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________________ बाह्य तप ६१ बाह्यतप कहते हैं। मोक्षमार्ग में दोनों प्रकार के तप का स्थान है। शास्त्रों में वर्णित महापुरुषों के जीवन चरित्र भी इस बात की पुष्टि करते हैं। मोक्ष भावना से निरपेक्ष दोनों प्रकार के तप अकाम-निर्जरा में ही परिगणित होते हैं। आत्मलक्ष्य और आत्मज्ञान से शून्य निर्जरा-तप पुण्य-बन्ध में ही सहायक होकर रह जाता है। इसके प्रमाण स्वरूप में अभव्य जीव की साधना कही जा सकती है। सम्यग् दृष्टि की साधना की अपेक्षा से ही बाह्य और आभ्यन्तर भेद किये गये हों-ऐसा लगता है, क्योंकि विकलदृष्टि कृत आभ्यन्तर तप भी वस्तुतः बाह्यतप ही है और उस तप की संज्ञा अकामनिर्जरा-आत्मशुद्धि रूप फल की प्राप्ति न हो वैसा तप है। यथा - 'भीतर ही शरीर को तपाने के कारण और सम्यग्दृष्टि के द्वारा ही तप रूप से प्रतीत होने के कारण आभ्यन्तर तप कहलाता है और बाहरी शरीर को ही तपाने के कारण तथा मिथ्यादृष्टि के द्वारा भी तपरूप से प्रतीत होने के कारण तप की बाह्य संज्ञा है।' शक्ति होते हुए भी आभ्यन्तर तप के बहाने यदि बाह्यतप की उपेक्षा की जाती है तो आत्मा मिथ्या छल में फंसकर, बहिर्मुख बन जाता है और आभ्यन्तर तप की अवहेलना करके, बाह्यतप किया जाता है तो क्रोधादि कषायों की वृद्धि होती है, जिससे पौद्गलिक ऋद्धियों में उलझने की वृत्ति का निर्माण होता है। परस्पर निरपेक्ष दोनों प्रकार के तप केवलिप्रज्ञप्त धर्म से भ्रष्ट कर दे-यह भी संभव है। अतः दोनों प्रकार के तप के सामञ्जस्य पूर्ण आराधन में ही सम्यग्दृष्टि और चारित्र की सुरक्षा है। शक्ति के बहाने से भी बाह्यतप की उपेक्षा होती है। किन्तु मनोबल की दृढ़ता के साथ विविध बाह्य तपों का विधि सहित प्रयोग करने पर तपःशक्ति स्वतः ही विकसित हो सकती है और श्रमण अनेक अनिष्टों से बच सकता है। क्योंकि आत्मा के परिस्पंद से वीर्य पैदा होता है और जब तक आत्मा योग-मन, वचन और काया की क्रिया से युक्त है तब तक वह निःस्पन्द नहीं हो सकता। अतः वीर्य-क्रिया करने का उत्साह पैदा होगा ही। यदि उसका उपयोग नहीं किया जाता है तो आत्मा का अध:पतन होता है-आकुलता बढ़ती है और वृथा क्रियाएँ जन्म लेती है। इसलिये उस वीर्य का बाह्य और आभ्यन्तर तप में उपयोग करके, आत्मविकास को पूर्णता के चरम शिखर पर पहुँचाया जा सकता है। बाह्य तप १९-से किं तं बाहिरए ? बाहिरए छव्विहे पण्णत्ते, तं जहा - अणसणे १, अवमोयरिया (ऊणोयरिया) २, भिक्खायरिया ३, रसपरिच्चाए ४, कायकिलेसे ५, पडिसंलीणया ६। भावार्थ - बाह्य तप किसे कहते हैं ? बाह्य तप छह प्रकार का कहा गया है। जैसे - १. अनशन- नहीं खाना २. अवमोदरिक- कम खाना अथवा द्रव्य-भाव साधनों को कम काम में लेना ३. भिक्षाचा - याचना से प्राप्त संयमी जीवन के योग्य साधनों को लेना या वृत्ति-आजीविका के साधनों को घटाना ४. रस-परित्याग-रसास्वाद को छोड़ना ५. कायक्लेश - सुकुमारता त्यागने के लिये Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004190
Book TitleUvavaiya Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2005
Total Pages222
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aupapatik
File Size23 MB
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