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________________ संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यंच योनिकों का उपपात १७१ ___ संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च योनिकों का उपपात से जे इमे सण्णिपंचिंदियतिरिक्खजोणिया पजत्तया भवंति। तं जहा-जलयरा खहयरा थलयरा। भावार्थ - ये जो संज्ञी-मन वाले पञ्चेन्द्रिय-पांचों इन्द्रियों वाले तिर्यञ्च योनिक-पशु आदि पर्याप्तक होते हैं। जैसे-जलचर, खेचर और स्थलचर।। तेसि णं अत्थेगइयाणं सुभेणं परिणामेणं, पसत्थेहिं अज्झवसाणेहिं लेसाहिं विसुज्झमाणीहिं तयावरणिजाणं कम्माणं खओवसमेणं ईहावूहमग्गणगवेसणं करेमाणाणं सण्णीपुव्वजाइसरणे समुप्पजइ। - भावार्थ:- उनमें से कई जीवों को शुभ परिणाम, प्रशस्त अध्यवसाय और विशुद्ध लेश्या से तदावरणीय-पूर्वजन्म की स्मृति के आवारक कर्मों का क्षयोपशम होने से, पदार्थों को जानने में प्रवृत्त हुई बुद्धि और पदार्थों का निश्चयात्मक ज्ञान कराने वाली बुद्धि के द्वारा वस्तु के स्वकीय धर्मों के अस्तित्व और परकीय धर्मों के नास्तित्व रूप हेतु से, वस्तु तत्त्व का निर्णय करते हुए, मन वाले जीव के रूप में किये हुए पहले के भवों की स्मृति रूप जातिस्मरण ज्ञान उत्पन्न होता है। तए णं ते समुप्पण्णजाइसरणा समाणा सयमेव पंचाणुव्वयाइं पडिवजंति। पडिवजित्ता बहूहिं सीलव्वय-गुणवेरमण-पच्चक्खाणपोसहोववासेहिं अप्पाणं भावेमाणा बहूई वासाइं आउयं पालेंति। भावार्थ - तब जातिस्मरण ज्ञान के उत्पन्न होने पर, स्वयं ही पांच अणुव्रतों को स्वीकार करते हैं। स्वीकार करके बहुत-से शीलव्रत, गुणव्रत, विरमण, प्रत्याख्यान और पौषधोपवास से आत्मा को भावित करते हुए, बहुत वर्षों की आयुष्य का पालन करते हैं। ___पालित्ता भत्तं पच्चक्खंति। बहूई भत्ताइं अणसणाए छेयंति। छेइत्ता आलोइयपडिक्कंता समाहिपत्ता कालमासे कालं किच्चा, उक्कोसेणं सहस्सारे कप्ये देवत्ताए उववत्तारो भवंति। तहिं तेसिं गई जाव अट्ठारस सागरोवमाइं ठिई पण्णत्ता। परलोगस्स आराहगा। सेसं तं चेव॥१६॥ भावार्थ - बहुत वर्षों तक आयुष्य का पालन करके भक्त का प्रत्याख्यान करते हैं। प्रत्याख्यान करके बहुत से भोजन के भक्तों का छेदन करते हैं और दोषों की आलोचना प्रतिक्रमण करके, समाधि को प्राप्त करते हैं और काल के समय में काल करके, उत्कृष्ट सहस्रारकल्प-आठवें स्वर्ग में देव रूप से उत्पन्न होते हैं। उनके अठारह सागरोपम की स्थिति होती है। वे परलोक के आराधक होते हैं। शेष पूर्ववत्। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004190
Book TitleUvavaiya Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2005
Total Pages222
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aupapatik
File Size23 MB
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