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________________ १०० उववाइय सुत्त बताये गये हैं, वे इन दस इन्द्रों के क्रमशः यान विमान हैं, जिनका अर्थ है जाने आने के लिए काम में आने वाले विमान । मिग-महिस- वराह - छगल-दहुर- हय-गयवइ-भुयग-खग्ग-उस-भंक - विडिमपागडिय - चिंध - मउडा पसिढिल - वर - मउड - तिरीड धारी कुंडल - उज्जोवियाणणा मउड- दित्त - सिरया । भावार्थ - वे इन्द्र १. मृग २. महिष (भैंसा ) ३. वराह (सूअर ) ४. छगल (बकरा ) ५. मेंढक ६. घोडा ७. गजपति (श्रेष्ठ हाथी) ८. भुजंग (सर्प) ९. खग्ग ( गेंडा) और १०. वृषभ (सांड) के चिह्नों से चिह्नित मुकुटों को पहने हुए थे। वे मुकुट ढीले बन्धन वाले थे। कानों के कुण्डलों की प्रभा से उनके मुख उद्योत से युक्त हो रहे थे और मुकुटों से उनके शिर दीप्त थे। रत्ताभा पउमपम्हगोरा सेया सुभ-वण्ण-गंध- पासा - उत्तम - विउव्विणो विविहवत्थगंधमल्लधरा महिड्डिया महज्जुइया जाव पंजलिउडा पज्जुवासंति । भावार्थ - वे लाल वर्ण वाले कमलगर्भ 'समान पीले वर्ण वाले- पद्मगौर और सफेद वर्णवाले थे। वे उत्तम वैक्रिय करने की शक्ति वाले थे। विविध वस्त्र, गन्ध और माल्य के धारक, महर्षिक, महातेजस्वी.....यावत् हाथ जोड़कर पर्युपासना करने लगे । विवेचन - वैमानिक देवों के शरीर के तीन रंग होते हैं। पहले और दूसरे स्वर्ग के देवों के शरीर का रंग लाल, तीसरे चौथे और पांचवें स्वर्ग के देवों के शरीर का वर्ण पीला और आगे के स्वर्गों के देवों के शरीर का सफेद वर्ण होता है। चम्पा नगरी में लोकवार्त्ता २७- तेणं कालेणं तेणं समएणं चंपाए णयरीए सिंघाडग तिग चउक्क चच्चर चउम्मुह महापहपहेसु बहुजणसद्दे इ वा । महया जणसद्दे इ वा, जणवूहे इ वा, जणबोले इवा, जण कलकले इ वा, जणुम्मी इ वा, जणुक्कलिया इ वा, जणसण्णिवाए इ वा । भावार्थ - उस काल उस समय में चम्पा नगरी के सिंघाटकों में- सिंगाड़े के से करवा तिकोन स्थानों में, त्रिकों-जहां तीन मार्ग मिलते हैं ऐसे स्थानों में, चतुष्कों - चौक, चार रास्ते मिलते हैं ऐसे स्थानों में, चत्वरों-बहुत से मार्ग मिलते हैं ऐसे स्थानों में, चतुर्मुखों चौमुखे देवकुलों में, महापथराजमार्ग में और पथों - बाजार और गलियों में मनुष्यों का आपसी बातचीत से बहुत ही शब्द हो रहा था । वहां बहुत जनवृन्द था अथवा आपस में विचार-विमर्श हो रहा था। फुसफुसाहट की आवाज (अव्यक्त ध्वनि) आ रही थी । जनता में कलकल ध्वनि हो रही थी। लोग (जन) समुदाय उमड़ रहा था । छोटे छोटे झुण्ड के रूप में जन घूम रहे थे और एक स्थान से हटकर, दूसरे स्थान पर इकट्ठे हो रहे थे । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004190
Book TitleUvavaiya Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2005
Total Pages222
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aupapatik
File Size23 MB
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