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________________ ५६ उववाइय सुत्त पुक्खर पत्तं व णिरुवलेवा ६ भावार्थ - पुष्कर पत्र अर्थात् कमल पत्र के समान निर्लेप थे। विवेचन - जल और पङ्क (कीचड़) से उत्पन्न होकर भी कमल उनसे भिन्न रहता है। यदि उसके ऊपर जल गिर भी जाय, तो बिन्दु रूप से वहीं स्थिर हो जाता है। इसी प्रकार वे भगवन्त अपने स्वजनों की आसक्ति से रहित थे। यदि स्वजन उनके पीछे पड़ ही जाते, तो वे अपने स्वभाव से उनकी चञ्चल प्रकृति स्थिर बना देते थे और उनकी स्नेह वृत्तियों के फैलाव का अवकाश ही नहीं देते थे। गगणमिव णिरालंबणा ७ भावार्थ - आकाश के समान निरवलम्ब थे। विवेचन - जैसे आकाश अपने आप में ही स्थित रहता है। किसी के भी अवलम्बन की उसकी स्थिति में आवश्यकता नहीं रहती। उसी प्रकार वे अनगार भगवन्त भी ग्राम, नगर, उद्यान आदि में निरपेक्ष रहते हुए अपने आप में लीन रहते थे। अणिलो इव णिरालया (अपडिबद्धा)८ भावार्थ - वायु के समान निरालय-स्थान विशेष से रहित अर्थात् अप्रति बद्ध विहारी थे। चंदो इव सोमलेस्सा ९ भावार्थ - चन्द्र के समान सौम्य लेश्या वाले अर्थात् शुद्ध मन के परिणाम वाले थे। सूरो इव दित्ततेया १० भावार्थ - सूर्य के समान दीप्त तेजवाले-शारीरिक और आत्मिक तेज से तेजस्वी थे। सागरो इव गंभीरा ११ भावार्थ - समुद्र के समान गंभीर थे। अर्थात् हर्ष-शोक आदि के कारण उपस्थित होने पर भी निर्विकार चित्तवाले थे। विहग इव सव्वओ विप्यमुक्का १२ भावार्थ - पक्षी के समान पूर्णतः विप्रमुक्त थे। विवेचन - जैसे पक्षी परिवार से या सेवक आदि से घिरे हुए नहीं रहते हैं-उनके वासस्थान नेयत नहीं रहते हैं, इसी प्रकार वे अनगार भी सेवकादि और नियत वास से मुक्त थे। मंदर इव अप्पकंपा १३ भावार्थ - मेरु पर्वत के समान अप्रकम्प (अनुकूल या प्रतिकूल उपसर्गों-कष्टों में अडोल) थे। सारयसलिलं व सुद्ध-हियया १४ भावार्थ - शरद् ऋतु के जल के समान शुद्ध हृदय वाले थे। खग्गि-विसाणं व एगजाया १५ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004190
Book TitleUvavaiya Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2005
Total Pages222
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aupapatik
File Size23 MB
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