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________________ अम्बड के भविष्य के भव १६९ और रूपरूपी रज से, लिप्त नहीं होगा, भोगरज-गंध, रस और स्पर्श रूप रज से और लिप्त नहीं होगा मित्र, सजातीय, भाई-बेटे-णियग, स्वजन-मामा आदि, सम्बन्धी-श्वसुरादि और परिजन-दासी-दास आदि में। से णं तहारूवाणं थेराणं अंतिए केवलं बोहिं बुझिहिइ। बुज्झित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइहिइ। भावार्थ - वह तथारूप-जिन आज्ञावर्ती स्थविरों के समीप विशुद्ध सम्यग्-दर्शन-केवलबोधि का अनुभव करेगा यावत् फिर गृहवास से निकलकर अनगार बनेगा। से णं भविस्सइ अणगारे भगवंते इरियासमिए जाव गुत्त-बंभयारी। तस्स णं भगवंतस्स एएणं विहारेणं विहरमाणस्स अणंते अणुत्तरे णिव्वाघाए णिरावरणे कसिणे पडिपुण्णे केवलवरणाणदंसणे समुप्पजिहिइ। भावार्थ - वे अनगार भगवन्त हलन-चलन में यतनावान् यावत् ब्रह्मचर्य के रक्षक नियमों से युक्त ब्रह्मचारी-गुप्त-ब्रह्मचारी होंगे। ऐसी चर्या से विचरने वाले उन भगवन्त को अनन्त पदार्थों को विषय बनाने वाला-अनन्त, सर्वश्रेष्ठ-अनुत्तर, किसी भी प्रकार की रुकावट-भीत आदि या ओट में रहे हुए पदार्थों को भी जानने में समर्थ-णिव्वाघाय, आवरण से रहित, सकल अर्थों का ग्राहक-कसिण और अपने समस्त अंशों से युक्त-पडिपुण्ण श्रेष्ठ केवल समस्त निर्मल आत्म-प्रदेशों के द्वारा स्वतः ही होने वाला-ज्ञान-विशेष अवबोध और केवल दर्शन-सामान्य अवबोध उत्पन्न होगा। तए णं से दढपइण्णे केवली बहूई वासाइं केवलिपरियागं पाउणिहिइ। पाउणित्ता मासियाए संलेहणाए अप्पाणं झूसित्ता, सर्टि भत्ताइ अणसणाए छेएत्ता, जस्सट्टाए कीरइ णग्गभावे मुंडभावे अण्हाणए अदंतवणए केसलोए बंभचेरवासे अच्छत्तगं अणोहवाहणगं भूमिसेजा फलहसेजा कट्ठसेज्जा परघरपवेसो-लद्धावलद्धं परेहिं हीलणाओ खिंसणाओ णिंदणाओ गरहणाओ तज्जणाओ तालणाओ परि-भवणाओ पव्वहणाओ उच्चावया गामकंटगा बावीसं परीसहोवसग्गा अहियासिजंति, तमट्ठमाराहित्ता चरिमेहिं उस्सासणिस्सासेहिं सिज्झिहिइ, बुज्झिहिइ, मुच्चिहिइ, परिणिव्वाहिइ, सव्वदुक्खाणमंतं करेहिड्॥ १४ ॥ भावार्थ - वे 'दढपइण्ण' केवली बहुत वर्षों तक केवली अवस्था में विचरेंगे। फिर एक महीने की संलेखना के द्वारा अपने में आपको लीन करके अथवा अपने से ही आपको सेवित करके, भोजन के साठ भक्तों को बिना खाये-पीये ही काटकर, जिस लक्ष्य के लिए नग्नभाव स्वीकार किया था। मुण्डभाव-क्रोधादि दस प्रकार के मुण्डन को, अस्नान, अदन्तवन-दांत नहीं धोना, केशलोच-बालों को उखाड़ना, ब्रह्मचर्यवास-बाह्य-आभ्यन्तर आत्मसाधना, छत्र धारण नहीं करना, जूते नहीं पहनना, Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004190
Book TitleUvavaiya Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2005
Total Pages222
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aupapatik
File Size23 MB
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