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________________ ९० गच्छ रूप में विभक्त होकर तथा गच्छ के एक-एक भाग में विभक्त होकर एवं फुटकर फुटकर रूप में विभक्त होकर विराजते थे ।) अप्पेगइया वायंति । अप्पेगइया पडिपुच्छंति । अप्पेगइया परियट्टंति । अप्पेगड्या अणुप्पेहंति । भावार्थ - ऐसे उन अनगारों में से, वहाँ कई वाचना करते थे। कई प्रतिपृच्छा - प्रश्नोत्तर - शंका समाधान करते थे। कई पुनरावृत्ति करते थे और कई अनुप्रेक्षा करते थे । अप्पेगइया अक्खेवणीओ विक्खेवणीओ संवेयंणीओ णिव्वेयणीओ चउव्विहाओ कहाओ कहंति । भावार्थ - कई अनगार भगवन्त आक्षेपणी- मोह से हटाकर, तत्त्व की ओर आकर्षित करने वाली, विक्षेपणी-कुमार्ग से विमुख बनाने वाली, संवेगनी - मोक्षसुख की अभिलाषा उत्पन्न करने वाली औरं निर्वेदनी-संसार से उदासीन बनाने वाली, ये चार प्रकार की धर्म कथाएँ कहते थे । 1 उववाइय सुत्त अप्पेगइया उड्डुं जाणू अहोसिरा झाणकोट्ठोवगया संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणा विहरंति । भावार्थ - कई अनगार भगवन्त ऊँचे घुटने और नीचा शिर रखकर, ध्यान रूप कोष्ठ-कोठे में प्रविष्ट होकर संयम और तप आत्मा को भावित करते हुए विचरण करते थे । संसार - सागर से तिर कर पार होना Jain Education International संसार - भव्विग्गा भीया । भावार्थ - वे अनगार भगवन्त संसार के भय से उद्विग्न और डरे हुए थे । जम्मण- जर-मरण- करण- गंभीर - दुक्ख - पक्खुब्भिय - पउर-सलिलं । भावार्थ- संसार-सागर जन्म, जरा और मरण के द्वारा उत्पन्न हुए गंभीर दुःख रूप क्षुभित अपार जल से भरा हुआ है। संजोग - विओग-विची - चिंता - पसंग - पसरिय-वह-बंध-महल्ल- विउल-कल्लोलकलुण-विलविय - लोभ - कलकलंत - बोल-बहुलं । भावार्थ - उस दुःख रूप जल में संयोग-वियोग रूप लहरें पैदा होती है। वे तरंगें चिन्ता - प्रसंगों से फैलती हैं। वध और बन्धन रूप बड़ी मोटी कल्लोलें हैं, जो कि करुण विलाप और लोभ रूप कलकलायमान ध्वनि की अधिकता से युक्त है। अवमाणण- फेण-तिव्व-खिंसण- पुलंपुल - प्पभूय-रोग-वेयण- परिभव · For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004190
Book TitleUvavaiya Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2005
Total Pages222
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aupapatik
File Size23 MB
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