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उववाइय सुत्त
होति खवा इगिसमये, बोहियबुद्धा य पुरिसवेदा य। उक्कस्सेणट्ठत्तरसयप्पमा सग्गदो य चुदा॥ पत्तेयबुद्धतित्थयरस्थिणंउसयमणोहिणाणजुदा। दसछक्कवीसदसवीसट्ठावीसं जहाकमसो॥ जेट्ठावरबहुमझिम, ओगाहणगा दुचारि अद्वेव। जुगवं हवंति खवगा, उवसमगा अद्धमेदेसिं॥
अर्थ - युगपत्-एक समय में क्षपक श्रेणि वाले जीव अधिक से अधिक होते हैं तो कितने होते हैं ? इसका प्रमाण इस प्रकार है कि बोधित बुद्ध एक सौ आठ, पुरुष वेदी एक सौ आठ, स्वर्ग से च्युत होकर मनुष्य होकर क्षपक श्रेणि मांडने वाले एक सौ आठ, प्रत्येक बुद्ध ऋद्धि के धारक दश, तीर्थंकर । छह, स्त्रीवेदी बीस, नपुंसकवेदी दश, मनःपर्यवज्ञानी बीस, अवधिज्ञानी अट्ठाईस, मुक्त होने के योग्य शरीर की उत्कृष्ट अवगाहना के धारक दो, जघन्य अवगाहना के धारक चार, समस्त अवगाहनाओं की मध्यवर्ती अवगाहना के धारक आठ। ये सब मिलकर चार सौ बत्तीस होते हैं। उपशमश्रेणि वाले इसके : आधे (२१६) होते हैं।
ओगाहणाए सिद्धा, भवत्तिभागेण होइ परिहीणा। संठाणमणित्थंथं, जरामरणविप्पमुक्काणं॥८॥
भावार्थ - सिद्ध अन्तिम भव की अवगाहना से तीसरे भाग जितनी कम अवगाहनां वाले होते हैं। जरा और मरण से बिलकुल मुक्तों का आकार किसी भी लौकिक आकार से नहीं मिलता है-इत्थं-इस प्रकार-थं-स्थित, अणित्यंथं-इस प्रकार के आकारों में नहीं रहा हुआ हो ऐसा।
विवेचन - जीव के न्यग्रोध परिमण्डल आदि छह संस्थान बताये गये हैं। इन छह संस्थानों में से किसी भी संस्थान में रहा हुआ जीव इत्थंस्थ (इस प्रकार का) आकार वाला कहलाता है। सिद्ध भगवन्तों में इन छह संस्थानों में से कोई भी संस्थान नहीं है। इसलिए उनका संस्थान "अन्+इत्थंस्थ-अनित्यंस्थ" कहलाता है जैसा कि वनस्पति का एक प्रकार का संस्थान नहीं होने से उसका संस्थान भी अनित्थंस्थ कहलाता है।
जत्थ य एगो सिद्धो, तत्थ अणंता भवक्खयविमुक्का। अण्णोण्णसमवगाढा, पुट्ठा सव्वे य लोगंते॥९॥
भावार्थ - जहाँ एक सिद्ध है, वहाँ भव के क्षय से विमुक्त, धर्मास्तिकायादिवत् अचिन्त्य परिणामत्व से परस्पर अवगाढ़ अनन्त सिद्ध हैं और सब लोकान्त का अर्थात् लोकाग्र भाग का स्पर्श किये हुए हैं।
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