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अनगारों का अप्रतिबंध विहार
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२. ग्रीष्म - ज्येष्ठ और आषाढ़। ३. वर्षा - श्रावण और भाद्रपद।। ४. शरद् - आश्विन और कार्तिक। ५.शीत - मार्गशीर्ष और पौष। ६. हेमन्त - माघ और फाल्गुन।
ते णं भगवंतो वासावासवजं अट्ठ-गिम्ह-हेमंतियाणि मासाणि गामे एगराइया णयरे पंचराइया।
. भावार्थ - वे अनगार भगवन्त, वर्षावास को छोड़कर, ग्रीष्म और शीतकाल के आठ महिनों तक, गांव में एक रात और नगर में पांच रात रहते थे।
विवेचन - 'गांवों में एक रात्रि और नगर में पांच रात्रि' इसमें 'एक रात्रि' का अर्थ रविवार आदि वारों के क्रम से 'एक सप्ताह' और 'पांच रात्रि का अर्थ 'पांचवें सप्ताह' में विहार (२९ दिन) करते हैं। जो मास कल्प के अनुकूल हैं।
वासी-चंदण-समाण-कप्पा। भावार्थ- वे वासी चन्दन के समान कल्प वाले थे।
विवेचन - चन्दन अपने काटने वाले वशुले की धार को भी सुगन्धित बना देता है। क्योंकि चन्दन का स्वभाव ही सुगन्ध देना है। इसी प्रकार अपकारी के प्रति भी उपकार बुद्धि रखना अथवा अपने प्रति 'वासी' अर्थात् वशुले के समान बरताव करने वाले अपकारी और चन्दन के समान शीतलता प्रदाता उपकारी के प्रति समान भाव रखना-राग द्वेष नहीं करना अथवा शस्त्र से काटने वाले और चंदन से पूजने वाले के प्रति समभाव रखना 'वासी-चंदण-समाण-कप्पा' (वासी-चंदन-समान-कल्प) कहा जाता है।
सम-लेट्ठ-कंचणा, सम-सुह-दुक्खा । . भावार्थ - मिट्टी के ढेले और सोने को एक समान (उपेक्षणीय) समझने वाले तथा सुख और दुःख को समभाव से सहन करने वाले थे।
विवेचन - ढेला और सोना दोनों ही पुद्गल है। मिट्टी सोने में बदल सकती है और सोना मिट्टी बन सकता है। अत: दोनों में एक ही तत्त्व है। आत्मिक भाव वृद्धि में उनसे सहयोग नहीं मिल सकता। अतः उनमें लोभ आदि नहीं करना-समभाव है।
सुख-दुःख कर्म के उदय से ही होता है। दूसरे तो निमित्त मात्र हैं। अतः सुख-दुःख को समभाव से सहन करने से ही कर्म का क्षय हो सकता है। सुख में हर्ष और दुःख में विषाद इस प्रकार विषमता के परिणाम उन अनगार भगवन्तों के नहीं थे।
इहलोग-परलोग-अप्पडिबद्धा, संसार-पारगामी, कम्म-णिग्घायणट्ठाए अब्भुट्ठिया विहरंति।
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