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________________ १२८ उववाइय सुत्त धम्ममाइक्खइ-इणमेव णिग्गंथे पावयणे सच्चे अणुत्तरे केवलए पडिपुण्णे संसुद्धे णेयाउए सल्लकत्तणे। . भावार्थ - (भगवान् प्रकारान्तर से) धर्म की प्ररूपणा करने लगे-'यह निर्ग्रन्थ-प्रवचन (जड़चेतन की ग्रन्थि को छुडाने वाला उपदेश-आत्मानुशासन) सत्य है। अनुत्तर (सर्वोत्तम, अलौकिक) है। केवल (अद्वितीय या केवलि प्रणीत या अनन्त अर्थ की विषयता के कारण अनन्त) है। प्रतिपूर्ण (प्रवचन . गुणों से सर्वांग सम्पन्न) है। संशुद्ध-कषादि से शुद्ध स्वर्ण के समान गुणपूर्णता के कारण निर्दोष है। नैयायिक (प्रमाण से बाधित नहीं होने वाला) है। शल्यकर्तन (मायादि शल्य का निवारक) है। सिद्धिमग्गे मुत्तिमग्गे णिव्वाणमग्गे णिजाणमग्गे अवितहमविसंधि सव्वदुक्खप्पहीणमग्गे। · भावार्थ - सिद्धिमार्ग (कृतार्थता का उपाय) है। मुक्तिमार्ग (कर्म रहित अवस्था का हेतु) है। निर्याणमार्ग (पुनः नहीं लौटने वाले गमन का हेतु) है। निर्वाणमार्ग (सकल संताप रहितता का पन्थ) है। अवितथ (सद्भूतार्थ-वास्तविक) और अविसन्धि अर्थात् महाविदेह क्षेत्र की अपेक्षा से इसका न कभी विच्छेद हुआ है, न होता है और न कभी विच्छेद होगा और सर्व दुःख-प्रहीणमार्ग (सकल दुःखों को निःशेष करने का पन्थ अथवा जहाँ सभी दुःख प्रहीण हैं ऐसे मोक्ष का यह मार्ग) है। इहट्ठियाजीवासिझंति।बुज्झति।मुच्चंति।परिणिव्वायंति।सव्वदुक्खाणमंतंकरेंति। भावार्थ - इस (प्रवचन में) स्थित जीव सिद्ध (सिद्धिगमन के योग्य अथवा इस लोक में अणिमादि महासिद्धियों को प्राप्त) होते हैं। बुद्ध (केवलज्ञानी-पूर्णज्ञानी) होते हैं। मुक्त (भवोपग्राही काँश से रहित) होते हैं। परिनिर्वृत (कर्मकृत सकल संताप से रहित-आनन्दघन) होते हैं और सभी दुःखों का अन्त करते हैं। ___ एगच्चा पुण एगे भयंतारो पुव्वकम्मावसेसेणं अण्णयरेसु देवलोएसु देवत्ताए उववत्तारो भवंति। भावार्थ - या फिर एक ही मनुष्य देह धारण करना शेष रही है जिन्हें ऐसे (एगच्चा) कोई भदन्त • (कल्याणी) किसी देवलोक में पूर्व कर्म के बाकी रहने से देवरूप से उत्पन्न होते हैं। विवेचन - 'भयंतारो' शब्द का अर्थ होता है भदन्त अर्थात् कल्याणकारी अथवा प्रवचन का सेवन करने वाला। शुभ प्रवृत्ति वाले-इस विशेषण और 'पूर्व कर्मावशेष' इस पद द्वारा 'तप और संयम का फल देवलोक ही है'-इस एकान्त मान्यता का निषेध होता है। अर्थात् संयमी के देवलोक में उत्पन्न होने का मुख्य कारण 'संवर और निर्जरा' नहीं। किन्तु संवर और निर्जरा के कारणों का सेवन करते हुए होने वाली शुभ प्रवृत्ति और क्षय होते-होते अवशिष्ट रहे हुए कर्म हैं। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004190
Book TitleUvavaiya Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2005
Total Pages222
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aupapatik
File Size23 MB
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