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कोणिक राजा का परोक्ष वन्दन
विचरते हुए चम्पा नगरी के पूर्णभद्र चैत्य में आने के लिये, चम्पानगरी के उपनगरों में पधारे हैं। यह देवानुप्रिय का प्रीतिकर विषय होने से प्रसन्नता के लिये प्रिय समाचार निवेदन कर रहा हूँ। वह आपके लिये प्रिय बने ।
कोणिक राजा का परोक्ष वन्दन
१२ - तए णं से कूणिए राया भंभसारपुत्ते तस्स पवित्तिवाउयस्स अंतिए एयम सोच्चा णिसम्म हट्ठतुटु-जाव हियए (धाराहय-णीव- सुरभि - कुसुम - चंचुमालइयउच्छिय - रोमकूवे) वियसिय-वर-कमल-णयण - वयणे पयलिय वर- कडग - तुडिय - केऊर-मउड-कुंडल-हार- विरायंत- रइय-वच्छे पालंब - पलंबमाण- घोलंत - भूसण-धरे, ससंभमं तुरियं चवलं णरिंदे सीहासणाउ अब्भुइ । अब्भुट्ठित्ता पायपीढाउ पच्चोरुहइ । पच्योरुहित्ता ( वेरुलिय वरिट्ठ रिट्ठ अंजण विउणोविय - मिसिमिसिंत- मणिरयण मंडियाओ) पाड़याओ ओमुयइ । ओमुइत्ता अवहट्टु पंच-राय- ककुहाई, तं जहाखग्र्ग १, छत्तं २, उप्फेसं ३, वाहणाओ ४, वालवीयणं ५, एगसाडियं उत्तरासंगं करे । करेत्ता आयंते चोक्खे परम सुइभूए अंजलि - मउलियग्ग हत्थे तित्थगराभिमुहे सत्तट्ठ-पयाइं अणुगच्छइ सत्तट्ठ-पयाइं अणुगच्छित्ता वामं जाणुं अंचेइ। वामं जाणुं अंत्ता दाहिणं जाणुं धरणितलंसि साहडु, तिक्खुत्तो मुद्दाणं धरणितलंसि णिवेसे | निवेसेत्ता इसि पच्चण्णमइ । पच्चुण्णमित्ता कडग-तुडिय-थंभियाओ भुयाओ पडिसाहरइ। पंडिसाहरित्ता करयल- जाव कट्टु एवं व्यासी
कठिन शब्दार्थ - ककुहाई राजचिह्न, उप्फेसं मुकुट, वालवीयणं चामर, उत्तरासंगं - उत्तरीयस्य देहे न्यासविषेश :- उत्तरीय अर्थात् दुपट्टे को वायुकाय जीवों की रक्षा के लिये मुख पर लगाना, एगसाडिगं एकशाटिक- अर्थात् बिना सिला हुआ।
भावार्थ - तब भंभसार श्रेणिक राजा का पुत्र कोणिक, उस प्रवृत्ति - निवेदक से यह बात कान से सुनकर हृदय से धारण कर, बहुत प्रसन्न हुआ । श्रेष्ठ कमल के समान नेत्र और मुख विकसित हो गये। भगवान् के आगमन - श्रवण से उत्पन्न हर्षावेश के कारण कङ्कण, तुडिय-हाथ के तोड़े आभूषण, केयूरअंगद, भुजबंध, मुकुट, कुंडल और हार से सुशोभित बना हुआ वक्ष विकसित हो रहा था । लम्बी लटकती हुई माला और हिलते हुए भूषणों के धारक नरेन्द्र ससंभ्रम-आदर सहित जल्दी-जल्दी सिंहासन से उठे । सिंहासन से उठ कर, पादपीठ से चौकी से नीचे उतरे। उतर कर पादुकाएँ खोली । पांच राज चिह्नों को दूर किये, यथा - १. खड्ग २. छत्र ३. मुकुट ४. उपानद् - पगरक्खी, जूते और
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