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________________ आभ्यन्तर-तप ८७ भावार्थ - शुक्लध्यान के चार आलम्बन कहे गये हैं। जैसे- १. क्षान्ति - क्षमा-अक्रोधसहिष्णुता २. मुक्ति - निर्लोभता ३. आर्जव - सरलता कपट-त्याग और ४. मार्दव - मृदुता-कोमलतामान त्याग। सुक्कस्स णं झाणस्स चत्तारि अणुप्पेहाओ पण्णत्ताओ। अवायाणुप्पेहा १, असुभाणुष्पेहा २, अणंत-वत्तियाणुप्पेहा ३, विष्परिणामाणुप्पेहा ४। से तं झाणे। भावार्थ - शुक्लध्यान की चार अनुप्रेक्षाएँ-चिन्तन प्रणालियाँ कही गई हैं। यथा-१. अपायानुप्रेक्षाआत्मा में कर्म-प्रवेश से होने वाले अनर्थों का बार-बार चिन्तन २. अशुभानुप्रेक्षा – संसार की अशुभता का पुन:पुनः चिन्तन ३. अनन्तवृत्तितानुप्रेक्षा - भव-परम्परा के अनन्त चक्र का चिन्तन और ४. विपरिणामानुप्रेक्षा- प्रतिक्षण पलटते हुए वस्तु के विविध परिणामों का चिन्तन करना। यह ध्यान का स्वरूप है। विवेचन - प्रश्न - धर्मध्यान और शुक्लध्यान के सोलह-सोलह भेद किये गये हैं, तो सहज ही प्रश्न होता है कि, आर्तध्यान और रौद्रध्यान के भी सोलह-सोलह भेद क्यों नहीं किये गये हैं, अर्थात् उनके आठ-आठ भेद ही क्यों कहे हैं ? उनके चार-चार आलम्बन और अनुप्रेक्षाएँ क्यों नहीं कही हैं ? उत्तर - आलम्बन का अर्थ है आत्मा के गुण रूपी शिखर पर चढ़ने के लिए सहारा लेना और अनुप्रेक्षा का अर्थ है, ध्यान रूपी शिखर पर चढ़ने के लिए ध्यान साधने के लिए विचारों का बारम्बार अभ्यास करते रहना। धर्मध्यान और शुक्लध्यान ये दोनों ध्यान शुभ ध्यान एवं उत्तम ध्यान कहे जाते हैं। इन दोनों से आत्मा के गुणों की वृद्धि होती है। इसलिए आत्म गुणों में ऊपर चढ़ने के लिए आलम्बन और अनुप्रेक्षा (भावना) की आवश्यकता होती है। आर्तध्यान और रौद्रध्यान अशुभ एवं अधम ध्यान हैं, इनसे आत्मा के गुणों का पतन होता है। अत: पतन के लिए (नीचे गिरने के लिए) आलम्बन और भावना की आवश्यकता नहीं रहती है, जैसे कि मकान पर चढ़ने के लिए सीढियों की आवश्यकता होती है परन्तु मकान से नीचे गिरने के लिए सीढ़ियों की आवश्यकता नहीं होती है। नोट - चार ध्यानों का वर्णन ठाणांत सूत्र के चौथे ठाणे में है उनका विस्तृत हिन्दी विवेचन श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह बीकानेर के पहले भाग में है। से किं तं विउस्सग्गे ? विउस्सग्गे दुविहे पण्णत्ते। तंजहा-दव्वविउस्सग्गे भावविउस्सग्गे य। - भावार्थ - व्युत्सर्ग-आत्मा से भिन्न पदार्थों का त्याग किसे कहते हैं ? व्युत्सर्ग के दो भेद कहे गये हैं-१. द्रव्यव्युत्सर्ग और २. भावव्युत्सर्ग। . सेकिंतंदव्वविउस्सग्गे ?दव्वविउस्सग्गेचउबिहे पण्णत्ते।तंजहा-सरीरविउस्सग्गे १, गणविउस्सग्गे २, उवहिविउस्सग्गे ३, भत्तपाणविउस्सग्गे ४। से तं दव्वविउस्सग्गे। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004190
Book TitleUvavaiya Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2005
Total Pages222
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aupapatik
File Size23 MB
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