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________________ १२ . उववाइय सुत्त पुष्फमंतो फलमंतो बीयमंतो हरियमंतो अणुपुव्व-संज्ञाय-रुइल-वट्टभाव-परिणया, (एक्कखंधा अणेगसाला) अणेग-साह-प्पसाह-विडिमा अणेग-णर-वाम-सुप्पसारिअ-अगेज्झ-घण-विउल-बद्ध-खंधा (पाईणपडिणायय-साला उदीणदाहिणविच्छिण्णा ओणय-नय पणय विप्पहाइय ओलंब पलंब साहप्पसाह-विडिमा अवाईणपत्ता अणुईण्णपत्ता) अच्छिद्दपत्ता अविरलपत्ता अवाईणपत्ता अणईयपत्ता णिभूय-जरढ-पंडु-पत्ता, णव-हरिय-भिसंत-पत्त-भारंधकार-गंभीर-दरिसणिज्जा, उवणिग्गय-णव-तरुण-पत्त-पल्लव-कोमल-उज्जल-चलंत-किस-लय-सुकुमालपवाल-सोहिय-वरंकुरग्ग-सिहरा। कठिन शब्दार्थ - विडिमा - ऊपर की तरफ गई हुई शाखा, घण - सान्द्र-सघन, णिभूयःगिर गया, जरढ - पुराने, पंडु - पीले, भिसंत - चमकते हुए। भावार्थ - उस वन के वृक्ष मूल-जड़े, कंद-जड़ों का ऊपरी हिस्सा जहाँ फूटकर जड़े फैलती हैंथड़ के नीचे का भाग, स्कंध, छाल, शाखा, प्रवाल-पत्तों की अंकुरित अवस्था, पत्र पुष्प, फल और बीज से सम्पन्न थे। वे क्रमशः उत्तम ढंग से बढ़े हुए थे, सुन्दर थे और गोलाई में परिणत हो गये थे। (एक थड़ और अनेक शाखाएँ थी) अनेक शाखा-प्रशाखाओं के द्वारा मध्य भाग वाले या विस्तृत बने हुए थे। अनेक व्यक्तियों की पसारी हुई भुजाओं से भी न पकड़े जा सके ऐसे (उनके) सघन और मोटे बने हुए थड़ थे। उनके पत्ते छिद्र रहित घने - एक-दूसरे पर छाये हुए, अधोमुख और ईति-स्वजातीय या विजातीय तत्त्वों से होने वाली हानि और चूहे, टिड्डी आदि क्षुद्र जंतुओं के उपद्रव से रहित थे। उनके पुराने-जर्जर पीले पत्ते खिर जाते थे। हरे चमकते हुए नये पत्तों के भार से, वहाँ अंधेरा छाया हुआ रहता था और गंभीरता दिखाई देती थी। वे वृक्ष ताजे-ताजे नये पुष्ट पत्तों, कोमल, उज्ज्वल और हिलते हुए किशलयों-अपक्व पत्तों और प्रवाल-ताम्बे के से रंगवाले निकलते हुए कोमल पत्तों से शोभित, श्रेष्ठ अंकुर रूप शिखर को धारण किये हुए थे। णिच्चं कुसुमिया, णिच्चं मऊरिया, णिच्चं पल्लविया, णिच्चं माइया, णिच्चं लवइया, णिच्चं थवइया, णिच्चं गुलइया, णिच्चं गोच्छिंया, णिच्चं जमलिया, णिच्चं जुवलिया, णिच्चं विणमिया, णिच्चं पणमिया, णिच्चं कुसुमिय-माइयलवइय-थवइय-गुलइय-गोच्छिय-जमलिय-जुवलिय-विणमिय-पणमिय-सुविभत्तपिंड-मंजरि-वडिंसयधरा। ___ कठिन शब्दार्थ-कुसुमिया - कुसुमित-फूल वाले, मऊरिया- मयूरित-मंजरी वाले, पल्लविया - पत्तों से युक्त, थवइया - स्तबकित-गुच्छों वाला, मुलइया - गुलल्मित-गांठ वाले, गोच्छिया - फूल Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004190
Book TitleUvavaiya Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2005
Total Pages222
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aupapatik
File Size23 MB
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