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________________ ७४ उववाइय सुत्त आने देना, जैसे अपने अधीन व्यक्तियों को दृढ़ता पूर्वक आदेश दिये जाते हैं, वैसे ही अपने-आपको इन्हें नहीं करने का आदेश देना, त्रिकाल महापुरुषों की शरण-ग्रहण पूर्वक इन अध्यात्म-दोषों की निन्दा-भर्त्सना करना और गुणीजनों के गुणों की प्रशंसा करते हुए उन गुणों की प्राप्ति की कामना करना आदि को 'उदयनिरोध' कहते हैं। क्रोधादि का उदय होने पर उन भावों से योगों को हटा लेना, उन भावों से विपरीत भावों को धारण करना, जैसे-क्रोध आने पर, क्षमा के-मैत्री के भाव धारण करना, इसी तरह मान के विरोधी मार्दव-नम्रता विनय भाव, माया के विरोधी ऋजुता-सरलता भाव और लोभ के विरोधी संतोष भाव से युक्त योगों को धारण करना आदि से 'उदय विफलीकरण' होता है। से किं तं जोग-पडिसंलीणया ? जोग-पडिसंलीणया तिविहा पण्णत्ता।तं जहामण-जोगपडिसंलीणया, वय-जोगपडिसंलीणया, काय-जोगपडिसंलीणया। भावार्थ - योग प्रतिसंलीनता किसे कहते हैं ? - योग प्रतिसंलीनता के तीन भेद कहे गये हैं। जैसे - १. मनोयोग-प्रतिसंलीनता, २. वचन योग प्रतिसंलीनता और ३. काय योग प्रतिसंलीनता।.. सेकिंतंमण-जोगपडिसंलीणया ?मण-जोगपडिसंलीणयाअकुसल-मणणिरोहो वा, कुसल-मण-उदीरणं वा।से तं मण-जोगपडिसंलीणया। . . भावार्थ - मनोयोग प्रतिसंलीनता किसे कहते हैं ? - अकुशल मन का निरोध-बुरे विचारों को नहीं आने देना या कुशल मन की उदीरणा करना-शुभ विचारों का अभ्यास करना, यह मनोयोग प्रतिसंलीनता-मन की एकाग्रता का अभ्यास है। से किं तं वय-जोगपडिसंलीणया ? वय-जोगपडिसंलीणया अकुसल-वयणिरोहो वा, कुसल-वय-उदीरणं वा। से तं वय-जोगपडिसंलीणया। ' ___भावार्थ - वचन योग प्रतिसंलीनता किसे कहते हैं ? अकुशल- अशुभ वचन का निरोध करना, अशुभ वचन की प्रवृत्ति को रोकना या कुशल वचन की उदीरणा करना, शुभ वचन का अभ्यास करना, यह वचन योग प्रतिसंलीनता-वाणी एक रूपता की साधना है। से किं तं काय-जोगपडिसलीणया ?कायजोग-पडिसंलीणया जण्णं सुसमाहियपाणिपाए कुम्मो इव गुत्तिंदिए सव्व-गाय-पडिसंलीणे चिट्ठइ। से तं काय जोगपडिसंलीणया।(से तं जोगपडिसंलीणया)। भावार्थ - काय योग प्रतिसंलीनता किसे कहते हैं ? हाथ पैर को स्थिर करके कछुए के समान इन्द्रियों को गुप्त करके, सारे शरीर के अंगों को संवृत्त करके बैठना काय योग प्रतिसंलीनता- कायिक एकाग्रता की साधना है। विवेचन - दैनिक कार्यों में प्रायः योगों की प्रवृत्ति अस्त-व्यस्त और बिखरी हुई रहती है और कभी-कभी मनुष्य अनिद्रा आदि रोगों से ग्रस्त हो जाते हैं। क्योंकि गलत और वृथा प्रवृत्ति के कारण Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004190
Book TitleUvavaiya Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2005
Total Pages222
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aupapatik
File Size23 MB
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