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________________ उववाइय सुत्त भट्टित्तं सामित्तं महय-रत्तं आणाईसरसेणावच्चं कारेमाणे पालेमाणे, महयाऽऽहयणट्टगीयवाइयतंती-तलतालतुडियघेणमुयंगपडुप्पवाइयरवेणं विउलाई भोगभोगाई भुंजमाणे विहराहि-त्तिकट्टु जय जय सद्दं पउंजंति । भावार्थ - 'इष्टजन से परिवृत्त होकर, चम्पा नगरी का एवं और भी बहुत से ग्राम आकर - M आदि के उत्पत्ति स्थान, नगर-कर से मुक्त शहर, खेट - धूलिकोट वाले गांव, कर्बट - कुनगर, मडम्ब,. द्रोणमुख - जलपथ और स्थलपथ से युक्त निवासस्थान, पत्तन - बन्दरगाह अथवा केवल जलमार्ग वाली या केवल स्थलमार्ग वाली बस्ती, आश्रम, निगम, संवाह पर्वत की तलेटी आदि के गांव और सन्निवेश-धोष आदि का आधिपत्य, पुरोवर्तित -आगेवानी, भर्तृत्त्व - पोषकता, स्वामित्व, महत्तरत्त्व - बड़प्पन और आज्ञा कारक सेनापतित्त्व करते हुए पालन करते हुए, कथानृत्य, गीतिनाट्य, वाद्य, वीणा, करताल, तूर्य, मेघ, मृदंग को कुशल पुरुषों के द्वारा बजाये जाने से उठने वाली महाध्वनि के साथ विपुल भोगों को भोगते हुए विचरें' - यों कहकर, वे व्यक्ति जयघोष करते थे। विवेचन - 'पत्तनं रत्नभूमिरित्यन्ये' अर्थात् दूसरे आचार्य 'पत्तन' का रत्नभूमि अर्थ करते हैं । 'आहयत्ति - आख्यानकप्रतिबद्धं, अहतं वा अव्यवच्छिन्नं, आहतं वा- आस्फालितं यन्नाद्यं - नाटकम्' अर्थात् कथाबद्ध या लगातार या नाचकूद युक्त नाटक । 'तलतालाश्च हस्तास्फोटरवाः, तला वा हस्ताः तालाः कशिकाः' अर्थात् 'तलताल यानी तालियों की आवाज या तल-हाथ और ताल-कंशिका - कांसी का वाद्य । तएण से कोणि राया भंभसारपुत्ते णयणमालासहस्सेहिं : पेच्छिज्जमाणे पेच्छिज्जमाणे हिययमालासहस्सेहिं अभिनंदिज्जमाणे अभिनंदिजमाणे उण्णइज्जमाणे मणोरहमालासहस्सेहिं विच्छिष्पमाणे विच्छिप्पमाणे, वयणमालासहस्सेहिं अभिथुव्वमाणे अभिथुव्वमाणे, कंतिसोहग्गगुणेहिं पत्थिज्जमाणे पत्थिज्जमाणे । भावार्थ - तब भंभसारपुत्र कोणिकराजा, हजारों नयनमालाओं से दर्शित बनता हुआ, हजारों हृदयमाला से अभिनंदित होता हुआ, हजारों मनोरथ माला से वाञ्छित होता हुआ, कान्ति-सौभाग्य से प्रार्थित होता हुआ, हजारों वचनों से प्रशंसित होता हुआ । बहूणं णरणारिसहस्साणं दाहिणहत्थेणं अंजलिमालासहस्साइं पडिच्छमाणे पडिच्छमाणे, मंजुमंजुणा घोसेणं पडिपुच्छमाणे पडिपुच्छमाणे, भवणपंतिसहस्साइं समइच्छमाणे समइच्छमाणे, चंपाए णयरीए मज्झमज्झेणं णिग्गच्छइ । भावार्थ - बहुत-से हजारों नर नारियों की दाहिने हाथ से दी हुई हजारों अञ्जलिमाला को- नमस्कार को स्वीकार करता हुआ, मीठे कोमल स्वर से कुशलवार्ता पूछता हुआ और हजारों भवनों की पंक्तियों को लांघता हुआ, चम्पानगरी के बीचोंबीच होकर निकला । १२० Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004190
Book TitleUvavaiya Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2005
Total Pages222
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aupapatik
File Size23 MB
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