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अनगारों का अप्रतिबंध विहार
भावार्थ-गैंडे के सिंग समान एक जात-रागादि के सहायक भावों के अभाव के कारण एकभूत थे। भारंड पक्खी व अप्पमत्ता १६. भावार्थ- भारण्डपक्षी के समान अप्रमत्त-सदा जागृत थे।
विवेचन - भारण्डपक्षी के एक शरीर, दो ग्रीवा और तीन पैर होते हैं। उसके दोनों मस्तिष्क भिन्न होते हैं। अत: वह अत्यन्त जागृत रह कर ही जीवन यात्रा का निर्वाह करता है। इसी तरह वे अनगार भगवन्त भी तप और संयम रूपी धर्म में प्रमाद रहित रहते थे।
कुंजरो इव सोंडीरा १७ भावार्थ - हाथी के समान शूर-कषायादि भाव शत्रुओं को जीतने में बलशाली थे। वसमो इव जायत्थामा १८ भावार्थ - वृषभ के समान जात स्थाम-धैर्यवान् थे।
विवेचन - जैसे वृषभ धीरता के साथ भार वहन करते हैं, वैसे ही वे ली हुई प्रतिज्ञा का भार धैर्य के साथ वहन करते थे।
सीहो इव दुद्धरिसा १९ भावार्थ - सिंह के समान दुर्धर्ष-परीषहादि मृगों से नहीं हारने वाले थे। वसुंधरा इव सव्व-फास-विसहा २० । भावार्थ - पृथ्वी के समान सभी (शीत-उष्ण आदि) स्पर्शों को सहने वाले थे। सुहृय-हुयासणो इव तेयसा जलता २१
भावार्थ - घृत आदि से अच्छी तरह हवन की हुई हुताशन-अग्नि के समान ज्ञान और तप रूप तेज से जाज्वल्यमान थे।
अनगारों का अप्रतिबंध विहार . णत्थि णं तेसिणं भगवंताणं कत्थइ पडिबंधे भवइ।
भावार्थ - उन भगवन्तों के कहीं पर किसी प्रकार का प्रतिबंध-अटकाव, रोक या आसक्ति का कारण नहीं था।
से य पडिबंधे चउबिहे पण्णत्ते। भावार्थ - वह प्रतिबंध-आसक्ति चार प्रकार का कहा गया है। तंजहा-दव्वओ खित्तओ कालओ भावओ। भावार्थ - वे चार प्रकार ये हैं-द्रव्य से, क्षेत्र से, काल से और भाव से। दव्वओणं सचित्ताचित्त-मीसिएंसुदव्वेसं खेत्तओगामेवाणयरे वारण्णेवाखेत्ते
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