन्तु जिस केवली को छह महीने या छह महीने से कम आयुष्य बाकी रहते केवल ज्ञान होता है, वे केवली समुद्घात करते हैं। इस विषय में पूज्य बहुश्रुत महापुरुषों की धारणा तो इस प्रकार है कि-उन केवली भगवन्तों में से कुछ केवली भगवन्त् समुद्घात करते हैं और कुछ नहीं करते हैं। क्योंकि अन्तर्मुहूर्त में मोक्ष प्राप्त करने वाले केवली जिनके वेदनीय, नाम और गोत्र कर्म की स्थिति तो अधिक है और आयु कर्म की स्थिति थोड़ी रह गई है, वे केवली वेदनीय आदि कर्मों की स्थिति को आयु कर्म की स्थिति के बराबर करने के लिए केवली समुद्घात करते हैं। - गोयमा! केवलीणंचत्तारिकम्मंसाअपलिक्खीणाअवेइया अणिजिण्णा भवंति। तंजहा-वेयणिजं आउयंणामंगोत्तं।सब्बबहुए से वेयणिजे कम्मे भवइ। सव्वत्थोवे से आउए कम्मे भवइ।विसमं समं करेइ बंधणेहिं ठिईहि याविसमसमकरणयाए बंधणेहिं ठिईहि य एवं खलु केवली समोहणंति। एवं खलु केवली समुग्घायं गच्छंति। भावार्थ - हे गौतम ! केवलियों के चार कर्माश सम्पूर्णतः क्षीण नहीं होते हैं, वेदित नहीं होते हैं, निर्जरित नहीं होते हैं वे चार कर्म ये हैं। जैसे-वेदनीय, आयुष्य, नाम और गोत्र। सबसे अधिक वेदनीय कर्म होता है और सबसे कम आयुष्य कर्म होता है। बन्धन-प्रदेश बन्ध और अनुभाग बन्ध और स्थिति से विषम उन कर्मों को सम करते हैं। इस प्रकार केवली विषम कर्मों को सम करने के लिए समुद्घात करते हैंसमुद्घात को प्राप्त करते हैं। सव्वे विणं भंते ! केवली समुग्घायं गच्छंति ? - णो इणढे समढे। For Personal & Private Use Only Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८४ - उववाइय सुत्त अकित्ता णं समुग्घायं, अणंता केवली जिणा। जरामरणविष्यमुक्का, सिद्धिं वरगइं गया॥१॥ भावार्थ - हे भन्ते ! क्या सभी केवली भगवान् केवली समुद्घात करते हैं ? हे गौतम ! यह अर्थ .. समर्थ नहीं है अर्थात् सभी केवली भगवान् केवली समुद्घात नहीं करते हैं। क्योंकि बिना किये समुद्घात, अनन्ता केवली जिन। हो जन्म-मृत्यु से मुक्त, सिद्धि सुगति को गये। केवली समुद्घात के बिना ही अनन्त केवली जन्म-मरण के दुःखों से रहित होकर सिद्धि गति को प्राप्त हुए हैं। आवर्जीकरण का स्वरूप कइ समइए णं भंते ! आउजीकरणं पण्णत्ते ? - गोयमा ! असंखेजसमइए अंतोमुहत्तिए पण्णत्ते। भावार्थ - हे भन्ते ! आवर्जीकरण कितने समय का होता है ? हे गौतम ! असंख्यात समय के अन्तर्मुहूर्त का होता है। विवेचन - उदीरणावलिका में कर्म के प्रक्षेप की क्रिया को आवर्जीकरण कहते हैं। अर्थात् अपनी आत्मा को मोक्ष के सन्मुख करना आवर्जीकरण कहलाता है। केवली समुग्घाए णं भंते ! कइ समइए पण्णले ? गोयमा ! अद्वसमइए पण्णत्ते। भावार्थ - हे भन्ते ! केवलि-समुद्घात कितने समय की होती है ? हे गौतम ! आठ समय की होती है। तं जहा-पढमे समए दंडं करे। बिइए समए कवाडं करेइ। तईए समए मंथं करेइ। चउत्थे समए लोयं पूरेइ। पंचमे समए लोयं पडिसाहरइ। छटे समए मंथं पडि-साहरइ। सत्तमेसमएकवाडंपडिसाहरइ।अट्ठमेसमएदंडंपडिसाहरइ।तओपच्छासरीरत्थे भवइ। भावार्थ - पहले समय में ऊँचे और नीचे लोकान्त तक अपने जीवप्रदेशों को, ज्ञानाभोग-ज्ञान द्वारा होने वाली जानकारी से अपने शरीर जितने मोटे, दण्डाकार बनाते हैं। दूसरे समय में दण्डवत् बने हुए आत्मप्रदेशों को किवाड़ की तरह आजुबाजु पूर्वापर दिशा में फैलाते हैं। तीसरे समय में कपाटवत् बने हुए आत्म-प्रदेशों को दक्षिण-उत्तर दिशा में फैलाते हैं-जिससे मथानी जैसा आकार हो जाता है। चौथे समय में लोक-शिखर सहित मन्थान के आंतरों को पूरते हैं। पांचवें समय में मन्थान के आंतरों के पूरक लोक-आत्म-प्रदेशों को संहृत करते हैं। अर्थात् मन्थानवत् कर देते हैं। छठे समय में मन्थानवत्दक्षिणोत्तर दिशावर्ती आत्म- 'प्रदेशों को संडत करके. कपाटवत् कर देते हैं। सातवें समय में कपाटवत् For Personal & Private Use Only Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आवर्जीकरण का स्वरूप १८५ पूर्व-पश्चिमवर्ती-आत्म-प्रदेशों को संहृत करके, दण्डस्थ करते हैं और आठवें समय में दण्डवत्ऊपर-नीचे-वर्ती आत्म-प्रदेशों को संहत करते हैं। इसके बाद शरीरस्थ हो जाते हैं अर्थात् समुद्घात करने से पहले जैसा मौलिक शरीर था वैसा हो जाते हैं। से णं भंते ! तहा समुग्घायं गए किं मणजोगं जुंजइ? वयजोगं जुंजइ? कायजोगं जुंजइ? गोयमा ! णो मणजोगं जुंजइ। णो वयजोगं जुंजइ। कायजोगं जुंजइ। भावार्थ - हे भन्ते ! समुद्घात को प्राप्त केवली क्या मानसिक क्रिया करते हैं ? या वाचिक क्रिया करते हैं ? या कायिक क्रिया करते हैं? हे गौतम ! मानसिक क्रिया नहीं करते हैं। किन्तु कायिक क्रिया करते हैं अर्थात् मन योग और वचन योग को नहीं रोकते हैं परन्तु काय योग को रोकते हैं। कायजोगं जुंजमाणे किं ओरालियसरीरकायजोगं जुंजइ? आरोलियमिस्स सरीरकायजोगं जुजइ? वेउव्विय सरीरकायजोगं झुंजइ? वेठब्वियमिस्ससरीरकायजोगं जुंजइ? आहारग-सरीरकायजोगं जुंजइ आहारगमिस्स-सरीरकायजोगं जुंजइ? कम्मग सरीरकायजोगं जुंजइ? भावार्थ - हे भगवन् ! कायिक क्रिया करते हुए अर्थात् काय योग को करते हुए क्या औदारिक शरीर-शेष पुद्गलों की अपेक्षा स्थूल पुद्गलों से बने हुए शरीर-से कायिक क्रिया करते हैं? या औदारिक मिश्र शरीर-कार्मण और औदारिक दोनों शरीरों से एक साथ-से या वैक्रिय शरीर-विशिष्ट कार्य करने में सक्षम सूक्ष्म पुद्गलों से बने हुए शरीर से या वैक्रियमिश्र-कार्मण या औदारिक से मिश्रित वैक्रिय-शरीर से या आहारक-विशिष्ट तर पुद्गलों से निष्पन्न शरीर से या आहारकमिश्र-औदारिक से मिश्रित आहारक शरीर से या कार्मण-शरीर से कायिक क्रिया करते हैं ? अर्थात् काययोग का प्रयोग करते हैं। गोयमा ! ओरालियसरीरकायजोगं जुंजइ। ओरालियमिस्स-सरीरकायजोगंपि जुंजइ। णो वेउब्वियसरीरकायजोगं जुंजइ। णो वेउव्वियमिस्स-सरीरकायजोगं जुंजइ। णो आहारगसरीर कायजोगं-जुंजइ। णो आहारगमिस्ससरीरकायजोगं जुंजइ। कम्मगसरीरकायजोगं पि जुंजइ। ___भावार्थ - हे गौतम ! औदारिक शरीर से कायिक क्रिया करते हैं और औदारिक मिश्र शरीर से भी कायिक क्रिया करते हैं। वैक्रिय शरीर से, वैक्रिय मिश्र शरीर से, आहारक शरीर से और आहारकमिश्र शरीर से कायिक क्रिया नहीं करते हैं। कार्मण शरीर से भी कायिक क्रिया करते हैं। पढमट्ठमेसु समएसु ओरालियसरीरकायजोगं जुंजइ। बिइयछट्ठसत्तमेसु समएसु ओरालियमिस्ससरीरकाय जोगं जुंजइ।तईयचुत्थपंचमेहिं कम्मगसरीरकायजोगं जुंजइ। भावार्थ - पहले और आठवें समय में औदारिक शरीर से कायिक क्रिया करते हैं। दूसरे, छठे For Personal & Private Use Only Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८६ उववाइय सुत्त और सातवें समय में औदारिक मिश्र शरीर से कायिक क्रिया करते हैं और तीसरे, चौथे और पांचवें समय में कार्मण शरीर से कायिक क्रिया करते हैं। समुद्घात के बाद की योग प्रवृत्ति से णं भंते ! तहा समुग्घायगए सिज्झइ? बुज्झइ? मुच्चइ? परिणिव्वाइ? सव्वदुक्खाणमंतं करेइ?-णो इणढे समढे। भावार्थ - हे भन्ते ! क्या कोई समुद्घातगत-समुद्घात में स्थित रहते हुए ही सिद्ध होते हैं ? बुद्ध होते हैं ? मुक्त होते हैं? परिनिर्वृत्त होते हैं ? सब दुःखों का अन्त करते हैं ? हे गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है। . से णं तओ पडिणियत्तइ। पडिणियत्तिता इहमागच्छइ। आगच्छित्ता तओ पच्छा मणजोगं पि जुंजइ। वयजोगं पि जुंजइ। कायजोगं पि जुंजइ। भावार्थ - उससे-समुद्घात से-प्रतिनिर्वृत्त होते हैं। यहाँ अर्थात् इस मनुष्यलोकगत शरीर में स्थित होते हैं। फिर मन की क्रिया भी करते हैं, वचन की क्रिया भी करते हैं और काया की क्रिया भी करते हैं। ___मणजोगंगँजमाणेकिंसच्चमणजोगंजुंजइ?मोसमणजोगंगँजइ?सच्चामोसमणजोगं जुंजइ?असच्चामोसमणजोगंगँजइ?- गोयमा!सच्चमणजोगंगँजइ।णो मोसमणजोगं जंजइ।णो सच्चामोसमणजोगं जुंजइ।असच्चामोसमण जोगं पि जुंजइ। भावार्थ - मन की क्रिया में संलग्न होते हुए, क्या सत्य मन की क्रिया में या असत्य मन की क्रिया में या सत्यमृषा-सच-झूठ-मिश्र मन की क्रिया में या असत्य-अमृषा-न सच न झूठ-व्यवहार मन की क्रिया में संलग्न होते हैं ? हे गौतम ! सत्य मन की क्रिया करते हैं। असत्य मन की और सत्यमृषा मन की क्रिया नहीं करते हैं। असत्य-अमृषा मन की क्रिया भी करते हैं। वयजोगंजुंजमाणे किं सच्चवइजोगंगँजइ? मोसवइजोगंजुंजइ।