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________________ १६४ उववाइय सुत्त भावार्थ - 'अम्बड' को नहीं कल्पता है-अन्य तीर्थकों अन्य तीर्थिक देवों और अन्य तीर्थिकों से परिगृहीत 'चेइयों' को वन्दन-नमस्कार करना यावत् उनकी पर्युपासना करना, केवल अरिहन्तों और अरिहन्तचेइयों को छोड़ कर। विवेचन - यहाँ मूल पाठ में 'अण्णउत्थिया' आदि तीन शब्द आये हैं, इसी प्रकार के तीन शब्द उपासकदशांग सूत्र के प्रथम आनन्द अध्ययन में भी आये हैं। जिनका अर्थ वहाँ इस प्रकार किया गया है'अन्य तीर्थिक अर्थात् बौद्ध विमांसक, अन्य तीर्थियों के द्वारा माने हुए सरागी देव और अन्य तीर्थयों के माने हुए चेइय अर्थात् साधुओं को वन्दना करना मुझे नहीं कल्पता है।' नोट - इसमें आए हुए चेइय शब्द को मूर्तिपूजक सम्प्रदाय अरिहन्त प्रतिमा ऐसा अर्थ करते हैं, किन्तु वह संगत नहीं है इस विषय में श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह बीकानेर के तीसरे भाग के परिशिष्ट में बहुत विस्तृत सप्रमाण खुलासा दिया है। . अम्बड के भविष्य के भव । अम्मडे णं भंते ! परिव्वायए कालमासे कालं किच्चा कहिं गच्छिहिइ ? कहिं उववजिहिइ?- गोयमा! अम्मडे णं परिव्वायए उच्चावएहिं सीलव्वयगुणवेरमणपच्चक्खाणपोसहोववासेहिं अप्पाणं भावमाणा बहूई वासाइं समणोवासयपरियायं पाउणिहिइ। पाउणित्ता मासियाए संलेहणाए अप्पाणं झूसित्ता सटैि भत्ताइं अणसणाए छेदित्ता, आलोइयपडिक्कंते समाहिपत्ते कालमासे कालं किच्चा बंभलोए कप्पे देवत्ताए उववजिहिइ। तत्थ णं अत्थेगइयाणं देवाणं दस सागरोवमाइं ठिई पण्णत्ता। तत्थ णं अम्मडस्सवि देवस्स दस सागरोवमाइं ठिई। भावार्थ - हे भन्ते ! अम्बड परिव्राजक काल के समय में काल करके कहाँ जायगा ? कहाँ उत्पन्न होगा ? .. हे गौतम ! अम्बड परिव्राजक छोटे बड़े विविध प्रकार के शीलव्रत-अणुव्रत, गुणव्रत, विरमणरागादि से विरति के प्रकार, प्रत्याख्यान-णम्मुक्कारसहिय आदि पच्चक्खाण और पौषधोपवास-अष्टमी आदि पर्व दिनों में की जाने वाली विशेष प्रकार की आत्मिक साधना के द्वारा अपनी आत्मा को भावित करते हुए बहुत वर्षों तक श्रमणोपासक अवस्था को पालेगा। फिर एक महीने की संलेखना से आत्मा में लीन होकर-अप्याणं-आत्मा को झूसित्ता-सेवन करके, साठ भक्त-भोजन के समय को निराहार अवस्था से काटकर, आत्म-दोषों का स्मरण करके, उनसे पीछे हटता हुआ समाधि-आत्मशान्ति की प्राप्ति करता हुआ, काल के समय में काल करके, ब्रह्मलोककल्प में देवरूप से उत्पन्न होगा। वहाँ पर कई देवों की स्थिति दस सागरोपम की होती है। तो वहाँ पर 'अम्बड' देव की भी स्थिति दस सागरोपम की होगी। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004190
Book TitleUvavaiya Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2005
Total Pages222
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aupapatik
File Size23 MB
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