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________________ योग-निरोध और सिद्धि १८९ संज्ञी पञ्चेन्द्रिय द्वीन्द्रिय और अपर्याप्त पनक-जीवों की निम्नस्तरीय योग प्रवृत्ति के असंख्यातवें भाग जितनी रही हुई योग प्रवृत्ति को समय-समय में क्रमशः रोकते हुए, पूर्णतः योग-निरोध करते हैं। यथा पजत्तमेत्त सण्णिस्स, जत्तियाइं जहण्ण जोगिस्स। होति मणोदव्वाई, तव्यावारो य जम्मत्तो॥ तदसंखगुण विहीणं, समए समए णिरुंभमाणो सो। मणसो सव्वणिरोह, करे असंखेज समएहिं॥ एवमन्यदपि सूत्रद्वयं नेयम्।...(टीकायां उद्धृतगाथे)। - अर्थात् जघन्य योगी पर्याप्त संज्ञी की जितनी मनोद्रव्य की और मनोव्यापार की मात्रा होती है, उससे भी असंख्यात गुण हीन मात्रा में मन का समय समय पर निरोध करते हुए, केवली असंख्यात समय में मन का पूर्णतः निरोध कर देते हैं। इसी प्रकार शेष दो सूत्रों के विषय में भी यह समझना चाहिए। काययोग के निरोध के बाद तो योग निरोध हो ही जाता है, फिर अलग से योग-निरोध का कथन क्यों किया गया है ? - वीर्य के द्वारा योगों की प्रवृत्ति होती है। उस योग-प्रवृत्ति के मूल करणवीर्य का निरोध जहाँ तक नहीं होता है वहाँ तक पूर्णत: योग-निरोध नहीं माना जाता। उस करणवीर्य का निरोध भी अकरणवीर्य से हो जाता है। अर्थात् काययोग के निरोध के बाद केवली करणवीर्य से हटकर, अकरणवीर्य में पूर्णतः स्थित हो जाते हैं। संभवतः यही दर्शाने के लिए योग-निरोध और अयोगता का कथन अलग से हुआ है। जोगणिरोहं करेत्ता अजोगत्तं पाउणंति। अजोगत्तं पाउणित्ता इसिंहस्सपंचक्खरउच्चारणद्धाए असंखेजसमइयं अंतोमुहुत्तियं सेलेसिं पडिवजइ। भावार्थ - योग निरोध करके अयोगी अवस्था को प्राप्त होते हैं। अयोगी अवस्था-मन, वचन और काया की क्रिया से रहित अवस्था को प्राप्त करके, ईषत्स्पृष्ट पांच ह्रस्व अक्षरों के उच्चारण जितने काल की-असंख्यात समय के अन्तर्मुहूर्त के काल की-शैलेशी अवस्था को प्राप्त होते हैं। विवेचन - अयोगी अवस्था के अलग-से कथन में यह भी रहस्य हो सकता है कि-जो आत्मपरिणति योग-निरोध के लिये प्रवृत्त हुई थी उसका भी, कार्य पूरा हो जाने के कारण शमन हो गया। - अ, इ, उ, ऋ और ल ये पांच हस्व अक्षर हैं। इनका न द्रुत न विलम्बित, किन्तु मध्यम उच्चारण ग्रहण किया गया है। कहा है - हस्सक्खराइं मझेण जेण कालेण पंच भण्णति। अच्छा सेलेसिगओ, तत्तियं मेतं तओ काल॥ . . अ, इ, उ, ऋ और लु ये पांच इस्व अक्षर हैं इनको जल्दी भी नहीं और बहुत विलम्ब करके भी Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004190
Book TitleUvavaiya Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2005
Total Pages222
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aupapatik
File Size23 MB
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