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________________ १७६ उववाइय सुत्त प्रयोजन से युक्त-औपधिक कर्मांश व्यापार-जो दूसरों के प्राणों को कष्ट कर हो-करते हैं, उनसे यावत् अंशत: अनिवृत्त हैं। जैसे कि-श्रमणोपासक होते हैं। __ अभिगयजीवाजीवा उवलद्धपुण्णपावा आसव-संवरणिजरकिरियाअहिगरणबंधमोक्खकुसला। भावार्थ - वे जीव और अजीव के स्वरूप को अनेक दृष्टियों से समझे हुए, पुण्य और पाप के अन्तर-रहस्य को पूर्णत: पाये हुए और आस्रव-आत्मा में कर्म-आगमन के मार्ग, संवर-कर्म-प्रवाह को रोकने के उपाय, निर्जरा-देशतः कर्म-क्षय, क्रिया-शरीरादि की प्रवृत्ति या प्रवृत्ति से अनिवृत्ति, अधिकरण-संसार के आधार या खड्गादि का निवर्तन और संयोजन, बन्ध-जड़-चेतन के मिश्रण की प्रक्रिया और मोक्ष-चेतन से जड़ का वियोग समस्त कर्मों का क्षय-में कुशल होते हैं। . . असहेजाओ देवासुरणागसुवण्णजक्खरक्खस्स-किण्णरकिंपुरिसगळंलगंधव्वमहोरगाइएहिं देवगणेहिं णिग्गंथाओ पावयणाओ अणइक्कमणिज्जा। भावार्थ - वे श्रमणोपासक धर्म जनित सामर्थ्य के अतिशय से देव आदि की सहायता की इच्छा नहीं रखते हैं। अथवा अपने द्वारा किये हुए शुभ और अशुभ कर्मों का फल आत्मा स्वयं ही भोगता है। अतएव वे दूसरों की सहायता की इच्छा नहीं रखते हैं। ऐसी उनकी मानसिक दृढ़ता होती हैं। वे देववैमानिक देव, असुर-नागकुमार-भवनपति जाति के देव, सुवर्ण-ज्योतिष्क देव, यक्ष-राक्षस-किन्नरकिंपुरुष-व्यन्तर जाति के देव, गरुड-सुवर्णकुमार, गन्धर्व-महोरग-व्यन्तर देव विशेष आदि देवगणों के द्वारा निर्ग्रन्थ-प्रवचन से विचलित नहीं होते हैं। __णिग्गंथे पावयणे णिस्संकिया णिक्कंखिया णिव्वि-तिगिच्छा, लद्धद्वा गहियट्ठा पुच्छियट्ठा अभिगयट्ठा विणिच्छियट्ठा अट्ठिमिंजपेम्माणुरागरत्ता-'अयमाउसो ! णिग्गंथे पावयणे अटे, अयं परमटे, सेसे अणटे।' भावार्थ - निर्ग्रन्थ-प्रवचन में निःशङ्कित होते हैं, वे अन्य दर्शन के आडम्बर को देखकर उधर आकर्षित नहीं होते हैं और वे करणी के फल के प्रति संदेह रहित होते हैं। वे लब्धार्थ-अर्थ को पाये हुए, गृहीतार्थ-अर्थ को धारे हुए, पृष्टार्थ-प्रश्न पूछकर अर्थ को जाने हुए, अभिगतार्थ-अर्थ को अनेक दृष्टियों से जाने हुए और विनिश्चितार्थ-अर्थ में पूर्णतः निश्चयात्मक बुद्धि रखने वाले होते हैं। उनकी अस्थि-मज्जा तक निर्ग्रन्थ-प्रवचन के प्रेमानुराग से रंगी हुई होती है। यह उनका अन्तर्घोष है कि-'हे आयुष्मन् ! यह जड़-चेतन की ग्रन्थियों को खोलने वाला प्रवचन ही अर्थ-सार, जीवन-लक्ष्य का साधक है, यही परमार्थ-चरम सत्य, उपकार-परायण है और शेष-सुखकर लगने वाले पदार्थ, उनको पाने की साधना, कुप्रावचन आदि अनर्थ-व्यर्थ या हानिकर है। विवेचन - मार्ग की सत्यता का सन्देह, अन्य मार्ग का आकर्षण और कार्य की सफलता में Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004190
Book TitleUvavaiya Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2005
Total Pages222
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aupapatik
File Size23 MB
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