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आभ्यन्तर-तप
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मन आदि को विश्रान्ति नहीं मिलती है। वैषयिकता के कारण योगों में तनाव बना रहता है। जिससे मनुष्य चिड़चिड़ा उतावला और बावला बन जाता है। तब वह अपने सांसारिक कार्यों को भी ठीक से नहीं कर पाता-साधना की तो बात ही दूर रही। जीव अनादि काल से योग-प्रवृत्ति करता रहता है। प्रवृत्ति की अतिशयता में आत्मानुभव होना सहज नहीं है। अत: योगों के प्रवृत्ति-जनित तनाव को दूर करने के लिये-उनकी क्रिया व्यवस्थिता और शक्ति शालिनी बनाने के लिये उन्हें शिथिल करना पड़ता है। यह कार्य 'योग-प्रतिसंलीनता' से सम्पादित होता है। 'काययोग प्रतिसंलीनता' के साथ-साथ जब मन योग प्रतिसंलीनता और वचन योग प्रतिसंलीनता का अभ्यास दृढ़ होकर सहज बनने लगता है, तब अनुपम शान्ति का अनुभव होता है और प्रवृत्ति व्यवस्थित बनती जाती है। बड़े-बड़े रोगों का भी शमन हो सकता है। आधुनिक मानस शास्त्रियों का 'शिथिलीकरण' इससे साम्य रखता है।
से किं तं विवित्त-सयणासण-सेवणया ? विवित्त-सयणासण सेवणयाए जं णं आरामेसु उजाणेसु देवकुलेसु सभासु पवासु पणियगिहेसु पणियसालासुइत्थी-पसु-पंडग-संसत्त-विरहियासु वसहीसु फासु-एसणिज-पीढ फलगसेज्जा-संथारगं उवसंपज्जित्ता णं विहरइ। से तं पडिसंलीणया। से तं बाहिरए तवे।
भावार्थ - विविक्त-शयनासन-सेवनता किसे कहते हैं ? आराम-पुष्प प्रधानवन फूलवाडी, उद्यान-फूल-फलादि से युक्त महावृक्षों का समुदाय-बगीचा, देवकुल-छतरियाँ या मन्दिर-सभागृह लोगों के बैठने का स्थान, प्रपा-जलदान स्थान-प्याउएं, पणितगृह- बर्तन आदि रखने के घर-गोदाम, पणितशाला, बहुत-से ग्राहक खरीददार और दायक-व्यापारी जनों के योग्य घर विशेष-जो कि स्त्री, पशु, पंडग-नपुंसक
की संसक्तता अर्थात् युक्तता से रहित हो, ऐसे स्थानों में निर्दोष और निर्जीव अर्थात् संयमी जीवन में ग्रहण - करने योग्य पीठ, फलक-पटिये, शय्या-पैर फैलाकर सो सके ऐसा बिछौना, संस्तारक, शय्या से छोटा तृणादि
का बिछौना को प्राप्त करके विचरने को विविक्त-शयनासन-सेवनता कहते हैं। यह प्रतिसंलीनता का स्वरूप है। यह बाह्य तप का स्वरूप पूर्ण हुआ।
आभ्यन्तर-तप २०-से किं तं अब्भितरए तवे ? अभितरए तवे छबिहे पण्णत्ते। तं जहा - पायच्छित्तं, विणओ, वेयावच्चं, सज्झाओ, झाणं, विउस्सग्गो। .
भावार्थ - आभ्यन्तर तप किसे कहते हैं ? आभ्यन्तर तप के छह भेद कहे गये हैं। जैसे १. प्रायश्चित्त - अतिचार आदि की विशुद्धि २. विनय - कर्म दूर हटाने के लिये नम्रता युक्त प्रवृत्ति ३. वैयावृत्य - आहारादि से संयमियों की सेवा ४. स्वाध्याय - शुद्ध ज्ञान का मर्यादा से युक्त पठनपाठन ५. ध्यान - एकाग्र शुभ चिन्तन या चित्तवृत्ति-निरोध और ६. व्युत्सर्ग - हेय का त्याग।
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