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________________ अम्बड के भविष्य के भव १६५ से णं भंते ! अम्मडे देवे ताओ देवलोगाओ आउक्खएणं भवक्खएणं ठिइक्खएणं अणंतरं चयं चइत्ता। कहिं गच्छिहिइ? कहिं उववजिहिइ? - गोयमा! महाविदेहे वासे जाइं कुलाई भवंति-अड्डाइं दित्ताइं वित्ताई विच्छिण्णविउलभवण-सयणासणजाणवाहणाई बहुधणजायरूवरययाई आओगपओगसंपउत्ताइं विच्छड्डिय-पउरभत्तपाणाई बहुदासीदास-गोमहिसगवेलगप्पभूयाइं बहुजणस्स अपरिभूयाइं। तहप्पगारेसु कुलेसु पुमत्ताए पच्चायाहिइ। - भावार्थ - हे भन्ते ! अम्बड' देव उस देवलोक से आयु.... भव-देव-गति और स्थिति के क्षीण होने पर, चव कर कहाँ जाएगा? कहाँ उत्पन्न होगा? हे गौतम ! महाविदेह क्षेत्र में जो कुल हैं, वे समृद्ध, दर्पवान् और प्रसिद्ध हैं। अनेकों भवन, शयनासन, यान और वाहनों से युक्त हैं। उनके यहाँ धन, सोने, चांदी की कमी नहीं हैं। वे अर्थलाभ के उपायों का सफलता से प्रयोग करते हैं। कुल मनुष्यों के भोजन के बाद, अन्य बहुत-से मनुष्यों का भी गुजारा हो सके, इतना प्रचुर भोजन-पान उनके यहाँ बनता है। वहाँ दास-दासियों की भी कमी नहीं। वे गायें आदि पशुधन से समृद्ध हैं। ऐसे कुलों में से एक कुल में पुरुष रूप से उत्पन्न होगा। 'विवेचन - आयुक्षय - आयुःकर्म के दलिकों का आत्मा से सम्बन्ध छूटना। भवक्षय - देवादि भव के निबन्धनभूत कर्मों का क्षय होना। स्थितिक्षय - आयुःकर्म और दूसरे भी तद्योग्य कर्मों का आत्मा के साथ लगे रहने का काल समाप्त हो जाना। . . :: देव की जो 'अम्बड' संज्ञा कही गई है, वह इस भव की अपेक्षा से। वहाँ अन्य संज्ञा होना संभव है। तए णं तस्स दारगस्स गब्भत्थस्स चेव समाणस्स अम्मापिईणं धम्मे दढा पइण्णा भविस्सइ। . भावार्थ - तब उस बालक के गर्भ में आते ही माता-पिता की धर्म में दृढ़ प्रतिज्ञा होगी। से णं तत्थ णवण्हं मासाणं बहुपडिपुण्णाणं अद्धट्ठमाणराइंदियाणं वीइक्कंताणं सुकुमालपाणिपाए जाव ससिसोमाकारे कंते पियदंसणे सुरूवे दारए पयाहिइ। - भावार्थ - वहाँ पूर्ण नव महीने और साढ़े सात रात्रि-दिन बीतने पर, सुकुमार हाथ-पैर वाले यावत् चन्द्र के समान सौम्याकार, कान्त और प्रिय दर्शन वाले सुरूप बालक का जन्म होगा। तए णं तस्स दारगस्स अम्मापियरो पढमे दिवसे ठिइवडियं काहिति। भावार्थ - तब उस बालक के माता-पिता पहले दिन कुल क्रम के अनुसार पुत्र जन्म के योग्य क्रिया करेंगे। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004190
Book TitleUvavaiya Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2005
Total Pages222
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aupapatik
File Size23 MB
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