सच्चामोसवइजोगं जुंजइ ? असच्चामोसवइजोगं जुंजइ। गोयमा ! सच्चवइजोगं जुंजइ। णो मोसवइजोगं जुंजइ। णो सच्चामोसवइजोगं जुंजइ।असच्चामोसवइजोगं पि जुंजइ। भावार्थ - वचन की क्रिया में प्रवृत्त होते हुए, क्या सत्य वचन या मृषा वचन या सत्यमृषा वचन या असत्य-अमृषा वचन योग की प्रवृत्ति करते हैं? ... हे गौतम ! सत्य वचन योग की प्रवृत्ति करते हैं। मृषा वचनयोग की और सत्य-मृषा वचन योग की प्रवृत्ति नहीं करते हैं। असत्य-अमृषा वचनयोग की भी प्रवृत्ति करते हैं। विवेचन - मनःपर्यव ज्ञानी या अनुत्तर विमानवासी देवों के द्वारा मन से पूछे गये प्रश्नों का उत्तर For Personal & Private Use Only Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समुद्घात के बाद की योग प्रवृत्ति १८७ देने के लिये केवली भगवान् मनोयोग की प्रवृत्ति करते हैं और जीवादि पदार्थों की प्ररूपणा करते हुए सत्यवचनयोग की प्रवृत्ति करते हैं और आमंत्रणादि में असत्य-अमृषा वचन योग की प्रवृत्ति करते हैं। कायजोगं जुंजमाणे आगच्छेज वा चिटेज वा णिसीएज वा तुयट्टेज वा उल्लंघेज वा पल्लंघेज वा, उक्खेवणं वा पक्खेवणं वा तिरियक्खेवणं वा करेजा, पाडिहारियं वा पीढफलग सेज्जासंथारगं पच्चप्पिणेजा। भावार्थ - काययोग की प्रवृत्ति करते हुए आते हैं, ठहरते हैं, बैठते हैं, सोते हैं, लांघते हैं, विशेष लांघते हैं, उत्क्षेपण-उछालना, अवक्षेपण-नीचे डालना और तिर्यक्क्षेपण-आजु-बाजु या आगे-पीछे रखना। अथवा ऊँची, नीची और तिरछी गति करते हैं और लौटाने योग्य आसन, पटिये, शय्या और संस्तारक लौटाते हैं। विवेचन - केवलिसमुद्घात के पश्चात् अन्तर्मुहूर्त में योगनिरोध होता है। केवलिसमुद्घात नियमतः किसे करना पड़ती है? - इस विषय में मतभेद है। यथायो पाण्मासाधिकायुष्को, लभते केवलोद्गमम्। करोत्यसो समुद्घातमन्ये कुर्वन्ति वा न वा॥ - छह मास और छह मास से अधिक आयुष्य वाले को केवलज्ञान होने पर वे अवश्य समुद्घात करते हैं और छह महीने से न्यून आयुष्य वाले को केवलज्ञान होने पर, वे समुद्घात करते भी हैं और नहीं भी करते। - गुणस्थान क्रंमारोह आवश्यक नियुक्ति से भी इसी कथन की पुष्टि होती है। यथाछम्मासाउ-सेसे, उप्पण्णं जेसिं केवलं णाणं। तेणियमा समुग्घाया, सेसा समुग्धाय भइयव्या॥ - किन्तु आवश्यक-चूर्णिकार का मन्तव्य, इससे बिलकुल विरुद्ध है। यथा-'येऽन्तर्मुहूर्त्तमादि, कृत्वोत्कर्षेण आमासेभ्यः षड्भ्यः आयुषोऽवशिष्टेभ्यः अभ्यन्तराविर्भूत केवलज्ञान पर्यायास्ते नियमात् समुद्घाप्तं कुर्वन्ति। ये तु षड्मासेभ्यः उपरिष्टादाविर्भूतकेवलज्ञानाः शेषास्ते समुद्घातबाह्याः । ते समुद्घातं न कुर्वन्ति-इत्यर्थः । अथवा अयमर्थः-शेषाः समुद्घातं प्रतिभाज्याः।' ___ - जो मनुष्य अन्तर्मुहूर्त से लगा कर, छह महीने जितना आयुष्य शेष रहने पर केवलज्ञान प्राप्त करें, तो अवश्य समुद्घात करते हैं। किन्तु जिन मनुष्यों को आयुष्य छह महीने से अधिक हो, वे केवलज्ञान प्राप्त करे तो समुद्घात से बाह्य हैं। अर्थात् वे समुद्घात नहीं करते हैं। अथवा शेष-छह महीने से अधिक आयुष्य वाले समुद्घात करते भी हैं और नहीं भी करते हैं। यद्यपि नियुक्ति की-'छम्मासाउ सेसे...' इस गाथा का अर्थ चूर्णिकार के मतानुकूल भी हो सकता है। फिर भी दोनों पक्ष खड़े रहते ही हैं। अतः तत्त्व केवलिगम्य। - प्रश्नोत्तर मोहनमाला प्रश्न ३७ का उत्तर पृ० १०५-१०८ For Personal & Private Use Only Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८८ उववाइय सुत्त योग-निरोध और सिद्धि ४३- से णं भंते ! सजोगी सिग्झइ जाव अंतं करेइ? - णो इणढे समढे। ___ भावार्थ - हे भन्ते ! क्या सयोगी केवली मन, वचन और काया से सक्रिय सिद्ध होते हैं ? यावत् सब दुःखों का अन्त करते हैं? - हे गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है अर्थात् सयोगी केवली सिद्ध नहीं होते हैं। से णं पुवामेव सण्णिस्स पंचिंदियस्स पज्जत्तगस्स जहण्ण-जोगस्स (जोगिस्स) हेट्ठा असंखेजगुणपरिहीणं पढमं मणजोगं णिरुंभइ। भावार्थ - हे गौतम ! वे केवली भगवान् सबसे पहले पर्याप्तक संज्ञी पञ्चेन्द्रिय के जघन्य मनोयोग के नीचले स्तर से असंख्यात गुण हीन मनोयोग का निरोध करते हैं। अर्थात् योग-निरोध का आरंभ करने वाले केवली सब से पहले पर्याप्त संज्ञी पञ्चेन्द्रिय के अल्पतम मानसिक व्यापार के असंख्यातवें भाग जितने मनोव्यापार रहता है, शेष सब का निरोध कर देते हैं। तयाणंतरंचणंबेइंदियस्सपजत्तगस्सजहण्ण-जोगस्स हेट्ठाअसंखेजगुणपरिहीणं बिइयं वयजोगं णिरुंभइ। भावार्थ - इसके बाद पर्याप्तक द्वीन्द्रिय जीव के जघन्य वचनयोग के नीचले स्तर से भी असंख्यात गुण हीन दूसरे वचनयोग का निरोध करते हैं। अर्थात् उस जीव की निम्नतम स्तरीय वाचिक प्रवृत्ति की असंख्यातवें भाग जितनी वाचिक प्रवृत्ति रहती है, शेष सब का निरोध कर देते हैं। तयाणंतरं च णं सुहमस्स पणगजीवस्स अपजत्तगस्स जहण्ण-जोगस्स हेट्ठा असंखेजगुणपरिहीणं तइयं कायजोगं णिसंभइ। भावार्थ - इसके पश्चात् अपर्याप्त सूक्ष्म पनक-फूलन-जीव के जघन्य योग के नीचले स्तर से असंख्यातगुण हीन तीसरे काययोग का निरोध करते हैं। से णं एएणं उवाएणं पढमं मणजोगं णिरुभइ णिभित्ता, वयजोगं णिरुंभइ। वयजोगं णिरुभित्ता कायजोगं णिरुंभइ। कायजोगं णिकैभित्ता जोगणिरोहं करे। ____भावार्थ - इस उपाय से पहले मन योग को अर्थात् मन की क्रिया को रोक करके वचन की क्रिया को रोकते हैं। वचन की क्रिया को रोक कर काया की क्रिया का निरोध करते हैं और काया की क्रिया को रोक कर, योग-निरोध-मन वचन और काया से संबंधित होने वाली आत्मा की सभी प्रवृत्ति को रोक देते हैं। विवेचन - 'एएणं उवाएणं' शब्दों से यह अर्थ झलकता है कि-केवली तथा कथित-पर्याप्त For Personal & Private Use Only Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग-निरोध और सिद्धि १८९ संज्ञी पञ्चेन्द्रिय द्वीन्द्रिय और अपर्याप्त पनक-जीवों की निम्नस्तरीय योग प्रवृत्ति के असंख्यातवें भाग जितनी रही हुई योग प्रवृत्ति को समय-समय में क्रमशः रोकते हुए, पूर्णतः योग-निरोध करते हैं। यथा पजत्तमेत्त सण्णिस्स, जत्तियाइं जहण्ण जोगिस्स। होति मणोदव्वाई, तव्यावारो य जम्मत्तो॥ तदसंखगुण विहीणं, समए समए णिरुंभमाणो सो। मणसो सव्वणिरोह, करे असंखेज समएहिं॥ एवमन्यदपि सूत्रद्वयं नेयम्।...(टीकायां उद्धृतगाथे)। - अर्थात् जघन्य योगी पर्याप्त संज्ञी की जितनी मनोद्रव्य की और मनोव्यापार की मात्रा होती है, उससे भी असंख्यात गुण हीन मात्रा में मन का समय समय पर निरोध करते हुए, केवली असंख्यात समय में मन का पूर्णतः निरोध कर देते हैं। इसी प्रकार शेष दो सूत्रों के विषय में भी यह समझना चाहिए। काययोग के निरोध के बाद तो योग निरोध हो ही जाता है, फिर अलग से योग-निरोध का कथन क्यों किया गया है ? - वीर्य के द्वारा योगों की प्रवृत्ति होती है। उस योग-प्रवृत्ति के मूल करणवीर्य का निरोध जहाँ तक नहीं होता है वहाँ तक पूर्णत: योग-निरोध नहीं माना जाता। उस करणवीर्य का निरोध भी अकरणवीर्य से हो जाता है। अर्थात् काययोग के निरोध के बाद केवली करणवीर्य से हटकर, अकरणवीर्य में पूर्णतः स्थित हो जाते हैं। संभवतः यही दर्शाने के लिए योग-निरोध और अयोगता का कथन अलग से हुआ है। जोगणिरोहं करेत्ता अजोगत्तं पाउणंति। अजोगत्तं पाउणित्ता इसिंहस्सपंचक्खरउच्चारणद्धाए असंखेजसमइयं अंतोमुहुत्तियं सेलेसिं पडिवजइ। भावार्थ - योग निरोध करके अयोगी अवस्था को प्राप्त होते हैं। अयोगी अवस्था-मन, वचन और काया की क्रिया से रहित अवस्था को प्राप्त करके, ईषत्स्पृष्ट पांच ह्रस्व अक्षरों के उच्चारण जितने काल की-असंख्यात समय के अन्तर्मुहूर्त के काल की-शैलेशी अवस्था को प्राप्त होते हैं। विवेचन - अयोगी अवस्था के अलग-से कथन में यह भी रहस्य हो सकता है कि-जो आत्मपरिणति योग-निरोध के लिये प्रवृत्त हुई थी उसका भी, कार्य पूरा हो जाने के कारण शमन हो गया। - अ, इ, उ, ऋ और ल ये पांच हस्व अक्षर हैं। इनका न द्रुत न विलम्बित, किन्तु मध्यम उच्चारण ग्रहण किया गया है। कहा है - हस्सक्खराइं मझेण जेण कालेण पंच भण्णति। अच्छा सेलेसिगओ, तत्तियं मेतं तओ काल॥ . . अ, इ, उ, ऋ और लु ये पांच इस्व अक्षर हैं इनको जल्दी भी नहीं और बहुत विलम्ब करके भी For Personal & Private Use Only Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९० उववाइय सुत्त नहीं किन्तु मध्यम गति से उच्चारण करने में जितना समय लगे उतने समय तक शैलेशी अवस्था को प्राप्त होते हैं। प्रश्न - शैलेशी अवस्था किसको कहते हैं. ? उत्तर - शैल का अर्थ हैं पर्वत और ईश का अर्थ है स्वामी अर्थात् पर्वतों का स्वामी। जम्बूद्वीप का मेरु पर्वत सब पर्वतों से ऊँचा है अर्थात् वह एक लाख योजन का ऊँचा है इसलिए उसे शैलेश कहते हैं, वह अडोल और अकम्प है, प्रलय काल की हवा और तूफान भी उसे कम्पित नहीं कर सकते हैं। इसी प्रकार केवली भगवान् भी जिस अवस्था में सर्वथा अडोल और अकम्प हो जाते हैं, उस अवस्था को शैलेशी अवस्था कहते हैं। ____ पुव्वरइयगुणसेढीयं च णं कम्मं तीसे सेलेसिमद्धाए असंखेजाहिं गुणसेढीहिं अणंते कम्मंसे खवेइ। वेयणिज्जाउयणाम-गुत्ते इच्चेते चत्तारि कम्मंसे जुगवं खवेइ। भावार्थ - उस शैलेशी काल में पूर्व रचित-शैलेशी अवस्था से पहले रची गई गुण श्रेणी रूप में रहे हुए कर्मों को-असंख्यात गुण श्रेणियों में रहे हुए अनन्त कर्मांशों को क्षीण करते हैं। वेदनीय, आयुष्य, नाम और गोत्र इन चारों कर्मों का एक साथ क्षय करते हैं। विवेचन - सामान्यतः कर्म, बहु, अल्प, अल्पतर और अल्पतम रूप से निर्जरा के लिये रचे जाते हैं, किन्तु जब परिणाम विशेष से, वे ही कालान्तर में वेद्य कर्म, अल्प, बहु, बहुतर और बहुतम रूप से, शीघ्रतर क्षय करने के लिये, रचे जाते हैं, तब वह रचना-प्रकार 'गुणश्रेणी' नाम से कहे जाते हैं। अर्थात् जहाँ गुण की वृद्धि से, असंख्यात गुणी निर्जरा समय-समय पर अधिक होती है, वह गुणश्रेणी है। खवित्ता ओरालियतेयाकम्माइं सव्वाहि विप्प-जहणाहिं विप्पजहइ। विप्पजहित्ता उज्जुसेढी पडिवण्णे अफुसमाणगई उड्डे एक्कसमएणं अविग्गहेणं गंता सागारोवउत्ते सिज्झइ। भावार्थ - एक साथ क्षय करके, औदारिक, तैजस् और कार्मण इन तीन शरीरों को, अशेष विविध त्यागों के द्वारा त्याग देते हैं। फिर ऋजुश्रेणी-आकाश प्रदेशों की सीधी पंक्ति के आश्रित होकर, अपृश्यमानगति-अस्पृश्यद्गति वाले सीधे एक समय में ऊंचे जाकर, साकारोपयोग-ज्ञानोपयोग में सिद्ध होते हैं। विवेचन - प्रश्न - मूल पाठ में अफुसमाणगई" शब्द दिया है। इसका क्या अर्थ है ? उत्तर - टीकाकार ने इसका अर्थ इस प्रकार किया है। अस्पृशन्ती-सिद्धयन्तरालप्रदेशान् गतिर्यस्स सोऽस्पृशद्गतिः अन्तराल प्रदेशस्पर्शने हि नैकेन समयेन सिद्धिः, इष्यते चतक एव समयः, यएवचायुष्कादिकर्मणां क्षयसमयः स एवं निर्वाणसमयः अतोऽन्तराले समयान्तरस्याभावादन्तराल-प्रदेशानाम-संस्पर्शनमिति। For Personal & Private Use Only Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वहाँ स्थित सिद्ध का स्वरूप अर्थ - जिस जगह से जीव सिद्ध होता है वहीं से ऋजु गति के द्वारा सीधा मोक्ष में चला जाता है। वह एक समय की ऋजु गति है इसलिए बीच के आकाश प्रदेशों को स्पर्श नहीं करता है, क्योंकि आयुष्य आदि चार कर्मों का क्षय का समय और निर्वाण का समय एक है। इसलिए बीच में समय का अभाव होने से अन्तराल के आकाश प्रदेशों का स्पर्श भी नहीं होता है। इसके आगे टीकाकार ने लिख दिया है कि - 'सूक्ष्मश्चायमर्थ केवलिगम्यो भावत् इति।' यह विषय अति सूक्ष्म है इसलिए इसका रहस्य तो केवली भगवान् ही जानते हैं। - वहाँ स्थित सिद्ध का स्वरूप ते णं तत्थ सिद्धा हवंति-सादीया अपज्जवसिया असरीरा जीवघणा दसणणाणोवउत्ता णिट्ठियट्ठा णिरेयणा णीरया णिम्मला वितिमिरा विसुद्धा सासयमणागयद्धं कालं चिटुंति। भावार्थ - वहाँ लोकाग्रपर वे सिद्ध होते हैं। आदि सहित, अन्त रहित, शरीर रहित, जीवघन, ज्ञान और दर्शन रूप साकार और अनाकार उपयोग से युक्त सब प्रयोजनों से निवृत्त, कम्पन से रहित निश्चल, बद्ध्यमान-रजरूप आते हुए कर्मों से रहित, पूर्वबद्ध कर्मों से मुक्त, अज्ञान से रहित और विशुद्ध-अमिश्रित शुद्ध जीव स्वरूप वाले होकर, अनागत अद्धाकाल भविष्य काल में शाश्वतअविनश्वर रहते हैं। विवेचन - कई अन्य मतावलम्बियों की सिद्ध स्थान विषयक मान्यता इस प्रकार है - 'रागादि वासना से मुक्त सिद्धों की स्थिति का कोई नियत स्थान नहीं है। या 'मुक्त व्योमवत् . सर्वत्र स्थित रहते हैं। यथा ‘रांगादि वासना मुक्त, चित्तमेव निरामयम्। सदानियत देशस्थं, सिद्ध इत्यभिधीयते॥ अथवा - गुणसत्त्वान्तरज्ञानानिवृत्त प्रकृति क्रियाः। . मुक्ता:सर्वत्र तिष्ठन्ति, व्योमवत्तापवर्जिताः॥ सिद्धि-स्थान विषयक इन मान्यताओं का निराकरण करने के लिये 'तत्थ'-तत्र-लोकाग्र पर शब्द का प्रयोग हुआ है। कई शरीरधारियों को भी सिद्ध मानते हैं। यथा अणिमाघष्टविधं प्राप्यैश्वर्य कृतिनःसदा। . मोदन्ते निवृतात्मानस्तीर्णाः परम दुस्तरम् For Personal & Private Use Only Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९२ उववाइय सुत्त 44M अन्य मत में आठ सिद्धियाँ मानी गई है। यथाअणिमा महिमा चेव, लघिमा गरिमा तथा। प्राप्तिः प्राकाम्य मीशित्वं, वशित्वं चाष्ट सिद्धयः॥ अर्थ - १. अणिमा - छोटे से छोटा हो जाना। परमाणु के समान २. महिमा - बड़े से बड़ा हो - जाना। मेरु पर्वत के समान ३. लघिमा-हलके से हलका हो जाना। आकड़े की रुई के समान ४. गरिमा-भारी से भारी हो जाना। वज्र के समान। ५. प्राप्ति-इच्छा हो वहाँ प्राप्त हो जाना। जैसे कि जमीन पर बैठे हुए मेरु पर्वत पर हाथ फेर देना ६. प्राकाम्य-इच्छित वस्तु को प्राप्त कर लेना ७. ईशित्वं -ईश्वर पना-स्वामी पना ८. वशित्वं-सबको अपने वश में कर लेना। इन आठ सिद्धियों को जो प्राप्त कर लेते हैं वे सिद्ध बन जाते हैं, कृतार्थ बन जाते हैं। कठिन संसार समुद्र को तिर कर पार हो जाते हैं। वे सदा निवृत्त हो जाने के कारण हमेशा प्रसन्न चित्त रहते हैं। ऐसा सिद्धों का स्वरूप है। ... इस प्रकार के मत का खण्डन 'असरीरा' विशेषण से होता है जो जीव की सिद्धि नहीं मानते हैं और जो जीव की मुक्तावस्था मानकर भी पुनः लौटने वाला मानते हैं, उनके मतों का निषेध क्रमशः 'सादिया' और 'अपज्जवसिया' विशेषण से हो जाता है। 'जीव घणा' का अर्थ अन्तर रहित होने के कारण वे सिद्ध जीव प्रदेश मय रहते हैं। अन्त के शरीर की अवगाहना से सिद्ध अवस्था में योग निरोध काल में शरीर के छेदों के पूर्ण हो जाने से तीन भाग कम उनकी अवगाहना रहने से जीव प्रदेश घन हो जाते हैं। जो मुक्त अवस्था में चेतना और ज्ञानादि नहीं मानते हैं, उनके मत का निषेध देसणणाणोवउत्ता' विशेषणों से होता है। जो सिद्ध आत्माओं का अनुकंपादि कारणों से पुनरवतार मानते हैं, उनका मत "णिद्रियट्टा' विशेषण पद से निर्मूल हो जाता है। सिद्धों के परभाव के कर्तृत्त्व का निषेध 'णिरेयणा'निरेजना शब्द से, पर से प्रभावित होने का निषेध 'णीरया' शब्द से, पर से आबद्ध होने का निषेध 'णिम्मला' पद से, किसी से छले जाने का एवं अज्ञान अंधकार का निषेध 'वितिमिरा' शब्द से और आत्मभाव में स्थिति का प्रतिपादन 'विसद्धा' शब्द से होता है। बहुवचनान्त विशेषण इसलिए हैं किसिद्ध अनन्त हैं और स्वरूपतः एक-से होते हुए भी व्यक्तितः सब भिन्न हैं। सेकेणटेणं भंते ! एवं वुच्चइ-तेणं तत्थ सिद्धा भवंति सादीया अपजवसिया जाव चिटुंति?-गोयमा ! से जहाणामए बीयाणं अग्गिदड्डाणं पुणरवि अंकुरुप्पत्ती ण भवइ। एवामेव सिद्धाणं कम्मबीए दवे पुणरवि जम्मुप्पत्तीण भवइ।से तेणद्वेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ-ते णं तत्थ सिद्धा भवंति सादीया अपजवसिया जाव चिटुंति। भावार्थ - हे भन्ते ! आप किस कारण से इस प्रकार कहते हैं, कि-वहाँ वे सिद्ध होते हैं, सादि अन्त रहित यावत् शाश्वत रहते हैं ? For Personal & Private Use Only Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्ध्यमान् जीव के संहनन आदि हे गौतम ! जैसे अग्नि से जले हुए बीजों की पुन: अंकुर रूप उत्पत्ति नहीं होती है। उसी प्रकार कर्म-बीजों के जल जाने पर सिद्धों की भी पुनः जन्म रूप उत्पत्ति नहीं होती है। इसलिए हे गौतम ! मैं इस प्रकार कहता हूँ, कि- 'वे वहाँ सिद्ध होते हैं अनागत काल में शाश्वत रहते हैं। विवेचन - जन्म-कर्मकृत प्रसूति। कर्म के निमित्त से होने वाली उत्पत्ति का अभाव बताने के लिये 'जम्मुप्पत्ती' शब्द कहा गया है। क्योंकि प्रतिक्षण उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य युक्त ही सद्भाव होता है। अत: वहाँ परिणामान्तर रूप उत्पत्ति होती है। सिद्धयमान् जीव के संहनन आदि जीवा णं भंते ! सिज्झमाणा कयरंमि संघयणे सिझंति?