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________________ चम्पा नगरी में लोकवार्ता बहुजणो अण्णमण्णस्स एवमाइक्खइ, एवं भासइ, एवं पण्णवेइ, एवं परूवेइ'एवं खलु देवाणुप्पिया! समणे भगवं महावीरे, आइगरे तित्थयरे सयंसंबुद्धे, पुरिसुत्तमे जाव संपाविउकामे, पुव्वाणुपुव्विं चरमाणे, गामाणुगामं दूइज्जमाणे, सुहं सुहमेणं विहरमाणे, इहमागए, इह संपत्ते, इह समोसढे; इहेव चंपाए णयरीए बाहिं पुण्णभद्दे चेइए अहापडिरूवं उग्गहं उग्गिण्हित्ता संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरइ' श्रमण भावार्थ - उनमें बहुत से मनुष्य एक दूसरे को इस प्रकार सामान्य रूप से कहते थे,.... विशेष रूप से कहते थे,....प्रकट रूप से एक ही आशय को भिन्न भिन्न शब्दों के द्वारा प्रकट करते थे, इस प्रकार कार्य-कारण की व्याख्या सहित तर्क युक्त कथन करते थे- 'हे देवानुप्रिय ! बात ऐसी है कि भगवान् महावीर स्वामी जो कि स्वयं सम्बुद्ध आदिकर्त्ता और तीर्थंकर हैं, पुरुषोत्तम हैं.... यावत् सिद्धि गति रूप स्थान की प्राप्ति के लिये प्रवृत्ति करने वाले हैं - वे क्रमशः विचरण करते हुए एक गाँव से दूसरे गाँव को पावन करते हुए और सुखपूर्वक अर्थात् संयम और शरीर को खेद न हो इस प्रकार विहार करते हुए यहां पधारे हैं, यहां ठहरे हैं, यहां विराजमान हैं। इसी चम्पा नगरी के बाहर, पूर्णभद्र उद्यान में, संयमियों के योग्य स्थान को ग्रहण करके, संयम और तप से आत्मा को भावित करते हुए यहाँ विराजमान है। १०२ - तं महम्फलं खलु भो देवाणुप्पिया ! तहारूवाणं अरिहंताणं भगवंताणं णामगोयस्स वि सवणयाए; किमंग पुण अभिगमण वंदण णमंसण पडिपुच्छण पज्जुवासणयाए ? भावार्थ - 'हे देवानुप्रिय ! तथारूप महाफल की प्राप्ति कराने रूप स्वभाववाले अर्थात् अरिहन्त के गुणों से युक्त अरिहन्त भगवान् के नाम गोत्र को भी सुनने से महाफल की प्राप्ति होती है, तो फिर पास में जाने से, स्तुति करने से, नमस्कार करने से, संयम यात्रादि की समाधिपृच्छा करने से और उनकी सेवा करने से होने वाले फल की तो बात ही क्या ?' अर्थात् निश्चय ही महाफल की प्राप्ति होती है। 'एगस्स वि आयरियस्स धम्मियस्स सुवयणस्स सवणयाए, किमंग पुण विउलस्स अत्थस्स गहणयाए ? Jain Education International भावार्थ - उनके एक भी आर्य-श्रेष्ठ गुणों को प्राप्त कराने वाले और धार्मिक - निज स्वरूप को प्राप्त कराने वाले मार्ग के लक्ष्य वाले उत्तम वचन को सुनने से और विपुल अर्थ के ग्रहण करने से होने वाले फल की तो बात ही क्या है ? 'तं गच्छामो णं देवाणुप्पिया ! समणं भगवं महावीरं, वंदामो णमंसामो सक्कारेमो सम्माणेमो, कल्लाणं मंगलं देवयं चेइयं विणएणं पज्जुवासामो । भावार्थ - 'इसलिए हे देवानुप्रिय ! चलो हम सब - श्रमण भगवान् महावीर स्वामी की सेवा में चलें। उनकी स्तुति करें। उन्हें नमस्कार करें। उनका सत्कार करें। सन्मान करें। उन कल्याण के हेतु For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004190
Book TitleUvavaiya Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2005
Total Pages222
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aupapatik
File Size23 MB
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