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________________ सिद्ध-स्तवना १९७ ईसीपब्भाराणंपुढवीसेयाआयंसतलविमलसोल्लियमुणाल-दगरय-तुसारगोक्खीरहारवण्णा उत्ताणयछत्तसंठाणसंठिया सव्वजुण-सुवण्णमई अच्छा सण्हा लण्हा घट्टा मट्टा णीरया णिम्मला णिप्यंका णिक्कंकडच्छाया समरीचिया सुप्पभा पासाईया दरिसणिज्जा अभिरूवा पडिरूवा। भावार्थ - ईषत्प्राग्भारा पृथ्वी, दर्पण के तल समान विमल, सौल्लिय-एक प्रकार फूल संभवतः मुचकुन्द, कमलनाल-मुणाल-मृणाल, जलकण, तुषार, गाय के दूध और हार के समान वर्णवाली-सफेद है। उलटे छत्र के आकार के समान आकार में रही हुई है और अर्जुनस्वर्ण-सफेद सोना मयी है। वह आकाश या स्फटिक-सी स्वच्छ कोमल परमाणुओं के स्कन्ध से निष्पन्न, घुण्टित-घोंटकर चिकनी की हुई-सरिखी, वस्तु के समान तेज शान-से घिसी हुई-सरिखी, सुकुमार शान-से संवारी हुई सरिखी या प्रमानिका से शोधी हुई-सरिखी, रज से रहित, मल से रहित, आर्द्रमल से रहित, अकलङ्क, अनावरण, छाया या अकलङ्क शोभावाली, किरणों से युक्त, सुन्दर प्रभावाली, मन के लिये प्रमोदकारक-प्रासादीय, दर्शनीय-जिसे देखते हुए नयन अघाते न हों ऐसी, अभिरूप-कमनीय और प्रतिरूप-देखने के बाद जिसका दृश्य आँखों के सामने घूमता ही रहे ऐसी है। ईसीपब्भाराएणं पुढवीए सीयाए जोयणमि लोगंते।तस्स जोयणस्स जे से उवरिल्ले गाउए, तस्स णं गाउयस्स जे से उवरिल्ले छब्भागे तत्थ णं सिद्धा भगवंतो सादीया अपज्जवसिया अणेगजाइजरामरणजोणि संसारकलंकलीभाव-पुणब्भवगब्भवासवसहिपवंचसमइक्कंता (अणेगजाइजरामरणजोणिवेयणं संसार-कलंकली भाव-पुणब्भवगब्भवासवसहीपवंचमइक्कंता) सासयमणागयमद्धं चिटुंति॥ भावार्थ - ईषत्प्राग्भारा पृथ्वी के तल से उत्सेधांगुल से एक योजन पर लोकान्त है। उस योजन का जो ऊपर का कोस है, उस कोस का जो ऊपर का छट्ठा भाग है, वहाँ सिद्ध भगवन्त, जन्म, जरा और मरण प्रधान अनेक योनियों की वेदना और संसार में पर्यटन-कलङ्कलीभाव-दुःख की घबराहट से बार-बार उत्पत्ति-गर्भवास में निवास के प्रपञ्च-विस्तार से परे बन कर, शाश्वत अनागत काल में सादि-अनन्त रूप से स्थित रहते हैं। सिद्ध-स्तवना कहिं पडिहया सिद्धा ? कहिं सिद्धा पइट्ठिया ? कहिं बोदिं चइत्ताणं? कत्थ गंतूण सिज्झइ॥१॥ भावार्थ - सिद्ध कहाँ जाकर रुकते हैं ? सिद्ध कहाँ स्थित होते हैं ? और कहाँ देह को त्याग कर, कहाँ जा कर सिद्ध होते हैं ? Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004190
Book TitleUvavaiya Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2005
Total Pages222
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aupapatik
File Size23 MB
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