- गोयमा ! वइरोसभणारायसंघयणे सिझंति। __ भावार्थ - हे भन्ते ! सिद्ध्यमान-सिद्ध होने वाला जीव कौन से संहनन-हड्डियों के बन्धन में सिद्ध होते हैं? हे गौतम ! वज्रऋषभनाराच संहनन (कीलिका और पट्टी सहित मर्कट बन्धमय सन्धियों वाला हड्डियों का बन्धन) में सिद्ध होते हैं। - जीवाणंभंते ! सिझमाणाकयामिसंठाणे सिझंति?-गोयमा! छण्हं संठाणाणं अण्णयरे संठाणे सिझंति। . भावार्थ - हे भन्ते ! सिद्ध्यमान जीव कौन-से संस्थान(आकार) में सिद्ध होते हैं ? हे गौतम ! छह संस्थान (आकार) में से किसी भी संस्थान में सिद्ध होते हैं। विवेचन - संहनन भी छह हैं और संस्थान भी छह हैं। वज्रऋषभ-नाराच, ऋषभ नाराच-मर्कट बन्ध और पट्टी से युक्त सन्धियों वाला, नाराच-मर्कट बन्ध युक्त सन्धियों वाला, अर्द्ध नाराच-एक तरफ मर्कट बन्ध और एक तरफ कीलिका युक्त सन्धियों वाला, कीलिका-कीलिका युक्त सन्धियों वाला और सेवार्त-कमजोर सन्धियों वाला, ये छह संहनन हैं और समचतुरस्र-सुडोल, योग्य माप से युक्त, न्यग्रोधपरिमंडल-वटवृक्ष के समान नाभि के ऊपर के अवयव सुन्दराकार और नीचे के अवयव सामान्य, सादि-नीचे का अंग सुडौल और ऊपर का अंग सामान्य, वामन-ठिंगना कद, कुब्ज-कुबड़ा और हुंडकुत्सित-बेडौल-ये छह प्रकार के संस्थान हैं। जीवाणं भंते ! सिझमाणा कयामि उच्चत्ते सिझंति? - गोयमा ! जहण्णेणं सत्त रयणीओ, उक्कोसेणं पंचधणुस्सए सिझंति। भावार्थ - हे भन्ते ! सिद्ध्यमान जीव कितनी ऊँचाई में सिद्ध होते हैं ? हे गौतम ! जघन्य सात हाथ और उत्कृष्ट पांच सौ धनुष की ऊँचाई में सिद्ध होते हैं। अर्थात् पांच सौ धनुष की ऊँचाई वाले सिद्ध होते हैं। For Personal & Private Use Only Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९४ विवेचन प्रश्न तीर्थंकर भगवन्तों के शरीर की ऊँचाई कितनी होती है ? उत्तर - तीर्थंकर भगवन्तों के शरीर की ऊँचाई जघन्य सात हाथ की होती है और उत्कृष्ट पांच सौ धनुष की होती है। इसलिए यहाँ गद्य पाठ में सिद्ध होने वाले जीवों की जो जघन्य अवगाहना बताई है वह तीर्थंकर भगवन्तों की अपेक्षा समझना चाहिये। क्योंकि सामान्य मनुष्य तो जघन्य दो हाथ की ऊँचाई वाले भी सिद्ध होते हैं । यह आगे की सातवीं गाथा में बताया गया है। उववाइय सुत्त - प्रश्न- क्या पांच सौ धनुष से अधिक ऊँचाई वाले भी सिद्ध होते हैं ? उत्तर - नहीं !, पांच सौ धनुष से अधिक ऊँचाई वाले जीव सिद्ध नहीं हो सकते हैं। टीकाकार ने पांच सौ धनुष से अधिक ऊँचाई वाले भी सिद्ध हो सकते हैं ऐसा जो लिखा है वह आगम सम्मत नहीं है। वाणं भंते! सिज्झमाणा कयरम्मि आउए सिज्झति ? - गोयमा ! जहणणेणं साइरेगट्ठवासाउए, उक्कोसेणं पुव्व-कोडियाउए सिज्झति । भावार्थ - हे भन्ते ! सिद्ध्यमान जीव कितने आयुष्य में सिद्ध होते हैं ? - में गौतम ! जघन्य आठ वर्ष से अधिक आयुष्य में और उत्कृष्ट एक करोड़ पूर्व की आयुष्य सिद्ध होते । अर्थात् आठ वर्ष से ऊपर की आयुष्य से लगाकर एक करोड़ पूर्व तक की आयुष्य तक सिद्ध हो सकते हैं। इससे कम या ज्यादा आयुष्य वाले मनुष्य सिद्ध नहीं हो सकते हैं। प्रश्न- एक पूर्व कितने वर्षों का होता है ? उत्तर ७०५६०००००००००० संख्या को व्यवहार में इस प्रकार बोल सकते हैं सात नील; छप्पन खरब, इतने वर्षों का एक पूर्व होता है। सिद्धों का निवास स्थान अत्थि णं भंते ! इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए अहे सिद्धा परिवसंति ? - णो इणट्टे समट्ठे । एवं जाव अहेसत्तमाए । भावार्थ - हे भन्ते ! क्या इस रत्नप्रभा पृथ्वी के नीचे सिद्ध निवास करते हैं ? - नहीं, यह अर्थ समर्थ नहीं है। इसी प्रकार सातों पृथ्वियों के विषय में समझना चाहिए। विवेचन - यद्यपि पहले 'तत्थ सिद्धा भवंति' इस सूत्र के द्वारा सिद्धों के निवास स्थान का सङ्केत किया जा चुका है। तथापि शिष्य की जिज्ञासा के अनुसार कल्पित विविध लोकाग्र भागों का निषेध करते हुए वास्तविक लोकाग्र के स्वरूप का विशेष बोध देने के लिये प्रश्न-उत्तर किये गये हैं । शिष्य की कल्पना है, कि 'रत्नप्रभा पृथ्वी का अधोभाग भी किसी अपेक्षा से लोकाग्र है।' इसी प्रकार शर्कराप्रभा, बालुकाप्रभा, पङ्कप्रभा, धूम्रप्रभा, तमः प्रभा और तमस्तमः प्रभा इन पृथ्वियों के - For Personal & Private Use Only Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धों का निवास स्थान १९५ अधोभाग के विषय में भी इसी प्रकार की कल्पना है। भगवान् ने इन सब कल्पनाओं का निषेध किया है। वास्तविक लोकाग्र कहां है ? इसका उत्तर आगे दिया जाएगा। अस्थि णं भंते ! सोहमस्स कप्पस्स अहे सिद्धा परिवसंति? - णो इणढे समढे। एवं सव्वेसिं पुच्छा-ईसाणस्स सणंकुमारस्स जाव अच्चुयस्स गेविज-विमाणाणं अणुत्तरविमाणाणं। भावार्थ - हे भन्ते ! क्या सिद्ध, सौधर्मकल्प के नीचे निवास करते हैं? यह अर्थ समर्थ नहीं है। इसी प्रकार ईशान, सनत्कुमार यावत् अच्युत, ग्रैवेयकविमान और अनुत्तरविमान-सबकी पृच्छा समझना चाहिए। ___ अस्थि णं भंते ! ईसीपब्भाराए पुढवीए अहे सिद्धा परिवसंति ? - णो इणद्वे समटे। भावार्थ - तो क्या भन्ते ! सिद्ध, ईषत्प्राग्भारा पृथ्वी के नीचे निवास करते हैं ? यह अर्थ समर्थ नहीं है। से कहिं खाइ णं भंते ! सिद्धा परिवसंति? गोयमा ! इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए बहुसम रमणिजाओ भूमिभागाओ उड्डे चंदिमसूरियग्गहगणणक्खत्तताराभवणाओ बहूई जोयणाई बहूणं जोयणसयाई, बहूई जोयणसहस्साइं, बहूइं जोयणसयसहस्साइं, बहूओ जोयणकोडिओ, बहूओ जोयणकोडाकोडीओ उतरं उप्पइत्ता सोहम्मीसाणसणंकुमारमाहिंदबंभलंगमहासुक्कसहस्सारआणय-पाणयआरणच्चुय तिण्णि य अट्ठारे गेविज-विमाणावाससए वीइवइत्ता विजयवेजयंत-जयंतअपराजियसव्वट्ठ-सिद्धस्स य महाविमाणस्स सव्व उवरिल्लाओ थूभियग्गाओ दुवालसजोयणाई अबाहाए एत्थ णं ईसीपब्धारा णाम पुढवी पण्णत्ता। भावार्थ- हे भन्ते ! फिर सिद्ध भगवान् कहाँ रहते हैं? हे गौतम ! इस रत्नप्रभा पृथ्वी के बहुसम रमणीय भूमि भाग से ऊपर चन्द्र, सूर्य, ग्रहगण, नक्षत्र और ताराओं के भवनों से, बहुत-से योजन, बहुतसे सैकड़ों योजनों, बहुत-से हजार योजनों, बहुत-से सौ-हजार योजनों, बहुत-से करोड़ योजनों और बहुत-से करोड़-करोड योजनों से ऊपर जाने पर सौधर्म, ईशान, सनत्कुमार, माहेन्द्र, ब्रह्म, लान्तक, महाशुक्र, सहस्रार, आणत, प्राणत, आरण और अच्युत कल्प, ३१८ ग्रैवेयक विमान-आवास को पार कर, विजय, वैजयन्त, जयन्त, अपराजित और सर्वार्थसिद्ध महाविमान के शिखर के अग्रभाग से बारह योजन के अन्तर-अबाहा से इस स्थल पर वित्याग्भारा नाम की पृथ्वी है। For Personal & Private Use Only Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९६ उववाइय सुत्त पणयालीसं जोयणसयसहस्साई आयामविखंभेणं, एगाजोयणकोडी बायालीसं सयसहस्साइं, तीसं च सहस्साइं, दोण्णि य अउणापण्णे जोयणसए, किंचि विसेसाहिए परिरएणं। ___ वह ईषत्प्राग्भारा पृथ्वी पैंतालीस लाख योजन की लम्बी और पैंतालीस लाख योजन की चौड़ी है । और एक करोड़ बयालीस लाख तीस हजार दो सौ गुणपचास योजन से कुछ अधिक उसकी परिधि है। ईसिपब्भारा य णं पुढवीए बहुमज्झदेसभाए अट्ठजोयणिए खेत्ते, अट्ठजोयणाई बाहल्लेणं।तयाऽणंतरंमायाए मायाए पडिहायमाणी पडिहायमाणी सव्वेसुचरिमपेरंतेसु मच्छिय-पत्ताओ तणुयतरा, अंगुलस्स असंखेजइभागं बाहल्लेणं पण्णत्ता। भावार्थ - वह ईषत्प्राग्भारा पृथ्वी बहुमध्य देशभाग में, आठ योजन जितने क्षेत्र में, आठ योजन मोटी है। इसके बाद थोडी-थोडी कम होती हुई, सबसे अन्तिम किनारों पर मक्खी की पांख से भी पतली है। उस किनारे की मोटाई अंगुल के असंख्येय भाग जितनी है। ईसीपब्भाराए णं पुढवीए दुवालस णामधेजा पण्णत्ता। तं जहा-ईसी इ वा, इसीपब्भारा इवा, तणू इवा, तणुतणूइ वा, सिद्धी इवा, सिद्धालए इ वा, मुत्ती इ वा, .. मुत्तालए इवा, लोयग्गे इ वा, लोयग्गथूभिया इवा, लोयग्गपडिवुज्झणा इ वा, सव्वपाणभूयजीवसत्तसुहावहा इ वा। भावार्थ - ईषत्प्राग्भारा पृथ्वी के बारह नाम हैं। जैसे-१. ईषत्-अल्प, हलकी या छोटी, २. ईषत्प्राग्भारा-अल्प, ३. तनु-पतली, ४. तनुतनु-विशेष पतली ५. सिद्धि ६. सिद्धालय-सिद्धों का घर ७. मुक्ति, ८. मुक्तालय ९. लोकाग्र, १०. लोकाग्रस्तृपिका-लोकाग्र का शिखर ११. लोकाग्रप्रतिबोधनाजिसके द्वारा लोकाग्र जाना जाता हो ऐसी और १२. सर्व प्राण, भूत, जीव और सत्त्वों को सुखावह (सुखदाता)। विवेचन - सिद्ध भगवन्तों के समीप होने के कारण इस पृथ्वी को सिद्धि, सिद्धालय, मुक्तालय आदि शब्दों से कहा गया है। प्राणाः द्वित्रिचतुः प्रोक्ताः भूतास्तुः तरवः स्मृताः। जीवाः पंचेन्द्रियाः प्रोक्ताः शेषा सत्त्वा उदीरिताः॥ अर्थ - बेइन्द्रिय, तेइन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय जीवों को प्राण कहते हैं, वनस्पति को भूत कहते हैं, पंचेन्द्रिय को जीव कहते हैं। पृथ्वीकाय, अपकाय, तेउकाय, वायुकाय इन चार स्थावरों को सत्त्व कहते हैं। एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक जीव जो वहाँ पृथ्वी आदि रूप से उत्पन्न होते हैं, उन सब जीवों के लिए वह ईषत्प्राग्भारा पृथ्वी सुखदायी होती है क्योंकि वहाँ शीत ताप आदि दुःखों का अभाव है। For Personal & Private Use Only Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्ध-स्तवना १९७ ईसीपब्भाराणंपुढवीसेयाआयंसतलविमलसोल्लियमुणाल-दगरय-तुसारगोक्खीरहारवण्णा उत्ताणयछत्तसंठाणसंठिया सव्वजुण-सुवण्णमई अच्छा सण्हा लण्हा घट्टा मट्टा णीरया णिम्मला णिप्यंका णिक्कंकडच्छाया समरीचिया सुप्पभा पासाईया दरिसणिज्जा अभिरूवा पडिरूवा। भावार्थ - ईषत्प्राग्भारा पृथ्वी, दर्पण के तल समान विमल, सौल्लिय-एक प्रकार फूल संभवतः मुचकुन्द, कमलनाल-मुणाल-मृणाल, जलकण, तुषार, गाय के दूध और हार के समान वर्णवाली-सफेद है। उलटे छत्र के आकार के समान आकार में रही हुई है और अर्जुनस्वर्ण-सफेद सोना मयी है। वह आकाश या स्फटिक-सी स्वच्छ कोमल परमाणुओं के स्कन्ध से निष्पन्न, घुण्टित-घोंटकर चिकनी की हुई-सरिखी, वस्तु के समान तेज शान-से घिसी हुई-सरिखी, सुकुमार शान-से संवारी हुई सरिखी या प्रमानिका से शोधी हुई-सरिखी, रज से रहित, मल से रहित, आर्द्रमल से रहित, अकलङ्क, अनावरण, छाया या अकलङ्क शोभावाली, किरणों से युक्त, सुन्दर प्रभावाली, मन के लिये प्रमोदकारक-प्रासादीय, दर्शनीय-जिसे देखते हुए नयन अघाते न हों ऐसी, अभिरूप-कमनीय और प्रतिरूप-देखने के बाद जिसका दृश्य आँखों के सामने घूमता ही रहे ऐसी है। ईसीपब्भाराएणं पुढवीए सीयाए जोयणमि लोगंते।तस्स जोयणस्स जे से उवरिल्ले गाउए, तस्स णं गाउयस्स जे से उवरिल्ले छब्भागे तत्थ णं सिद्धा भगवंतो सादीया अपज्जवसिया अणेगजाइजरामरणजोणि संसारकलंकलीभाव-पुणब्भवगब्भवासवसहिपवंचसमइक्कंता (अणेगजाइजरामरणजोणिवेयणं संसार-कलंकली भाव-पुणब्भवगब्भवासवसहीपवंचमइक्कंता) सासयमणागयमद्धं चिटुंति॥ भावार्थ - ईषत्प्राग्भारा पृथ्वी के तल से उत्सेधांगुल से एक योजन पर लोकान्त है। उस योजन का जो ऊपर का कोस है, उस कोस का जो ऊपर का छट्ठा भाग है, वहाँ सिद्ध भगवन्त, जन्म, जरा और मरण प्रधान अनेक योनियों की वेदना और संसार में पर्यटन-कलङ्कलीभाव-दुःख की घबराहट से बार-बार उत्पत्ति-गर्भवास में निवास के प्रपञ्च-विस्तार से परे बन कर, शाश्वत अनागत काल में सादि-अनन्त रूप से स्थित रहते हैं। सिद्ध-स्तवना कहिं पडिहया सिद्धा ? कहिं सिद्धा पइट्ठिया ? कहिं बोदिं चइत्ताणं? कत्थ गंतूण सिज्झइ॥१॥ भावार्थ - सिद्ध कहाँ जाकर रुकते हैं ? सिद्ध कहाँ स्थित होते हैं ? और कहाँ देह को त्याग कर, कहाँ जा कर सिद्ध होते हैं ? For Personal & Private Use Only Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९८ - उववाइय सुत्त विवेचन - जीव का स्वभाव ऊर्ध्वगामी है। अतः यह शङ्का उठना सहज है कि-सिद्ध हमेशा भ्रमणशील ही रहते हैं या कहीं रुकते हैं ?-यदि रुकते हैं तो रुकने का क्या कारण है ? जिसका निमित्त मिलने पर रुकते हैं, तो क्या उससे टकराकर वापिस लौटते हैं या कहीं स्थित रहते हैं ? वे जहाँ स्थित होते हैं-वहीं शरीर छोड़ते हैं या अन्यत्र? अर्थात् उनका जो स्थान है, वहाँ जाकर देह छोड़ते हैं या अन्यत्र ? जहाँ देह त्यागते हैं, वहीं कृतकृत्य हो जाते हैं या अन्यत्र ? प्रायः ऐसी जिज्ञासाएँ इन प्रश्नों के मूल में रही अलोगे पडिहया सिद्धा, लोयग्गे य पइट्ठिया। इहं बोदिं चइत्ताणं, तत्थ गंतूण सिज्झइ॥२॥ भावार्थ - सिद्ध अलोक से रुकते हैं। लोकाग्र पर स्थित होते हैं और मनुष्य लोक में देह को छोड़ कर वहाँ-लोकाग्र पर जा कर, सिद्ध अर्थात् कृतकृत्य होते हैं। विवेचन - प्रतिहत अर्थात् आनन्तर्यवृत्ति मात्र का स्खलन। सिद्धों की अलोक में गति बन्द हो जाने के कारण-१ गतिसहायक द्रव्य धर्मास्तिकाय का अभाव २. शरीर-त्याग के प्रयोग से इतनी ही गति होना, ३. सिद्ध जीवों का लौकिक द्रव्य होना-आदि। तिरछे या नीचे गति नहीं करने का कारणजीवद्रव्य का मुक्तता के कारण ऊर्ध्वगमन स्वभाव। देहादि से मुक्ति तो मनुष्य लोक में ही हो जाती है। पूर्णतः मुक्ति और सिद्ध में एक समय का भी अन्तर नहीं होता है। किन्तु निश्चयदृष्टि से लोकाग्र पर प्रतिष्ठित हो जाने के बाद ही उन्हें सिद्ध माना जाता है। जं संठाणं तु इहं, भवं चयंतस्स चरिमसमयंमि। आसी य पएसघणं, तं संठाणं तहिं तस्स॥३॥ भावार्थ - मनुष्यलोक के भव के देह में जो प्रदेशघन आकार, अन्तिम समय में बना था, वही आकार उनका वहाँ पर होता है। दीहं वा हस्सं वा, जं चरिमभवे हवेज संठाणं। तत्तो तिभागहीणं, सिद्धाणोगाहणा भणिया॥४॥ भावार्थ - छोटा या बड़ा, जैसा भी अन्तिमभव में आकार होता है, उससे तीसरे भाग जितने कम स्थान में सिद्धों की व्याप्ति-जिनेश्वर देव के द्वारा कही गई है। विवेचन - प्रश्न - सिद्ध अवस्था में आत्म प्रदेशों की अवगाहना कितनी होती है ? और इसका क्या नियम है ? । उत्तर - उपरोक्त प्रश्न का उत्तर इस गाथा में दिया गया है। वह यह है कि-सिद्ध होने वाले जीव For Personal & Private Use Only Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्ध-स्तवना १९९ के शरीर की अवगाहना इस चरम भव में जितनी होती है, उसका एक तिहाई भाग कम होकर दो तिहाई भाग प्रदेशों की सिद्ध अवस्था में अवगाहना होती है। जैसे कि यहाँ से तीन हाथ के शरीर की अवगाहना वाला जीव सिद्ध होता है, तो सिद्ध अवस्था में उसके आत्म प्रदेशों की अवगाहना दो हाथ की रहती है। इसी प्रकार छह हाथ वाले की चार हाथ और नौ हाथ वाले की छह हाथ की अवगाहना रहती है। इसी प्रकार सात हाथ वाले की चार हाथ सोलह अंगुल (२४ अंगुल का एक हाथ होता है) की अवगाहना सिद्ध अवस्था में रहती है। तिण्णि सया तेत्तीसा, धणुत्तिभागो य होइ बोधव्वा। एसा खलु सिद्धाणं, उक्कोसोगाहणा भणिया॥५॥ भावार्थ - तीन सौ तैंतीस धनुष और धनुष का तीसरा भाग अर्थात् ३२ अंगुल, यह सर्वज्ञ कथित सिद्धों की उत्कृष्ट अवगाहना जानना चाहिए। चत्तारि य रयणीओ, रयणित्तिभागणिया य बोधव्वा। एसा खलु सिद्धाणं, मज्झिमओगाहणा भणिया॥६॥ भावार्थ - चार हाथ और तीसरा भाग कम एक हाथ-सोलह अंगुल यह सर्वज्ञकथित सिद्धों की मध्यम अवगाहना जानना चाहिए। एक्का य होइ रयणी, साहीया अंगुलाइं अट्ठ भवे। एसा खलु सिद्धाणं, जहण्णओगाहणा भणिया॥७॥ भावार्थ - एक हाथ और आठ अंगुल अधिक-यह सर्वज्ञकथित सिद्धों की जघन्य अवगाहना है। विवेचन - प्रश्न - अधिक से अधिक कितनी ऊँचाई वाले सिद्ध हो सकते हैं। उत्तर - पण्णवणा सूत्र में तथा इसी सूत्र की इस पांचवीं गाथा के अनुसार उत्कृष्ट ५०० धनुष की अवगाहना वाले सिद्ध हो सकते हैं। ___ प्रश्न - टीकाकार ने मरुदेवी माता की ५२५ धनुष की अवगाहना बताई हैं यह कैसे ? ___उत्तर - मरुदेवी माता की अवगाहना ५०० सौ धनुष की ही थी इससे अधिक नहीं इसलिए टीकाकार का ५२५ धनुष लिखना यह आगम सम्मत नहीं है तथा वृद्ध अवस्था के कारण उनका शरीर सिकुड गया था अथवा वे बैठी हुई सिद्ध हुई थी इसलिए अवगाहना कम हो गई थी टीकाकार का यह लिखना भी आगमानुकूल नहीं है, क्योंकि सिद्ध होने वाला जीव चाहे बैठा हुआ हो, सोया हुआ हो या आडा टेडा हो अथवा देव द्वारा संहरण करके समुद्र या कुएं तालाब आदि पानी में ऊपर से ऊँधा डाला जाता हुआ हो अर्थात् सिद्ध होने वाले जीव किसी भी अवस्था में हो किन्तु सिद्ध गति में जाते समय For Personal & Private Use Only Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०० उववाइय सुत्त आत्मा के प्रदेश मनुष्य के शरीर के आकार में खड़े हो जाते हैं। सब सिद्धों के आत्म प्रदेश खड़े मनुष्य के शरीर के आकार के होते हैं। . प्रश्न - सिद्ध भगवन्तों की मध्यम अवगाहना चार हाथ सोलह अंगुल कैसे समझना ? उत्तर - गाथा नं. ६ में सिद्ध भगवन्तों की जो यह मध्यम अवगाहना बताई है वह वास्तव में मध्यम अवगाहना नहीं है किन्तु तीर्थंकर भगवन्तों की अपेक्षा यह जघन्य अवगाहना है यह ऊपर के . गद्य