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________________ भगवान् के अन्तेवासी kuari......................................................... भावार्थ - उस काल और उस समय में श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के अन्तेवासी-शिष्य बहुत-से श्रमण भगवन्त संयम और तप से आत्मा को भावित करते हुए विचरते थे। उनमें से कई उग्रवंश वाले प्रव्रजित-दीक्षित हुए थे, तो कई भोगवंश वाले, राजन्यवंश वाले, ज्ञात या नागवंश वाले, कुरुवंश वाले और क्षत्रियवंश वाले दीक्षित हुए थे। भट, योद्धा, सेनापति, धर्मनीति-शिक्षक, श्रेष्ठिस्वर्णपट्टाङ्कित धनिक इभ्य-हस्ति ढंक जाय इतनी धन राशि वाले धनिक और ऐसे ही और भी बहुत से जन-जिनकी जाति- मातृपक्ष और कुल-पितृपक्ष उत्तम थे, जिनका रूप शरीर का आकार, विनय, विज्ञान. वर्ण-काया की छाया. लावण्य विक्रम सौभाग्य और कान्ति अत्यत्तम थी. जो विपल धनधान्य के संग्रह और परिवार से विकसित (खुशहाल) थे, जिनके यहाँ राजा से प्राप्त पांचों इन्द्रियों के सुख का अतिरेक था, अतः इच्छित भोग भोगते थे और जो सुख से क्रीड़ा करने में मस्त थे-वे विषयसुख को विषवृक्ष-किंपाक के फल के समान समझकर और जीवन को पानी के बुदबुदे के समान तथा कुश के अग्रभाग पर स्थित जलबिन्दु के समान चञ्चल-क्षणिक जानकर इन ऐश्वर्य आदि अध्रुव पदार्थों को कपड़े पर लगी हुई रज के समान झाड़कर-विपुल रूपा, सुवर्ण-घड़ा हुआ सोना, धन-गौ आदि, धान्य, बल चतुरंग सैन्य, वाहन, कोश, कोष्ठागार, राज्य, राष्ट्र, पुर, अन्तःपुर धन-गणिमादि चार तरह के पदार्थ, कनक-बिना घड़ा हुआ सोना, रत्न-कर्केतन आदि, मणि-चन्द्रकान्त आदि, मौक्तिक, शंख शिलाप्रवाल=विद्रुम-मूंगे, पद्मराग आदि पदार्थों को छोड़कर-दीक्षित बन गये। कई को दीक्षित हुए आधा महीना ही हुआ था, कई को महीने, दो महीने, तीन महीने यावत् ग्यारह महीने, एक वर्ष, दो वर्ष और तीन वर्ष हुए थे तो कई को अनेक वर्ष हो गये थे। विवेचन - ....चइत्ता हिरण्णं जाव पव्वइया....' इस सूत्रांश में स्थित 'जाव' शब्द से निम्न लिखित पद.संगृहीत किये गये हैं - "चिच्चा सुव्वण्णं चिच्चा धणं एवं धण्णं बलं वाहणं कोसं कोट्ठागारं रजं रटुं पुरं अंतेउरं, चिच्चा विपुल-धण-कणग-रयण-मणि-मोत्तिअ-संख-सिलप्पवालरत्तरयण माईयं संत-सारसावतेजं विच्छड्डइत्ता विगोवइत्ता, दाणं च दाइयाणं परिभायइत्ता, मुण्डा भवित्ता, अगाराओ अणगारियं-" ____ इनमें से कुछ पदों के अर्थ ऊपर दिये जा चुके हैं। कुछ पदों के अर्थ निम्नलिखित हैं - .......विद्यमान प्रधान द्रव्य को विशेष रूप से छोड़ कर या वमन के समान करके, खुला छोड़कर के या अपना स्वामित्व हटाकर-प्रकट करके या अपने कुटुम्बियों आदि देने योग्य व्यक्तियों को देकरबांटकर और मुंण्ड होकर, अगारी से अनगार बने थे।' "विछड्डइत्ता' पद से विषयभोगों की तरफ तीव्र अरुचि का भाव 'विगोवइत्ता' पद से धन-धान्यादि के प्रति निर्ममत्त्व का भाव और 'परिभायइत्ता' पद से उदारता एवं करुणा का भाव दर्शित होता है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004190
Book TitleUvavaiya Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2005
Total Pages222
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aupapatik
File Size23 MB
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