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कोणिक राजा का परोक्ष वन्दन
तिरक - संसार समुद्र से तिर गये ।
तारक - भव्य जीवों को संसार समुद्र से तिरा कर पार पहुँचाने वाले।
बुद्ध - जीवादि तत्त्वों को संपूर्ण रूप से जानने वाले ।
बोधक- भव्य जीवों को तत्त्व का बोध देने वाले ।
मुक्त - बाह्य और आभ्यन्तर परिग्रह से मुक्त अथवा संसार के मूल ऐसे मोहनीय आदि घातकर्म
से मुक्त।
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मोचक - भव्य जीवों को मुक्त कराने वाले ।
सर्वज्ञ सर्वदर्शी - समस्त पदार्थों, उनकी सूक्ष्मातिसूक्ष्म अवस्थाओं- भूत भविष्य और वर्तमान की सभी अनन्तानन्त पर्यायों को विस्तार से और सामान्यरूप से जानने वाले ।
शिव-सभी प्रकार के उपद्रवों से रहित, अचल-स्थिर नीरोग, अनन्त, अक्षय अव्याबाध (बांधा पीड़ा से रहित) अपुनरावर्तित (जहाँ से फिर आना नहीं होता ऐसे) सिद्धिगति नाम वाले स्थान को प्राप्त (शुद्धात्मा) को नमस्कार हो ।
भावार्थ - - श्रमण भगवान् महावीर स्वामी- जो कि आदिकर, तीर्थङ्कर यावत् सिद्धिगति नाम वाले स्थान को पाने के इच्छुक - भावी सिद्ध हैं, मेरे धर्माचार्य और धर्मोपदेशक हैं उन्हें नमस्कार हो । यहाँ पर स्थित मैं वहाँ पर स्थित भगवान् की वन्दना नमस्कार करता हूँ। वहाँ पर स्थित भगवान् यहाँ पर स्थित मुझे देखें ।
इस प्रकार वह कोणिक राजा वन्दना - नमस्कार करता है ।
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वंदित्ता णमंसित्ता सीहासण - वर- गए पुरत्थाभिमुहे णिसीयइ । णिसीइत्ता तस्स पवित्तिवाउयस्स अट्टुत्तर सयसहस्सं पीइदाणं दलयइ । दलइत्ता सक्कारेइ सम्माणेइ । सबकारिता सम्माणित्ता एवं वयासी - 'जया णं देवाणुप्पिया ! समणे भगवं महावीरे इहमागच्छेज्जा-इह समोसरिज्जा, इहेव चंपाए णयरी बहिया पुण्णभद्दे चेइए अहम्पडिरूवं उग्गहं उग्गिणिहत्ता संजमेणं तवसा अप्पाणं भावमाणे विहरेज्जा, तया णं मम एयम णिवेदिज्जासि - तिकट्टु विसज्जिए ।
भावार्थ - वह वन्दना - नमस्कार करके, पूर्व की ओर मुख रखकर सिंहासन पर बैठा । उस प्रवृत्ति - निवेदक को एक लाख आठ हजार रजतमुद्रा का प्रीतिदान दिया, श्रेष्ठ वस्त्रादि से सत्कार किया, आदर - सूचक वचनों से सन्मान किया । पुनः इस प्रकार बोला- 'हे देवानुप्रिय ! जब श्रमण भगवान् महावीर यहाँ आवें- यहाँ समवसरें, इस चम्पा नगरी के बाहर पूर्णभद्र चैत्य में संयमियों के योग्य आवासस्थान को ग्रहण करके, संयम और तप से आत्मा को भांवित करते हुए विचरें, तब यह सूचना मुझे देना!'
इस प्रकार कह कर उस प्रवृत्ति - निवेदक को विसर्जित किया ।
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