पाठ से स्पष्ट हो जाता है क्योंकि वहाँ सिद्ध होने वाले जीव की जघन्य अवगाहना सात हाथ की बतलाई है। इसकी टीका में स्पष्ट कर दिया है कि यह जघन्य अवगाहना तीर्थंकर भगवन्तों की अपेक्षा समझनी चाहिए। प्रश्न - सिद्ध भगवन्तों की अवगाहना किस प्रकार बोलना चाहिये। उत्तर - सिद्ध भगवन्तों की अवगाहना में जघन्य अवगाहना दो प्रकार से बोलना चाहिये यथासामान्य केवलियों की अपेक्षा जघन्य अवगाहना एक हाथ आठ अंगुल और तीर्थंकर भगवन्तों की अपेक्षा जघन्य अवगाहना चार हाथ सोलह अंगुल तथा उत्कृष्ट अवगाहना ३३३ धनुष और ३२ अंगुल (३३३ धनुष १ हाथ और ८ अंगुल) होती है इस प्रकार सिद्ध भगवन्तों की अवगाहना बोलना चाहिये। प्रश्न - दो हाथ के अवगाहना वाले कौन सिद्ध हुये ? उत्तर - पण्णवणा सूत्रों आदि की टीका तथा प्रवचन सारोद्धार आदि ग्रन्थों में कूर्मापुत्र का उदाहरण दिया है जिनकी शरीर की अवगाहना दो हाथ थी। सिद्ध अवस्था में उनकी अवगाहना एक हाथ आठ अंगुल है। प्रश्न - तीर्थंकरों में जघन्य अवगाहना का उदाहरण कौनसा है ? उत्तर - अवसर्पिणी काल के अंतिम चौवीसवें तीर्थंकर और उत्सर्पिणी काल के प्रथम तीर्थंकर के शरीर की अवगाहना सात हाथ की होती है। सिद्ध अवस्था में उनकी अवगाहना चार हाथ सोलह अंगुल होती है। श्रमण भगवान् महावीर स्वामी की सिद्ध अवस्था की अवगाहना चार हाथ सोलह अंगुल है। प्रश्न - उत्कृष्ट अवगाहना का उदाहरण क्या है ? उत्तर - अवसर्पिणी काल के प्रथम तीर्थंकर और उत्सर्पिणी काल के चौवीसवें तीर्थंकर के शरीर की अवगाहना तथा पांचों महाविदेह क्षेत्र के सभी तीर्थंकरों के शरीर की अवगाहना ५०० धनुष की होती है तथा सामान्य केवलियों की उत्कृष्ट अवगाहना ५०० धनुष की हो सकती है। जैसे कि-भगवान् ऋषभदेव के पुत्र भरत-बाहुबली आदि सौ पुत्रों की अवगाहना ५०० धनुष की थी। For Personal & Private Use Only Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्ध-स्तवना २०१ । पल गया प्रश्न - मरुदेवी माता और नाभिराजा के शरीर की अवगाहना कितनी थी ? उत्तर - मरुदेवी माता के शरीर की अवगाहना ५०० धनुष की थी। नाभिराजा को कुलकर माना है इसलिए ग्रन्थकार उनके शरीर की अवगाहना ५२५ धनुष लिखते हैं। प्रश्न - नाभिकुलकर का आयुष्य कितना था और वे काल धर्म को प्राप्त कर कहां गये थे? उत्तर - नाभिकुलकर का आयुष्य एक करोड़ पूर्व से कुछ अधिक था और वे कुलकर रूप युगलिक थे। इसलिए काल करके वे देवलोक में गये अर्थात् भवनपति देवों में उत्पन्न हुये थे। वहाँ का आयुष्य पूरा करके मनुष्य रूप से उत्पन्न हुये और दीक्षा लेकर संयम का पालन करके भगवान् ऋषभदेव के शासन में ही मोक्ष में पधार गये। प्रश्न - मरुदेवी माता का आयुष्य कितना था और उनकी शरीर की ऊँचाई कितनी थी। वे काल करके कहाँ गये? उत्तर - मरुदेवी माता का आयुष्य एक करोड़ पूर्व था। उनके शरीर की ऊंचाई ५०० धनुष की थी। भगवान् ऋषभदेव को केवलज्ञान होने के एक अन्तर्मुहूर्त पहले केवलज्ञान प्राप्त कर तत्काल मोक्ष चले गये। प्रश्न - मरुदेवी माता के लिए टीकाकार का लिखना यह है कि - "मरुदेवी तु आश्चर्यकल्पाइत्येवमपि न विरोधः। सो क्या यह कहना ठीक है? उत्तर - टीकाकार का उपरोक्त कथन ठीक नहीं है। क्योंकि मरुदेवी माता का मोक्षगमन आश्चर्य रूप नहीं है। स्थानांग सूत्र के दसवें ठाणे में दस आश्चर्य बताये गये हैं। उनमें मरुदेवी माता का मोक्ष गमन आश्चर्य नहीं बतलाया है और यह आश्चर्य है भी नहीं क्योंकि पण्णवणा सूत्र के प्रथम पद में सिद्धों के पन्द्रह भेद बताये हैं उसमें स्त्री लिंग सिद्ध भी बतलाया गया है। श्वेताम्बर परम्परा में स्त्री का मोक्ष गमन निराबाध रूप से मान्य है। प्रश्न-क्या दिगम्बर सम्प्रदाय स्त्री की मुक्ति नहीं मानता है ? उत्तर - हाँ ! दिगम्बर सम्प्रदाय स्त्री की मुक्ति नहीं मानता है, किन्तु उनके मान्य ग्रन्थों में स्त्री क मोक्ष बतलाया गया है यथा श्री मन्नेमिचन्द्र सैद्धान्तिकचक्रवर्तिविरचित गोम्मटसार (जीवकाण्ड) पण्डित खूबचन्द जी जैन द्वारा रचित संस्कृत छाया तथा बालबोधिनी टीकासहित For Personal & Private Use Only Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०२ उववाइय सुत्त होति खवा इगिसमये, बोहियबुद्धा य पुरिसवेदा य। उक्कस्सेणट्ठत्तरसयप्पमा सग्गदो य चुदा॥ पत्तेयबुद्धतित्थयरस्थिणंउसयमणोहिणाणजुदा। दसछक्कवीसदसवीसट्ठावीसं जहाकमसो॥ जेट्ठावरबहुमझिम, ओगाहणगा दुचारि अद्वेव। जुगवं हवंति खवगा, उवसमगा अद्धमेदेसिं॥ अर्थ - युगपत्-एक समय में क्षपक श्रेणि वाले जीव अधिक से अधिक होते हैं तो कितने होते हैं ? इसका प्रमाण इस प्रकार है कि बोधित बुद्ध एक सौ आठ, पुरुष वेदी एक सौ आठ, स्वर्ग से च्युत होकर मनुष्य होकर क्षपक श्रेणि मांडने वाले एक सौ आठ, प्रत्येक बुद्ध ऋद्धि के धारक दश, तीर्थंकर । छह, स्त्रीवेदी बीस, नपुंसकवेदी दश, मनःपर्यवज्ञानी बीस, अवधिज्ञानी अट्ठाईस, मुक्त होने के योग्य शरीर की उत्कृष्ट अवगाहना के धारक दो, जघन्य अवगाहना के धारक चार, समस्त अवगाहनाओं की मध्यवर्ती अवगाहना के धारक आठ। ये सब मिलकर चार सौ बत्तीस होते हैं। उपशमश्रेणि वाले इसके : आधे (२१६) होते हैं। ओगाहणाए सिद्धा, भवत्तिभागेण होइ परिहीणा। संठाणमणित्थंथं, जरामरणविप्पमुक्काणं॥८॥ भावार्थ - सिद्ध अन्तिम भव की अवगाहना से तीसरे भाग जितनी कम अवगाहनां वाले होते हैं। जरा और मरण से बिलकुल मुक्तों का आकार किसी भी लौकिक आकार से नहीं मिलता है-इत्थं-इस प्रकार-थं-स्थित, अणित्यंथं-इस प्रकार के आकारों में नहीं रहा हुआ हो ऐसा। विवेचन - जीव के न्यग्रोध परिमण्डल आदि छह संस्थान बताये गये हैं। इन छह संस्थानों में से किसी भी संस्थान में रहा हुआ जीव इत्थंस्थ (इस प्रकार का) आकार वाला कहलाता है। सिद्ध भगवन्तों में इन छह संस्थानों में से कोई भी संस्थान नहीं है। इसलिए उनका संस्थान "अन्+इत्थंस्थ-अनित्यंस्थ" कहलाता है जैसा कि वनस्पति का एक प्रकार का संस्थान नहीं होने से उसका संस्थान भी अनित्थंस्थ कहलाता है। जत्थ य एगो सिद्धो, तत्थ अणंता भवक्खयविमुक्का। अण्णोण्णसमवगाढा, पुट्ठा सव्वे य लोगंते॥९॥ भावार्थ - जहाँ एक सिद्ध है, वहाँ भव के क्षय से विमुक्त, धर्मास्तिकायादिवत् अचिन्त्य परिणामत्व से परस्पर अवगाढ़ अनन्त सिद्ध हैं और सब लोकान्त का अर्थात् लोकाग्र भाग का स्पर्श किये हुए हैं। For Personal & Private Use Only Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्ध-स्तवना फुसइ अणंते सिद्धे, सव्व पएसेहिं नियमसो सिद्धा । ते व असंखेज्जगुणा, देसपएसेर्हि जे पुट्ठा ॥ १० ॥ भावार्थ सिद्ध, निश्चय ही सम्पूर्ण आत्म-प्रदेशों से अनन्त सिद्धों का स्पर्श करते हैं और उन सर्वात्म प्रदेशों से स्पृष्ट सिद्धों से असंखेय गुण वे सिद्ध हैं जो देश प्रदेशों से स्पृष्ट हैं। 1 विवेचन - एक-एक सिद्ध समस्त आत्म-प्रदेशों द्वारा अनन्त सिद्धों का सम्पूर्ण रूप से स्पर्श किये हुए हैं इस प्रकार एक सिद्ध की अवगाहना में अनन्त सिद्धों की अवगाहना रही हुई है और एक में अनन्त अवगाढ हो जाते हैं, उनसे भी असंख्यात गुण सिद्ध ऐसे हैं जो देशों और प्रदेशों कितनेक भागों से एक दूसरे में अवगाढ हैं तात्पर्य यह है कि अनन्त सिद्ध तो ऐसे हैं जो पूरी तरह एक दूसरे में समाये हुए हैं और उनसे भी असंख्यात गुण सिद्ध ऐसे हैं जो देश प्रदेशों से अर्थात् कतिपय अंशों में एक दूसरे में समाये हुए हैं। २०३ सिद्ध भगवान् अरूपी अमूर्त होने के कारण उनकी एक दूसरे में अवगाहना होने में किसी प्रकार की बाधा उत्पन्न नहीं होती है। जिस प्रकार अनेक दीपकों की ज्योति एक दूसरे में समाई हुई होती है, उसी प्रकार सिद्ध भगवान् भी ज्योति में ज्योति स्वरूप विराजमान हैं। असरीरा जीवघणा, उवउत्ता दंसणे य णाणे य । सागारमणागारं, लक्खणमेयं तु सिद्धाणं ॥ ११ ॥ भावार्थ- वे सिद्ध अशरीरी, जीवघन और दर्शन तथा ज्ञान- इन दोनों उपयोगों में क्रमशः स्थित हैं। साकार विशेष उपयोग ज्ञान और अनाकार - सामान्य उपयोग-दर्शन चेतना - सिद्धों का लक्षण है। विवेचन - वस्तु के भेदयुक्त ज्ञान को साकार उपयोग कहते हैं और वस्तु के अभेदज्ञान को अनाकार उपयोग । सिद्धान्तपक्ष इन दोनों उपयोगों की प्रवृत्ति सिद्धों में भी क्रमशः मानता है। इस पक्ष के पोषक जिनभद्रगणि आदि आचार्य हैं। कुछ आचार्य दोनों उपयोगों को युगपद् मानते हैं और सिद्धसेन दिवाकर तर्कबल से इस मत की स्थापना करते हैं कि- ज्ञानोपयोग और दर्शनोपयोग में, केवली अवस्था में किसी प्रकार का भेद नहीं है। दिगम्बर सम्प्रदाय में युगपद् उपयोग का ही प्रतिपादन है। स्थानकवासी सम्प्रदाय सिद्धांतपक्ष को ही मान्यता देता है । सैद्धांतिकों की दृष्टि में- 'जानने में प्रवृत्त होना' और 'देखने में प्रवृत्त होना' अर्थात् 'विशेष ज्ञानोपयोग की स्थिति' और 'सामान्य ज्ञानोपयोग की स्थिति' - ये आत्मा के एक ही गुण की दो पर्यायें हैं। पर्यायें क्रमवर्ती ही हो सकती हैं । अतः सिद्धों को भी विशेषज्ञान और सामान्यज्ञान क्रमशः ही होते हैं। साकार और अनाकार उपयोग ही सिद्धों का लक्षण है। For Personal & Private Use Only Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०४ उववाइय सुत्त केवलणाणुवउत्ता, जाणंति सव्वभावगुणभावे । पासंति सव्वओ खलु केवलदिट्ठी अणंताहिं ॥ १२ ॥ भावार्थ - केवलज्ञानोपयोग से सभी वस्तुओं के गुण और पर्यायों को जानते हैं और अ केवलदृष्टि से सर्वतः - चारों ओर से देखते हैं । विवेचन - (अ) इस गाथा के द्वारा केवलज्ञान और केवलदर्शन का भेद स्पष्ट किया गया है। जब पदार्थों को सर्वतः देखा जाता है, तब वे पदार्थ सावयव होते हुए भी अभिन्न रूप से दिखाई देते हैं और जब उनके गुणादि की ओर दृष्टि रहती है, तब उनमें भेद ही भेद दिखाई देता है। (आ) द्रव्य - गुण और पर्याय का आश्रय । गुण-पदार्थव्यापी अंश अर्थात् पदार्थव्यापी ऐसा अंश, जो वैसे ही अन्य अंशों के साथ पदार्थ में अविरोधी रूप से रहता है। पर्याय- पदार्थ की क्रमवर्ती अवस्था । (इ) सिद्ध अन्तर्मुखही होते हैं - बहिर्मुख नहीं। यह जो सर्व द्रव्यादि का ज्ञान होता है, वह उनकी अन्तर्मुखता के कारण ही होता है। आत्मा तो स्व- उपयोग का ही स्वामी है। अर्थात् स्व-उपयोग की लीनता में ही यह विशेषता है कि उसमें सभी द्रव्यादि का ज्ञान स्वतः होता है। आगम काल के पश्चात् जो ये भेद हुए हैं कि केवली व्यवहार दृष्टि से ही सर्व द्रव्यादि को जानता है और निश्चयदृष्टि सेतो अपनी आत्मा को ही जानता है - वे मात्र समझने के लिये ही है। वस्तुतः स्व-उपयोग में व्यवहारनिश्चय रूप भिन्न दृष्टियों से कोई विशेष अन्तर नहीं है। वि अत्थि माणुसणं, तं सोक्खं ण वि य सव्वदेवाणं । जं सिद्धाणं सोक्खं, अव्वाबाहं उवगयाणं ॥ १३॥ भावार्थ- न तो मनुष्यों को ही वह सुखानुभव है और न सभी देवों को ही, जो सौख्य अव्याबाध-बाधा-पीड़ा रहित अवस्था को प्राप्त सिद्धों को है। जं देवाणं सोक्खं, सव्वद्धापिंडियं अनंतगुणं । णय पावइ मुत्तिसुहं, ताहिं वग्गवग्गूहिं ॥ १४ ॥ भावार्थ - तीनों काल से गुणित जो देवों का सौख्य है, उसे अनन्त बार वर्गवर्गित किया जाय, ऐसा वह अनन्तगुण सौख्य मुक्तिसौख्य के बराबर नहीं हो सकता है। विवेचन - जितनी संख्या हो, उतनी संख्या से गुणित करने पर जो गुणनफल आता है, उसे वर्ग कहा जाता है। जैसे-दो से दो को गुणित करने पर 'चार' वर्ग हुआ। जो उस वर्ग का भी वर्ग हो, उसे For Personal & Private Use Only Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्ध-स्तवना mom........................... वर्गवर्ग कहते हैं। जैसे-दो का वर्ग चार और चार का वर्ग सोलह। ऐसे अनन्त बार वर्गवर्गित देवों का सुख, सिद्धों के सौख्य के तुल्य नहीं हो सकता। चूर्णिकार ने-'णन्ताहि.....' पद का सम्बन्ध 'मुत्तिसुहं' के साथ जोड़कर यह अर्थ किया हैअनन्त खण्ड खण्डों से खण्डित सिद्धसख-अर्थात सिद्धों के सख के अनन्तानन्ततम खण्ड की समता भी, देवों का सर्वकालिक सुख, नहीं कर सकता है। क्योंकि देवों का सुख पौद्गलिक सुख से मिश्रित है। जबकि सिद्धों का सुख विशुद्ध आत्मिक है। सिद्धस्स सुहो रासी, सव्वद्धापिंडिओ जइ हवेजा। सोऽणंतवग्गभइओ, सव्वागासे ण माएजा॥१५॥ भावार्थ - एक सिद्ध के सुख को तीनों काल से गुणित करने पर जो सुख की राशि हो, उसे अनन्तवर्ग से भाजित करने पर जो सुख की राशि उपलब्ध होती है, वह सुखराशि भी सम्पूर्ण आकाश में नहीं समा सकती। विवेचन - यहाँ विशिष्ट आह्लाद रूप सुख ग्रहण किया है। शिष्टजनों की सुख शब्द की प्रवृत्ति जिसके लिये होती है, उस आह्लाद की अवधि करके वहाँ से आरम्भ करके, एक-एक गुण की वृद्धि के तारतम्य के द्वारा, उस आह्लाद की यहाँ तक वृद्धि करे कि वह अनन्तगुण वृद्धि के द्वारा निरतिशय निष्ठा को प्राप्त हो जाय अर्थात् कल्पनातीत राशि हो जाय। ऐसा वह अत्यन्त, उपमा से रहित और ऐकान्तिक औत्सुक्य निवृत्ति रूप, निश्चलतम महोदधि के समान चरम आह्लाद ही सिद्धों के सदा होता है। उस प्रथम चार से-संभवतः सुखानुभव के पहले स्तर से ऊपर तक के अन्तरालवर्ती आह्लाद के तारतम्य के द्वारा जो विशेष-विशेष रूप से स्तर बनते हैं, वे समस्त आकाश प्रदेशों से भी अधिक होते हैं। अत: कहा-'सव्वागासे ण माएजा'। यदि अन्यथा हो तो उनकी प्रतिनियत देश में अवस्थिति किस प्रकार हो सकती है-यों आचार्य कहते हैं। इस गाथा का वृद्धोक्त विवरण का यह आशय है-'यह जो सखभेद है, वे सिद्ध सख के पर्यायरूप से कहे गये हैं। उस अपेक्षा से क्रम से उत्कृष्ट करते हुए उस सुख के भेद को उपचार से अनन्ततम स्थानवर्तिता की प्राप्ति होती है। असद्भाव स्थापना से उस सुखराशि को हजार मान लिया जाय और समयराशि को सौ। हजार को सौ से गुणित किया तो लाख हुए। यह गुणन किया गया-सर्व समय संबंधी सुख पर्यायों की उपलब्धि के लिए तथा अनंत राशि को 'दश' से मान लिया। उसका वर्ग हुआ सौ। वर्ग से प्राप्त संख्या सौ के द्वारा लक्ष को अपवर्तित किया तो हजार ही हुए। अतः पूज्यों ने कहा'समीभूत-तुल्यरूप ही है-यह आशय है।' यहाँ जो यह सुखराशि का गुणन और अपवर्तन हुआ है, For Personal & Private Use Only Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०६ उववाइय सुत्त उसकी हम इस प्रकार संभावना करते हैं, कि-यहाँ अनन्त राशि से गुणित होने पर भी-अनन्तवर्ग अर्थात् अनन्तानन्त रूप अतीव महास्वरूप से अपवर्तित होने पर, किंचिद् अवशेष रहता है, वह राशि भी अति महान् है। उससे भी सिद्धों की सुखराशि महान् है-ऐसी बुद्धि शिष्य में उत्पन्न करने के लिये अथवा गणितमार्ग से व्युत्पत्ति करने के लिये-यह प्रयास है। अन्य इस गाथा की व्याख्या इस प्रकार करते हैं-सिद्ध के सुखों की पर्यायराशि xxx जो सर्वसमयों से सम्बन्धित है, उसे सङ्कलित की-उस सङ्कलित राशि को अनन्तबार वर्गमूल से अपवर्तित की अर्थात् अत्यन्त लघु बनाई। जैसे-सर्वसमय सम्बन्धी सिद्धों की सुखराशि ६५५३६ है। इसे वर्ग से अपवर्तित करने पर २६६ हुई। वह स्ववर्ग से अपवर्गित होने पर १६, सोलह से चार और चार से दोयह अतिलघु राशि प्राप्त हुई। वह भी सम्पूर्ण आकाश प्रदेशों में भी नहीं समा सकती है। जह णाम कोइ मिच्छो, णगरगुणे बहुविहे वियाणंतो। ण चएइ परिकहेउं, उवमाए तहिं असंतीए॥१६॥ भावार्थ - जैसे कोई म्लेच्छ-जंगली मनुष्य बहुत तरह के नगर के गुणों को जानते हुए भी, वहाँ-जंगल में-नगर के तुल्य कोई पदार्थ नहीं होने से, नगर के गुणों को कहने में समर्थ नहीं हो सकता है। इय सिद्धाणं सोक्खं, अणोवमं णस्थि तस्स ओवम्म। किंचि विसेसेणेत्तो, ओवम्ममिणं सुणह वोच्छं॥१७॥ भावार्थ - वैसे ही सिद्धों का सुख अनुपम है। यहाँ उसकी बराबरी का कोई पदार्थ नहीं है। फिर भी कुछ विशेष रूप से उसकी उपमा कहता हूँ-सो सुनो। विवेचन - म्लेच्छः कोऽपि महारण्ये, वसति स्म निराकुलः। अन्यदा तत्र भूपालो, दुष्टाश्वेन प्रवेशितः॥१॥ म्लेच्छेनासौ नृपो दृष्टः, सत्कृतश्च यथोचितम्। प्रापितश्च निजं देशं, सोऽपि राज्ञा निजं पुरम्॥२॥ ममायमुपकारीति, कृतो राज्ञाऽतिगौरवात्। विशिष्टभोगभूतीनां भाजनं जनपूजितः॥३॥ ततः प्रासादभंगेषु, रम्येषु, काननेषु च। वृत्तो विलासिनीसाथै क्ते भोगसुखान्यसौ॥४॥ For Personal & Private Use Only Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्ध-स्तवना अन्यदा प्रावृषः प्राप्तौ मेघाडम्बर मण्डितम् । व्योम दृष्ट्वा ध्वनिं श्रुत्वा, मेघानां स मनोहरम् ॥ ५॥ जातोत्कण्ठो दृढं जातो ऽरण्यवासगमं प्रति । विसर्जितश्च राज्ञाऽपि प्राप्तोऽरण्यमसौ ततः ॥ ६ ॥ पृच्छन्त्यरण्यवासास्तं, नगरं तात ! कीदृशम् ? । स स्वभावान् पुरः सर्वानु, जानात्येव हि केवलम् ॥ ७ ॥ न शशाक तकां (तरां) तेषां गदितुं स कृतोद्यमः । वने वनेचराणां हि नास्ति सिद्धोपमा यतः ( तथा ) ॥ ८ ॥ भावार्थ - एक म्लेच्छ किसी महारण्य में रहता था। राजा दुष्ट अश्व के द्वारा वहाँ पहुँच गया अर्थात् जंगल को प्राप्त हो गया ॥ १ ॥ उस म्लेच्छ ने राजा को देखा और उसका यथोचित सत्कार किया। जब वह राजा स्वदेश को लौटा तो उस म्लेच्छ को भी साथ ले गया ॥ २ ॥ राजा ने अपना उपकारी जानकर, उसे विशिष्ट भोग साधन दिये और उसे जन-पूजित बनाया ॥ ३ ॥ उसने प्रासादशिखरों पर और रम्य बगीचों में विलासिनियों से घिरे रह कर, भोगसुखों को भोगा ।। ४ ॥ वर्षा ऋतु आई। बादलों से गगन मण्डित हो गया। वह आकाश को देख कर और मनोहर मेघध्वनि को सुन कर, अरण्य में जाने के लिये उत्सुक हुआ। राजा ने भी उसे विसर्जित किया और वह जंगल में गया ।। ५ ॥६ ॥ जंगल निवासी उसे पूछते हैं- 'तात ! नगर कैसा है ?' वह नगर के सभी स्वभावों को जानता है ही । किन्तु उद्यम करने पर भी, वह वन में वनचरों को कहने में समर्थ नहीं हो सका। ऐसे ही सिद्ध की उपमा भी नहीं है ॥ ७ ॥८ ॥ २०७ ..... जह सव्वकामगुणियं, पुरिसो भोत्तूण भोयणं कोइ । तण्हा-छुहा- विमुक्को, अच्छेज्ज जहा अमियतित्तो ॥ १८ ॥ भावार्थ - जैसे कि कोई पुरुष सभी इच्छित गुणों से युक्त भोजन को करके, भूख-प्यास से रहित होकर, जैसे अमित तृप्त-विषयों की प्राप्ति हो जाने से, उत्सुकता की निवृत्ति से उत्पन्न प्रसन्नता से युक्त हो जाता है। इंय सव्वकालतित्ता, अतुलं णिव्वाणमुवगया सिद्धा । सासय मव्वाबाहं, चिट्ठति सुही सुहं पत्ता ॥ १९ ॥ को भावार्थ- वैसे ही सर्वकाल तृप्त, अतुल शान्ति को प्राप्त सिद्ध शाश्वत और अव्याबाध सुख प्राप्त होकर सुखी होकर स्थित रहते हैं । For Personal & Private Use Only Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०८ उववाइय सुत्त विवेचन - वहाँ केवल दुःख की निवृत्ति मात्र ही है-ऐसी बात नहीं है। किन्तु वहाँ सुखानुभव भी है। यही इस गाथा में प्रतिपादित हुआ है। सिद्धत्तिय, बुद्धत्तिय, पारगयत्ति य परंपरगयत्ति । उम्मुक्ककम्मकवया, अजरा अमरा असंगा य ॥२०॥ भावार्थ - वे सिद्ध-कृतकृत्य हैं। बुद्ध-केवलज्ञान से सम्पूर्ण विश्व को जानने वाले हैं। पारगतभव-सागर से पार पहुँचे हुए हैं। परम्परागत-क्रम से प्राप्त मुक्ति के उपायों के द्वारा पार पहुँचे हुए हैं। उन्मुक्त कर्म कवच- समस्त कर्मों से मुक्त हैं। अजर- बुढ़ापे से रहित हैं। अमर-मरण से रहित हैं और असंग सभी क्लेशों से रहित हैं। णिच्छिण्ण- सव्व- दुक्खा, जाइजरामरणबंधणविमुक्का । अव्वाबाहं सुक्खं, अणुहोंति सासयं सिद्धा ॥ २१ ॥ भावार्थ सिद्ध, सभी दुःखों से रहित होकर, जन्म, जरा, मरण और बन्धन से अव्याबाध शाश्वत सुख का अनुभव करते हैं। अतुलसुहसागरगया, अव्वाबाहं अणोवमं पत्ता । सव्वमणागयमद्धं, चिट्ठति सुही सुहं पत्ता ॥ २२ ॥ भावार्थ- बाधा - पीडा से रहित अनुपम अवस्था को प्राप्त होकर समस्त अनागत काल सम्बन्धी सुख को पाकर और अतुल सुखसागर में लीन बन कर वे सुखी आत्मा स्थित रहते हैं । अर्थात् विभाववेदन - बाधा का आत्यन्तिक अभाव हुआ, अतः स्व- द्रव्य के सिवाय अन्यत्र दुर्लभ है ऐसी अवस्थाअनुपम प्राप्त हुई। किन्तु विभाव-वेदन का अभाव होने पर, वेदनमात्र का अभाव नहीं होता हैस्वभाव-वेदन का अस्तित्त्व - सुही रहता है। वह स्वभाव-वेदन क्षणिक नहीं, किन्तु समस्त अनागत काल में स्थित रहता है। अतः वहाँ आत्मा आनन्द-घन हो जाता है। ॥ इइ उववाइयसुत्तं समत्तं ॥ शुभं भूयात् For Personal & Private Use Only मुक्त होकर, Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशेष २०९ परिशेष 'उववाइय' सुत्त के विषय का अन्यत्र वर्णनतपोवर्णनविवाहपण्णत्ती स. २५, उ. ७। स. १३, उ. ८ आदि। उत्तरज्झयण सुत्त अ. ३० ठाणंग सुत्त-विभिन्न 'ठाणों' में यथा-ध्यान वर्णन ठा. ४ उ. १। 'मणविणय' आदि तपों का वर्णन ठा. ७ आदि। समवायंग-सम. १२॥ चार गति के कारणों का वर्णन- ठाणांग ठा. ४, उ. ४। अम्बड और अम्बड के शिष्य- विवाहपण्णत्ती स. १४, उ. ८ निह्नव - 'ठाणंग ठा. ७ परलोक के आराधक-विराधक - विवाहपण्णत्ती स. १, उ. २ योग-निरोध और 'अफुसमाणगई" -उत्तरज्झयण सुत्त २९ अ० सिद्ध-स्तवना - उत्तरज्झयणसुत्त अ० ३६ । For Personal & Private Use Only Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१० उववाइय सुत्त (२) वर्णन भेद विवाहपण्णत्ती स. १३, उ. ८ में 'पंडियमरण' के भेद बताते हुए, 'आवकहिय' अनशन के . 'पाओवगमण' और 'भत्त-पच्चक्खाण'-इन दो भेदों के 'णीहारिमे य अणीहारिमे य'- ये दो भेद किये गये हैं। उत्तरज्झयण ३० वें अ० में 'सवियार' और 'अवियार' ये दो भेद किये गये हैं और 'नीहारि' और 'अनीहारि'-ये भेद भी गिनाये गये हैं। - गा. १२। १३ 'अवमोदरिया' तप के वर्णन में भी भेद है। - उ. ३० । १४ से २४ गा० 'मणविणय' तप का वर्णन ठाणंगसुत्त ठा. ७ में इस प्रकार हुआ है। पसत्थ मणविणए सत्तविहे. . प० तं.-अपावए, असावज्जे, अकिरिए, निरुवक्केसे, अणण्हयकरे, अच्छविकरे, अभूयाभिसंकणे। अपसत्थमणविणए सत्तविहे प० तं-पावए, सावजे, किरिए, उवक्केसे, अण्हयकरे, छविकरे, भूयाभिसंकणे। 'विवाहपण्णत्ती' स. २५ उ. ७ में वर्णन भेद 'मन: योगप्रतिसंलीनता' में इतना विशेष है-'मणस्स एगत्तीभावकरणं'। इसी प्रकार वचन यो० में भी-'वईए वि...... काययोग प्रति० में भी कुछ शाब्दिक अन्तर है। 'मणविणय' से किं तं मणविणए ? - पसत्थमणविणए य अपसत्थ मणविणए य। से किं तं पसत्थमण...? - सत्तविहे. प.तं. अपावए, असावज्जे, अकिरिए, णिरुवक्कमे, अ..... अपसत्थ म० सत्तविहे प० तं.-पावए, सावजे, सकिरिए, सउवक्कोसे, अण्हयकरे, छविकरे, भूताभिसंकणे। से तं अ...। ध्यानवर्णन में 'ठाणंग' गत भेदआर्तध्यान के लक्षण में 'विलवणया' की जगह 'परिदेवणया'। धर्मध्यान के लक्षण में क्रमभेद और 'उवएसरुई' के स्थान पर 'ओगाढरुई'। धर्मध्यान के आलम्बन में 'धम्मकहा' के स्थान पर 'अणुप्पेहा'। धर्मध्यान की अनुप्रेक्षा में क्रमभेद। शुक्लध्यान के भेदों में-'सुहुमकिरिए अप्पडिवाई' के स्थान पर 'सुहुमकिरिए अणियट्टी' और 'सुमुच्छिन्नकिरिए अणियट्टी' के स्थान पर 'समुकिरिय अप्पडिवाती'। शुक्लध्यान की अनुप्रेक्षा में क्रमभेद। - ठाणंग ४१ तिर्यञ्चगति के बन्ध के कारणों में 'उदकंचणयाए वंचणयाए' के स्थान पर 'कूडतोलकूडमाणेणं। - ठाणंग ४।४। For Personal & Private Use Only Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बाह्य दृष्टियाँ १. भाषा - गत २. शैली - गत ३. इतिहास - गत (३) 'उववाइय' के विषय में विभिन्न दृष्टियाँ (अ) तत्कालीन नागरिक सभ्यता (आ) तत्कालीन शासक की स्थिति (इ) तत्कालीन शासन की स्थिति (ई) तत्कालीन धार्मिक स्थिति (उ) (ऊ) तत्कालीन व्यायाम - अभ्यंगनादि शरीर शास्त्र से सम्बन्धित पद्धतियाँ तत्कालीन वस्त्र - अलङ्कार (ए) तत्कालीन शिक्षण-पद्धति (ऐ) तत्कालीन विद्या-वैभव (ओ) तत्कालीन सामाजिक दृष्टि (औ) तत्कालीन उद्यान, वास्तु आदि से संबंधित कलाएँ । (अं) तत्कालीन दार्शनिक मतभेद आदि । आभ्यन्तर दृष्टियाँ (१) ध्यान-पद्धति का प्रयोगात्मक शास्त्र (२) देव, गुरु और धर्म की व्याख्या (३) अन्तर - वृत्तियों का विश्लेषण आदि । For Personal & Private Use Only २११ Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ܘܘܕܘܐ १५-०० श्री अखिल भारतीय सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ, जोधपुर आगम बत्तीसी प्रकाशन योजना के अन्तर्गत प्रकाशित आगम अंग सूत्र क्रं. नाम आगम मूल्य १. आचारांग सूत्र भाग-१-२ ५५-०० २. सूयगडांग सूत्र भाग-१,२ ४५-०० ३. स्थानांग सूत्र भाग-१, २ ६०.०० ४. समवायांग सूत्र .. २५-०९ ५. भगवती सूत्र भाग १-७ ३००-०० ६. ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र भाग-१, २ ८०-०० ७. उपासकदशांग सूत्र ८. अनुत्तरोपपातिक दशा सूत्र ६. प्रश्नव्याकरण सूत्र ३५-०० १०. विपाक सूत्र उपांग सूत्र १. उववाइय सुत्त २. राजप्रश्नीय सूत्र २५-०० ३. जीवाजीवाभिगम सूत्र भाग-१,२ . ८०-०० ४. प्रज्ञापना सूत्र भाग-१,२,३,४ १६०-०० ५-६. निरयावलिका (कल्पिका, कल्पवतंसिका, पुष्पिका २०-०० पुष्पचूलिका, वृष्णिदशा) १०. जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति ५०-०० मूल सूत्र १. नंदी सूत्र २५-०० । २. अनुयोगद्वार सूत्र ५०-०० शीघ्र प्रकाशित होने वाले आगम १. उत्तराध्ययनसूत्र ३०-००। २५.०० For Personal & Private Use Only Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ge 0212 SO Cura (eu) For Personal & Private Use Only