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स्थविरों के बाह्य-आभ्यन्तर गुण
है। अतः श्रेष्ठ साधनों को सुलभ कर देने में पूर्व के सुकृत का उदय मानना असंगत नहीं है। बल और रूप की सम्पन्नता भी पहले के शुभ कर्म के उदय से ही प्राप्त हो सकती है। बलसम्पन्नता घोरतम कष्टों को सहने में स्थिर बनाती है और रूपसम्पन्नता बाल जीवों को धर्ममार्ग में जोड़ने में निमित्त बन सकती है। ये चारों गुण बाह्य हैं।
विनय, ज्ञान, दर्शन, चारित्र और लाघव की सम्पन्नता, आत्मिक पुरुषार्थ को शुभोदय का सहकार मिलने पर प्राप्त हो सकती है और लज्जा लोक संज्ञा का संस्कृत रूपान्तर है। विनय से धर्म, ज्ञान से समझ, दर्शन से प्रतीति और रुचि एवं संसार के मिथ्या भावों के छेदन, चारित्र से निष्कम्प दशा, लज्जा से संयम में दृढ़ता और लाघव से मुक्तिमार्ग में तीव्र गति की प्राप्ति होती है। ये आन्तरिक गुण हैं।
ओअंसी तेअंसी वच्चंसी जसंसी।
भावार्थ - वे ओजस्वी, तेजस्वी, वर्चस्वी और यशस्वी थे। . विवेचन - ओजस्-मानस- हृदय की स्थिरता। सुसम्बद्ध विचारों के अभ्यास के कारण जो आत्मिक स्थिरता पैदा होती है, जिससे अन्य व्यक्तियों को अपने विचारों से प्रभावित कर देने की जो जोशीली शक्ति पैदा होती है, उसे 'ओजस्' कहा जाता है।
तेजस्-शरीर की प्रभा। साधना करते-करते साधक-शरीर के चारों ओर किरणें -सी निकलने लग जाती है, जिससे व्यक्ति दर्शन मात्र से एक मधुर शान्ति का अनुभव करता है, उसे 'तेजस्' कहते हैं।
' वचस्-सौभाग्यादि से युक्त वाणी। . अथवा वर्चस्-प्रभाव। क्रिया या आचार में व्याप्त ऐसी शक्ति, जिसका लोहा अन्य भी मानते हैं और जो प्रभाव की जननी है, उसे 'वर्चस्' कहा जाता है।
यशस्-ख्याति । उपर्युक्त तीनों भावों के मिश्रण के द्वारा लोक में उस चुम्बकीय व्यक्तित्व के प्रति जो प्रशंसात्मक दृष्टि बनती है उसकी जो स्तुति होती है, उसे 'यशस्' कहते हैं। .. जियकोहा जियमाणा जियमाया जियलोभा जियइंदिया जियणिहा जियपरीसहा।
भावार्थ - वे अनगार भगवन्त क्रोध, मान, माया-छल-कपट और लोभ के हृदय में उदय होने पर, उन्हें विफल कर देते थे-उनके प्रवाह में नहीं बहते थे। इन्द्रियों पर अपना अधिकार रखते थे। निद्रा के वशीभूत नहीं होते थे और परीषहों-अनुकूल या प्रतिकूल बाधाओं को जीत लेते थे।
. विवेचन - "जित' शब्द से यहाँ पर यह भाव लिया गया है कि - आत्म-सत्ता गत कर्मों के उदय-फल देने के लिये प्रवृत्त होने पर, उन पर क्रोधादि का आक्रमण अवश्य होता था, किन्तु आत्मजागृति के द्वारा उन्हें अपने पर हावी नहीं होने देते थे। अतः पुनः वैसे कर्मों का इतना प्रबल सञ्चय आत्मा में नहीं होता था।
जीविआस-मरणभय-विप्पमुक्का। भावार्थ - वे जीने की आशा और मरने के भय से बिलकुल मुक्त थे।
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