SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 85
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ७६ उववाइय सुत्त विवेचन - साधक के जागृत रहते हुए भी साधना में किसी न किसी प्रकार के दूषण लग ही जाते हैं। उन दोषों के कारण उसके हृदय में पश्चात्ताप होता है। उनकी शुद्धि करना चाहता है। अत: वह गुरुजनों के समक्ष नतमस्तक होकर, शुद्धि के उपायों को पूछता है। इस प्रकार दो आभ्यन्तर तपों का क्रम बनता है। पहला प्रायश्चित्त और दूसरा विनय। जो विनयवान् होता है, वैयावृत्य कर सकता है। वैयावृत्य से इतर समय में स्वाध्याय की जाती है। स्वाध्याय करते हुए एकाग्र-चिन्तन होता है-ध्यानदशा की प्राप्ति होती है। शुभ ध्यान से ही हेय का त्याग-व्युत्सर्ग होता है। यह आभ्यन्तर-तप के क्रमविधान का रहस्य है। से किं तं पायच्छित्ते ? पायच्छित्ते दसविहे पण्णत्ते। भावार्थ - प्रायश्चित्त किसे कहते हैं ? प्रायश्चित्त के दस भेद कहे गये हैं। तं जहा-आलोयणारिहे १ . भावार्थ - जैसे-१. आलोचनार्ह - दोषों को प्रकट करने से होने वाला प्रायश्चित्त अर्थात् विशुद्धि के लिये गुरु से निवेदन करना। विवेचन - भिक्षा, स्थंडिल, गमनागमन, प्रतिलेखना आदि दैनिक कृत्यों में लगने वाले दोषों के विषय में यह प्रायश्चित्त किया जाता है। गुरु या रत्नाधिक के समीप में अपने दोषों को निष्कपट भाव से प्रकट किया जाता है। इसीलिए इससे होने वाली विशुद्धि को भी 'आलोचनाह' कहा है। पडिक्कमणारिहे २, भावार्थ - प्रतिक्रमण - पाप से पीछे लौटने से होने वाला प्रायश्चित्त प्रतिक्रमणार्ह है।, विवेचन - पांच समिति, तीन गुप्ति के सम्बन्ध में सहसाकार आदि से लगने वाले दोषों के विषय में यह प्रायश्चित्त है। इसमें 'मिच्छा मि दुक्कडं' दिया जाता है अर्थात् 'मेरा दुष्कृत पाप मिथ्या हो-निष्फल हो। आदि चिन्तन पूर्वक दोषों के विषय में पश्चात्ताप होता है। तदुभयारिहे ३, भावार्थ - आलोचना और प्रतिक्रमण दोनों से होने वाला प्रायश्चित्त तदुभयार्ह होता है। विवेचन-निद्रावस्था में साधारण दुःस्वप्न से महाव्रतों में दोष लगे हैं-ऐसी शङ्का आदि दोषों के विषय में यह प्रायश्चित्त है। जिसमें गुरु के समक्ष आलोचना पूर्व 'मिथ्यादुष्कृत' दिया जाता है। विवेगारिहे ४, भावार्थ - परठना रूप त्याग के द्वारा होने वाला प्रायश्चित्त विवेकाह कहलाता है। विवेचन - अनजान में आधाकर्म आदि दोष से युक्त आहारादि आ जाय और यह बात विदित हो जाय, तब उसे उपभोग में न लेकर परठ देने से यह प्रायश्चित्त होता है। विउस्सग्गारिहे ५, Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004190
Book TitleUvavaiya Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2005
Total Pages222
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aupapatik
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy