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________________ उववाइय सुत्त यवमध्यचन्द्र प्रतिमा - शुक्लपक्ष की पडवा से प्रारंभ होकर, चन्द्रकला की वृद्धि-हानि के अनुसार दत्ति की वृद्धि-हानि से यव के मध्यभाग आकार में पूरी होने वाली एक महीने की प्रतिज्ञा। जैसे सुदी पडवा को एक दत्ति, द्वितीया को दो दत्ति, इस प्रकार क्रमश: एक एक दत्ति बढ़ाते हुए पूर्णिमा के दिन पन्द्रह दत्ति। वदी पडवा को चौदह दत्ति फिर एक-एक दत्ति घटाते हुए, चतुर्दशी को एक दत्ति लेना। अमावस्या को उपवास। व्रजमध्यचन्द्र प्रतिमा - कृष्ण पक्ष की पडवा के दिन प्रारंभ होकर, चन्द्रकला की हानिवृद्धि के अनुसार दत्ति की हानिवृद्धि से व्रजाकृति में पूर्ण होने वाली एक महीने की प्रतिज्ञा। इसके प्रारम्भ में १५ दत्ति, फिर क्रमशः घटाते हुए अमावस्या को एक दत्ति। शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा को दो, फिर क्रमश: एक-एक बढ़ाते हुए चतुर्दशी को पन्द्रह दत्ति और पूर्णमासी को उपवास। दूसरी वांचना में इस प्रकार का पाठ भी मिलता है - १. विवेक प्रतिमा २. व्युत्सर्ग प्रतिमा ३. उपधान प्रतिमा ४. प्रतिसंलीनता प्रतिमा। संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणा विहरंति। भावार्थ - इस प्रकार वे निर्ग्रन्थ संयम और तप से आत्मा को भावित करते हुए विचरते थे। ... स्थविरों के बाह्य-आभ्यन्तर गुण १६. तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतेवासी बहवे थेरा भगवंतो भावार्थ - उस काल और उस समय में श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के अन्तेवासी बहुत-से स्थविर-ज्ञान और चारित्र में वृद्धि प्राप्त भगवन्त - उन के साथ थे। जाइसंण्णा कुलसंपण्णा बलसंपण्णा रूव- संपण्णा विणयसंपण्णा णाणसंपण्णा दंसणसंपण्णा चरित्तसंपण्णा लज्जासंपपणा लाघवसंपण्णा। भावार्थ - वे स्थविर भगवन्त जाति-मातृपक्ष, कुल-पितृपक्ष, बल, रूप, विनय, ज्ञान, दर्शन-श्रद्धा, चारित्र, लज्जा अपवाद से डरने का भाव और लाघव-वस्त्र आदि अल्प उपधि की और ऋद्धि रस और साता के गौरव से रहित अवस्था से सम्पन्न यक्त थे। विवेचन - 'जातिसम्पन्न' आदि विशेषणों का यह आशय है कि वे उत्तम जाति, कुलादि से युक्त थे। क्योंकि साधारण पुरुष भी मातृपक्षादि से संपन्न होते हैं। इसमें कोई विशेषता नहीं है। अतः यहाँ इन भावों की उत्तमता को बताने के लिये ही यह विशेषणों का समूह आया है। जाति और कुल की सम्पन्नता शुभ कर्म के उदय से ही प्राप्त हो सकती है। यदि मातृ-पितृपक्ष निर्दोष हों तो सुन्दर संस्कारों की प्राप्ति सहज ही हो जाती है। जिससे आगे का उत्कर्ष सुगम हो जाता Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004190
Book TitleUvavaiya Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2005
Total Pages222
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aupapatik
File Size23 MB
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