SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 87
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ७८ उववाइय सुत्त से किं तं विणए? विणए सत्तविहे पण्णत्ते।तं जहा-णाणविणए, दंसणविणए, चरित्तविणए, मणविणए, वइविणए, कायविणए, लोगोवयारविणए। भावार्थ - विनय किसे कहते हैं ? विनय के सात भेद कहे गये हैं। जैसे-१. ज्ञानविनय २. दर्शनविनय ३. चारित्रविनय, ४. मनोविनय ५. वचनविनय ६. कायविनय और ७. लोकोपचार विनय-लोकव्यवहार से सम्बन्धित आत्मगुण-पोषक नम्र आचरण। से किं तं णाणविणए ? णाणविणए पंचविहे पण्णत्ते। तं जहाआभिणिबोहियणाणविणए, सुय-णाणविणए, ओहिणाणविणए, मणपजव-णाणविणए, केवलणाणविणए।से तं णाणविणए। भावार्थ - ज्ञानविनय किसे कहते हैं ? ज्ञानविनय के पांच भेद कहे गये हैं। जैसे-१. आभिनिबोधिक . ज्ञान-मतिज्ञान विनय, २. श्रुतज्ञान विनय ३. अवधिज्ञान विनय ४. मन:पर्यवज्ञान विनय और ५. केवलज्ञान विनय। इन ज्ञानों को यथार्थ मानते हुए इनके लिए यथा शक्ति पुरुषार्थ करना ज्ञान विनय कहलाता है। से किं तं दंसणविणए ? दंसणविणए दुविहे पण्णत्ते। तं जहा-सुस्सुसणाविणए, अणच्चासायणा-विणए। भावार्थ - दर्शन विनय किसे कहते हैं ? दर्शन विनय के दो भेद कहे गये हैं। जैसे-१. शुश्रूषणाविनय और २. अनत्याशातना विनय। . से किं तं सुस्सुसणाविणए ? सुस्सुसणाविणए अणगविहे पण्णत्ते। तं जहाअब्भुटाणे इवा, आसणाभिग्गहे इवा, आसणप्पदाणे इ वा। भावार्थ - शुश्रूषणा विनय - सम्यक् श्रद्धा युक्त का अविरोधी सेवा रूप विनम्र आचरण-किसे कहते हैं ? शुश्रुषणा विनय के अनेक भेद कहे गये हैं। जैसे-१. गुरुजन या गुणाधिक के अपने समीप आने पर, उन्हें आदर देने के लिये खड़े होना २. जहाँ जहाँ गुरुजन की बैठने की इच्छा हो, वहाँ वहाँ आसन ले जाना और ३. उन्हें आसन देना। सक्कारे इ वा, सम्माणे इ वा किनकम्मे इवा, अंजलिपग्गहे इ वा। भावार्थ - ४. सत्कार देना-वस्त्रादि से निमन्त्रित करना ५. सन्मान-बड़प्पन देना ६. विधि सहित वन्दना-नमस्कार करना ७. स्वीकृति या अस्वीकृति करते समय हाथ जोड़ना। एतस्स अणुगच्छणया, ठियस्स पज्जुवासणया, गच्छंतस्स पडिसंसाहणया। से तं सुस्सुसणाविणए। भावार्थ - आते हुए गुरुजन के सामने जाना, ९. बैठे हुए की पर्युपासना और १०. जाते हुए को पहुँचाने जाना। यह शुश्रूषणा विनय है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004190
Book TitleUvavaiya Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2005
Total Pages222
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aupapatik
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy