________________
१३२
उववाइय सुत्त
भावार्थ - अगार धर्म (गृहस्थ उपासक का धर्म) बारह प्रकार का कहा। यथा-पांच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षा व्रत।
पंच अणुव्वयाइं। तंजहा-थूलाओ पाणाइवायाओ वेरमणं। थूलाओ मुसावायाओ वेरमणं।थूलाओ अदिण्णादाणाओ वेरमणं। सदारसंतोसे।इच्छापरिमाणे। __ भावार्थ - पांच अणुव्रत। यथा-स्थूल प्राणातिपात से निवृत्ति। स्थूल मृषावाद से निवृत्ति। स्थूल अदत्तादान से निवृत्ति। स्व-स्त्री-संतोष और इच्छा की मर्यादा।
तिण्णिगुणव्वयाइंतंजहा-अणत्थदंडवेरमणं दिसिव्वयं उवभोगपरिभोगपरिमाणं।
भावार्थ - तीन गुणव्रत-गुणों की वृद्धि करने वाले नियम। यथा-अनर्थदण्ड-आत्मगुणघातक निरर्थक प्रवृत्ति का त्याग। दिग्व्रत-दिशाओं में गमन सम्बन्धी मर्यादा और उपभोग-जिन्हें कई बार भोगी जा सके ऐसी वस्तुएँ-जैसे वस्त्र आदि और परिभोग-एक ही बार भोगी जा सके ऐसी वस्तुएँ जैसे खान-पान, उबटन आदि का परिमाण।
चत्तारि सिक्खावयाइं। तं जहा-सामाइयं। देसावगासियं। पोसहोववासे। अतिहिसंविभागे।
भावार्थ - चार शिक्षाव्रत-अभ्यास सम्बन्धी व्रत यथा - सामायिक-समभाव की सम्पूर्ण साधना के लिये किया जाने वाला नियत समय का अभ्यास। दिशावकाशिक-नित्यप्रति निवृत्ति की वृद्धि का अभ्यास, पौषधोपवास-आत्मभाव के पोषण के लिए आहार, अब्रह्म आदि का नियत तिथियों में त्याग और अतिथि के लिये विभाग-अनिमंत्रित संयमीजन अथवा साधर्मी बन्धुओं को अपने अनुग्रह के लिये, संयमोपयोगी और जीवनोपयोगी स्व-अधिकत सामग्री का भाग, आदर सहित देकर और सदैव संविभाग की भावानुवृत्ति से अकेले ही भोगने की भावना को दूर हटाने का अभ्यास।।
अपच्छिमा मारणंतिया संलेहणाजूसणाराहणा। अयमाउसो ! अगारसामाइए धम्मे पण्णत्ते।
भावार्थ - अन्तिम मरण रूप अन्तवाली और तप के द्वारा काया को कश बनाने वाली क्रिया की सेवना और आराधना- ज्ञानादि गुणों की विशेष रूप से पालना। हे आयुष्मन् ! यह अगार-सामायिक (गृहस्थाचार) धर्म कहा गया है।
एयस्स धम्मस्स सिक्खाए उवट्ठिए समणोवासए वा समणोवासिया वा विहरमाणे आणाए आराहए भवइ।
भावार्थ : इस धर्म की शिक्षा में उपस्थित श्रमणोपासक (श्रावक) वा श्रमणोपासिका (श्राविका) जीवन व्यतीत करते हुए तीर्थंकर भगवान् की आज्ञा के आराधक होते हैं।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org