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________________ वनखण्ड वर्णन १३ और फलों के गुच्छों वाले, जमलिया - यमलित-समान पंक्तिवाले, जुवलिया - युगल रूप में स्थित, मंजरी वडिंसयधरा - मंजरी रूप शिरोभूषण से युक्त। भावार्थ - उनमें कई वृक्ष बारहों मास फूलते थे, कई सदा मंजरियों से लदे रहते थे, कई नित्य पत्रभार से झूके हुए थे, कई हमेशा फूलों के गुच्छों से लदे रहते थे, कई पत्तों के गुच्छों से नित्य शोभित होते थे, कई गुल्मवाले थे, कई समश्रेणि रूप से सदा स्थित थे, कई नित्य युगल रूप से स्थित थे, कई फल-फूलादि के भार से सदा झुके रहते थे, कई सदा झुकने प्रारंभ हुए हों ऐसे स्थित रहते थे और कई इन सभी गुणों से युक्त थे। वे समस्त गुणों के धारक वृक्ष, सुन्दर रूप से बने हुए लुम्बों और मंजरियों के सेहरे (अवतंसक-कलंगियाँ) को सदा धारण किये रहते थे। सुय-बरहिण-मयण-साल-कोइल-कोहंगक-भिंगारक-कोंडलक-जीवंजीवकणंदीमुह-कपिल-पिंगलक्ख-कारंड-चक्कवाय-कलहंस-सारस-अणेग- सउणगणमिहुण-विरइय-सहुण्ण-इय-महुर-सर-णाइए सुरम्मे, संपिंडिय-दरिय-भमर-महुयरिपहकर-परिलित-मत्त-छप्पय-कुसुमासव-लोल-महुर-गुम-गुमंत-गुंजंत-देसभागे, अब्भंतर-पुष्फ-फले-बाहिर-पत्तोच्छण्णे, पत्तेहि यपुष्फेहि यउच्छण्ण-पडिवलिच्छण्णे (साउफले निरोयए अकंटए णाणाविह-गुच्छ-गुम्म-मंडवग-रम्म-सोहिए) रम्मे, विचित्त-सुह-केउभूए वावी-पुक्खरिणी-दीहियासु य सुणिवेसिय-रम्म-जालहरए। कठिन शब्दार्थ - सुय - शुक-तोता, बरहिण - मयूर (मोर), मयणसाल - मदनशाल-मैना, कोइल - कोयल-कोकिल, कोहंगक - पक्षी विशेष, भिंगारक - यह भी पक्षी विशेष, कोंडलक - पक्षी विशेष, जीवंजीवक - चकोर, णंदीमुह - नंदीमुख-पक्षी विशेष, कपिल - तीतर, पिंगलक्ख - बटेर, कारंड- पक्षी विशेष, धक्कवाय - चक्रवाक-चकवा, सउणगण - पक्षियों का समूह, दरिय - दृप्त-उन्नत, महुयरि - मधुकरी-भ्रमरी, पहकर- प्रकर-समूह। . भावार्थ - वह वनखण्ड शुक, मोर, मयणसाल-मैना, कोयल, कोहंगक, भिंगारक, कोंडलक, जीवंजीवक-चकोर, नंदीमुख, कपिल, पिंगलाक्ष, कारंड-बतख, चक्रवाक, कलहंस और सारस आदि अनेक पक्षियों के जोड़े के द्वारा विरचित शब्दों की उन्नति और मधुर स्वरों के आलाप से प्रतिध्वनित रहता था। जिससे उसकी रम्यता बढ़ जाती थी। उन्मत्त भौरे और मधुमक्खियों-महूकरि के समूह एकत्रित होकर, वहीं लीन हो जाते थे और पुष्प-रस के लोभ से, मत्त षट्पद-सभी जाति के भौरे गुनगुन करते हुए, इधर-उधर गुंजन करते रहते थे। वृक्ष भीतर से फल-फूल से युक्त और बाहर से पत्तों से ढंके हुए थे-पत्तों और फूलों से पूरे लदे हुए थे। (उनके फल मीठे थे और वे रोग-रहित निष्कंटक थे। वह वनखण्ड विविध गुच्छ, गुल्मलताकुंज, लतामण्डप आदि के द्वारा रम्य लगता था-शोभा पा रहा था।) वहाँ चौकोण बावडियों Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004190
Book TitleUvavaiya Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2005
Total Pages222
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aupapatik
File Size23 MB
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