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समुद्घात के बाद की योग प्रवृत्ति
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देने के लिये केवली भगवान् मनोयोग की प्रवृत्ति करते हैं और जीवादि पदार्थों की प्ररूपणा करते हुए सत्यवचनयोग की प्रवृत्ति करते हैं और आमंत्रणादि में असत्य-अमृषा वचन योग की प्रवृत्ति करते हैं।
कायजोगं जुंजमाणे आगच्छेज वा चिटेज वा णिसीएज वा तुयट्टेज वा उल्लंघेज वा पल्लंघेज वा, उक्खेवणं वा पक्खेवणं वा तिरियक्खेवणं वा करेजा, पाडिहारियं वा पीढफलग सेज्जासंथारगं पच्चप्पिणेजा।
भावार्थ - काययोग की प्रवृत्ति करते हुए आते हैं, ठहरते हैं, बैठते हैं, सोते हैं, लांघते हैं, विशेष लांघते हैं, उत्क्षेपण-उछालना, अवक्षेपण-नीचे डालना और तिर्यक्क्षेपण-आजु-बाजु या आगे-पीछे रखना। अथवा ऊँची, नीची और तिरछी गति करते हैं और लौटाने योग्य आसन, पटिये, शय्या और संस्तारक लौटाते हैं।
विवेचन - केवलिसमुद्घात के पश्चात् अन्तर्मुहूर्त में योगनिरोध होता है। केवलिसमुद्घात नियमतः किसे करना पड़ती है? - इस विषय में मतभेद है। यथायो पाण्मासाधिकायुष्को, लभते केवलोद्गमम्। करोत्यसो समुद्घातमन्ये कुर्वन्ति वा न वा॥
- छह मास और छह मास से अधिक आयुष्य वाले को केवलज्ञान होने पर वे अवश्य समुद्घात करते हैं और छह महीने से न्यून आयुष्य वाले को केवलज्ञान होने पर, वे समुद्घात करते भी हैं और नहीं भी करते।
- गुणस्थान क्रंमारोह आवश्यक नियुक्ति से भी इसी कथन की पुष्टि होती है। यथाछम्मासाउ-सेसे, उप्पण्णं जेसिं केवलं णाणं। तेणियमा समुग्घाया, सेसा समुग्धाय भइयव्या॥
- किन्तु आवश्यक-चूर्णिकार का मन्तव्य, इससे बिलकुल विरुद्ध है। यथा-'येऽन्तर्मुहूर्त्तमादि, कृत्वोत्कर्षेण आमासेभ्यः षड्भ्यः आयुषोऽवशिष्टेभ्यः अभ्यन्तराविर्भूत केवलज्ञान पर्यायास्ते नियमात् समुद्घाप्तं कुर्वन्ति। ये तु षड्मासेभ्यः उपरिष्टादाविर्भूतकेवलज्ञानाः शेषास्ते समुद्घातबाह्याः । ते समुद्घातं न कुर्वन्ति-इत्यर्थः । अथवा अयमर्थः-शेषाः समुद्घातं प्रतिभाज्याः।' ___ - जो मनुष्य अन्तर्मुहूर्त से लगा कर, छह महीने जितना आयुष्य शेष रहने पर केवलज्ञान प्राप्त करें, तो अवश्य समुद्घात करते हैं। किन्तु जिन मनुष्यों को आयुष्य छह महीने से अधिक हो, वे केवलज्ञान प्राप्त करे तो समुद्घात से बाह्य हैं। अर्थात् वे समुद्घात नहीं करते हैं। अथवा शेष-छह महीने से अधिक आयुष्य वाले समुद्घात करते भी हैं और नहीं भी करते हैं।
यद्यपि नियुक्ति की-'छम्मासाउ सेसे...' इस गाथा का अर्थ चूर्णिकार के मतानुकूल भी हो सकता है। फिर भी दोनों पक्ष खड़े रहते ही हैं। अतः तत्त्व केवलिगम्य।
- प्रश्नोत्तर मोहनमाला प्रश्न ३७ का उत्तर पृ० १०५-१०८
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