SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 71
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ६२ उववाइय सुत्त कायिक दमन के योग्य उपायों को स्वीकार करना और ६. प्रतिसंलीनता - अन्तर्बाह्य चेष्टाओं का संवरण करने के लिए किये जाने वाले बाहरी उपाय। विवेचन - प्रश्न - तप किसे कहते हैं ? उत्तर - शरीर और कर्मों को तपाना तप है। जैसे अग्नि में तपा हुआ सोना निर्मल होकर शुद्ध हो जाता है, उसी प्रकार तप रूप अग्नि से तपा हुआ आत्मा कर्म मल से रहित होकर शुद्ध स्वरूप हो जाता है। तप दो प्रकार का है-बाह्य तप और आभ्यन्तर तप। बाह्य शरीर से सम्बन्ध रखने वाले को 'बाह्य तप' कहते हैं। _यदि ये बाह्यतप मुक्ति की अभिलाषा से तीव्र आन्तरिक रुचि से किये जाते हैं तो गौण रूप से आभ्यन्तर तप की साधना भी होती है और आत्मिक गुणों का विकास होता ही है। अनशन से मैत्री भावना का पोषण, कामुकता के उद्दीपन का अभाव, अनमोह का त्याग, दैहिक ममता पर विजय आदि गुण प्राप्त होते हैं। न्यूनोदरता से इच्छा-निरोध, इन्द्रिय-निरोध, मनोबल की दृढ़ता आदि गुण सधते हैं। भिक्षाचर्या से आवश्यकता की पूर्ति या अपूर्ति की विविध स्थितियों में समभाव की साधना की जा . सकती है। रसपरित्याग से अनासक्ति की पुष्टि होती है और असातावेदनीय का क्षय होता है। कायक्लेश से सुकुमारता के परिहार, सुख-शीलियापन के त्याग, ऋतु के अनुकूल शरीर को बनाने, कष्टसहिष्णुता आदि की साधना में सहायता मिलती है और प्रतिसंलीनता से चित्तशान्ति, एकाग्रता आदि : की वृद्धि होती है। से किं तं अणसणे ? अणसणे दुविहे पण्णते, तं जहा-इत्तरिए य आवकहिए य। भावार्थ - अनशन किसे कहते हैं ? - अनशन के दो भेद कहे गये हैं। जैसे - १. इत्वरिक - मर्यादित समय के लिये आहार का त्याग करना और २. यावत्कथिक - जीवन पर्यन्त आहार का त्याग करना। - विवेचन - प्रश्न - उत्कृष्ट इत्वरिक तप कितना होता है ?. उत्तर - अवसर्पिणी काल के प्रथम तीर्थंकर के शासन में एक वर्ष, दूसरे से लेकर तेईसवें तीर्थंकर तक आठ महीना और अन्तिम तीर्थंकर के शासन में छह महीना का उत्कृष्ट तप होता है, अर्थात् इस अवसर्पिणी काल के प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव के शासन में एक वर्ष, बीच के बाईस तीर्थङ्करों के शासन में आठ महीना और श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के शासन में छह महीने का उत्कृष्ट तप होता है। तीर्थंकर भगवन्तों का सब तप चौविहार ही होता है, बाकी सब सन्त-सतियों और श्रावक-श्राविका का तप चौविहार या तिविहार भी हो सकता है। जिस तीर्थंकर के शासन में जितना उत्कृष्ट तप होता है उतना ही उत्कृष्ट दीक्षा छेद दिया जा सकता है, उससे अधिक नहीं, यही बात तप के विषय में भी समझना चाहिये। इससे अधिक श्रद्धा, प्ररूपणा और फरसना करें तो भगवान् की आज्ञा का उल्लंघन होता है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004190
Book TitleUvavaiya Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2005
Total Pages222
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aupapatik
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy