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________________ संसार-सागर से तिर कर पार होना .............00000000000000000000000000000000000000000000000 विणिवाय-फरुस-धरिसणा-समावडिय-कढिण-कम्म-पत्थर-तरंग-रंगंत-णिच्चमच्चुभय तोयपटुं-कसाय-पायाल-संकुलं। भावार्थ - भवसागर में भरे हुए दुःख रूप जल का ऊपरी भाग नित्यं मृत्युभय है। वह तिस्कार रूप फेन से फेनिल रहता है। क्योंकि तीव्र निन्दा, निरन्तर होने वाली रोग-वेदना, पराभिभव के सम्पर्क, कठोर वचन और भर्त्सना से बद्ध-मजबूत बने हुए कर्मोदय रूप कठिन पत्थरों पर संयोग-वियोगादि रूप तरंगे टकराती रहती हैं। भवसागर चार कषाय रूप पाताल कलशों से व्याप्त है। भव-सय-सहस्स-कलुस-जल-संचयं पइभयं। भावार्थ - संसार सागर में सैकड़ों-हजारों लाखों भवों के कलुष-पाप जल संचय-जल-राशि की वृद्धि के कारणों से युक्त है। वह प्रत्यक्ष भयङ्कर है। अपरिमिय-महिच्छ-कलुस-मइ-वाउ-वेग-उद्धम्म-माण-दग-रय-रयंधयार-वरफेण-पउर-आसा-पिवास-धवलं। भावार्थ - संसार सागर अपार महेच्छा से मलिन बनी हुई मति रूप वायु के वेग से ऊपर उठते हुए जल कणों के समूह के वेग-रय-आवेश से अन्धकार युक्त और वायु वेग से उत्पन्न होते हुए सुन्दर-अवमाननादि रूप फेन से छाई हुई या फेन के सदृश आशा-अप्राप्त पदार्थों के प्राप्ति की संभावना और पिपासा-अप्राप्त पदार्थों के प्राप्ति की आकांक्षा से धवल है। इसलिये मोह-महावत्त-भोग.भममाण-गप्पमाणच्छलंत-पच्चोणियत्त-पाणिय-पमाय-चंडबहुदुटु-सावय-समाहउद्धायमाण-पब्भार-घोर-कंदिय-महारव-रवंत-भेरव-रवं। भावार्थ - संसार सागर में मोह रूप बड़े-बड़े आवर्त है। आवर्त में भोग रूप भंवर-पानी के गोल घुमाव उठते हैं। अतः दुःख रूप पानी चक्कर लेता हुआ, व्याकुल होता हुआ, ऊपर उछलता हुआ और नीचे गिरता हुआ दिखाई देता है। वहाँ प्रमाद रूप भयंकर एवं अतिदुष्ट जलजन्तु हैं। जल के उठाव गिराव और जल जन्तुओं से घायल होकर इधर उधर उछलते हुए क्षुद्र जीवों के समूह हैं, जो क्रन्दन करते रहते हैं। इस प्रकार संसार सागर गिरते हुए दुःख रूप जल, प्रमाद रूप जल जन्तु और आहत संसारी जीवों के प्रतिध्वनि सहित होते हुए महान् कोलाहल रूप भयानक घोष से युक्त है। अण्णाण-भमंत-मच्छ-परिहत्थ-अणिहुयिंदिय-महामगर-तुरिय चरियखोखुब्भमाण-णच्चंत-चवल-चंचल-चलंत-घुम्मंत-जल-समूहं। - भावार्थ - संसार सागर में भमते हुए अज्ञान रूपी चतुर मत्स्य हैं और अनुपशान्त इन्द्रियाँ रूप महामगर हैं। ये मत्स्य-मगर जल्दी-जल्दी हलन-चलन करते हैं। जिससे दुःख रूप जल समूह क्षुभित होता है-नृत्य-सा करता हुआ चपल है-एक स्थान से दूसरे स्थान पर चलता हुआ एवं घूमता हुआ चञ्चल है। अरइ-भय-विसाय-सोग मिच्छत्त-सेल-संकडं। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004190
Book TitleUvavaiya Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2005
Total Pages222
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aupapatik
File Size23 MB
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