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________________ .. उववाइय सुत्त भावार्थ - वे इहलोक और परलोक सम्बन्धी आसक्ति से रहित और संसार-पारगामी-चतुर्गति रूप संसार के पार पहुंचने वाले कर्म-नाश के लिये तत्पर हो कर विचरण करते थे। . विवेचन - इस पूरे सूत्र में अनगार का स्वरूप वर्णित है। भगवान् महावीर स्वामी के शिष्यों की संयम यात्रा, निर्लिप्तता, उपमाओं द्वारा स्तुति-प्रशंसा, अप्रतिबद्ध विहार की क्रमबद्धता, समभावना और ऐसी कठोर चर्या के उद्देश्य का वर्णन सुन्दर ढंग से हुआ है। अगारवास में आसक्त व्यक्ति की हलन चलनादि क्रिया में भाषा-प्रयोग में, आकांक्षा आदि में संयम नहीं रह सकता। उसकी वृत्ति प्राय: बहिर्मुख ही रहती है। उन्हें इहलौकिक स्वार्थ-परार्थ की चिन्ताएँ सताती रहती है। जीवनलक्ष्य के प्रति भी उनका सही विचार नहीं बन सकता। अन्तर्-व्यथा और उलझनों से भ्रान्तियाँ बढ़ती ही जाती हैं। जब कि अनगार-अवस्था में आस्थावान् व्यक्ति इन कठिनाइयों से सहज में पार हो जाता है और अपने लक्ष्य की ओर उसका वायुवेग-सी गति हो जाती है। वे घरबार को छोड़कर अनगार बन जाते हैं। अत: घर से सम्बन्धित तमाम आसक्तियाँ छोड़ देते हैं। स्वयं के लिये जिन्हें असार समझकर छोड़ दिया हो, फिर 'अन्य को वे ही वस्तुएँ प्राप्त हो' - ऐसे चिन्तन या ऐसी झञ्झट में वे कैसे पड़ सकते हैं और भविष्य में उन्हीं वस्तुओं की प्राप्ति की कामनाएँ उनके हृदय में कैसे रह सकती है ? अतः अनगार सहज ही ऐहिक और पारलौकिक आसक्तियों से मुक्त हो जाते हैं। जो सभी आसक्तियों को छोड़कर, आत्मिक लक्ष्य के अनुकूल जीवन व्यतीत करने की प्रतिज्ञा ग्रहण करता है तो वह अपकारी और उपकारी व्यक्तियों के प्रति, शुभ और अशुभ वस्तुओं के प्रति और अपनी अनुकूल और प्रतिकूल परिस्थितियों के प्रति समभाव रखने पर ही संसार-पारगामी होकर, कर्मक्षय के लिये तत्पर बन सकता है। अर्थात् स्पष्ट आत्मिक लक्ष्य की सतत स्मृति, बहिर्वृत्ति । से मुक्ति, समभावना, अनासक्ति, निर्लिप्तता और क्रिया में यतना के अस्तित्व से ही अनगार जीवन का निर्माण होता है। अनगारों की तपश्चर्या १८- तेसि णं भगवंताणं एएणं विहारेणं विहरमाणाणं इमे एयारूवे अभितरबाहिरए तवो-वहाणे होत्था। तं जहा-अभितरए छविहे, बाहिरए वि छब्बिहे। भावार्थ - इस प्रकार के विहार से विचरण करने वाले उन अनगार भगवंतों का इस प्रकार से बाह्य और आभ्यन्तर तपाचरण था। जैसे कि - आभ्यन्तर तप के छह प्रकार और बाह्य तप के भी छह प्रकार होते हैं। विवेचन - अन्तर्-साधनों से बहिराचरण को प्रभावित करके, अन्तर्मुख होने या आत्मिक दोषों को त्यागने की आन्तरिक क्रिया को आभ्यन्तर तप कहते हैं और बाहरी साधनों से आत्मक्रिया को प्रभावित करने अर्थात् जिन बाहरी साधनों से आत्मक्रिया दूषित होती हो उन साधनों के त्याग को Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004190
Book TitleUvavaiya Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2005
Total Pages222
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aupapatik
File Size23 MB
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