SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 140
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भगवान् महावीर स्वामी की धर्म देशना अट्टा अट्टियचित्ता, जह जीवा दुक्खसागरमुविंति। जह वेरग्गमुवगया, कम्मसमुग्गं विहाडंति॥ भावार्थ - आर्त (शरीर से दुःखी) और आर्तचित्त वाले जीव जिस प्रकार दुःखसागर में गिरते हैं और जिस प्रकार वैराग्य को प्राप्त होकर, कर्मदल को चूर कर देते हैं-(यह समझाया)। जहा रागेण कडाणं, कम्माणं पावगो फलविवागो। जह य परिहीणकम्मा, सिद्धा सिद्धालयमुविंति॥ भावार्थ - जिस प्रकार राग से किये हुए कर्मों का फल-विपाक पापरूप (होता है) और जिस प्रकार सकल कर्म से रहित सिद्ध सिद्धालय को प्राप्त होते हैं-(यह समझाया)। तमेव धम्मं दुविहं आइक्खइ। तंजहा-अगारधम्म अणगारधम्मं च। भावार्थ - उसी धर्म को दो प्रकार का कहा। वह यथा-अगारधर्म और अनगार धर्म। अणगारधम्मो ताव-इह खलु सव्वओ सव्वत्ताए मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वयइ। भावार्थ - अनगार धर्म इस संसार में जो सर्वत: द्रव्य और भाव से सम्पूर्ण आत्मा से सर्वात्मनासभी क्रोधादि आत्म परिणामों के त्याग से मुंड होकर, गृहवास से निकल कर अनगार अवस्था में जाते ... सव्वाओ पाणाइवायाओ वेरमणं मुसावाय वेरमणं अदिण्णादाण वेरमणं मेहुण वेरमणं परिग्गह वेरमणं राईभोयणाउ वेरमणं। भावार्थ - वे सम्पूर्ण प्राणातिपात, मृषावाद, अदत्तादान, मैथुन, परिग्रह और रात्रि भोजन से विरत (होते हैं)। । अयमाउसो ! अणगार सामाइए धम्मे पण्णत्ते। " भावार्थ - हे आयुष्मन् ! यह अनगार सामायिक (अनगारों का सैद्धान्तिक या समाचरणीय) धर्म कहा गया है। एयस्स धम्मस्स सिक्खाए उवट्ठिए णिग्गंथे वा णिग्गंथी वा विहरमाणे आणाए आराहए भवइ। .. भावार्थ - इस धर्म की शिक्षा में उपस्थित निर्ग्रन्थ या निर्ग्रन्थी विचरण करते हुए तीर्थंकर भगवान् की आज्ञा के आराधक होते हैं। ___ अगारधम्मं दुवालसविहं आइक्खइ।तं जहा-पंचअणुव्वयाई, तिण्णि गुणव्वयाई, चत्तारि सिक्खावयाइं। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004190
Book TitleUvavaiya Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2005
Total Pages222
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aupapatik
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy