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निर्ग्रन्थों का तप
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आयम्बिल इसके बाद एक चतुर्थ-उपवास। दो आयम्बिल, चतुर्थ। इस प्रकार क्रमशः एक-एक आयम्बिल को बढ़ाते हुए सौ आयम्बिल तक पहुँचना। आयम्बिल के बीच उपवास करने से एक सौ उपवास हो जाते हैं। इस प्रकार इस तप में ५०-५० आयम्बिल और १०० उपवास होते हैं। कुल १४ वर्ष, ३ महीने और २० दिन में यह तप पूरा होता है।
' मासियं भिक्खुपडिमं, एवं दोमासियं पडिमं, तिमासियं। भिक्खुपडिमं, जाव सत्तमासियं भिक्खु-पडिमं पडिवण्णा॥
भावार्थ - कई निर्ग्रन्थ मासिकी भिक्षुप्रतिमा (एक महीने की साधु की प्रतिज्ञा विशेष) इसी प्रकार द्विमासिकी, त्रिंमासिकी यावत् सप्तमासिकी भिक्षुप्रतिमा के धारक थे। ये सातों प्रतिमायें एक-एक मास की होती हैं। सिर्फ नाम द्विमासिकी, त्रिमासिकी दिया गया है। . विवेचन - मासिकी भिक्षु प्रतिमा - एक महीने तक एक दत्ति आहार और एक दत्ति पानी ग्रहण करने की प्रतिज्ञा।
इसी प्रकार द्विमासिकी से सप्तमासिकी भिक्षुप्रतिमा में क्रमशः २, ३, ४, ५, ६ और ७ दत्ति आहार और ७ दत्ति पानी की ग्रहण करने की प्रतिज्ञा की जाती है। अर्थात् इतनी दत्ति तक आहार पानी लिया जा सकता है। किन्तु इतने दत्ति से कम ले तो कोई बाधा नहीं है। __ अप्पेगइया पढमं सत्त-राइंदियं भिक्खुपडिमं पडिवण्णा, जाव तच्चं सत्त-राइंदियं भिक्खुपडिमं पडिवण्णा।
भावार्थ - कई निर्ग्रन्थ प्रथम सप्त रात्रिंदिवा भिक्षुप्रतिमा के धारक थे, यावत् तीसरी सप्त रात्रिन्दिवा भिक्षुप्रतिमा के धारक थे। - विवेचन - आठवी, नववीं और दसवीं इन तीन प्रतिमाओं का कालमान सात-सात दिन का है। अतः क्रमश: प्रथमा, द्वितीया और तृतीया उनकी नाम संज्ञा दी गई है।
प्रथमा सप्त राइन्दिवा भिक्षु प्रतिमा - सात दिन तक एकान्तर उपवास। उपवास में चारों आहार का त्याग करना और ये तीन प्रकार के आसन करना। यथा उत्तानक-चित्त लेटना या पार्श्वशायी-बगल से लेटना या निषद्योपगत होकर-पालठी लगाकर ग्रामादि से बाहर रहना। . द्वितीया सप्त रात्रिन्दिवा भिक्षु प्रतिमा - सात दिन तक एकान्तर उपवास तप करना और ये तीन प्रकार के आसन करना- उत्कुटुक-दोनों पञ्जों के बल, घुटने खड़े रख कर बैठना या लगण्डशायीसिर्फ सिर और एडियों का ही पृथ्वी पर स्पर्श हो, इस प्रकार पीठ के बल लेटना या दण्डायत (सीधे डण्डे की तरह लेटना) होकर ग्रामादि से बाहर रहना। .. तृतीया सप्त रात्रिन्दिवा भिक्षु प्रतिमा - सात दिन तक एकान्तर उपवास तप करना और ये तीन प्रकार के आसन करना- ग्रामादि से बाहर गोदूहासन-गाय दूहने की स्थिति में बैठना या वीरासन-वीर पुरुष के बैठने के ढंग से बैठना अर्थात् कुर्सी पर बैठे हुए पुरुष के नीचे से कुर्सी निकाल लेने पर जो
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