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________________ १७० उववाइय सुत्त भूमिशय्या, फलकशय्या, काष्ठशय्या और परघर में प्रवेश जहाँ चाहे आहार मिला या नहीं मिला अथवा सन्मान सहित मिला या अपमान सहित मिला, हीलना - जन्म और कर्म के सम्बन्ध में तिरस्कार, निंदना-मन के द्वारा घृणा, खिंसना - लोगों के समक्ष घृणा, गर्हणा - अपने समक्ष ही बहुत से व्यक्तियों के बीच अपनी निंदा होना, तर्जना - अंगुली आदि बताते हुए या चटखाते हुए 'जानता है रे जाल्म !' इत्यादि कहना, ताडना— चपेटादि से पिटाई, परिभवना - पराभव, प्रव्यथना- लोगों के द्वारा उत्पन्न किये गये भय, इन्द्रियों के लिये उत्कृष्टतर दुःखकर बाईस परीषह-संयम मार्ग में चलते हुए आने वाले कष्ट और उपसर्गों-देवादि कृत सङ्कट को सहन कर, उस लक्ष्य की आराधना करके, अन्तिम उच्छ्वासनि:श्वास में सिद्ध होंगे, बुद्ध होंगे, मुक्त होंगे, परिनिर्वृत्त होंगे और सब दुःखों का अन्त करेंगे। प्रत्यनीक का यावत् उपपात ४१ - से जे इमे गामागर जाव सण्णिवेसेसु पव्वइया समणा भवंति । तं जहाआयरियपडिणीया उवज्झाय-पडिणीया कुलपडिणीया गणपडिणीया, आयरिय-. उवज्झायाणं अयसकारगा अवण्णकारंगा अकित्ति - कारगा । भावार्थ - वे जो ग्राम आदि में प्रव्रजित श्रमण होते हैं। जैसे- आचार्य के प्रत्यनीक - विरोधी, उपाध्याय के प्रत्यनीक, कुल के प्रत्यनीक और गण के प्रत्यनीक, आचार्य - उपाध्याय का अपयश करने वाले और अनादर करने वाले । बहूहिं असब्धावुब्भावणाहिं मिच्छत्ताभिणिवेसेहि य अप्पाणं च परं च तदुभयं च वुग्गामाणा वुप्पा - माणा विहरित्ता, बहूई वासाई सामण्णपरियागं पाउणंति । भावार्थ - वे - आचार्यादि के विरोधी असद्भाव के आरोपण अथवा उत्पादन और मिथ्याभिनिवेश के द्वारा अपने को, दूसरों को और स्व-पर को बुरी बात की पकड़ असत्य हठाग्रह में लगाते हुएअसद्भाव-अनहोनी बातों की आरोपण - कल्पना में मजबूत बनाते हुए, विचरण करके बहुत वर्षों तक श्रमण पर्याय का पालन करते हैं। पाउणित्ता तस्स ठाणस्स अणालोइय- अपडिक्कंता कालमासे कालं किच्चा उक्कोसेणं लंतए कप्पे देव - किब्बिसिएस देवकिब्बिसियत्ताए उववत्तारो भवंति । तर्हि तेसिं गई जाव तेरस सागरोवमाई ठिई जाव अणाराहगा । सेसं तं चेव ॥ १५ ॥ भावार्थ - श्रमण पर्याय का पालन करके उन दोषों का आलोचन - प्रतिक्रमण किये बिना ही, काल के समय में काल करके, उत्कृष्ट लान्तककल्प - छट्ठे स्वर्ग में देवकिल्विषिकों - चाण्डाल तुल्य देवों में किल्विषिक - साफ-सफाई करने वाले देव रूप से उत्पन्न होते हैं। उनकी स्थिति तेरह सागरोपम की होती हैं। वे परलोक के आराधक नहीं होते हैं। शेष पूर्ववत् । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004190
Book TitleUvavaiya Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2005
Total Pages222
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aupapatik
File Size23 MB
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