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________________ कर्म-बन्धन १३९ जीवे णं भंते ! असंजय-अविरयअप्पडिहय-पच्चक्खाय पावकम्मे सकिरिए असंडेएगंतदंडे एगंतबाले एगंतमुत्तेमोहणिजपावकम्मंअण्हाइ?-हंताअण्हाइ॥२॥ भावार्थ - हे भन्ते (हे भगवन्) ! वह जीव जो असंयत है-जिसने संयम की आराधना नहीं की, जो अविरत है-हिंसा आदि से विरत नहीं है, जिसने प्रत्याख्यान द्वारा पाप कर्मों को प्रतिहत नहीं किया सम्यक् श्रद्धापूर्वक पाप का त्याग नहीं किया, हलका नहीं किया, जो सक्रिय-कायिक वाचिक तथा मानसिक क्रियाओं से युक्त है-क्रियाएं करता है, जो असंवृत्त है-संवर रहित है जिसने इन्द्रियों का संवरण या निरोध नहीं किया, जो एकान्तदंडयुक्त है-जो अपने को तथा ओरों को पाप कर्म द्वारां एकान्ततः-सर्वथा दण्डित करता है, जो एकान्त-बाल है-सर्वथा मिथ्यादृष्टि-अज्ञानी है, जो एकान्त सुप्त है-मिथ्यात्व की निद्रा में बिलकुल सोया हुआ है, क्या वह मोहनीय पाप-कर्म से लिप्त होता हैमोहनीय पाप-कर्म का बन्ध करता है ? हाँ गौतम ! करता है। जीवेणंभंते!मोहणिजंकम्मंवेएमाणे किंमोहणिजंकम्मंबंधइ ? वेयणिजंकम्म बंधइ ? गोयमा! मोहणिजपि कम्मं बंधइ, वेयणिजंपि कम्मं बंधइ। णण्णत्थ चरिममोहणिज कम्मं वेएमाणे वेयणिज कम्मं बंधइ णो मोहणिजं कम्मं बंधइ॥३॥ भावार्थ - हे भन्ते (हे भगवन्) ! जीव, मोहनीय कर्म को वेदता हुआ, क्या मोहनीय कर्म बांधता है ? - क्या वेदनीय कर्म बांधता है ? ___ - गौतम ! मोहनीय कर्म भी बांधता है और वेदनीय कर्म को भी बांधता है। किन्तु चरम मोहनीय कर्म को वेदता हुआ वेदनीय-सुखादि अनुभूति के कारण रूप कर्म को बांधता है, मोहनीय कर्म को नहीं बांधता है। __ विवेचन - जीव, सूक्ष्मसम्पराय नामक दसवें गुणस्थान में, चरममोहनीय लोभमोहनीय को सूक्ष्म किट्टिका रूप में वेदते हुए, वेदनीय को बांधता है। क्योंकि वेदनीय के अबन्धक सिर्फ चौदहवें गुणस्थानवर्ती अयोगी ही होते हैं और वह मोहनीय को नहीं बांधता है। क्योंकि सूक्ष्मसम्पराय में स्थित जीव मोहनीय और आयुष्य को छोड़कर छह कर्म प्रकृतियों का ही बन्धक होता है। कहा है - __'सत्तविहबंधगा होति पाणिणो आउवजियाणं तु। तह सुहुमसंपराया छव्विहबंधा विणिहिट्ठा॥ मोहाउयवजाणं पयडीणं ते उ बंधगा भणिया। - जब जीव आयुष्य कर्म को नहीं बांधता है तब वह सप्तविध बन्धक होता है और जब सूक्ष्मसंपराय नामक दसवें गुणस्थान में होता है तब मोहनीय और आयुष्य कर्म को नहीं बांधता हैं तब वह षडविह बन्धक कहलाता है। वेदनीय और मोहनीय कर्म का बहुत निकट का सम्बन्ध है। वेदनीय कर्म, मोहनीय की उदयावस्था में प्रायः उसका पोषक हो जाता है और मोहनीय की उदयावस्था तक ही अघातिया कर्म का Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004190
Book TitleUvavaiya Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2005
Total Pages222
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aupapatik
File Size23 MB
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