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________________ भगवान् महावीर स्वामी की धर्म देशना १२९ "देवत्ताए' पद के द्वारा एकेन्द्रियादि रूप से उत्पन्न होने का निषेध होता है। महड्डिएसु जाव महासुक्खेसु दूरंगइएसु चिर- टिइएसु ते णं तत्थ देवा भवंतिमहड्डीए जाव चिरट्ठिइया हारविराइयवच्छा जाव पभासमाणा कप्पोवगा गइकल्लाणा आगमेसिभद्दा जाव पडिरूवा। भावार्थ - (वे देवलोक) महर्द्धिक यावत् महासौख्य वाले, अनुत्तर विमान तक की गति वाले (दूरंगतिक) और लम्बी स्थिति वाले हैं। वहाँ वे देव महर्द्धिक यावत् लम्बे आयुष्य वाले होते हैं। उनके वक्षस्थल हारों से सुशोभित होते हैं। यावत् वे अपनी देहप्रभा से दसों दिशा में प्रभा फैलाते हैं। वे देवलोक में उत्पन्न शुभ गति के धारक और भविष्य काल में भद्र (निर्वाण लक्षणात्मक) अवस्था को प्राप्त करने वाले यावत् प्रतिरूप होते हैं। विवेचन - इस 'सूत्र' में चार बार 'जाव' शब्द से पाठ को संक्षिप्त किया गया है। पहली बार के जाव से 'महज्जुइएसु महाबलेसु महायसेसु महाणुभागेसु', दूसरी बार के जाव' से-पूर्ववत्, तीसरी बार के जाव' से-'कडयतुडियर्थभियभुया अंगयकुंडलमट्ठगंडकण्णपीठधारी विचित्तहत्थाभरणा दिव्वेणं संघाएणं दिव्वेणं संठाणेणं दिव्याए इडीए दिव्वाए जुईए दिव्याए पभाए दिव्वाए छायाए दिव्वाए अच्चीए दिव्येणं तेएणं दिव्वाए लेसाए दस दिसाओ उज्जोवेमाणा' और चौथी बार के 'जाव' से 'पासाईया दरिसणिज्जा अभिरूवा' पदों का संग्रह किया गया है। इन शब्दों का अर्थ पहले कर दिया गया है। तमाइक्खइ। एवं खलु चाहिं ठाणेहिं जीवा जेरइयत्ताए कम्मं पकरंति। णेरइत्ताए कम्मं पकरेत्ता जेरइस उववज्जति। भावाथ - (निर्ग्रन्थ प्रवचन के फलकथन का उपसंहार करते हुए कहा गया कि-) यह उसका फल है। (भगवान् प्रकारान्तर से धर्म कहने लगे-) इस प्रकार के चार कारणों से जीव नैरयिक भव के कर्म का बन्ध करता है और नरक में उत्पन्न होता है। तं जहा-महारंभयाए महापरिग्गहयाए पंचिंदिय-वहेणं कुणिमाहारेणं। __ भावार्थ - यथा-महारंभता (अत्यधिक हिंसा के भाव), महा परिग्रहता (अत्यधिक संग्रह के भाव); पञ्चेन्द्रियवध और मांसाहार से। ___एवं एएणं अभिलावेणं तिरिक्खजोणिएसु माइल्लयाए णियडिल्लयाए अलियवयणेणं उक्कंचणयाए वंचणयाए। भावार्थ - इस प्रकार इस अभिलाप (सूत्र पाठ) से तिर्यंच योनिकों में (उत्पन्न होते हैं)-यथामायावीपनसे, निकृति (वेष आदि बनाकर ठगना) से, झूठ बोलने से और उत्कञ्चनता-(मुग्ध जन को ठगने में प्रवृत्त हुए व्यक्ति का, समीपवर्ती किसी चतुर पुरुष के चित्त में सन्देह प्रविष्ट नहीं होने देने के Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004190
Book TitleUvavaiya Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2005
Total Pages222
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aupapatik
File Size23 MB
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