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________________ उत्रनाइय सुत्त रूप, दुरितशमन-पापनाश के हेतुरूप, दिव्य स्वरूप अथवा दिव्य स्वरूप की प्राप्ति में हेतुरूप और ज्ञान स्वरूप अथवा ज्ञान प्राप्ति के हेतुरूप या निज स्वरूप की स्मृति के हेतुरूप की विनय से पर्युपासनासेवा करें। ___ एयं णे पेच्चभवे इहभवे य परभवे य हियाए सुहाए खमाए णिस्सेयसाए आणुगामियत्ताए भविस्सइ'. भावार्थ - 'वह हमारे द्वारा की गई भगवद् वंदना आदि परभव में और इस भव में पथ्य के समान हित के लिये, सुख के लिये, परिस्थितियों को साधना के अनुकूल बना लेने के लिये और मोक्ष के लिये या भव-परम्परा में मोक्षमार्ग में बाधक नहीं होने वाले सुखलाभ के लिये, हमें कारण रूप बनेंगी। भगवान् के पास जनसमूह का गमन - ' तिकट्टबहवे उग्गा उग्गपुत्ता, भोगा भोगपुत्ता- एवंदुपडोयारेणंराइण्णा, खत्तिया, माहणा, भडा, जोहा, पसत्यारो, मल्लई, लेच्छई, लेच्छईपुत्ता, अण्णे य बहवे राईसरतलवर-माडंबिय-कोडुबिय-इब्भ-सेट्ठि-सेणावइ-सत्थवाह-पभिइओ, अप्पेगइया वंदणवत्तियं, अप्पेगइया पूयणवत्तियं-एवं सक्कार-वत्तियं सम्माणवत्तियं दंसणवत्तियं कोऊहलवत्तियं। __ भावार्थ - इस कारण बहुत से उग्र-ऋषभदेव के द्वारा स्थापित आरक्ष के वंशज, उग्रपुत्र-कुमार अवस्था वाले उग्रवंशी, भोग-ऋषभदेव के द्वारा गुरु रूप से स्थापित व्यक्तियों के वंशज अर्थात् पुरोहित, भोगपुत्र, राजन्य-ऋषभदेव के वयस्यों के अर्थात् समान उम्र वाले मित्रों के वंशज, राजन्यपुत्र, क्षत्रियसामान्य राजकुलीन, क्षत्रियपुत्र, ब्राह्मण, ब्राह्मणपुत्र, भट-शूर, भटपुत्र, योद्धा, योद्धापुत्र, प्रशास्ता-धर्मशास्त्र पाठक, प्रशास्तृपुत्र, मल्लकी- राजविशेष, मल्लकिपुत्र, लिच्छवी, लिच्छवीपुत्र और भी बहुत से माण्डलिक राजा, युवराज, तलवर-पट्टबंध-विभूषित राजस्थानीय पुरुष, माडम्बिक-एक जाति के नगर के अधिपति, कौटुम्बिक, इभ्य, श्रेष्ठि- श्री देवता' अंकित सुवर्णपट्ट-विभूषित धनपति, सेनापति, सार्थवाह आदि में से कई वन्दना करने के लिये, कई पूजा करने के लिये, कई सत्कार-सन्मान करने के लिये, कई दर्शन करने के लिये, तो कई कुतूहलवश भगवान् के पास जाने को तैयार हुए। ___ अप्पेगइया अट्ठविणिच्छय हेउं-अस्सुयाइं सुणे-स्सामो, सुयाई णिस्संकियाई करिस्सामो; अप्पेगइया अट्ठाइं हेऊइं कारणाई वागरणाइं पुच्छिस्सामो। भावार्थ - कई लोग अर्थ निर्णय के लिये-'नहीं सुने हुए भाव सुनेंगे, सुने हुए भावों को संशयरहित बनाएँगे', कई-'जीवादि अर्थ, पदार्थों में रहे हुए धर्म और नहीं रहे हुए धर्म से सम्बन्धित Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004190
Book TitleUvavaiya Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2005
Total Pages222
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aupapatik
File Size23 MB
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