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अनगारों की सक्रियता
भावार्थ - कर्मव्युत्सर्ग-आत्मा के बन्धक भावों का त्याग किसे कहते हैं ? कर्मव्युत्सर्ग के आठ भेद कहे गये हैं। जैसे - १. ज्ञानावरणीय कर्म व्युत्सर्ग - ज्ञान गुण के आवरण रूप में कर्मपुद्गलों का जीव प्रदेशों के साथ सम्बन्धित हो जाने के कारणों का त्याग २. दर्शनावरणीयकर्म व्युत्सर्ग - सामान्य ज्ञान गुण के आवरण रूप में, कर्मपुद्गलों का जीव प्रदेशों के साथ बंध जाने के कारणों का त्याग ३. वेदनीय कर्म व्युत्सर्ग - साता और असाता की वेदना के कारण रूप कर्मपुद्गलों का आत्मा के साथ बद्ध होने के हेतुओं का और साता और असाता से आत्म-अभेदता की प्रतीति का त्याग ४. मोहनीय कर्म व्युत्सर्ग - स्व-प्रतीति और स्वभाव-रमण में बाधक कर्म-पुद्गलों का जीव के साथ बद्ध होने के हेतुओं का त्याग ५. आयुष्यं कर्म व्युत्सर्ग - जीव की अमरत्व शक्ति के बाधक कर्म पुद्गलों का जीव के साथ बद्ध होने के हेतुओं का और उस कर्म के उदय से होने वाली अवस्थाओं में अपनेपन के भान का त्याग ६. नाम कर्म व्युत्सर्ग - आत्मा के अमूर्तता-गुण को विकृत करने वाले कर्म पुद्गलों का जीव से बद्ध होने के कारणों का और उस कर्म के उदय से होने वाली दशाओं में अपनेपन की भ्रान्ति का त्याग ७. गोत्र-कर्म-व्युत्सर्ग - जीव के अगुरुलघु-न हलकापन और न भारीपन रूपगुण को विकृत करने वाले कर्म पुद्गलों के जीव के साथ बद्ध होने के कारणों का और उस कर्म के उदय से होने वाली दशाओं में अपनेपन की भ्रान्ति का त्याग और ८ अंतरायकर्म व्युत्सर्ग - जीव के अनन्त शक्ति गुण को सीमित करने वाले कर्मपुद्गलों का जीव से बद्ध होने के कारणों का त्याग। यह कर्मव्युत्सर्ग है। यह भावव्युत्सर्ग का स्वरूप है। :: विवेचन - यहाँ पर बाह्य और आभ्यन्तर तप का वर्णन किया गया है उसका आशय यह है कि श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के शिष्य इन दोनों प्रकार के तपों का आचरण करने वाले थे। उनका जीवन उपरोक्त तपों से सुवासित (सुगन्धित) था।
अनगारों की सक्रियता २१- तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवओ महावीरस्स बहवे अणगारा भगवंतो -
भावार्थ - उस काल और उस समय में (जब चम्पा नगरी में पधारे थे तब) श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के साथ बहुत से अनगार भगवन्त थे।
अप्पेगइया आयारधरा जाव विवागसुयधरा (तत्थ तत्थ तहिं तहिं देसे देसे गच्छागच्छि गुम्मागुम्मि फड्डाफडिं च)।
भावार्थ - उनमें कई आचारश्रुत के धारक यावत् विपाकश्रुत के धारक थे। अर्थात् आचारांग सूत्र से लेकर विपाकश्रुत तक ग्यारह अंगों के धारक थे। (वे उसी बगीचे में भिन्न-भिन्न जगह पर गच्छ
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