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उववाइय सुत्त
योग-निरोध और सिद्धि ४३- से णं भंते ! सजोगी सिग्झइ जाव अंतं करेइ? - णो इणढे समढे। ___ भावार्थ - हे भन्ते ! क्या सयोगी केवली मन, वचन और काया से सक्रिय सिद्ध होते हैं ? यावत् सब दुःखों का अन्त करते हैं? - हे गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है अर्थात् सयोगी केवली सिद्ध नहीं होते हैं।
से णं पुवामेव सण्णिस्स पंचिंदियस्स पज्जत्तगस्स जहण्ण-जोगस्स (जोगिस्स) हेट्ठा असंखेजगुणपरिहीणं पढमं मणजोगं णिरुंभइ।
भावार्थ - हे गौतम ! वे केवली भगवान् सबसे पहले पर्याप्तक संज्ञी पञ्चेन्द्रिय के जघन्य मनोयोग के नीचले स्तर से असंख्यात गुण हीन मनोयोग का निरोध करते हैं। अर्थात् योग-निरोध का आरंभ करने वाले केवली सब से पहले पर्याप्त संज्ञी पञ्चेन्द्रिय के अल्पतम मानसिक व्यापार के असंख्यातवें भाग जितने मनोव्यापार रहता है, शेष सब का निरोध कर देते हैं।
तयाणंतरंचणंबेइंदियस्सपजत्तगस्सजहण्ण-जोगस्स हेट्ठाअसंखेजगुणपरिहीणं बिइयं वयजोगं णिरुंभइ।
भावार्थ - इसके बाद पर्याप्तक द्वीन्द्रिय जीव के जघन्य वचनयोग के नीचले स्तर से भी असंख्यात गुण हीन दूसरे वचनयोग का निरोध करते हैं। अर्थात् उस जीव की निम्नतम स्तरीय वाचिक प्रवृत्ति की असंख्यातवें भाग जितनी वाचिक प्रवृत्ति रहती है, शेष सब का निरोध कर देते हैं।
तयाणंतरं च णं सुहमस्स पणगजीवस्स अपजत्तगस्स जहण्ण-जोगस्स हेट्ठा असंखेजगुणपरिहीणं तइयं कायजोगं णिसंभइ।
भावार्थ - इसके पश्चात् अपर्याप्त सूक्ष्म पनक-फूलन-जीव के जघन्य योग के नीचले स्तर से असंख्यातगुण हीन तीसरे काययोग का निरोध करते हैं।
से णं एएणं उवाएणं पढमं मणजोगं णिरुभइ णिभित्ता, वयजोगं णिरुंभइ। वयजोगं णिरुभित्ता कायजोगं णिरुंभइ। कायजोगं णिकैभित्ता जोगणिरोहं करे। ____भावार्थ - इस उपाय से पहले मन योग को अर्थात् मन की क्रिया को रोक करके वचन की क्रिया को रोकते हैं। वचन की क्रिया को रोक कर काया की क्रिया का निरोध करते हैं और काया की क्रिया को रोक कर, योग-निरोध-मन वचन और काया से संबंधित होने वाली आत्मा की सभी प्रवृत्ति को रोक देते हैं।
विवेचन - 'एएणं उवाएणं' शब्दों से यह अर्थ झलकता है कि-केवली तथा कथित-पर्याप्त
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