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________________ १५४ उववाइय सुत्त भावार्थ - उन परिव्राजकों को एक कर्णपूरक-फूलों का कान का आभरण के सिवाय, अन्य ग्रन्थिम-गूंथी हुई, वेष्टिम- लपेटने से बनी हुई, पूरिम-वंशशलाका-जाल के पूरणमय या पूरने से बनी हुई और संघातिम-संघात से बनी हुई-नाल में नाल उलझाने से बनी हुई इन चार तरह की मालाओं को धारण करने का कल्प नहीं है। तेसि णं परिव्वायगाणं णो कप्पइ-अगलुएण वा चंदणेण वा कुंकुमेण वा गायं अणुलिंपित्तए।णण्णत्थ एक्काए गंगामट्टियाए। भावार्थ - उन परिव्राजकों को एकमात्र गंगा की मिट्टी के सिवाय, अगरु, चन्दन अथवा कुंकुम से शरीर को लिप्त करने का कल्प नहीं है। तेसि णं कप्पइ मागहए पत्थए जलस्स पडिगाहित्तए। से वि य वहमाणे, णो चेव णं अवहमाणे। से वि य थिमिओदए, णो चेव णं कद्दमोदए। से वि य बहुपसण्णे, णो चेव णं अबहुपसण्णे। से वि य परिपूए, णो चेव णं अपरिपूए। से वि य णं दिण्णे, णो चेव णं अदिण्णे। से वि य पिबित्तए, णो चेव णं हत्थपायचरुचमस-पक्खालणट्ठाए सिणाइत्तए वा। भावार्थ - उन परिव्राजकों को एक मागध प्रस्थक जल ग्रहण करना कल्पता है। वह भी बहता हुआ, बंधा हुआ नहीं। निर्मलभूमि का जल, नीचे कीचड़ जमा हुआ हो ऐसा नहीं। अतिस्वच्छ, गंदा । नहीं। छना हुआ, बिना छना हुआ नहीं। दिया हुआ, अदत्त नहीं। पीने के लिए ही, किन्त हाथ. पैर. चरु, चमस- लकड़ी का चम्मच-दर्विका धोने के लिये या स्नान करने के लिये नहीं। विवेचन - जैसे आजकल अंग्रेजी तोल जैसे कि-पाव, आधासेर, पांच सेर, मण आदि तोल प्रसिद्ध है। वैसे ही पहले मागधादि तोल प्रसिद्ध थे। मागधप्रस्थक का उल्लेख उपर्युक्त सूत्र में हुआ है। वह प्रमाण इस प्रकार है। यथा दो असईओ पसई, दोहिं पसईहिं सेइया होइ। चउसेइओ उ कुलओ चउकुलओ पत्थओ होइ॥ चउपत्थमाढयं तह, चत्तारि य आढया भवे दोणो। दो असई (असती) = १ पसई (प्रसृति)। दो पसई = १ सेइया (सेतिका)। चार सेइया = १ कुलओ (कुलवः)। चार कुलओ = १ पत्थओ (प्रस्थक)। चार पत्थओ (प्रस्थक) = १ आढय (आढक)। चार आढय = १ दोणो (द्रोण)। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004190
Book TitleUvavaiya Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2005
Total Pages222
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aupapatik
File Size23 MB
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