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________________ निर्ग्रन्थों का तप एक परिपाटी, १ वर्ष, ५ महीने और १२ दिन में पूरी होती है। चार परिपाटी, ५ वर्ष, ९ महीने और १८ दिन में पूरी होती है। पहली परिपाटी में पारणे में विकृति-दूध आदि लिये जा सकते हैं। दूसरी में विकृति का त्याग। तीसरी में लेप का त्याग। चौथी में आयंबिल। एकावली तप - क्रमशः चतुर्थ, षष्ठ और अष्टम। आठ चतुर्थ। चतुर्थ से लगाकर चौंतीस भक्त तक क्रमशः चढ़ना। चौंतीस चतुर्थ भक्त। चौंतीस भक्त से क्रमशः चतुर्थ तक उतरना। आठ चतुर्थ । फिर क्रमशः अष्टम, षष्ठ और चतुर्थ । एक परिपाटी का काल- १ वर्ष, २ महीने और २ दिन। चार परिपाटियों का काल- ४ वर्ष, ८ महीने और ८ दिन। पारणे में पूर्ववत् । नोट - श्रेणिक राजा की काली, महाकाली, सुकाली आदि महारानियों ने ये कनकावली आदि तप किये थे। इनका विशेष विवरण अन्तगड़ सूत्र में हैं। जिज्ञासुओं को वहाँ देखना चाहिये। खुड्डाग-सीह-णिक्कीलियं तवोकम्मं पडिवण्णा। अप्पेगइया महालयं सीहणिक्कीलियं तवोकम्मं पडिवण्णा। . . भावार्थ - कई लघुसिंह निष्क्रीडित तपःकर्म के करने वाले और कई महासिंह निष्क्रीडित तपः कर्म के करने वाले थे। विवेचन - जिस प्रकार सिंह, गमन करते हुए, पीछे छोड़े हुए प्रदेश को मुड़कर देखता जाता है, उसी प्रकार किये हुए तप को आगे बढ़कर पुन: करना, सिंहनिष्क्रीडित नाम का तपःकर्म कहा जाता है। इसके क्षुल्लक-लघु और महा ये दो भेद हैं। .. लघुसिंहनिष्क्रीडित तप - चतुर्थ, षष्ठ-चतुर्थ, अष्टम-षष्ठ, दशम-चार दिन के उपवासअष्टम, द्वादश-दशम, चतुर्दश-द्वादश, षोडश-चतुर्दश, अष्टादश-षोडश, विंशतितम-९ दिन के उपवासअष्टादश और विंशतितम। एवं षोडश-७ दिन के उपवास- अष्टादश-आठ दिन के उपवास चतर्दशषोडश, द्वादश-चतुर्दश, दशम-द्वादश, अष्टम-दशम, षष्ठ-अष्टम, चतुर्थ-षष्ठ और चतुर्थ। यह एक परिपाटी। ऐसी चार परिपाटियाँ करने पर यह तप पूरा होता है। एक परिपाटी का काल-६ महीने और ७ दिन। - चार परिपाटियों का काल-२ वर्ष और २८ दिन। पहली परिपाटी में पारणे के दिन (विकृति घी, दूध, दही, तेल और मीठा) ले सकते हैं। दूसरी परिपाटी के पारणों में विकृति का त्याग कर देते हैं। तीसरी परिपाटी के पारणों में विकृति के लेप का भी त्याग कर देते हैं और चौथी परिपाटी के पारणों में आयंबिल-रांधा हुआ या भुना हुआ अचित्त अन्न, पानी में भिगोकर, मात्र एक समय खाना-करते हैं। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004190
Book TitleUvavaiya Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2005
Total Pages222
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aupapatik
File Size23 MB
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