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________________ १३० उववाइय सुत्त लिए, क्षणभर के लिए, किसी प्रकार की क्रिया नहीं करती हुई-सी अवस्था में स्थित रहना) वञ्चनता (प्रतारणा-धूर्तता) से। मणुस्सेसु-पगइभद्दयाए पगइविणीययाए साणुक्कोसयाए अमच्छरिययाए। भावार्थ - (इन कारणों से) मनुष्यों में (उत्पन्न होते हैं)-यथा-स्वाभाविक भद्रता (दूसरों को दुःखी नहीं करने के भाव या सरलता) से, स्वाभाविक विनीतता से, सदयता से और अमत्सरता (अन्य के उत्कर्ष के प्रति ईर्ष्या का अभाव या गुणादि के उत्कर्ष में प्रमोदभावना) से। देवेसु-सरागसंजमेणं, संजमासंजमेणं, अकाम-णिजराए बालतवोकम्मेणं। तमाइक्खइ। भावार्थ - देवों में (उत्पन्न होते हैं-) सराग संयम से, संयमा-संयम (-देशविरति) से, अकाम निर्जरा (निरुद्देश्य या विवशता वश कष्ट-सहना) से और बाल (वास्तविक समझ से शून्य) तप से। - यह धर्म कहा। जह णरगा गम्मंति, जे णरगा जा य वेयणा णरए। सारीरमाणसाई, दुक्खाई तिरिक्ख जोणीए॥ भावार्थ - जिस प्रकार नैरयिक नरक में जाते हैं और वहाँ पर जो नैरयिक जैसी वेदना पाते हैं। तिर्यञ्च योनि में जो शारीरिक-मानसिक दुःख होते हैं। (उसका कथन किया)। माणुस्सं च अणिच्चं, वाहिजरामरणवेयणापउरं। देवे य देवलोए, देविड् िदेवसोक्खाई॥ भावार्थ - व्याधि, बुढापा, मृत्यु और वेदना से भरपूर अनित्य मनुष्य भव का (स्वरूप) और देव और देवलोक, उनकी ऋद्धि एवं उनके सुख का (कथन किया)। णरगं तिरिक्खजोणिं, माणुसभावं च देवलोयं च। .. सिद्धे य सिद्धवसहि, छज्जीवणियं परिकहेइ॥ भावार्थ - नरक, तिर्यंच योनि, मनुष्य के भाव, देवलोक, सिद्ध, सिद्धालय और छह जीवनिकाय को सम्पूर्ण रूप से कहा। जह जीवा बझंति, मुच्चंति जह य परिकिलिस्संति। जह दुक्खाइणं अंतं, करंति केई अपडिबद्धा॥ भावार्थ - जिस प्रकार जीव बन्धते हैं, मुक्त होते हैं और जिस प्रकार महान् क्लेश पाते हैं एवं कई अनासक्त व्यक्ति जिस प्रकार दुःखों का अन्त करते हैं (यह समझाया)। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004190
Book TitleUvavaiya Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2005
Total Pages222
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aupapatik
File Size23 MB
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